Magazine - Year 1979 - August 1979
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Language: HINDI
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नवयुग का आधार - अश्रद्धा का उन्मूलन और श्रद्धा का सम्वर्धन
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अश्रद्धा अर्थात् आदर्शवादिता की अवमानना। अन्ध श्रद्धा अर्थात् व्यक्तियों, क्रियाओं या देवदूतों की विलक्षणता में आशक्ति। श्रद्धा अर्थात् उत्कृष्टता की सर्वोपरि उपलब्धि के रूप में अवधारणा। इस व्याख्या को समझ लेने पर उनकी लाभ-हानि का अनुमान लगा सकना भी सम्भव होता है। आदर्शों की अवमानना का अर्थ है- उस रिक्तता का पशु प्रवृत्तियों से भरना। जो भला नहीं होगा उसे बुरा होना चाहिए। जब दिन नहीं होता तब रात रहती है। अन्धकार और प्रकाश की मध्यवर्ती और कोई रेखा नहीं है। अश्रद्धा की प्रतिक्रिया चिन्तन की भ्रष्टता और आचरण की दुष्टता भयावह रूप धारण करती और श्मशान में होने वाले प्रेत पिशाचों के नृत्य जैसा जीवन क्रम एवं वातावरण विनिर्मित करती है। धर्म क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों तथा बुद्धिवाद के नाम पर पनपी भ्रान्तियों ने इन दिनों अश्रद्धा की भावनात्मक अराजकता उत्पन्न की है। परिणाम सामने है। मनुष्य क्रमशः नरपशु, नरकीटक, नर पिशाच बनता और पतन के गर्त में गिरता चला जा रहा है।
अन्ध श्रद्धा ने भ्राँतियों के जंजाल में चिन्तन को उलझाया और कष्टकारण भूलभुलैयों में भटकाया है। भोले भावुक व्यक्तियों का चतुर लोग अन्धश्रद्धा के रस्से बाँधकर की अनुपयुक्त मान्यताओं के गर्त में धकेलते हैं। निहित स्वार्थों का व्यवसाय अन्धश्रद्धा की अन्धेर नगरी में जिस सफलता के साथ चलता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं। भीरुता और बौद्धिक अपंगता मिलकर एक ऐसा दलदल प्रस्तुत करती है जिसमें जादू-टोना, देवभूत ज्योतिष से लेकर सामाजिक कुरीतियों जैसी विकृतियाँ ही पल्ले पड़ती हैं। तथा कथित प्रगतिशीलता अश्रद्धा में और पिछड़ी मनःस्थिति अन्ध श्रद्धा में भटकती है। आस्था संकट इन्हीं दोनों के समन्वय का नाम है। चेतना की क्षमता को अनर्थ में धकेलने और निरर्थक बनाने की दुरभिसंधि इन दोनों ने ही मिलकर रची है। भटकी और बौराई मनुष्य जाति को इन्हीं दोनों के अभिशाप सहने पड़ रहे हैं।
प्रज्ञा युग में श्रद्धा को मानवी अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलेगा। इन उपलब्धियों से जो जितना सम्पन्न होगा उसे उसी अनुपात में अपने दृष्टिकोण एवं आचरण का स्तर ऊँचा उठाने को सुअवसर प्राप्त होगा। कहना न होगा कि इसी सौभाग्य के सहारे व्यक्तित्व में प्रखरता उत्पन्न होती है और भौतिक सफलताओं से लेकर आत्मिक विभूतियों की अनेकानेक सुसम्पन्नताऐं उपलब्ध होती हैं। आत्मकल्याण और लोक कल्याण के दोनों ही जीवन-लाभ मात्र श्रद्धालु ही प्राप्त करते हैं।
