Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात
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गुरुदेव के जीवन दर्शन की चर्चा,उनकी स्तुति प्रशस्ति के लिए नहीं, वरन् इसलिए करनी पड़ रही है कि उसे आधुनिक परिस्थितियों में आत्म विकास का सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित और प्रत्यक्ष शास्त्र कहा जा सकता है। वे भेजे ही इसलिए गए कि विडंंबना और भ्रम से भरे हुए आज के तथाकथित अध्यात्म की निरर्थकता ने जनमानस में जो अश्रद्धा और अविश्वास का वातावरण प्रस्तुत कर दिया है, उसका निराकरण किया जा सके।आत्मशोधन की तपश्चर्या से अपना उद्धार आप करने के राजमार्ग को छोड़कर जो स्वल्पकाल में स्वल्पश्रम से अपरिमित लाभ पाने के लिये अधीर हो उठे हैं और ऐसे जादू भरे तंत्र-मंत्र ढूंढ़ते हैं, जिनके आधार पर वे मनचाहे लाभ प्राप्त कर सकें, उन्हें यह नोट कर लेना चाहिए कि बहुमूल्य वस्तुएँ उचित मूल्य चुकाने पर ही मिलती हैं। असली हीरे की अँगूठी दस पैसे की नहीं मिलती। यदि मिलती हो तो समझना चाहिए कि नकली है और बेचे जाने पर उसकी एक पाई भी वसूल न होगी। जादू की तरह तुर्त-फुर्त चमत्कार दिखा सकें, ऐसे कर्मकांडों की तलाश में भटकने वाले लोगों को गुरुदेव यह बताना चाहते हैं कि सिद्धियों और विभूतियों का गरिमा और महिमा का राजमार्ग आत्मशोधन और आत्म निर्माण की चाल से चले बिना पूरा नहीं हो सकता। कोई सीधी पगडंडी ऐसी नहीं है, जो देवता, मंत्र, गुरु या संप्रदाय का पल्ला पकड़ने से सहज ही परम लक्ष्य तक पहुँचा जा सके। अध्यात्म एक क्रमबद्ध विज्ञान है जिसका सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति उसी तरह लाभान्वित हो सकता है जिस तरह कि बिजली, भाप, आग आदि की शक्तियों का विधिवत् प्रयोग, करके अभीष्ट प्रयोजन पूरा किया जाता है।समझा जाता है कि किसी समर्थ मार्गदर्शक, देवता या मंत्र की कृपा से अद्भुत शक्तियाँ मिलती हैं और साधना से चमत्कारी आत्मिक प्रगति का अवसर मिल जाता है। यदि यह तथ्य सच हो तो भी उसके मूल में व्यक्ति की पात्रता वाली शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है। गुरुदेव ने उसी गायत्री मंत्र की उपासना की, जिसे संध्यावंदन के समय आमतौर से सभी धर्मप्रेमी हिंदू जपा करते हैं। उनका भी इष्ट वही सविता देवता था जिसे उपासना करने वाले सामान्य तथा नित्य ही जल चढ़ाते और प्रणाम करते हैं। समर्थगुरु उन्हें मिले पर ऐसे सिद्ध पुरुषों से यह पृथ्वी रहित नहीं है। और यह भी निश्चित है कि उनका द्वार सभी के लिए खुला पड़ा है। बादल सर्वत्र बरसते रहते हैं। तालाब लाखों मन पानी जमा कर लेते हैं पर पत्थर की चट्टान पर एक बूँद भी नहीं ठहरता। सूर्य सबके लिये गर्मी, रोशनी लेकर उदय होता है, पर जिसने अपनी खिड़की, दरवाजे बंद कर रखें हैं, उसे कुछ लाभ सूर्य देवता भी नहीं पहुँचा पाते। मंत्र और देवताओं में कोई शक्ति न हो—साधना-उपासना का कोई परिणाम न निकलता हो, सो बात नहीं है। प्रश्न पात्रता का है। अधिकारी के पास उपयुक्त साधन अनायास ही खिंचते चले आते हैं। फूल के पास कितनी मधुमक्खी और भौंरे बिना बुलाए ही मंडराने लगते हैं। चुम्बक अपने समीपवर्ती लोह-कणों को सहज ही खींच लेता है। साधक की पात्रता में ही चमत्कार भरा रहता है, जिसके आधार पर मंत्रदेवता और सहायक को सहज ही द्रवित होकर अभीष्ट सामर्थ्य प्रदान करने का वरदान देना पड़ता है।