Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात
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युग निर्माता की भूमिका हमें ही निभानी है
यों मनुष्य जीवन भी अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यधिक सुख सम्पदाओं एवं वैभव विशेषताओं से भरा हुआ है पर जिनके पास अतिरिक्त रूप से विभूतियाँ विद्यमान् हैं उन्हें और भी अधिक ईश्वर का कृपापात्र अपने को समझना चाहिए। और यह अनुभव करना चाहिए कि उन्हें यह अतिरिक्त किसी अतिरिक्त कार्य के लिए ही मिली हुई है।
सृष्टि का भार विस्तार बहुत बड़ा है। इसका संतुलन बनाये रखना और नियन्ता की गौरव गरिमा के अनुरूप उसका स्वरूप बनाये रखना एक बहुत बड़ी बात है। इसी प्रयोजन में सहायक बनने-सहायता पहुँचाने हेतु ईश्वर ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति के रूप में मनुष्य को सजा है। अन्यथा उसके लिए सभी प्राणी समान प्रिय होने के कारण समान रूप से अनुदान पाने के भी अधिकारी थे। मनुष्य को जो कुछ अधिक अतिरिक्त मिला है उसका प्रयोजन उसकी वैयक्तिक सुख सुविधाओं का अभिवर्धन नहीं वरन् यह है कि वह इन अतिरिक्त साधनों के आधार पर उसका हाथ बटाने में सृष्टि संतुलन के सुखद पक्ष को भारी बनाये रहने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके। विवेकवान मानव प्राणी को मात्र शरीर यात्रा के ताने बाने बुनने तक ही सीमित नहीं रचना चाहिए लोभ मोह के जाल जंजाल में जकड़ा नहीं रहना चाहिए वरन् उन तथ्यों की ओर भी ध्यान देना चाहिए जो अतिरिक्त रूप में मिले हुए मानव जीवन की विशेषताओं के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं जीवन के स्वरूप, प्रयोजन, लक्ष्य और उपयोग का चिन्तन न किया जाय, उसे उपेक्षा के गर्त में डाले रहा जाय तो इस प्रमाद का परिणाम आज न सही अगले दिनों अनन्त पश्चाताप के रूप में ही भुगतना पड़ सकता है।
आत्मिक प्रगति की कसौटी एक यही है कि मनुष्य आत्मचिन्तन आत्मसुधार और आत्मविकास में कितना रस लेता है। यदि चिह्न-पूजा की तरह पूजा पत्री की थोड़ी सी लकीर भर पिटती है तो समझना चाहिए कि अभी बाल बुद्धि-बाल क्रीड़ा में ही निरत है ईश्वर की सच्ची उपासना के साथ ईश्वर का प्रगाढ़ अनुग्रह भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, जो आत्म बोध के रूप में ही हो सकता है।
भौतिक सुविधाएँ सम्पदाएँ मनुष्य अपनी सहज सुलभ क्षमता का सदुपयोग करके पाता रहता है और सतर्कता और तत्परता नहीं बरतता वह रोता कलपता रहता है-दीन दयनीय स्थिति में पड़ा रहता है उसमें ईश्वर का कुछ लेना देना नहीं। भौतिक उन्नति अवनति एवं सुख-दुःख की अनुभूति में मनुष्य का स्तर ही प्रधान कारण है। ईश्वर ने हर किसी को कर्म करने और तद्नुरूप फल पाने के लिए खुले रूप से छोड़ दिया है। हमें अपने सुव्यवस्थित जीवन क्रम का श्रेय पुण्य पुरुषार्थ को देना चाहिए और दुःख दारिद्र के पीछे भी अपने पिछले क्रिया-कलाप का मूल्यांकन करना चाहिए। इस झंझट में ईश्वर को अकारण ही सम्मिलित नहीं करना चाहिए।
