Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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कर्त्तव्य धर्म की भाव भरी प्रेरणा
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सत्य शिव के साथ परमात्मा की तीसरी विशेषता बतायी गई है सुंदरम् की। वह सुन्दरता ही उसे प्रिय है। उसका अंशी होने के नाते जीवात्मा भी हर सुंदर वस्तु को देखकर आकृष्ट होती है। प्रकृति के मनोरम दृश्य, हरियाली, पुष्पों से लदे उद्यान को देखकर किसका मन नहीं पुलकित होता है। सुन्दर पुरुष, स्त्रियों में भी अपना एक विशेष आकर्षण होता है जिनकी और हर कोई सहज ही आकर्षित हो जाता है। सौन्दर्य की ओर आकर्षण अन्तरतम की अभिव्यक्ति है। जो शाश्वत सौन्दर्य की खोज सर्वत्र करती है। तथा उसे प्राप्त करने की सतत् प्रेरणा देती है।
शास्त्रों में वर्णन है कि बाह्य स्वरूप की दृष्टि से प्रतीत होने वाला संसार मिथ्या है। अर्थात्् जिन बाहरी वस्तुओं में सौन्दर्य दिखायी पड़ता है यह एक भ्रम मात्र है। फिर ऐसा बोध क्यों होता है ? इसका उत्तर ऋषि देते हैं कि अपना आपा ही आकर्षित होकर विविध वस्तुओं एवं संसार को सुन्दर बनाता है सौन्दर्य का दिग्दर्शन इस आरोपण की प्रतिक्रिया मात्र है। तथ्य तो यह है कि शाश्वत सौन्दर्य का केन्द्र बिन्दु अंतरात्मा है। सौन्दर्य की धाराएं यही से प्रस्फुटित होती तथा गोमुख से निकलने वाली गंगा की भाँति समस्त जड़ चेतन में सौन्दर्य का अभिसिंचन करती है। यह मूली स्त्रोत अपने प्रवाह को रोक दे, तो सर्वत्र कुरूपता ही दिखायी पड़ने लगे।
प्रतिच्छाया पड़ने मात्र से संसार एवं सम्बन्धित वस्तुएं इतनी सुन्दर, इतनी अनुपम प्रतीत हो सकती है। तो उसका मूल स्वरूप कितना विलक्षण अनिवर्चनीय हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल कल करती तीव्र वेग से बहती गंगा को देखकर मन को तृप्ति एवं शान्ति मिलती है। गंगा इतनी शान्ति एवं तृप्ति दायक हो सकती है तो उसका मूल स्त्रोत में सुख का दृश्य कितना दिव्य अनुपम एवं मनोरम होगा इसकी तो मात्र कल्पना की जा सकती है अथवा वे अनुभव कर सकते हैं जो गौमुख के निकट जाकर दिव्य दर्शन का लाभ उठा चुके हैं।
सौन्दर्य की टोर आकर्षण स्वाभाविक है, पर देखा यह जाता है कि वस्तुओं एवं व्यक्तियों के प्रति यह आकर्षण कुछ ही समय तक रहता है और एक अवधि के बाद विकर्षण में बदल जाता है और फिर मन के स्मरण करने के लिए नये स्रोतों की खोज करता है। व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के प्रति आकर्षण समय-समय पर बदलता रहता है। यह इस बात का परिचायक है जो शाश्वत सौन्दर्य की निरन्तर खोज करती रहती है। वस्तुओं एवं व्यक्तियों के क्षणिक आकर्षणों को ही वास्तविक मानकर आनन्द प्राप्त करना चाहती है किन्तु उसके इस प्रयास में निराशा एवं असफलता ही हाथ लगती है।
सौन्दर्य का वास्तविक एवं शाश्वत स्त्रोत अपनी आत्मा है जिस दिन इस तथ्य का बोध हो जाता है उस दिन से बाह्य आकर्षण निस्सार जान पड़ते हैं। आत्म सत्ता के प्रकाश से ही वे भी सुन्दर प्रतीत हो रहे थे, यह ज्ञान होते ही दृष्टि बहिर्मुखी यहीं रहती अन्तर्मुखी बन जाती है। आत्मदर्शन के लिए यात्रा अंतर्जगत से आरम्भ होती है ।इस अभिनव यात्रा में एक से बढ़कर एक मनोरम दृश्य अंतर्दृष्टि से देखने को मिलते हैं जिनकी तुलना में बाह्य सौन्दर्य फीका एवं अवास्तविक जान पड़ता है। इस अविराम अंतर्यात्रा की परिणति दिव्य दर्शन के रूप में होती है। आत्म-सत्ता के दर्शन से ही शाश्वत सौन्दर्य का बोध होता है। जिसकी रसानुभूति दिव्य, अनिवर्चनीय एवं इतनी सुखद होती है कि उसके सामने संसार के समस्त सुख उथले प्रतीत होते हैं।