गुरुदेव गायत्री महामंत्र के माध्यम से ऋतंभरा प्रज्ञा और ब्रह्मवर्चस्व की साधना करते थे। इन तत्वों को वे आत्मदेवता में ही समाविष्ट मानते थे। कहते थे निकट तपोवन अपना अन्तःकरण ही है, यहीं एक ब्रह्मचेतना में तादात्म्य स्थापित करने का जो प्रयत्न किया जाता है वही सच्ची साधना है। विश्वव्यापी देवसत्ता का प्रतिनिधित्व अपनी अन्तःचेतना करती है सो उसे ही मना लिया जाए, उठा लिया जाए, तो फिर इस संसार की कोई ऐसी वस्तु शेष नहीं रह जाती जो प्राप्त न की जा सके। ईश्वर के राजकुमार मनुष्य के लिए अपने पिता की हर संपदा का अधिकार सहज ही प्राप्त है। पात्रता के उपयोग के प्रयोजन की उत्कृष्टता सिद्ध करके कोई भी विभूतियों के भंडार में से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। ऐसा उनका विश्वास था, ऐसा ही कहते मानते रहते थे। गुरुदेव की साधना-पद्धति को जितना मैंने देखा-समझा, इतना अवसर शायद ही और किसी को मिला हो। 24 वर्ष तक हर वर्ष 24 लक्ष का गायत्री महापुरश्चरण वे करते रहे। सर्वसाधारण को इस संदर्भ में इतनी भर जानकारी है कि प्रतिदिन छः घंटा बैठकर वे 11 माला प्रति घंटा के हिसाब से 66 माला का गायत्री जप करते थे। परम सात्विक पाँच मुट्ठी आहार पर निर्भर रहते तथा अनुष्ठानकाल में प्रयुक्त होने वाले बंधन प्रतिबंधों का कठोरता से पालन करते थे। वस्तुतः यह तो उनकी स्थूल और दृश्य साधना थी। जितना देखा जा सके मोटे तौर से उतना ही तो समझा जा सकता है। उनका बाह्य-उपासना में इतना ही दीखता था, सो समझने वाले उतना ही समझ सकते थे। पर वस्तुतः उनकी साधना इन क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं थी, वरन् काया के कर्मकाण्डात्मक क्रियाकलापों से बहुत आगे बढ़कर मन और प्राण की सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर की परिधि प्रवेश कर गई थी।गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोश जागरण, अनावरण की विधि-व्यवस्था है। इसका कर्मकांड और विधि- विधान तो समयानुसार गुरुदेव स्वयं ही बता देंगे पर उनकी अतिनिकिटवर्ती सहचरी होने के कारण मैं इतना ही कह सकती हूँ कि अपनी पाँचों इन्द्रियों और पांचों मनः संस्थानों का परिष्कार करने में उन्होंने अथक परिश्रम किया था और निरन्तर यह प्रयत्न किया था कि इन दसों देवताओं को विनाश के मार्ग पर एक इंच भी न गिरने दिया जाए, वरन् उन्हें पवित्रता और प्रखरता के पथ पर ही अग्रसर रखा जाए। इस प्रकार अन्तरंग की देव शक्तियों को परिमार्जित कर उन्होंने देवता, मंत्र और गुरु का अनुग्रह प्राप्त किया और उन पाँच शक्तिकोशों को जागृत करने में सफल हो गए, जिन्हें अनेक अद्भुत ऋद्धि सिद्धियों का केन्द्र माना जाता है।