Magazine - Year 1979 - August 1979
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Language: HINDI
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जागृत आत्माओं द्वारा आस्थाओं को उन्नयन
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चेतना निराकार है और प्रकृति साकार। चेतना का परिचय प्रकृति पदार्थों की हलचलों में देखा जा सकता है, पर उसकी मूल सत्ता आकार रहित ही होती है। अवतार एक प्रकार की चेतना ऊर्जा है जिसका प्रभाव सम्बद्ध पदार्थों के बढ़े हुए तापमान के रूप में देखा जा सकता है। गर्मी व्यापक होने के कारण उसका निजी स्वरूप इन्द्रियातीत ही रहता है। प्रज्ञावतार का प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में अनेकों दिव्य आत्माओं में उभरता हुआ देखा जा सकेगा, पर वह स्वयं प्राणियों या पदार्थों के रूप में आकारवान नहीं बन सकती है। प्रज्ञावतार का रूप देखना हो तो वह युगान्तरीय चेतना के रूप में ही देखा जा सकेगा। किसी व्यक्ति विशेष के रूप में उसे सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता है। प्रज्ञा का जहाँ जितना उभार हो रहा हो समझना चाहिए कि वहाँ उतनी ही मात्रा में युग देव ने अपना परिचय एवं दर्शन देना आरम्भ कर दिया।
स्पष्ट है कि अपने युग का ‘असंतुलन’ आस्था संकट ने उत्पन्न किया है। इसलिए निवारण का केन्द्र बिन्दु भी वही होना चाहिए। इन दिनों ऐसा भावनात्मक प्रवाह जन-मानस में उत्पन्न होना है जिसके कारण यह प्रमाण परिचय मिलने लगे कि श्रद्धा तत्व की अभिवृद्धि का दौर चल पड़ा। आदर्शवादी गति विधियों का नया सूत्रपात हुआ। व्यावहारिक जीवन में आदर्शवादिता का समावेश कर सकना किन्हीं सन्त महन्तों का काम माना जाता था। इसके विपरीत प्रज्ञा का उभार उत्पन्न होने पर जन-जन में यह चेतना उत्पन्न होगी कि उसे अपने जीवन क्रम में श्रेष्ठता की अवधारण अधिकाधिक मात्रा में करना चाहिए इसके लिए वह इतना साहस सँजोयेगा कि संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए समर्पित इच्छा और चेष्टा नये सिरे से समीक्षा करे और उसमें भरी हुई क्षुद्रता को हटाकर उस स्थान पर महानता की स्थापना के लिए कुछ कहने योग्य कदम बढ़ायें। यह परिवर्तन किसी बाहरी दबाव से नहीं, वरन् स्वतःप्रेरणा से होगा।
आमतौर से लोभ, मोह और अहंकार के दैत्य ही जनसाधारण को कठपुतली की तरह नचाते हैं। यही प्रभाव सर्वत्र चल रहा है। समर्थ, असमर्थ-धनी, निर्धन-शिक्षित अशिक्षित इन दिनों सभी अपने तुच्छ स्वार्थों की सिद्धि में बुरी तरह संलग्न हैं। लिप्सा और लालसा की कीचड़ में लोक चेतना गहराई तक धंसी हुई है। सामान्य प्रयत्नों से इसमें हेर-फेर होते दिखाई नहीं पड़ रहा है किन्तु प्रज्ञावतार की प्रेरणा नये आयाम प्रस्तुत करेगी। अन्तःप्रेरणा का उद्गम ही बदलने लगेगा। लोग अपना स्तर उत्कृष्टता की ओर उठाने और आदर्शवादिता की ओर बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे। यह परिवर्तन बाहर से थोपा हुआ नहीं; भीतर से उभरा हुआ होगा। कहने सुनने को तो धर्म और अध्यात्म की-भक्ति और शान्ति की सज्जनता और उदारता की चर्चा आये दिन कहने, सुनने को मिलती रहती है। कइयों का विनोद विषय भी यही होता है। तथाकथित धर्म गुरु, लोक नेता, लेखक वक्ता उत्कृष्टता की चर्चा आयेदिन करते रहते हैं किन्तु उन प्रतिपादनों को क्रियान्वित करते इनमें से कोई विरले ही देखे जाते हैं। फिर सर्व साधारण के लिए तो उन्हें आचरण में उतारना और भी अधिक कठिन होता है। उदाहरण तो केवल