Magazine - Year 1971 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
उपभोगार्थी-उपयोगार्थी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सुवर्णजात प्रतिदिन सहस्र मुद्राओं का दान करते थे, कोई भी याचक उनके पास से निराश, खाली हाथ नहीं लौटता था। तो भी यह रहस्य ही था कि सुवर्णजात के एक निजी सेवक अनुरथ ने कभी कुछ माँगा तो सुवर्णजात एक ही नपा-तुला उत्तर देते—"तुम्हें जब भी कुछ देने के लिए हाथ बढ़ाता हूँ तो सूर्य देवता हाथ पकड़ लेते हैं, क्या करूँ, विवश हूँ।" अनुरथ जड़बुद्धि नहीं था, वह निरन्तर अवसर की प्रतीक्षा में रहने लगा। एक बार सूर्य ग्रहण पड़ा। अनुरथ उस समय स्वामी के समीप ही था। ग्रहण प्रारंभ होते ही उसने कहा—"स्वामी इस समय तो सूर्य को राहू ने पकड़ लिया है। अब तो वे रोक नहीं सकते, अब तो कुछ दीजिए। सुवर्णजात पकड़ में आ गए, इनकार नहीं कर सके। उन्होंने अपने सेवक को बहुत-सा धन और स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया।
अनुरथ के मन की दमित इच्छाएँ, जो धन के अभाव से प्रसुप्त पड़ी थीं, एकाएक भड़क उठीं। अब तक जहाँ उसका संयमित जीवन बीत रहा था, अब भोग -विलास का भूत उस पर चढ़ बैठा। मकान बनाने से लेकर विवाह करने तक की जो महत्त्वाकांक्षाएँ तत्काल पूर्ण हो सकती थीं, अनुरथ ने पूरी कर लीं और देखते-देखते न केवल सारा धन स्वाहा कर लिया, अपितु अनेक रोग और दुर्बलताएँ भी उसने पैदा कर लीं।
जब तक धन रहा,काम की कौन पूछता, निदान धंधा भी उसने छोड़ दिया था। अब, जब पास कुछ न बचा तो फिर सुवर्णजात के पास गया और काम पर रखने की याचना करने लगा। सुवर्णजात ने उत्तर दिया—"तात ! रिक्त स्थान की पूर्ति कर ली गई। अब उस सेवक को हटाना नीति विरुद्ध है; अतएव उसे हटाकर तुम्हें काम पर रखना तो असंभव है; अलबत्ता तुम्हें उपाय बता सकता हूँ। तुम “श्री” बीज लगाकर यदि भगवती लक्ष्मी की उपासना करो तो उनसे तुम्हें अवश्य ही धन प्राप्त हो सकता है।" अनुरथ उस दिन से देवी की उपासना करने लगा।
भगवती लक्ष्मी प्रसन्न हुईं और वर माँगने को कहने लगीं।अनुरथ ने उन्हें अपने घर चलने का आग्रह किया। लक्ष्मी जी बोलीं—"वत्स ! घर जाकर कुछ काम करो। उद्यम उद्योग जुटा तो मैं स्वतः तेरे पास आ जाऊँगी, किन्तु भोग वृत्ति में आसक्त अनुरथ के पास इतना समय कहाँ था। वह लक्ष्मी जी से ही हठ करता रहा। लक्ष्मी जी बोली—"अच्छा तो तुम पहले भोगीलाल और उद्योगीलाल के पास जाकर देख आओ दोनों में से किसकी लक्ष्मी तुम्हें पसंद है, वही मैं तुम्हें दे दूँगी।"
अनुरथ ने क्रम-क्रम से जाकर दोनों स्थान देखे। भोगीलाल के पास धन संपत्ति तो बहुत थी। उसका वह मनमाना उपभोग भी करता था, पर अपनी भोगदृष्टि के कारण उसने अपना स्वास्थ्य चौपट कर लिया था। घर पर दिनभर लड़कों में कलह मची रहती थी। 'कर' को लेकर आए दिन राजकीय कर्मचारी उसे सताते रहते। बेचारा तीन रोटी खाता और मुश्किल से तीन घंटे सो पाता। सारा जीवन आतंक, भय, चिन्ता, निराशा और व्याधियों से ग्रस्त। उधर उद्योगीलाल के पास जाकर देखा तो उनका कारोबार खूब फैल रहा था। घरवाले खूब अच्छा खाते भी थे, पहनते भी अच्छा थे, पर परिश्रम भी उतना ही करते थे; फलतः स्वस्थ भी थे, प्रसन्न भी। हाँ उसे कल के लिए मुश्किल से ही बचता था।
वापस लौटकर अनुरथ ने देवी से कहा—"भगवती ! अब मुझे धन नहीं चाहिए। सारा मर्म समझ लिया। धन का यथार्थ लाभ लोभ में नहीं, उसका सदुपयोग करने में है।
धन का उपयोग वही करता है, जो नीति और परिश्रमपूर्वक अपनी कमाई आप करता है।
इसलिए अब मुझे वरदान का धन नहीं चाहिए, आवश्यकतानुसार आप ही पैदा कर लूँगा।"