ईश्वरीय अनुग्रह उन विभूतियों के रूप में है जो अति-रिक्त रूप में हमें मिली है। समस्त जीवधारी पेट की भूख और प्रजनन की ललक से पीड़ित होकर तद्नुरूप व्यवस्था जुटाने में अपने अपने ढंग की हलचलें करते रहते हैं और उसी कुचक्र में उलझे हुए जन्म से लेकर मरण पर्यन्त जीवन की लाश ढोते हैं। उतना ही स्तर यदि मनुष्य का भी रहे तो समझना चाहिए कि वह तात्विक विश्लेषण की दृष्टि से ‘नर पशु’ की संज्ञा में ही है। इससे आगे बढ़ने और ऊंचा उठने का सौभाग्य उसे मिला ही नहीं। इस स्तर के व्यक्ति कितने ही सुख-सुविधा सम्पन्न क्यों न हों उन्हें इस दृष्टि से दुर्भाग्य ग्रसित ही कहा जायेगा कि बहुमूल्य मानव जीवन के सदुपयोग की आत्म चेतना से वंचित रहकर केवल किसी प्रकार सांसें पूरी कर रहे हैं।
हर विवेकवान व्यक्ति को यह तथ्य अधिकाधिक गम्भीरता पूर्वक हृदयंगम करना चाहिए और उस पर हजार बार विचार करना चाहिए कि निर्वाह के अतिरिक्त उसे जो कुछ उच्चस्तरीय अनुदान मिले हैं वे मौज मजा करने के लिए नहीं- बेटे, पोतों को गुलछर्रे उड़ाने के लिए दौलत जमा करने के लिए नहीं- वरन् ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए हैं। कोई अमीर कोई गरीब- कोई अज्ञ कोई विज्ञ- बनकर रहे और इस दुनिया में विषमता विश्रृंखलता फैले यह अव्यवस्था ईश्वर को अभीष्ट नहीं, वह अपने सभी मानव पुत्रों को लगभग एक ही स्तर का निर्वाह करते हुए- समता को अपनाकर चलते हुए- देखना चाहता है। दूसरों की तुलना में अधिक विलासी और संग्रही होकर जीना स्पष्टतः जीवनोद्देश्य से विपरीत मार्ग पर चलना है। इस मनोवृत्ति के व्यक्ति पूजा पाठ की विडम्बना रचकर भी ईश्वरीय अनुग्रह का एक कण प्राप्त कर सकेंगे इसमें सन्देह ही समझना चाहिए।
आत्मबोध के अतिरिक्त ईश्वरीय अनुग्रह का प्रमाण दूसरा हो ही नहीं सकता। आत्मबोध के साथ यह व्याकुलता जुड़ी हुई है कि अतिरिक्त उपलब्धियों को उस प्रयोजन के लिये नियोजित किया जाये, जिनके लिए यह अतिरिक्त अनुदान दिया गया है। इस प्रकार की आन्तरिक पुकार को स्पष्टतः ईश्वर की वाणी समझा जाना चाहिए और जिसमें यह आत्मा की पुकार जितनी तीव्र हो उसे अपने को उतना ही बड़ा ईश्वर का प्रियपात्र अनुभव करना चाहिए। जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए जो जितना अधिक पुरुषार्थ कर सके- साहस दिखा सके उसे उतना ही बड़ा अध्यात्मवादी- ईश्वर परायण मानना चाहिए हमें नकलीपन से ऊंचा उठना ही होगा और सच्ची ईश्वर भक्ति का मार्ग अपनाकर वह सच्चा ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करना होगा जो मरने के बाद स्वर्ग मुक्ति मिलने के आश्वासनों में नहीं उलझाता वरन् देवोपम महानता के पथ पर तत्काल अग्रसर करता है। साथ ही आत्म सन्तोष एवं आत्मोल्लास के वरदान से तत्काल सुसम्पन्न करता है।
विभूतिवानों को अपने अतिरिक्त सौभाग्य पर सन्तोष और गर्व अनुभव करना चाहिए उन्हें दूसरों की अपेक्षा अधिक उच्च पद और अधिक भारी उत्तरदायित्व सौंपा गया है, सेना में सिपाही बहुत होते हैं पर नायक, कप्तान, जनरल आदि के पद तो चुने और छंटे हुए व्यक्तियों को ही दिये जाते हैं। जिन्हें पेट और परिवार पालने से अधिक आगे बढ़ने की उत्कण्ठा एवं योग्यता प्राप्त है उन्हें मुक्त कण्ठ से ईश्वर का विशिष्ठ कृपापात्र एवं प्रतिनिधि समझा जाना चाहिए। इस कृपा को सार्थक बनाने के लिए उस स्तर के व्यक्तियों को लोभ और माह का अन्धकार चीरते हुए आगे बढ़ना चाहिए और अवरोधों को कुचलते हुए साहस पूर्वक उस मार्ग पर चलना चाहिए जिस पर कि सच्चे भगवद् भक्त अनादि काल से चलते रहे हैं।