श्रद्धालु अपने को आत्मा मानता है और उसके सन्तोष एवं कल्याण के लाभ को प्रमुखता देता है। शरीर उसे मात्र वाहन, उपकरण प्रतीत होता है। अतएव उसके भरण-पोषण का समुचित ध्यान रखते हुए भी शरीराध्याय की कीचड़ में कृमि-कीटकों की तरह आत्म सात नहीं करता। इन्द्रियों की अनुभूति क्षमता से जीवनचर्या में सहयोग तो लेता है पर ऐसी स्थिति नहीं आने देता कि इन्द्रियाँ ही अधिपति बन बैठें और उन्हीं की वासना तृप्ति के लिए शारीरिक मानसिक सन्तुलन ही नहीं नीति मर्यादा तक को गंवाना पड़े। श्रद्धालु मस्तिष्क की लगन काम में रहती है और उसे उच्छृंखल घोड़े जैसा आचरण नहीं करने देता। संग्रह की तृष्णा, बड़प्पन की अहंता, उपभोग की लिप्सा, परिजनों में आवश्यक आसक्ति, ईर्ष्या, द्वेष मद, मत्सर जैसी व्याधियाँ, दिशाहीन भटकने जैसी वितृष्णाएँ निरन्तर मानसिक सन्तुलन को अस्त-व्यस्त करती रहती हैं। उद्विग्नता की अनेकानेक परतें मनःक्षेत्र को विक्षुब्ध बनाये रहती हैं। तनाव और खीज से विकृत हुआ मुख मण्डल कितनी ही चमड़ी की सुन्दरता रहते हुए विद्रूप और कुरूप लगता रहता है। यह स्थिति शारीरिक रुग्णताओं का पहाड़ टूट पड़ने से भी अधिक दुःखदायी होती है। इसका समग्र उपचार, उन्मूलन, निराकरण श्रद्धा की रामबाण औषधि ही कर सकती है। गुण ग्राहकता, सौंदर्य दृष्टि, विधायक चिन्तन, उदार आत्मीयता, अभिनेता जैसी मनःस्थिति बन जाने पर हर परिस्थिति में जी हलका रखा जा सकता है। ऐसा हलका मन रहने पर ही गुत्थियों के समाधान और प्रगति के निर्धारण सही रूप में सम्भव हो सकते हैं। कहना न होगा कि सौजन्य और सौमनस्य श्रद्धा तत्व के ही दो प्रतिफल हैं। मनीषी प्रकारान्तर से श्रद्धालु को ही कहते हैं। विवेक मात्र उन्हीं के मस्तिष्क में रहता है। दृष्टा एवं तत्वदर्शी उन्हीं को कहा जाता है।
श्रद्धा, संयम और अनुशासन द्वारा शरीर को स्वस्थ और दीर्घ जीवन प्रदान करती है। श्रद्धा में सद्विचारणा और सद्भावना का अभ्यास होता है। फलतः सामान्य स्तर का मस्तिष्क भी ऋषिकल्प मेधा का भरा रहता है। वे चन्दन की तरह महकते और वातावरण को शीतल सुव्यवस्थित बनाये रहते हैं। चिन्तन की उपयुक्त दिशा धारा मिलने से उनकी क्रियाधारा उत्कृष्टता की ओर प्रवाहित होती है। इसका परिणाम उस स्तर की सफलता बनकर सामने आता है जिसे सामान्यतया वरदान या चमत्कार की संज्ञा दी जाती है।
श्रद्धा की परिणित आत्मीयता और सुव्यवस्था में होती है। परिवारों का आनन्द और उत्साह, सहयोग और सौजन्य इसी मनःस्थिति में सम्भव रहता है। ऐसा वातावरण जिन कुटुम्बों में रहेगा उन्हीं में श्रेष्ठ नागरिक और नव रत्न पैदा होते हैं। धन से विलासिता और वैभव के साधन बन सकते हैं, पर उसमें उद्धत अहंकार का पोषण होने के अतिरिक्त और कुछ बनता नहीं, ऐसी सड़न में विकृत व्यक्तित्व ही जन्मते और पलते हैं। ऐसे कुटुम्ब बाहर से एक बाड़े में रहने की तरह इकट्ठे भले ही दीखें पर पारस्परिक स्वभाव और उपयुक्त वातावरण के अभाव में दुरभिसंधियाँ ही पनपती हैं। ऐसे कुटुम्ब पालने की अपेक्षा एकाकी रहने वाले अपेक्षाकृत अधिक सुखी रह सकते हैं।
श्रद्धा ही वह तत्व है जो छोटे कुटुम्बों को आत्मीयता के सूत्र में बाँधता है और विवेक उल्लास के साथ गरीबी में भी अमीरों से कहीं अधिक सन्तोष प्रदान करता है। पति पत्नी के बीच, भाई बहिन के बीच, अभिभावक संरक्षकों के बीच जो आत्मीयता और उदार सेवा साधना की भाव सम्वेदनाऐं मचलती रहती हैं उन्हीं पर कुटुम्ब का आनन्द और उत्थान टिका हुआ है श्रद्धा तत्व हटा देने के बाद कुटुम्बियों के बीच आपाधापी, खींचतान, उठक-पटक, रोष प्रतिशोध, घृणा ईर्ष्या के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। ऐसे कुटुम्बों को प्रतिदिन अनुभव में आने वाला तरक ही माना जायेगा। परिवार संस्था की गरिमा श्रद्धा सद्भावना के अतिरिक्त किसी प्रकार न तो स्थिर रह सकती है और न बढ़ सकती है।