आत्मशोधन, आत्मनिर्माण, इंद्रियनिग्रह और मनोजय के साथ जुड़ी हुई अपनी उच्चस्तरीय गायत्री साधना के माध्यम से आत्मदेव को सजग बनाकर गुरुदेव ने क्या पाया, इसकी अविज्ञात उपलब्धियाँ इतनी अधिक और इतनी अद्भुत हैं कि उनपर सहसा किसी को विश्वास नहीं हो सकता। अस्तु जिन्हें आज प्रमाणित न किया जा सके, उनपर अभी पर्दा पड़ा रहना ही उचित है। समय आने पर वे आज के अविज्ञात तथ्य कल विज्ञात और प्रमाणित होंगे तब यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी कि इस संसार का—इस मानव का सर्वोपरि पुरुषार्थ एवं साफल्य आत्मसाधना के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। अभी तो उन सर्वविदित विशेषताओं को दुहरा देना ही पर्याप्त होगा जो सिद्धियों की दृष्टि से आकर्षक ही नहीं अद्भुत भी हैं।गुरुदेव के निकट संपर्क में आने वाले इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि वे एक शरीर रहते हुए भी पाँच शरीरों जितना—भिन्न-भिन्न प्रकार के पाँच कार्यों का संपादन एक साथ ही करते रहते थे। यह सब कैसे हो पाता था, इस रहस्य का पता लगाने वाले एक व्यक्ति को दस घंटे कठोर श्रम का अधिक से अधिक हिसाब लगाने पर यही कहकर चुप होना पड़ा कि इतना काम पाँच शरीरों, पाँच व्यक्तियों द्वारा ही किया जा सकना संभव है। एक व्यक्ति एक शरीर से तो इतना काम कभी भी नहीं कर सकता।(1) जब बाहर रहना पड़े, तब की बात अलग, साधारणतया घर पर जब भी वे रहते थे, छह घण्टा प्रतिदिन उपासना किया करते थे। यह आत्मिक श्रम एक व्यक्ति को पूरी तरह थका देने के लिए पर्याप्त है। शारीरिक श्रम आठ घंटे, मानसिक श्रम सात घंटे और आत्मिक श्रम छह घंटे ही हो सकता है। छह घंटे की उपासना एक व्यक्ति को पूरे दिन थका देने वाली मेहनत के बराबर ही गिनी जानी चाहिये।(2) औसतन उनके पास देश विदेश के प्रायः 500 पत्र आते थे। जिनमें से कितने ही काफी लंबे और जटिल समस्याओं से भरे रहते थे। इन सबको वे स्वयं खोलते थे। 400 के उत्तर कार्यकर्ताओं को उत्तर नोट कराते हुए लिखाते थे। 100 के लगभग ऐसे होते थे, जो उन्हें स्वयं ही लिखने पड़ते थे। दूसरों को बताकर इतनी जटिल समस्याओं के समाधान लिखाए भी नहीं जा सकते थे। फिर उनमें से कितने ही नितांत गोपनीय भी होते थे। बड़े दफ्तरों में जहाँ पत्र खोले और उत्तर दिए जाने का ही काम होता है, हिसाब लगाया जाए तो यह काम 10 क्लर्कों का है। अत्यंत मुस्तैदी से करने पर भी कोई एक व्यक्ति 10 घंटे से कम में नहीं निपटा सकता। गुरुदेव की आदत थी कि वे किसी भी पत्र को 24 घंटे से अधिक बिना उत्तर का रोकते न थे। देश-विदेश में अगणित लोगों को अतिमहत्वपूर्ण मार्गदर्शन, प्रकाश एवं समाधान देने के लिए विशाल परिवार का संगठन और संबंध बनाए रहने के लिये यह आवश्यक भी था। देखने वाले और लेखा-जोखा लेने वाले यह जानकर चकित रह जाते थे कि किस प्रकार एकाकी इतना काम वे इस वृद्धावस्था में भी निपटा लेते थे।