विभूतिवानों की गणना में भावनाशील, प्रतिभाशाली, विद्या-बुद्धि सम्पन्न, कलाकार, लोक नायक, विज्ञानी, राजनेता, घनीमानी, प्रभृति वर्ग के लोगों को गिना जाता है। जिन्हें अपने में इन विभूतियों का जितना अंश दृष्टिगोचर हो उन्हें अपने को ईश्वर का उतना ही विश्वास पात्र और उच्च पद पर नियुक्त प्रिय पुत्र मानना चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि वह इस धरोहर का श्रेष्ठतम उपयोग करने के प्रयत्न में कुछ कोर कसर न छोड़े।
सबसे बड़ा और सबसे प्रथम विभूतिवान व्यक्ति वह है जिसके अंतःकरण में उत्कृष्ट जीवन जीने और आदर्शवादी गतिविधियां अपनाने के लिए निरन्तर उत्साह उमड़ता है। ऐसा साहस होता रहता है जो लोभ, मोह के भवबन्धनों के रोके रुक ही न सके। व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के जाल जंजाल में ही आमतौर से नर पशुओं की क्षमताएं गलती जलती रहती हैं। आमतौर से लोग परिवार वालों की मनोकामनाएं पूरी करते रहने में जुटे खपे रहते हैं। इस चक्रव्यूह को बेध सकना उन्हीं के लिये सम्भव है जिनके भीतर आत्मबोध का आलोक प्रस्फुटित होने लगा। भावनाशील व्यक्ति ही ऐसा साहस पूर्ण निर्णय करते हैं कि निर्वाह मात्र के साधनों से सन्तोष करेंगे और परिवार को उतना ही सम्पन्न बनाने तक अपने कर्तव्य की इतिश्री मानेंगे जितने में कि अपने समाज के औसत नागरिक को जीवनयापन करना पड़ता है। भावनाशीलता को दिव्य विभूति की सार्थकता के लिए इस प्रकार का साहसिक निर्णय नितान्त आवश्यक है अन्यथा परमार्थ के लम्बे-चौड़े सपने मात्र कल्पना ही बनकर रह जायेंगे।
वासना और तृष्णा- लोभ और मोह के पिशाचों का मुंह इतना सर्वभक्षी है कि मनुष्य अपना समय, श्रम, बुद्धि बल, मनोबल ही नहीं- दीन, ईमान, लोक परलोक होम देने पर भी इन्हें तृप्त नहीं कर सकता। इनका आकर्षण भी इतना प्रचण्ड है कि जो इनसे लिपटा उसे समय का एक क्षण एवं सम्पत्ति का एक कण भी किसी अन्य कार्य के लिये लगा सकना सम्भव नहीं होता। सत्कर्मों के लिए फुरसत न मिलने- समस्याओं में उलझे रहने और आर्थिक तंगी का बहाना करने- रोना रोने- के अतिरिक्त और कुछ करते धरते बनता ही नहीं। यदि निर्वाह मात्र से सन्तुष्ट रहने और परिवार के प्रति उचित कर्तव्य भर निभाने की सीमा में सीमित रहा जाये तो सामान्य स्तर का व्यक्ति भी जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये पर्याप्त अवसर प्राप्त कर सकता है और इतना कुछ कर सकता है कि उस अनुकरणीय आदर्शवादिता की मुक्त कण्ठ से सराहना की जा सके।
अध्यात्मवादी, धर्म परायण, त्यागी, तपस्वी, परमार्थी, सन्त सुधारक, ब्रह्मपरायण महामानव स्तर के देव पुरुष वही हो सकते हैं जिन्हें भावना की विभूति भगवान ने दी हो। कृपण और संकीर्ण लोगों को इस प्रकार का सौभाग्य मिल ही नहीं सकता। स्वार्थपरता का पिशाच उन्हें कुछ करने ही नहीं देता। यदि उसकी पकड़ से एक कदम आगे बढ़ा भी जाये तो वह दूसरे बाड़े में और भी अधिक मजबूत रस्सों से पकड़ कर जकड़ देता है। सांसारिक लोभ मोह से ऊंचा उठकर त्याग परमार्थ की बात सोचने वाले लोग भी प्रायः एक कदम ही चलने के बाद फिर औंधे मुंह गिर पड़ते हैं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार, पूजा