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Magazine - Year 1972 - Version 2

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जीवन का महत्व समझें और उसका सदुपयोग करें।

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मनुष्य विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। ईश्वर ने उसे अन्य जीवों की तुलना में बहुत अधिक शक्तियाँ तथा सुख सुविधाएं दी हैं इसका भी एकमात्र कारण यही है कि ईश्वर चाहता है हम आदर्शनिष्ठ जीवन जियें, अपनी शक्तियों का सदुपयोग करें। जिस मनुष्य की रचना में परमात्मा ने अपने समस्त स्नेह और ममत्व को उड़ेल दिया है, जिसके कारण में उसने अपना पूरा क्रिया-कौशल दिखाया है- वह भी यदि पशुओं के समान शिश्नोदर जीवन जीता है तो यही कहा जायेगा कि परमात्मा का श्रम व्यर्थ ही गया।

लाखों योनियों में भटकने के बाद प्राप्त हुई इस नर देह को पाकर हमें इसके गौरव के अनुरूप ही चलना चाहिए। यह शोभा नहीं देता कि हम मनुष्यता को कलंकित करने वाले कुकर्म करें। तुच्छ विषय-भोगों में फँसकर अपने जीवन लक्ष्य को भुला बैठें। हंस नीर-क्षीर विवेकी होता है, हमें भी न्याय और अन्याय का अन्तर कर नीति तथा न्याय के पथ का ही अवलम्बन करना चाहिए। मानी चातक कितना प्यास क्यों न हो, केवल स्वाति नक्षत्र का ही जल ग्रहण करता है। यदि हम में भी मनुष्यता का किंचित भी अभिमान हो तो यह व्रत लेना चाहिए कि चाहे अभावों भरा जीवन व्यतीत करना पड़े परन्तु अनीति और अन्याय से न तो धन अर्जित करेंगे और न ऐसे धन का उपयोग करेंगे। मधुमक्षिका पुष्पों के आस-पास मँडराती रहती है, उनका सार ग्रहण करती है। हम भी उसकी भाँति सज्जनों के समीप रहें तथा सद्विचारों को ग्रहण करें।

जो जीवन मक्खियों की भाँति स्वार्थ-संकीर्णता की कीचड़ के ऊपर भिनभिनाने में ही व्यतीत होता है उसे धिक्कार है। जो इन्द्रियों का दास बनकर रहता है, वह जीवन को व्यर्थ ही गँवा रहा है। इस देह की सार्थकता तभी है जब सात्विक तथा परोपकार की ज्योति से जगमगाता जीवन जीया जाये।

हम अपने जीवन को अनुकरणीय बनायें। सत्य और प्रेम हमारी साँस-साँस में रमे हों। दया, सौजन्य, संयम, सेवा, और सहानुभूति हमारे प्रत्येक आचार-विचार में पल्लवित पुष्पित हों-तभी सच्चे अर्थों में हम मानव कहलाने के योग्य हो सकते हैं।

हम शान्तिपूर्वक जियें और दूसरों को भी जीने दें। जो भूले भटके हैं, उन्हें जीवन का सही रास्ता दिखायें। उन्नति पथ पर जो चल रहे हैं, उन्हें आगे बढ़ाने में सहयोग दें। स्वयं तो हम महान् बनें दूसरों को भी महान् बनायें।

यह समस्त विश्व परमात्मा का ही प्रतिरूप है। वही समस्त प्राणियों में समाया है। मैं-तू, अपना-पराया, यह जो वैयक्तिक सत्ता की प्रतीति है, भ्रममात्र है। जीवन का वास्तविक लक्ष्य है वैयक्तिक सत्ता का समष्टि -ईश सत्ता में मिल जाना। इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए विषय वस्तु का ग्रहण करना है। संसार में असंख्य प्राणी हैं और सबको ही अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करनी हैं। अतएव हमें भी अधिक का लोभ न करते हुए अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही ग्रहण करना चाहिए। उससे अधिक लेना तो पाप है, अनधिकार चेष्टा है।

वस्तुतः लेने और देने, पाने और त्याग करने के विश्व नियम के अनुकरण में ही प्राणिमात्र का कल्याण सन्निहित है। त्याग ही प्राप्ति का आधार है। जो त्याग नहीं कर सकता उसे प्राप्ति का अधिकार भी नहीं। संसार की इस यज्ञशाला में त्याग की आहुति देकर हमें भी ईश्वरीय प्रयोजन में सहयोग देना चाहिए।

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