(3) इतने ग्रंथों का लेखन उनका अद्भुत कार्य है। 20 वर्षों में जो उनने लिखा है, उसका वजन लगभग उनके शरीर की तौल के बराबर है। आर्ष ग्रंथों का आदि से अंत तक अनुवाद, नवनिर्माण के संदर्भ में लिखी गई लगभग 400 पुस्तकें, 100 विज्ञप्तियाँ और भी न जाने कितना क्या-क्या लिखा है, जो लिखा है, वह इतना गंभीर और महत्त्वपूर्ण है कि उसके लिए जो लिखा गया है, उससे सौ गुना अधिक पढ़ने की आवश्यकता पड़ी है। यह पढ़ने-लिखने का काम इतना बड़ा है कि एक व्यक्ति पूरे २४ घंटे सारे जीवन भर यही करता रहे तो भी तुलना नहीं हो सकती। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि यह कार्य एक व्यक्ति के पूरे समय और श्रम से कम नहीं है।(4) व्यक्तिगत संपर्क, शिक्षण और सहायता प्राप्त करने मार्गदर्शन परामर्श के लिए नित्य सैकड़ों व्यक्ति उन्हें निरंतर घेरे रहते थे। प्रातः छह बजे से लेकर रात को 8 बजे तक 10 घंटे में से केवल एक घंटा ही मध्याह्न भोजनविश्राम का बचता था, बाकी 9 घंटे उनके आस-पास जमात जुड़ी ही रहती थी। सम्पूर्ण भारत ही नहीं, विदेशों तक से, कष्टपीड़ितों से लेकर नवनिर्माण योजना में संलग्न कर्मठ कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, दार्शनिकों, विद्वानों और साधकों की भारी भीड़ में वे सदा ही घिरे रहते थे। इतना किए बिना इस विश्वव्यापी महाभियान को गति प्रदान कर सकना, संभव भी नहीं था, जिसके लिये वे जन्मे और जिए थे। (5) पाँचवाँ कार्य उनका प्रचारकार्य और जनसंपर्क था। उपलब्ध सूचनाओं से यही प्रमाणित होता है कि प्रायः पूरे वर्ष उन्हें बाहर रहना पड़ता होगा। अन्यथा इतने सम्मेलनों—आयोजनों, गोष्ठियों, व्यक्तिगत परामर्शों तथा शोधसंपर्क के लिए महत्त्वपूर्ण प्रवासों की बात बन ही कैसे पाती। विगत 20 वर्षों में से एक भी दिन ऐसा नहीं मिलेगा,जबकि उनके बाहर रहने की सूचना उपलब्ध न की जा सके। यह पाँचों ही कार्य उनके अनवरत रूप से चलते रहे। इनमें से प्रत्येक कार्य का विवरण इतना विस्तृत है कि उसे वर्ष के पूरे 365 दिन−दिन लगाए बिना निपटाया ही नहीं जा सकता। किसी भी दृष्टि से हिसाब लगा लिया जाए, किसी भी कसौटी पर परख लिया जाए, पाँचों प्रकार का प्रत्येक कार्य उनके निज के द्वारा ही संपन्न किया हुआ मिलेगा। और उनमें से प्रत्येक उतना है, जो पूरे शरीर से समग्र तत्परता के साथ पूरे वर्ष में ही निपटाया जा सकता है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि वे एक दीखते हुए भी पाँच थे। गायत्री माता के पाँच मुख और दस भुजाएँ कहे-बताये भर जाते हैं, पर उसके अनन्य उपासक ने प्रत्यक्ष करके दिखा दिया कि एक शरीर से पाँच गुनी स्तर की क्रियाशक्ति कैसे संभव हो सकती है। इसके अतिरिक्त अभी उन रहस्यों पर पर्दा ही पड़ा रहना चाहिए,जो इतनी अद्भुत हैं कि उन पर सहसा विश्वास करना किसी के लिए भी कठिन