प्रतिष्ठा जैसे व्यक्तिगत लोभ ही फिर नये रूप में मार्ग को घेरकर खड़े हो जाते हैं। स्वार्थी मनुष्य इस लोक की सम्पदा के बदले परलोक की सम्पदा चाहने लगता है। यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी है। छुट-पुट दान पुण्य करने वाले स्वर्ग में आलीशान भवन और अजस्र वैभव पाने के लिए दाव लगाते हैं। स्वार्थ पूर्ति के बिना चैन नहीं- संसार के पैसे का लोभ घटा तो स्वर्ग के ऐश्वर्य का लालच सिर पर सवार हो गया। कोल्हू के बैल की दिशा भर बदली घेरा ज्यों का त्यों ही रहा- चक्कर जैसे का तैसा ही लगता रहा। आमतौर से आज के तथाकथित अध्यात्मवादी और पूजा परायण व्यक्ति ऐसे ही एक बाड़े को छोड़कर दूसरे बाड़े में प्रवेश करते दिखाई पड़ते हैं। प्रत्यक्ष लाभ को परोक्ष लाभ के लिये हलका झीना वे करते तो हैं पर हाथ कुछ नहीं आता। कल्पना लोक में विचरण करने वालों को जो मिलता है उससे अधिक उन्हें मिल भी क्या सकता है- मिलना भी क्यों चाहिए? इन कल्पना के घोड़े पर सवार लोगों की अपेक्षा तो वे लोग अधिक यथार्थवादी हैं जो कम से कम सांसारिक सुख सुविधाएं तो पाते भोगते रहते हैं। स्वार्थवादी संकीर्णता में जकड़े रहकर परलोक के वैभव का- सिद्धि चमत्कार का ताना-बाना बुनने में उलझ जाने वालों के हाथ से तो वह भी निकल जाता है। आत्मिक उत्कर्ष तो उन्हीं का होता है जिन्होंने अपनी क्षुद्रता को विशालता में परिणत किया होगा।
भावनाओं को यदि उत्कर्ष की दिशा में बढ़ चलने का अवसर मिले तो उसके लिये एक दिशा है वह है अपने चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का सघन समावेश करने की। चिन्तन की उत्कृष्टता की निरन्तर प्रेरणा यह रहती है कि उसका व्यक्तित्व आदर्श, उज्ज्वल और अनुकरणीय हो। ऐसा व्यक्ति संयम, सदाचार, कर्तव्य का पूरा-पूरा ध्यान रखता है और अपने पुरुषार्थ को प्रखर बनाकर मानवी क्षमता के सदुपयोग से सम्भव हो सकने वाली प्रगति को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है। उत्कृष्ट चिन्तन हर घड़ी इसी प्रयास में लगा रहता है कि किस प्रकार गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर श्रेष्ठतम बनाया जाये, पुरुषार्थ को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाय। आत्म निर्माण में प्रचण्ड तत्परता को देखकर ही यह प्रमाण प्राप्त होता है कि चिन्तन का, वस्तुतः उत्कृष्टता का कितना अंश घुल-मिल सका है। भावना का अदृश्य पक्ष यही है।
भावनात्मक उत्कर्ष का दृश्य पक्ष है आदर्शवादी क्रिया-कलाप लोक मंगल-जन कल्याण-समाजोत्थान-सेवा साधना एवं परमार्थ प्रयोजन की गति-विधियों में इस तथ्य को गतिशील रहता देख जा सकता है। भावनाशील व्यक्ति स्वार्थ भरी संकीर्णता की सड़न में कृमिकीटों की तरह संतुष्ट रह ही नहीं सकता। उस उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाले पक्षी की तरह अपना हर क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत दीखता है। विश्व मानव की समस्याएँ होती है। विश्व कल्याण में उसे अपना निज का स्वार्थ दिखाई पड़ता है। अस्तु निजी महत्त्वाकाँक्षाओं की ओर से उसे मुँह मोड़ना पड़ता है। पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा, की त्रि-विधि स्वार्थपरताएं उसे दुर्बुद्धिजन्य दुर्गन्ध मात्र प्रतीत होता है।