समझाने के लिए प्रचार प्रक्रिया अपनाने के रूप में ही हो सकता है। सो हो भी रहा है लेखनी और वाणी से आदर्शवादिता का प्रतिपादन भी कम नहीं हो रहा है किन्तु सफलता इसलिए नहीं मिलती कि लोक चेतना की अन्तःस्थिति उसे स्वीकार ने और अपनाने को सहमत नहीं होती। कानों के सुनने या मस्तिष्क से समझने से काम बनता नहीं। व्यक्ति की स्थिति और कृति तो अन्तःप्रेरणा से ही बदलती है इन दिनों उसी क्षेत्र के ऊसर हो जाने से जो बोया जाता है वह निष्फल होकर रह जाता है। प्रज्ञावतार इस कठिनाई का समाधान करेगा। भीतर से ‘हिय हुलसने’ दिशा बदलने जैसी स्थिति उत्पन्न होगी। फलतः वह प्रयोजन सफलता पूर्वक पूरा होने लगेगा। जिसके आज प्रशिक्षण और दमन के सभी अस्त्र, शस्त्र निष्फल होते, निरर्थक जाते दीखते हैं।
अन्तःकरण मूर्क्षित पड़ा रहे तो उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाएँ उसमें से उठती ही नहीं। धर्म धारणा के बीजाँकुर जमते ही नहीं। यही है वह अपरिहार्य कठिनाई जिसके निराकरण का कोई मार्ग किसी को सूझता ही नहीं। मानवी प्रयास जहाँ असफल होते हैं वहाँ दैवी प्रयास बागडोर अपने हाथ में सम्भालते हैं। प्रज्ञावतार की प्रेरणा से यही कठिनाई हल होगी। लोग अपने भीतर कुछ नई उमँग उठती अनुभव करेंगे और देखेंगे कि उनका मस्तिष्क उत्कृष्टता में रुचि लेने लगा और शरीर ने सत्कर्मों में रस लेना आरम्भ कर दिया। युग परिवर्तन के बीजांकुर इसी रूप में फूटेंगे। शुभारंभ का अग्रगमन का श्रेय सदा सुसंस्कारी जागृत आत्माओं को मिलता है। सामान्य-जन क्रमशः उनके अनुगमन एवं अनुकरण का ही साहस समयानुसार सँजोते रहते हैं। सेनापति की तत्परता के उपरान्त ही सैनिकों को युद्ध मोर्चे की ओर बढ़ते देखा जाता है।
गुजारे के लिए औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार लेने के उपरान्त विलासिता और तृष्णाओं की वह आग बुझ जाती है जिसके लिए मनुष्य की क्षमता और प्रतिभा का सर्वनाश होता रहता है। संकीर्ण स्वार्थपरता के स्थान पर आत्मीयता की परिधि जितनी ही विस्तृत होती है उतना ही परमार्थ प्रयोजनों में रस आने लगता है। कृपणता और निष्ठुरता तो संकीर्णता की सहेलियाँ हैं जहाँ उदारता का उद्भव हुआ वहाँ लोभ और मोह के नागपाश से छुटकारा प्राप्त करना भी कठिन नहीं रहता। खाने में मजा तो कृमिकीटकों और पशु-पक्षियों को भी आता है। मनुष्य जीवन के साथ जुड़े हुए आनन्द की अनुभूति तो दूसरों को खिलाने से ही मिलती है। परमार्थ प्रयोजनों में सामान्य बुद्धि घाटा ही देखती है, किन्तु ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होने पर प्रतीत होता है कि जीवन सम्पदा की सबसे बड़ी सार्थकता एक ही कार्य में है और वह है शालीनता के सम्वर्धन में किया गया पुरुषार्थ। त्याग बलिदान ऐसे ही अनुदानों को कहा जाता है।
प्रज्ञावतार द्वारा मानवी सत्ता को इसी स्तर के अनुष्ठानों से विभूतिवान बनने का अवसर मिलेगा। श्रम, समय और साधनों की सम्पदा का न्यूनतम अंश अपने लिए रखने की बात सोचेगा और अधिकतम को ईश्वरीय प्रयोजनों में सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में नियोजित करने के लिए जब मनुष्य तत्पर होता है तो उसका स्तर देवोपम बनने में सन्देह नहीं रहता। अगले दिनों ऐसे ही देव मानवों की संख्या बढ़ेगी और अपने परम पुरुषार्थ इसी धरती को स्वर्गीय परिस्थितियों से परिपूर्ण करेगी। ऐसी आत्माएँ कुटुम्ब बढ़ाने की मूर्खता नहीं करेंगी पिछली पीढ़ी को अभिभावकों का ऋण चुकाने को ही पर्याप्त समझेंगे। नित नये बच्चे उत्पन्न करके सिर पर अनावश्यक बोझ लादना और उसी को ढोने में हड्डी; पसली निचोड़ देना उन्हें रुचेगा ही नहीं। हलके रहने के कारण वे अधिक परमार्थ कर लेते हैं जिसके पास परिवार है वे उनके प्रति उचित कर्त्तव्य का पालन करने भर से सन्तोष कर लेते हैं और युग धर्म के निर्वाह में कोई अड़चन उत्पन्न नहीं होने देते।