होगा। पर हैं वे अक्षरशः सत्य। समय आने पर उनका भी सप्रमाण उद्घाटन सर्वसाधारण के समक्ष होकर रहेगा। यह चर्चा इसलिए करनी पड़ी कि गुरुदेव, मात्र व्यक्ति न थे, एक सजीव प्रयोगशाला के रूप में अध्यात्म विद्या की समर्थता और सार्थकता प्रमाणित करने आए थे और उनके प्रयोगों से सर्वसाधारण को परिचित होना ही चाहिए। निंदा,स्तुति से वे बहुत ऊँचे उठे हुए थे। इन दोनों को उन्होंने समान समझा और लोग क्या कहते हैं,इस पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। वे अपने अन्तःकरण के अतिरिक्त और किसी को अपनी गतिविधियों की समीक्षा कर सकने लायक मानते ही न थे। ऐसे वीत राग की कोई क्यों प्रशंसा स्तुति करे और उससे क्या प्रयोजन सोचे ? फिर जबकि वे आँख से ओझल हैं तो उन पर इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है। चर्चा तथ्यों पर प्रकाश डालने की दृष्टि से की गई और यह प्रकट करने का प्रयत्न किया गया है कि व्यक्ति सचमुच ही ईश्वर का राजकुमार, युवराज है। सचमुच ही पिंड में ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियाँ बीज रूप में विद्यमान हैं और साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा उन्हें उठाया जा सकता है। पाने लायक जो कुछ इस संसार में है, उसे आत्मदेव को जगाकर सहज ही पाया जा सकता है। गुरुदेव कहते थे पाँच ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति को समझना और उनका सदुपयोग कर सकना ऐसा प्रयोग है, जिसके द्वारा अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोशों को जगाया जा सकता है और उनके सहारे समर्थ सिद्ध पुरुष जैसा लाभ उठाया जा सकता है। वे यह भी कहते थे कि मन बुद्धि चित्त अहंकार और प्राण की पंचधा सूक्ष्म काया स्थूल शरीर से भी असंख्य गुनी सामर्थ्यवान है। वृहदारण्यक में एक उपाख्यान आता है—देवताओं ने वाणी से कहा —"आप हमारे उत्कर्ष का माध्यम बनिए।" सत्यव्रती वाणी ने वरदान दिया और देवता शक्तिशाली हो गए। असुरों ने सोचा इस तरह तो देवता हमें जीत लेंगे। उन्होंने देववाणी को पापविद्ध कर दिया, वह उचित-अनुचित कुछ भी बोलने लगी; फलतः देवताओं का वह अस्त्र निष्फल हो गया। तब देवताओं ने घ्राण-इन्द्रिय से कहा — "तुम हमारी सहायता करो।" श्रेष्ठ ग्राही घ्राण ने देवों की सहायता की और वे बढ़ चले। तब असुरों ने गिराने के लिए घ्राण को पापविद्ध कर दिया और वह शुभ-अशुभ किसी भी गंध को ग्रहण करने लगी; फलतः वह अस्त्र भी निष्फल हो गया और देव गिरने लगे। तब देवता चक्षु के पास गए और उनसे सफलता की प्रार्थना की। श्रेयदर्शन का व्रत धारण किए हुए चक्षु देवताओं को समुन्नत करने लगे। तब कुटिल असुरों ने उन्हें भी पापविद्ध कर दिया। और वे उचित-अनुचित कुछ भी देखने लगे; फलतः उनकी शक्ति भी नष्ट हो गई और देव हतप्रभ हो गए। इसी प्रकार कानों को असुरों ने पापविद्ध किया और वे भी असहाय हो गये। उसी प्रकार मन ने देवताओं की सहायता की पर पापविद्ध होने पर वह भी असहाय हो गया। अन्ततः दु:खी देवताओं ने प्राण का आश्रय लिया और असुर उसे पापविद्ध न कर सके, अस्तु देव विजयी हुए और असुर हार गए। उपनिषद्कार ने प्रतिपादन किया है कि जो इस प्राण की रक्षा करता है, वह कभी नहीं हारता और मृत्युंजय बन जाता है।