ऐसी व्यक्ति बड़प्पन की अभिलाषाओं को ठुकरा कर महानता का वरण करता है। शरीर गत लिप्साएं और परिवार गत लालसाओं पर विवेक युक्त नियन्त्रण रखता है और देखता है कि उसका जीवन इतने छोटे क्षेत्र में ही सड़ गल नहीं जाता है-व्यापकता क्षेत्र में भी कम से कुछ कर्तव्य है और वे तभी पूरे हो सकते हैं जब शरीर और परिवार को ही चरम लक्ष्य मान बैठने की क्षुद्रता से ऊपर उठ कर रहा जाय। ऐसे व्यक्ति घोर व्यस्तता के बीच परमार्थ प्रयोजनों के लिए पर्याप्त समय पाते हैं लोक मण्डल के कामों से उन्हें फुरसत न रहने का बहाना नहीं बनाना पड़ता। इसी प्रकार अभाव ग्रस्त स्थिति में भी वे अपनी रोटी का एक टुकड़ा विश्व की कुरूपता को सुन्दरता में परिणत करने के लिए खुशी-खुशी समर्पित करते रहते हैं। उन्हें दरिद्रता के कलेवर में अपनी कृपणता छिपाने की आत्म वंचना नहीं करनी पड़ती।
भावनाशील व्यक्तियों की कुछ न कुछ उपलब्धियाँ विश्व कल्याण के लिए समर्पित होती ही रहती है। ऐसे व्यक्ति सोचते हैं यदि कुटुम्ब में एक व्यक्ति और अधिक होता तो उसके भोजन वस्त्र का भी प्रबन्ध करना ही पड़ता। परमार्थ को घर का एक अतिरिक्त सदस्य मान लेने पर उसके ऊपर होने वाला खर्च अखरता नहीं वरन् अनिवार्य आवश्यकताओं में जुड़ जाता है। फिर न उसके लिए कटौती करनी पड़ती है और न हिंसक, कंजूसी की जरूरत रहती है। दुर्व्यसन तक जब अभ्यास में आ जाते हैं तो उनका खर्च अनिवार्य और स्वाभाविक प्रतीत होने लगता है यदि परमार्थ प्रयोजनों को भी जीवन क्रम में सम्मिलित कर लिया जाय तो वह न तो भारी प्रतीत होता है और न असह्य। वरन् सहज सरल गति से निर्धन स्थिति में भी यथा क्रम चलता ही रहता है।
यों भावनाओं के असंतुलित उभार कभी-कभी ज्वार-भाटे की तरह साधारण सी सामयिक परिस्थितियों को लेकर भी आवेश ग्रस्त हो जाते हैं। कभी करुणा और दयालुता का इतना उभार आता है कि जो कुछ पास में है इसी घटना या स्थिति पर निछावर कर दें। उफान ठंडा होते ही उस ओर से विमुख हो जाने और उपेक्षा बरतने में भी देर नहीं लगती। जरा सी बात इतनी चुभ जाती है कि आँसू रोक नहीं सकते। जरा सी हानि इतनी असह्य होती है कि सब कुछ सदा के लिए अन्धकारमय प्रतीत होता है। कभी कोई सफलता मिल जाय तो कल्पनाएँ आकाश के तारे चूमने लगती है। किसी के प्रति आकर्षण हो जाय तो वही सर्व गुण सम्पन्न देवता दिखाई पड़े और जरा सी खटक जाय तो फिर उसका स्थान राक्षस पिशाच से कम प्रतीत न हो। ‘मूड’ ही उनका प्रेरणा केन्द्र होता है। भावुकता की अत्यधिक प्रबलता वाले व्यक्तियों का भक्ति के बिना गुजारा नहीं। भक्तिभाव की एक लहर आ जाय तो नाचने कूदने लगे और ऐसे तन्मय दिखाई पड़े मानो समाधि में चले गये। वह बुखार उतरते ही आचरण ऐसा गिर जाय मानो अध्यात्म तो दूर साधारण सौजन्य से भी इनका कोई रिश्ता नहीं।
ऐसी चित्र विचित्र प्रकृति के आवेशों और उभारो के पालने में झूलने वाले कल्पना जीवी व्यक्तियों की इस संसार में कमी नहीं। मोटे तौर से इसी वर्ग के लोगों को भावनाशील माना जाता है और इन्हीं अस्त व्यस्त मनो-दशा वाले अर्ध विक्षिप्तों को’ भावुक कहा जाता है पर तथ्य नहीं है। भावनाशील व्यक्ति में विवेक शीलता और दूर दर्शिता की मात्रा अपेक्षाकृत कम नहीं अधिक ही होती है। वह लोभ और मोह के, वासना और तृष्णा के चारों जाल जंजालों के बन्धनों को तोड़ने का साहस दिखा सकता है और औचित्य को अपनाने में अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्र में उपस्थित होते रहने वाले अवरोध का साहस पूर्वक निराकरण कर सकता है।