इन दिनों जागृत आत्माओं की संख्या कम है, पर जितनी भी कुछ है आरम्भ उसी से होना है। सबसे प्रथम उन्हीं को अभ्यास होगा और वे ही स्वतः प्रेरणा से प्रेरित होकर अपने आपको बदलने का साहस प्रदर्शित करेंगे। उनकी निजी आस्थाएँ उभरेंगी। फलतः क्षुद्रता प्रेरित गति विधियों में कटौती करने और उस बचत को महान प्रयोजनों में लगाने की नीति अपनाते दृष्टिगोचर होंगे। आत्म संयम ही परमार्थ बनता है इसलिए महामानव सदा ही व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं में कटौती करते हैं। जो इतना कर सका वह दीखेगा कि परमार्थ प्रयोजनों में लगाने के लिए उसके पास श्रम, समय, मनोयोग एवं साधनों की तनिक भी कमी नहीं है। अच्छी स्थिति आने की प्रतीक्षा करने की बात उसे निस्सार प्रतीत होती है जो उपलब्ध है वह भी कम प्रतीत नहीं होता। उतने का ही सदुपयोग बन पड़े तो इतनी समर्थता उभरती है कि सामान्य व्यक्ति भी असामान्य एवं आश्चर्यजनक मात्रा में सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने कर्तृत्व का परिचय दे सके।
आत्म कल्याण और लोक कल्याण की गंगा-यमुना जहाँ भी मिलेगी वहाँ उस दिव्य संगम का एक ही रूप होगा। जन-जागरण के लिए अंशदान, श्रमदान, समय दान करने का भाव भरा उत्साह। यह जब आतुर होता है तो हजार कठिनाइयाँ रहने पर भी विरोध, असहयोग रहने पर भी एकाकी चल पड़ने की साहसिकता जगती है। इस अन्तःप्रेरणा को कोई बाहरी शक्ति रोक नहीं सकती है। बाहरी प्रलोभन झुका नहीं सकता। वाक् चातुरी एवं मोह ममता भी उसे फुसला सकने में समर्थ नहीं हो सकती। धनुष से छूटा हुआ तीर लक्ष्य तक पहुँच कर ही रुकता है। जागृत आत्माएँ युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित होकर जब प्रज्ञावतार की सहचरी बनती है तो फिर उन्हें सोते जागते एक ही लक्ष्य अर्जुन की मछली की तरह दीखता है। जन मानस का परिष्कार ही अपने युग का सबसे महत्वपूर्ण काम है। आस्थाओं का पुनर्जीवन यही है। ज्ञान एवं विचार क्रान्ति अभियान इसी प्रक्रिया का नाम है। इस संदर्भ में क्या किया जा सकता है? अपनी स्थिति इस दिशा में कितनी तेजी से कितनी दूरी तक चल सकने की है। इसी का ताना बाना उनका मस्तिष्क बुनता है चिन्तन और मंथन से हर स्थिति का व्यक्ति अपनी योग्यता और परिस्थिति के अनुरूप काम ढूँढ़ निकालने में सफल हो सकता है। विचार क्रान्ति अभियान ही प्रज्ञावतार की प्रमुख प्रक्रिया है समस्त क्रिया कलाप इसी क्षेत्र में नियोजित रहेंगे। आस्थाओं का कल्प वृक्ष उग पड़ने के उपरान्त उसके पत्र, पल्लव और फल-फूलों की सम्पदा इतनी बढ़ी-चढ़ी होगी कि उसके सहारे प्रस्तुत संकटों के निवारण में कोई अड़चन शेष न रहे।
युग परिवर्तन का केन्द्र बिन्दु एक ही है आस्थाओं का उन्नयन-चिन्तन का परिष्कार, सत्प्रवृत्तियों का अवगाहन। यह दीखते तो तीन है, पर वस्तुतः एक ही तथ्य के तीन रूप हैं। सत्कर्म और सद्ज्ञान वस्तुतः सद्भावों का ही उत्पादन है। यही है जागृत आत्माओं के माध्यम से प्रज्ञावतार द्वारा कराया जाने वाला महा प्रयास। हर जागृत आत्माओं को अगले दिनों अपनी समस्त तत्परता और तन्मयता जन-मानस के परिष्कार कर केन्द्री भूत करनी होगी।