कथानक में इसका उद्घाटन किया गया है कि इंद्रियाँ देवशक्तियों से ओत-प्रोत हैं। यदि उन्हें पाप कर्मों में निरत न होने दिया जाए, और वे केवल कल्याण को ही ग्रहण करें और श्रेयपथ पर ही चलें तो उनमें सन्निहित शक्ति भंडार के सदुपयोग से मनुष्य जीवन-संग्राम के हर मोर्चे पर विजयी हो सकता है। पर यदि इंद्रियाँ असंयमी, उच्छृंखल और कुमार्गगामी हो जाएँ तो फिर देव जैसे वैभववानों को भी पराजय का मुँह देखना पड़ेगा। जिसका प्राण प्रबल है—संकल्प अडिग है,वही पापविद्ध किए जाने के असुर षडयंत्र को विफल कर सकता है और पराभव की हर आशंका को निरस्त करते हुए अजर-अमर मृत्युंजय बन जाता है। लगता है गुरुदेव ने इस कथानक का मर्म अपने जीवनक्रम में उतार लिया। इन्द्रियों से परिचारिका जैसा काम लेते रहे। दूसरों की तरह उच्छृंखल न होने देने के लिए सदा सजग रहे। अभक्ष उन्होंने खाया नहीं—अनीति का अन्न कभी गले से नीचे नहीं उतरने दिया। साधनाकाल में ५ मुट्ठी जौ का आटा और ५ पाव छाछ दैनिक आहार पर निर्वाह करते रहे, इसके पश्चात भी न उन्होंने स्वाद को आगे आने दिया न अनीति उपार्जित अभक्ष के लिए मुँह खोला। क्षुधा बुझाने के लिए औषधिरूपी अन्न के अतिरिक्त स्वाद के सम्बन्ध में कभी सोचा तक नहीं। वाणी से असत्य बोलने और छल करने की आवश्यकता ही कभी नहीं पड़ी। न किसी को कुमार्ग पर चलाया न किसी का जी दुखाया। ऐसी निष्पाप और निर्मल जिह्वा पर सरस्वती ही विराजमान रह सकती थीं सो रही थीं, उनके आशीर्वाद निष्फल नहीं गये न कभी परामर्श टाले गये। इस वाक् पवित्रता ने उनका अन्नमय कोश जागृत करने में भारी सहायता की। तद्विषयक उपासना का कर्मकांड तो उपकरण एवं निमित्तमात्र था। वे सदा सर्वत्र सद्भावना और श्रेष्ठता की गन्ध सूँघते रहे। किसी की दुर्भाव दुर्गन्ध उन्होंने कभी ग्रहण की ही नहीं। निंदकों से कभी बुरा न माना, वरन् उन्हें साबुन का प्रयोजन पूरा करने वाला हितैषी मानकर दुलारा। दुर्जनों में भी सज्जनता ढूँढ़ी और हर भले-बुरे में ईश्वर का अंश विद्यमान देखते हुए उसे स्वच्छ और सुन्दर बनाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करते रहे। घ्राण देवता को उन्होंने पापविद्ध नहीं होने दिया फलतः वह उन्हें साधन-समर में विजयी ही बनाता रहा और उसने मनोमय कोश की जागरण-प्रक्रिया को सरल बनाने में भारी सहायता पहुँचाई।
