Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सुख के छलावे— लक्ष दुख में याद आवें
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न कोई आलसी था न कोई दीन-दरिद्र। न कोई अस्वस्थ था न कोई आधि-व्याधिग्रस्त। शील और सौजन्य का पालन करने वाली प्रजा, धर्मनीति और मर्यादाओं पर चलने वाले प्रजापति दोनों ही सुखी और समृद्ध थे। बात बहुत समय पूर्व मिथिला राज्य की है तब वहाँ के सम्राट थे—धर्मरुचि चारुदत्त। प्रवाह रुक जाने से जिस प्रकार जल में कीचड़ और सड़ांध आ जाती है, जीवनगति में वैभव-विलास का ठहराव उसी प्रकार लोगों में अनैतिक वृत्तियों के प्रोत्साहन का कारण बन जाता है। इसीलिये महापुरुष अपने जीवन में कुछ न कुछ अभाव और तितीक्षाएँ जानबूझ कर रखते आए हैं। कष्ट, जीवन गति में प्रवाह के अनिवार्य तत्त्व हैं। जहाँ कष्ट रहता है वहाँ लक्ष्यगामिता भंग नहीं होने पाती। मिथिला निवासियों के साथ यह बात अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। धीरे-धीरे उनका शील नष्ट होने लगा, शील नष्ट होने से शक्ति और तेजस्विता जाती रही, शक्ति गई और रोग-शोक ने आ घेरा। रोग-शोक आए और संपत्ति नष्ट हुई। संपत्ति के विनाश से बौद्धिक क्षमताएँ और सामाजिक आचार कुंठित हो चले। जहाँ कुछ समय पहले सुख और शांति का सावन बरसता था, उसी मिथिला में सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई। शांति और व्यवस्था के लिए लोग प्यासे डोलते थे और एक मुट्ठीभर भी शांति किसी को नहीं मिल पा रही थी। चिंचित राष्ट्राध्यक्ष ने राजपुरोहित से मंत्रणा की और अनुभव किया कि सुखासक्ति ही समस्त अनर्थ की जड़ है।योजना निश्चित हुई, उन्होंने अपने चुने हुए सैनिक बुलाए और आज्ञा दी कि स्थान-स्थान पर लोगों के घरों में आग लगा दी जाए, जिसके पास संपत्ति अधिक है, छीन ली जाए। यह प्रयत्न किया जाए कि प्रजा में किसी प्रकार आतंक छा जाय राजसत्ता का। ऐसा ही किया गया। लोगों की संपत्ति फूँकने और लुटने लगी। अभी तक जो लोग भोग-विलास में डूबे पड़े थे, वे इन अप्रत्याशित संकटों के कारण चौंक पड़े। कितने ही लोग महाराज चारुदत्त के पास आरोपपत्र लेकर पहुँचे। महाराज ने उनकी कुछ बात तो सुनी नहीं, उलटे उन्हें पकड़वाकर कारागार में ठूँस दिया और घोषणा करा दी कि इन सबको एक सप्ताह के भीतर जीवित कोल्हू में पीस दिया जाएगा। यह उद्घोष सुनकर प्रजा स्तब्ध रह गई। जिसने जहाँ सुना, वहीं भगवान् को पुकारा—"हे नाथ ! महाराज की मति को यह एकाएक क्या हो गया ?" कुछ लोग इसे अपने कर्मों का फल कहकर आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन की बात कहने लगे, तो कुछ जप-तप अनुष्ठान और दान-दक्षिणा आदि पुण्य की। महाराज ने यह सब देखा तो अनुभव किया कि प्रजा अब ठिकाने आने लगी है।अब उन्होंने नया आदेश निकाला। बंदीजनों को अभी तो नहीं 6 माह बाद मृत्युदंड दे दिया जायेगा। अब तो लोग बहुत आश्वस्त हुए और मंगल आचरण के साथ लोक-परलोक, आत्महित का चिन्तन और निदिध्यासन करने लगे।6 माह बाद फाँसी का दिन आया। हजारों लोग मृत्युदंड देखने के लिए उमड़ उठे। महाराज ने ऊँचे मंच पर खड़े होकर प्रजा को संबोधित कर कहा—"अकारण कष्ट देने का जो उद्देश्य था, पूरा हुआ। जाओ और अब आगे से यह ध्यान रखो कि जीवन का उद्देश्य भोग-विलास में नहीं आत्मकल्याण में है। इस लक्ष्य को भूलोगे तो वही दुर्दशा होगी, अभी जिससे निकलकर आये हो।" प्रजा ने अपनी भूल समझी और दोषपूर्ण जीवन-पद्धति का परित्याग कर सदाचारपूर्वक जीने लग गई।