धन दुधारी तलवार है। उसका सदुपयोग बन बड़े तो व्यक्ति का भी कल्याण है और समाज का भी। दुरुपयोग होने लगे तो बढ़ी हुई सम्पदा के कारण उससे हर प्रकार हानि ही हानि होती है। दुर्व्यसन बढ़ने दुर्गुण पनपने और कुकृत्य बन पड़ने में दुर्जनों का आर्थिक सुविधा सम्पन्न होना भी एक बड़ा कारण है। धन एक शक्ति है। दुर्बुद्धि के हाथों उसका उपयोग अनाचरण एवं विनाश के लिए ही हो सकता है श्रद्धा तत्व अन्तःकरण में रहने पर धन के उपार्जन और उपयोग में पूरी-पूरी सावधानी बरतनी होती है। कठोर परिश्रम के द्वारा ईमानदारी के साथ मात्र उपयोगी कार्य करके ही आजीविका कमाई जाय, यह दृष्टि सर्व प्रधान है। इस प्रकार यदि स्वल्प उपार्जन होता है तो इतने में ही काम चलाने की तैयारी आरम्भ से ही करली जाती है। इसका एक मात्र उपाय है ब्राह्मण जीवन, सादगी का निर्वाह औसत भारतीय के स्तर पर गुजारा करने में गर्व गौरव की अनुभूति। मितव्ययिता, सादगी, श्रमशीलता और ईमानदारी इन चारों का समन्वय हीं अर्थक्षेत्र में श्रद्धा का समन्वय है। ऐसे श्रद्धालु व्यक्ति न तो ठाटबाट बनाते है न सन्तान की संख्या बढ़ाकर अनावश्यक भार बहन करने की मूर्खता बरतते हैं। योग्यता बढ़ाने, मनोयोग पूर्वक श्रम करने की मितव्ययिता बरतने की नीति अपना लेने पर किसी को भी आर्थिक तंगी नहीं भुगतनी पड़ती। ऋण लेने, याचना करने अथवा कुकृत्यों पर उतारू होने की उन्हें आवश्यकता ही नहीं पड़ती। ऐसे लोग सीमित आजीविका रहने पर भी यथा सम्भव दूसरों की मदद कर सकते हैं। कृपणता तो लोभ और मोह की मात्रा बढ़ जाने संग्रह एवं उपभोग की महत्वाकाँक्षा अनियन्त्रित हो जाने पर ही अनीति उपार्जन क सिलसिला चलता है। सौम्य निर्वाह भर के साधनों में सन्तुष्ट रहने वाला न तो दरिद्र होता है न दुर्व्यसनी, न कुमार्गी। धन की औचित्य मर्यादा का निर्वाह महत्वपूर्ण है। संग्रह क परिमाण नहीं। उपार्जन उपयोग में ही न लगे वरन् उसमें पिछड़ेपन को दूर करने, असमर्थों को सहायता देने तथा सत्प्रवृत्तियों को सींचने का तथ्य भी सुनिश्चित रूप से जोड़ रखा जाय। खर्च की सामान्य मद में ही उदार दानशीलता को भी एक अनिवार्य आवश्यकता मानकर चला जाय। इन्हीं तथ्यों का समावेश अर्थ क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली श्रद्धा का रहता है। प्रज्ञावतरण की प्रेरणा अन्यान्य क्षेत्रों की तरह अर्थ क्षेत्र में भी श्रद्धा का समन्वय करने की रहेगी। फलतः अनेक दुष्प्रवृत्तियों की जननी दरिद्रता और उद्धतता का कहीं कोई अस्तित्व ही न रह जायेगा।
सामाजिक क्षेत्र की बुराइयाँ, कुरीतियाँ, अनैतिकतायें, मूढ़ मान्यतायें प्रकारान्तर से व्यक्तियों में भरी हुई निजी निकृष्टताओं का सामूहिक प्रदर्शन मात्र है। समाज का अलग से कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। मनुष्यों की सामूहिकता ही समाज है। श्रेष्ठ नागरिकों के बिना समुन्नत समाज बन ही नहीं सकता। प्राचीन काल में पंचायतें समाज व्यवस्था बनाती थी। आजकल सारी शक्ति सिमटकर शासन के हाथ में चली गई हैं। पंचायतें भी मुकदमा निपटाने अथवा सफाई जैसी छुट-पुट व्यवस्था बनाने में सीमित हो गई। शासन के कानून अपराधों को रोकने भर के लिए बने हैं। सत्परम्पराओं का प्रचलन करने की न तो उसमें आकाँक्षा रह गई है और न सामर्थ्य। सुरक्षा, शिक्षा चिकित्सा, उद्योग, परिवहन