आँखों से उन्होंने श्रेय ही देखा। नारी के प्रति माता, पुत्री और भगिनी की ही दृष्टि रही। हम पति-पत्नी होते हुए भी सहोदर भाई की तरह पवित्रतापूर्वक जिए। लोक -शिक्षण के लिए बालक उत्पन्न करने पड़े तो वह कार्य भी धर्मकृत्य की भावना से ही संपन्न हुआ। विकारों को तब भी मन में नहीं उठने दिया। जो पढ़ा वह मंगलमय के अतिरिक्त और कुछ न था। श्रेय को ढूँढ़ने और प्राप्त करने में ही चर्मचक्षुओं को तथा विवेक चक्षुओं को समान रूप से नियोजित किए रहे। गांधारी की पवित्र दृष्टि ने दुर्योधन का शरीर वज्र जैसा बना दिया था। दमयंती के रोषपूर्ण दृष्टि पात से व्याध जलकर भस्म हो गया था। संजय ने दिव्यदृष्टि से देखकर महाभारत का सारा वृत्तांत धृतराष्ट्र को सुनाया था। आचार्य जी ने दृष्टि को पवित्र रखकर वे समस्त विशेषताएँ उत्पन्न कर लीं थीं। जिसकी ओर उन्होंने भावभरी दृष्टि से देखा वह निहाल होता चला गया। ऐसे दिव्य चक्षुओं से ही अर्जुन ने भगवान के विराट् रूप को देखा था। चक्षु देवता को जिसने सिद्ध कर लिया, उसके लिए प्राणमय कोश में सन्निहित सिद्धियाँ करतलगत ही समझी जानी चाहिए। गुरुदेव ने आज्ञाचक्र को जागृत करने की, प्राण में प्रखरता लाने की, क्रिया-प्रक्रिया की जरूर है, पर उनमें जो खाद्य-पानी लगा, वह नेत्रों को पवित्रव्रती बनाए रखने और असुरता द्वारा उन्हें पापविद्ध होने न देना ही सफलता का प्रधान कारण रहा है। कानों से केवल दिव्य प्रयोजन ही सुनना, निंदा, चुगली, असूया की उपेक्षा करना, सज्जनों के सदवचनों में ही रुचि रखना। स्नेह संभाषणों को याद रखना और कटु-कर्कशता को भूल जाना, कर्णेन्द्रियों की पुण्य-साधना है। निरर्थक सुनने और सुनाने में जिसे अरुचि रहती है, जो दूसरों की व्यथा वेदना खोजने और सत्परामर्श सुनने को आतुर रहते हैं, वे कान धन्य हैं। उन्हें अमृतकलश कहना चाहिए, इन्हीं से छन-छनकर मस्तिष्क में देवत्व का संचय होता है और आनन्द, उल्लास से अन्तःकरण भरने लगता है। आनंदमय कोश को जागृत करने के लिए नादयोग प्रभृत साधनाएँ करनी पड़ती हैं, पर उनकी परिपुष्टि जिस भूमिका पर होती है, वह कर्णेंद्रिय का सदुपयोग ही है।
विज्ञानमय कोश का परिष्कार त्वक्-इंद्रिय पर निर्भर है। यहाँ त्वक् का तात्पर्य कामेंद्रिय से है। कुंडलिनी शक्ति की प्रचंड क्षमता इसी केन्द्र पर केन्द्रीभूत होती है। ब्रह्मरंध्र, क्षीरसागर, सहस्रारकमल में ज्ञानबीज सन्निहित है। और मूलाधार चक्र—जननेंद्रिय चक्र में विज्ञान की भौतिक शक्तियों का भंडार भरा पड़ा है। नई सृष्टि उत्पन्न कर सकने की—नया संसार बसाने की—स्फुरणा इसी स्थल पर विराजमान है। गुरुदेव ने इस शिवकेन्द्र को पवित्रतम देव प्रतिमा की तरह ही समझा और उस शक्ति-स्त्रोत का एक भी कण अपव्यय न करके ऊर्ध्वरेता की तरह ब्रह्म स्फुरणा में ही प्रयुक्त किया। विज्ञानमय कोश के जागरण में मिली सफलता का श्रेय वे तद्विषयक साधना-पद्धति को कम, ब्रह्मरेतस् निष्ठा को अधिक दिया करते थे। पाँच-तत्त्वों के प्रकाश को प्रस्फुटित करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तुतः पाँच देवियाँ हैं, जो उन्हें व्यभिचारिणी वेश्या के कुपथ पर नहीं धकेलता, उन्हें मातृवत् श्रद्धा के साथ संपूजित करता है। उसके पास सिद्धियों की कमी नहीं रहती।