चिन्तन में उत्कृष्टता और आचरण में आदर्शवादिता का प्रगाढ़ समावेश कर सकने में समर्थ मनस्विता और तेजस्विता की आवश्यकता पड़ती है। उसे अपनाने का जो शौर्य साहस प्रदर्शित कर सकें उसे भावनाशील कहा जाएगा दूसरे शब्दों में सदुद्देश्य के लिए दुस्साहस पूर्ण संकल्प करने वाले एवं उनके परिपालन में बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करने के सुदृढ़ निश्चय को भावनाशीलता कह सकते हैं। सद्भाव सम्पत् व्यक्ति उच्चस्तर पर सोचते हैं और उच्च आचरण पर तत्परता पूर्वक कटिबद्ध अड़े खड़े रहते दीखते हैं। यदि ऐसा न होता तो भावना के खदान में से ही नर रत्न महामानव उपलब्ध होने का तथ्य कैसे मूर्तिमान् रहता? ऐतिहासिक महापुरुषों में से प्रत्येक अनिवार्य रूप से भावना शील रहा है। उसके अन्तःकरण में उच्चस्तरीय आकांक्षा कोलाहल करती रहती है। क्रमशः वे इतनी प्रखर हो जाती है कि उन्हें तप्त किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। आत्मा की पुकार , अन्तः वेदना ईश्वर की वाणी इसी को कहते हैं। उसी आत्म प्रेरणा के प्रकाश में मनस्वी लोग साहसिक कदम उठते हैं। प्रस्तुत अवरोधों की उपेक्षा करते हैं। और क्रमशः प्रस्तुत लक्ष्य के पथ पर बढ़ते चले जाते हैं। और वह क्रमिक यात्रा उस व्यक्ति के ऐतिहासिक महामानवों के बाह्य क्रिया-कलाप भले ही भिन्न रहे हों पर उनका आन्तरिक विकास इस एक ही स्तर का रहा है। भावना की पूँजी के अतिरिक्त महानता ओर किसी प्रकार खरीदी ही नहीं जा सकती।
युग परिवर्तन के महान्-प्रयोजन की पूर्ति के लिए जिस पूँजी की सबसे प्रथम-सबसे अधिक मात्रा में आवश्यकता है वह” भावना’ ही है। इसका जागरण, अभिवर्धन किये बिना और किसी प्रकार युगधर्म की माँग को पूरा नहीं किया जा सकता। यों युग-निर्माण परिवार की शृंखला में ऐसी ही कड़ियाँ जोड़ी गई है जिनमें जन्म जन्मान्तरों से संचित भाव सम्पदा का समुचित अंश विद्यमान् है। पत्रिकाओं के ग्राहक अथवा किसी संगठन के सदस्य मात्र वे लोग नहीं है जो आज नव निर्माण के पुण्य प्रयोजन में लोक नायक की भूमिका सम्पन्न करने के लिए अग्रसर हो रहे है। यह परिवार अनायास ही इकट्ठा नहीं हो गया है वरन् किसी दिव्य दर्शी के जन सागर में से अपनी पैनी दृष्टि से ढूँढ़-ढूँढ़ कर इन मणि मुक्तकों को एकत्रित किया है और एक बहुमूल्य हार के रूप में उसे पिरोया संजोया हैं। युग-निर्माण परिवार के निर्माण का तात्त्विक स्वरूप यही है। जिसके पीछे कुछ ठोस आधार न हो उसे ठोक पीट कर भी कुछ अधिक नहीं बनाया बढ़ाया जा सकता। बालू के महल कहाँ खड़े होते हैं। लकड़ी के शस्त्र कहाँ काम देते हैं, खोटे सिक्कों से व्यापार कहाँ होता है? जिनमें महानता के रूप में परिणत हो सकने वाली भावना के तत्त्व विद्यमान् हैं, उन्हीं का संकलन संगठन युग-निर्माण परिवार के रूप में हुआ है। यदि ऐसा न होता तो उससे किसी बढ़ी चढ़ी युग भूमिका के सम्पादन की आशा कैसे की जा सकती थी। और यदि की भी जाती तो उसकी पूर्ति का आधार कैसे बनता?