जैसे कार्यों की साज संभाल ही उसके काबू से बाहर होती जा रही है। सहकारिता को उद्योगों में समाविष्ट करने तथा नीति शिक्षा को पुस्तकीय पाठ्यक्रम में जोड़ने, रेडियो, टेलीविजन आदि पर कुछ प्रचार कर देने जैसे बाल प्रयास ही शासन के द्वारा वर्तमान स्थिति में बन सकते हैं। पंचायतें भी शासन का अंग भर रह गई हैं और भौतिक प्रयोजनों की ही यत्किंचित देखभाल कर पाती हैं। समाज व्यवस्था लड़खड़ाने का कारण ऐसे तन्त्र का अभाव है जो जन-समुदाय में आदर्शवादी आस्थाओं को उभार सके। साथ ही ऐसा वातावरण भी बना सके जिसमें दुष्प्रवृत्तियों को सहन करने तथा समर्थन देने वालों को लोकमत का तिरस्कार भाजन बनना पड़े। न्याय और औचित्य का समर्थन अनीति एवं उच्छृंखलता का मान-मर्दन करने की प्रखरता जन-जन में उत्पन्न होने पर ही स्वस्थ समाज की संरचना हो सकती है। श्रेष्ठ प्रचलनों की, सत्परम्पराओं की प्रतिष्ठा तभी सम्भव है जब व्यक्ति को निजी जीवन में आदर्शवादिता अपनाने की उत्कृष्ट श्रद्धा बनी रहे। इसके अभाव में वह अपने पापों पर पर्दा डालेगा। अवाँछनीय तत्वों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करेगा तथा हेय परम्पराओं से जूझने के स्थान पर उनके समर्थन का ही उपक्रम करता रहेगा।
वस्तुस्थिति समझ लेने के उपरान्त समाज की एक ऐसी सम्भावना आवश्यक हो जाती है जो सामाजिक प्रचलनों ओर वैयक्तिक आदर्शों को उत्कृष्टता की दिशा में उछाल सके अनौचित्य के विरुद्ध असहयोग एवं विरोध का वातावरण बना सके ऐसा समाज, अध्यात्म दर्शन एवं धर्म प्रचलन जैसे उच्चस्तरीय आदर्शों के लिए बने संगठनों द्वारा ही विनिर्मित हो सकता है। जो व्यक्ति के अन्तराल को स्पर्श करेगा जो उस मर्म स्थल में सदाशयता का बीजारोपण कर सकेगा, उसी के लिए देव समाज की कल्पना कर सकना और तदनुरूप ढाँचा खड़ा कर सकना सम्भव होगा। समाज में सत्परम्पराओं का प्रचलन सृजन पक्ष है और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन निषेध पक्ष दोनों को मिलाने से ही समग्रता बनती है। धर्म तन्त्र का संगठन ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति और समाज के अन्तराल को झकझोरने में उत्कृष्टता के ढाँचे में ढाल सकने में भावना और क्रिया को साथ लेकर चल सके।
व्यक्ति और समाज में धर्म धारणा का बहुत बड़ा स्थान है। मनुष्य के आदिम प्रयत्नों से लेकर आधुनिकतम प्रतिपादनों में धर्म तत्व का समावेश सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप होता रहा है। यह आत्मा की आवश्यकता और अन्तःकरण की पुकार है। इसका दमन न तो बुद्धिवाद कर सकता है, न प्रत्यक्षवाद न उपयोगितावाद, धर्म की, कर्तव्य की, उत्कृष्टता की आवश्यकता ईश्वरवादी अनीश्वरवादी सभी को समान रूप से अनुभव होती है। अस्तु नवयुग की साज सज्जा में धर्म धारण को प्रमुखता देने से ही काम चलेगा। देव समाज की परिकल्पना को मूर्तिमान करने में धर्म तन्त्र की पवित्रता प्रखरता और संगठनों के तीनों ही पक्ष उच्चस्तरीय बनाये जाने चाहिये। जिस दिन इस आवश्यकता को गम्भीरता पूर्वक समझा जायेगा और उसके लिए भावभरी तत्परता का उपयोग किया जायेगा, उसी दिन से उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित आरम्भ हो जायेगा।