मन, बुद्धि, चित, अहंकार और प्राण यह पाँच देवता पाँच शक्तिकोशों के अधिपति हैं। इनको भी इंद्रियों की तरह ही संभालना पड़ता है। मन की चंचलता अयोग्य भोग-विलास के लिए भटकने न पाए, वासनाओं में रमण न करने लगे— तृष्णाएँ अयोग्य मार्ग में संपदा और सुख एकत्रित करने के लिए मचलने न लगें। इस नियंत्रण से मन को निग्रहीत किया जाता है। बुद्धि अपने साथ पक्षपात, दूसरों के साथ अन्याय, रुचिकर का समर्थन और अरुचिकर का विरोध करने लगती है।और तुरंत का लाभ देखने वाली और दूरवर्ती परिणामों की ओर से आँख बंद कर लेने का दोष आ जाने से बुद्धि की पवित्रता पापविद्ध हो जाती है। चित्त की प्रवृत्ति उत्कृष्टता की अभिरुचि छोड़कर निकृष्ट अभिव्यंजनाओं में भटकने लगे तो समझना चाहिए कि उसकी दिव्यशक्ति का नाश हो चला। अहंता अपने को ईश्वर का दिव्य अंश, सृष्टि की सुव्यवस्था का उत्तरदायी, आदर्शों का प्रतिष्ठापक मानने के स्थान पर शरीर और संपदा का अहंकार करने वाली उद्धत और उच्छृंखल आचरण करने वाली बन जाए तो समझना चाहिए, उसका देवत्व भी नष्ट हुआ। प्राण का स्वरूप है, सन्मार्ग पर चल सकने का साहस और कुमार्ग पर किसी भी भय या लोभ के कारण उत्पन्न होने वाले आकर्षण को ठुकरा देने की धृष्टता। जो जीवनोद्देश्य की पूर्ति और ईश्वर की आज्ञा का पालन करने में बड़े से बड़ा त्याग-बलिदान प्रस्तुत कर सके वह सच्चे अर्थों में प्राणवान है। प्राण देवता की आराधना सन्मार्गगामी शूरवीर बनकर की जाती है गुरुदेव इन पाँचों आत्मदेवताओं को भी उसी तरह साधते रहे, जिस तरह कि इंद्रिय देवियों की पवित्रता अक्षुण्य बनाए रहने में तत्पर रहे। गायत्री माता के पाँच मुख और दस हाथ अलंकारिक दृष्टि से चित्रित किए जाते हैं। कितनी ही मूर्तियाँ तथा तस्वीरें इस प्रकार के चित्रण समेत मिलती हैं। यह पाँच मुख अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश और विज्ञानमय कोश हैं। दश भुजाएँ उपरोक्त पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच देवियों और पाँच मनसतत्त्व से संबंधित पाँच देवता है। इन दोनों को मिलाकर गायत्री महाशक्ति की दश भुजायें बनती हैं।सामान्य जप, अनुष्ठानों के कर्मकांड पूरे करने के साथ जो पंचमुखी, दशभुजी दिव्य गायत्री को अपने प्राण, हृदय मस्तिष्क और आचरण में घुला लेता है, वह वैसा ही लाभ प्राप्त कर सकता है जैसा कि गुरुदेव ने उपलब्ध किया है। — भगवती देवी शर्मायुग-निर्माण की वर्तमान गतिविधियों को तथा भावी तैयारियों की विस्तृत जानकारी परिजनों तथा सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए गत जुलाई से युग निर्माण योजना को पाक्षिक रूप से भी निकाला जा रहा है। इससे इस आंदोलन में रुचि रखने वालों को प्रोत्साहन तथा मार्ग-दर्शन प्राप्त हो रहा है।युग निर्माण आंदोलन की प्रवृत्तियों में अभिरुचि रखने वाले परिजनों से अनुरोध है कि वह इस पाक्षिक पत्रिका के भी सदस्य बनकर अभियान को अपना सहयोग प्रदान करें। वार्षिक मूल्य = 10) मात्रपता- पाक्षिक, युग-निर्माण योजना, मथुरा।