बीजांकुर के रूप में जो भाव सम्पदा युग-निर्माण परिवार के सदस्यों में विद्यमान् है उसे उभारना और विकसित परिपक्व किया जाना आज की महती आवश्यकता है इन पंक्तियों द्वारा उसी का आह्वान उद्बोधन किया जा रहा हैं। परिजनों को अपने सम्बन्ध में हजार बार विचार करना चाहिए और देखना चाहिए कि वे कृमि-कीटकों के इस वर्ग से कहीं ऊँचे है जो मात्र पेट और प्रजनन के लिए ही जीते मरते हैं। आत्म बोध के रूप में यह अनुभव करना चाहिए कि वे उन नर पशुओं की श्रेणी में नहीं है जिनके लिए वासना और तृष्णा की परिधि से बाहर और कोई लक्ष्य उद्देश्य नहीं है। अहंता और ममता परिपोषण तक ही जिनकी गति विधियाँ सीमित है जिन्हें धन, भोग ओर अहंता की पूर्ति के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं ऐसे धरती के भार लोगों की गणना अन्धकार में भटकने वाले असुरों में ही होगी भले ही वे कितने ही वैभव सम्पत् क्यों न हों।
यदि युग-निर्माण परिवार के परिजन यदि उसी स्तर का जीवन जी सकें तो उनकी आदर्शवादिता-आध्यात्मिक काल्पनिक आत्म प्रवञ्चना मात्र मानी जाएगी उनकी पूँजी पत्री भी निर्जीव निष्प्राण गिनी जाएगी यदि बात इतने घटियापन के इर्द-गिर्द ही मंडराती रही लो इसे एक दुर्भाग्य पूर्ण ही कहा जाएगा क्षमता को न गति मिले न दिशा तो इसे दुर्घटना के अतिरिक्त और क्या माना जाएगा अपने परिवार के सदस्यों के प्रयास यदि महा-मानवों-युग निर्माताओं की दिशा में अग्रसर न हो सके तो यही कहा जाएगा कि हिमालय ही भूमिगत हो चला, समुद्र के सूखने की घड़ी आ गई। सामान्य मनुष्य पतनोन्मुख रहें यह सहन किया जा सकता है पर यदि आत्म सम्पदा महामानवों द्वारा नर पशुओं की स्थिति में पड़े रहना स्वीकार अंगीकार कर लिया जाय तो यह उन विभूतियों के लिए ही नहीं समग्र मानव जाति के लिए अभिशाप ही कहा जाएगा ऐसा अवसर हमें नहीं ही आने देना चाहिए। इस कायरता से तो ईश्वरीय निर्देश की विश्व मानव के उज्ज्वल भविष्य की-गुरुदेव के स्वप्नों की और जीवन लक्ष्य की अब मानना ही होगी। अपने परिवार की भावनाशीलता यदि प्रसुप्त, निष्क्रिय बनी रही-प्रखर न हो सकी तो यही कहना होगा कि आशा के अरुणोदय पर दुर्भाग्य पूर्ण ग्रहण जैसा अभिशाप लग गया।
अपने परिवार के हर परिजन को अपनी भाव सम्पदा का अवलोकन करना चाहिए उसे उठाना और उभारना चाहिए। चिन्तन में उत्कृष्टता का और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश करना चाहिए। व्यावहारिक अध्यात्म वाद यही है। ईश्वर की पूजा अर्चा पर्याप्त नहीं वरन् भगवान को अपने में आत्मसात् करना चाहिए उसे जीवन सम्पदा का भागीदार , अधिनायक बनना चाहिए और उसके संकेतों पर प्रयुक्त होने के लिए अपनी समस्त उपलब्धियों का समर्पण करना चाहिए। बड़प्पन की भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं से मुँह मोड़ना चाहिए और महानता प्राप्त करने के लिए उसका मूल्य चुकाना आवश्यक है यह मान कर चलना चाहिए। देव मानव स्तर की जो भावनाशीलता उठती हों उसे स्वाध्याय सत्संग एवं मनन चिंतन में उभारना चाहिए। और इतना साहस एकत्रित करना चाहिए कि आन्तरिक दुर्बलताओं एवं बाहरी अवरोधों से जूझते हुए उस प्रयोजन में तत्पर हुआ जा सके जो युग-निर्माण परिवार के सदस्यों के सामने विशेष रूप प्रस्तुत हुआ है। हमें इस मिशन का साधारण समर्थन कर्ता सदस्य ही नहीं बने रहना चाहिए वरन् एक कदम आगे बढ़ाकर सृजन सेना का ऐसा सैनिक बनना चाहिए जिसके पीछे अनुयायियों की एक बड़ी पंक्ति भी कदम से कदम मिला कर अग्रसर होती हुई दिखाई दें।