मोटी दृष्टि से अनेकों समस्यायें और विपत्तियाँ व्यक्ति एवं समाज के सम्मुख खड़ी दीखती हैं। वे परिस्थिति जन्य प्रतीत होती हैं। फलतः उनके उपाय भी उसी स्तर के होते रहते हैं। गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, अपराध, विग्रह, आक्रमण जैसे बड़े कारण ही लोक नेताओं के मस्तिष्क पर छाये रहते हैं। वे उनके निराकरण का उपाय साधनों की सहायता से खोज निकालने का प्रयत्न करते हैं। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों की सारी शक्ति सरकारों के हाथ में केन्द्रित है। अस्तु उस मंच को हथियाने अथवा उसी आधार पर गुत्थियों को सुलझाने में मूर्धन्य वर्ग का सारा ध्यान और प्रयास केन्द्री भूत बना रहता है। गुत्थियों को सुलझाने की वर्तमान पद्धति यही है। स्थूल दृष्टि उसमें अधिक न तो कुछ सोच सकती है और न कुछ कर ही सकती है। जो हो रहा है, होता रहा है वह कम नहीं है पर गुत्थियां सुलझाने के स्थान पर उलझती ही जा रही हैं। एक छेद सीने को काम पूरा नहीं हो पाता कि दस नये छेद नये सिरे से उभरते सामने आ खड़े होते हैं। यह क्रम चिरकाल से चल रहा है। बार-बार परखा अपनाया जाता है। फिर भी निराशा के और व्यग्रता बढ़ने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।
उपाय आज खोजा जाय या हजार वर्ष बाद प्रयत्न आज किया जाय या हजार वर्ष बाद। इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। व्यक्ति और समाज के सम्मुख खड़ी हुई अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का हल निकलेगा तभी तब मानवी अन्तःकरण में उत्कृष्ट आस्थाओं के बीजारोपण तथा परिपोषण का प्रयास युद्ध स्तरीय तत्परता के साथ आरम्भ होगा। इसके लिए न राजनीति से काम चलेगा न अर्थ तन्त्र के बलबूते कुछ ठीक काम हो सकेगा। उसे मात्र धर्म तन्त्र ही कर सकता है। आज धर्म का कलेवर उपहासास्पद और विद्रूप हो गया है, यह ठीक है। किन्तु यह भी ठीक है कि इसी को परिष्कृत, प्रखर एवं सुनियोजित बनाने पर भावनात्मक नव निर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। सम्पदा को अर्थ तन्त्र, शरीर को चिकित्सा तन्त्र, मस्तिष्क को शिक्षा तन्त्र व्यवस्था को शासन तन्त्र प्रभावित कर सकता है, परन्तु अन्तःकरण को प्रभावित करने की क्षमता धर्मतन्त्र के अतिरिक्त और किसी में भी है नहीं। टूटे को सुधारा जाय तो उसे नये सिरे से ढाला जाय यह तकनीकी प्रश्न है। मूल तथ्य जहाँ का तहाँ रहता है कि विपत्तियों से छुटकारा पाने और उज्ज्वल भविष्य को मूर्तिमान करने में धर्मतन्त्र की सहायता लिये बिना काम किसी भी प्रकार नहीं चल सकता। बहस शब्द की नहीं विवेचना तथ्य की है। किसी को धर्म अध्यात्म से चिढ़ हो तो उनको सन्तुष्ट कराने वाले शब्द दूसरे शब्दकोष में ढूँढ़ निकाले जा सकते हैं। पर करना यह होगा कि व्यक्ति एवं समाज की अनेकानेक दिशाधाराओं को प्रभावित करने वाले अन्तःकरण की उत्कृष्टता को सम्पदा से सुसम्पन्न बनाया जाय। मानवी संस्कृति के अवमूल्यन का अन्त किया जाय। श्रद्धा और विवेक के समन्वय को दृष्टिकोण को आधारभूत तथ्य बनाया जाय।
प्रज्ञावतार का प्रयोजन यही है। उसका कार्यक्षेत्र जन-जन की आस्थाओं की अध्यात्म के आधार पर और आदतों को धर्म धारणा के सहारे परिष्कृत करना है। उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा संवर्धन उसका प्रधान कार्यक्रम है। यह गतिचक्र जितनी तेजी से परिभ्रमण करेगा नवयुग के दिव्य दर्शन की पुण्य बेला उतनी ही समीप आती चली जायेगी।