भावना की शक्ति जितनी ही उभरेगी-परिपक्व होगी उतनी ही प्रतिभा निखरती चली जाएगी प्रतिभाशाली व्यक्तियों की प्रखरता सभी को आकर्षित प्रभावित और मुग्ध करती है। हर कोई प्रतिभाशाली बनना चाहता है। क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों की सफलताएँ बहुत करके प्रतिभावानों को ही मिलती है। वे जिस कार्य को हाथ में लेते हैं उसे समग्र सजगता के साथ पूरा मनोयोग लगा कर पूरा करते हैं। फलस्वरूप बड़ी खूबसूरती के साथ सफल होता है। आधे अधूरे मन से उपेक्षा और अन्यमनस्कता के साथ किये गये काम अस्त-व्यस्त असंबद्ध होते हैं अस्तु उनका असफल अपूर्ण अथवा कुरूप होना भी स्वाभाविक ही है। ऐसे लोगों पर उदासी एवं निराशा छाई रहती है। दूसरे लोग उनकी भर्त्सना उपेक्षा करते हैं तिरस्कार उपहास का व्यवहार करते हैं। इन्हीं सब बातों का संमिश्रण असफल जीवन क्रम के रूप में दृष्टीगोचर होता है। प्रतिभाशाली इन अवमाननाओं से बचे रहते हैं। क्योंकि उनकी प्रखर भावनाशीलता क्रमशः सजग कर्मठता के रूप में बदलती चली जाती है। फलतः व्यक्तित्व में सर्वतोमुखी निखार उत्पन्न होता है, प्रतिभा इसी भाव परिपक्वता के नाम है। यदि युग-निर्माण परिवार के सदस्य अपनी भाव शीलता में प्रौढ़ता ला सके और उसे साहस एवं विवेक के साथ एकाग्र कर्मठता के साथ जोड़ सके तो प्रतीत होगा कि पिछले दिनों घटिया असफलता और तिरस्कृत उपेक्षित व्यक्तित्व किस तेजी से बढ़ता चला जा रहा है और कितनी चमक तथा तेजी अपनी गतिविधियों में उत्पन्न हो गई तदनुसार सफलताओं का अनुपात भी किस प्रकार कौतुक चमत्कार जैसा बढ़ गया।
कहा जाता रहा है कि मानव जाति के भविष्य निर्माण का यह अभियान विभूतियों की साधन सामग्री पर्याप्त मात्रा में जुटाने से हो सम्भव होगा। विभूतियों में भावना और प्रतिभा दो का महत्त्व अस्सी प्रतिशत है। शेष विद्या, कला, सम्पत्ति, सत्ता की विभूतियाँ तो बहिरंग है उन सब का सम्मिलित मूल्य बीस प्रतिशत है। संसार में जो कुछ महत्त्वपूर्ण होता रहा है उन घटना क्रमों के पीछे भावना की महत्ता सर्वोपरि रही है। ऐतिहासिक की महान् उपलब्धियों का श्रेय बहुत करके भाव उत्कृष्टता को ही दिया जाना चाहिए। भावना ही जब मनोयोग और पुरुषार्थ के साथ जुड़ कर प्रखर सक्रिय होती है तो उसी को प्रतिभा कहा जाता है। प्रतिभा जन्म जात भी हो सकती है पर जहाँ उसकी न्यूनता हो वहाँ मनस्वी भाव सत्पात्रता द्वारा उसकी पूर्ति सहज ही की जा सकती है।
अखण्ड ज्योति के परिजन अपने विशेष व्यक्तित्व और विशेष उद्देश्य को ध्यान में रखें-अपनी भाव शीलता को उभारें सुधारें-चिन्तन में उत्कृष्टता और आचरण में आदर्शवादिता का समावेश करने के लिए तत्पर हों तो कोई कारण नहीं कि उनमें युग-निर्माताओं के उपयुक्त समर्थ क्षमता का उद्भव न हो। इस उपलब्धि से सम्पन्न होकर अपना छोटा सा परिवार उस महान् भूमिका का सहज ही सम्पादन कर सकेगा जिसके लिए उसका सृजन हुआ है।
मनुष्य जीवन महान् है। उसमें भी भावना सम्पन्नों का सौभाग्य असाधारण है। इन भावना सम्पन्नों में भी जिन्हें सामयिक ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए नियुक्त किया गया हो उन्हें अपने को हर दृष्टि से बड़भागी मानना चाहिए। इस ईश्वरीय अनुदान को सार्थक बनाने के लिए हमें अपनी भाव सम्पदा को अधिकाधिक परिष्कृत समुन्नत बनाने में जुट जाना चाहिए। चिन्तन और कर्तव्य को उच्चस्तरीय बनाया जाना चाहिए। जो इतना कर सकेगा उनकी प्रतिभा में निखार आते देर न लगेगी। युग परिवर्तन के लिए जिन विभूतियों की आवश्यकता है उनमें से भाव शीलता और तज्जनित प्रतिभा को समुचित मात्रा में हम सब सहज ही जुटा सकते हैं। सो उसके लिए अब बिना एक क्षण गँवाये अविलम्ब तत्पर हो ही जाना चाहिए।