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Magazine - Year 1979 - August 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रज्ञावतार का स्वरूप और क्रिया-कलाप

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First 18 20 Last
अवतारों का भी विकास हुआ है। उनकी कलाएँ क्रमशः बढ़ती आई है। कच्छ-मच्छ एक-एक कला के अवतार थे। वाराह और वामन दो-दो के। नृसिंह और परशुराम तीन-तीन कला के माने जाते है। राम बारह के, कृष्ण सोलह के और बुद्ध बीस कला के मान गये है। निष्कलंक के बारे में कहा गया है कि वे चौबीस कला के होंगे। यह क्रमिक विकास है। सम्पूर्ण कलाएँ चौंसठ मानी जाती है। सृष्टि क्रम में अवतारों की श्रृंखला अनवरत चलती रहती है और विश्व विकास के साथ-साथ उनकी कला सामर्थ्य भी बढ़ती रहेगी।

भूतकाल के अवतारों में प्रारम्भिक का कार्य क्षेत्र भौतिक परिस्थितियों से जूझना भर था। उसके बाद वालों को अनाचारियों से लड़ना था। उसके बाद स्थापनाओं का क्रम चलता है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम-कृष्ण को पूर्ण पुरुष और बुद्ध को विवेक का देवता कहा जाता है। इनके चरित्र और कर्तृत्व में उच्चस्तरीय स्थापनाओं का दौर है। अधर्म का नाश करने के लिए उनके जितने प्रयत्न हुए है, उनकी अपेक्षा स्थापनाओं पर गतिविधियाँ अधिक केन्द्रित रही है। कृष्ण का गीता प्रतिपादन और बुद्ध का बुद्धि की शरण में जाने का प्रचण्ड अभियान, जन-जीवन को दिशा और लोक-मानस को प्रेरणा देने में अपने पूर्ववर्तियों को तुलना में अधिक प्रयत्नशील रहे। प्रज्ञावतार का कार्य अपेक्षाकृत अधिक कठिन और अधिक व्यापक है। उसे सामयिक समस्याओं एवं व्यक्तिगत उद्दण्डताओं से ही नहीं जूझना है वरन् लोक-मानस में ऐसे आदर्शों का बीजारोपण, अभिवर्धन, परि-पोषण एवं क्रियान्वयन करना है जो सतयुग जैसी भावना और राम जैसी व्यवस्था के लिए आवश्यक अन्तः प्रेरणा व्यापक क्षेत्र में उत्पन्न कर सके। लक्ष्य और कार्य की गरिमा एवं व्यापकता को देखते हुए प्रज्ञावतार की कलाएँ चौबीस होना स्वाभाविक है।

समुद्र मन्थन से चौदह रत्न निकल थे। हृदय मंथन की वर्तमान भाव चेतना से अनेकानेक नर रत्नों का निकलना निश्चित है। समुद्र मन्थन से निकले रत्नों ने सृष्टि की आदिम स्थिति में उत्कृष्ट के साधनों का बाहुल्य उपस्थित किया था। लक्ष्मी (सम्पदा) सूर्य (ज्ञान) चंद्रमा (सन्तुलन) अमृत (आत्म ज्ञान) धन्वंतर (शमन) वज्र(अनुशासन) अश्व (उत्साह) ऐरावत (पराक्रम) रम्भा (कला) जैसी अनेकों दिव्य सम्पदाएँ आविर्भूत हुई तो समुद्र मन्थन ने तत्कालीन परिस्थितियों को कुछ से कुछ बना दिया था। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। अन्तःप्रेरणा से उत्पन्न हुआ आत्म ज्ञान और भावावेश मनुष्यों को कुछ उच्चस्तरीय सोचने और करने के लिए विवश करेगा। अग्रगामी सदा अपने अनुयायी उत्पन्न करते और परम्पराओं को जन्म देते है। जागृत आत्माओं द्वारा अपनाई गई युग साधना का प्रवाह जन-मानस को अनुकरण के लिए अनायास ही आकर्षित और प्रेरित करेगा। पिछले दिनों जहाँ आदर्शवादिता के दोनों आधार धर्म और अध्यात्म चर्चा एवं उपचार की विडम्बनाओं में उलझकर रहते रहे है। इन दिनों उन्हें अपनी प्रखरता प्रकट करने का-प्रत्यक्ष कार्यरत होने का अवसर मिलेगा। इंजन चलता रहता है तो डिब्बे अनायास ही पीछे लुढ़कने लगते है। तूफान उठता है तो पत्ते और तिनके साथ ही उड़ने लगते है। जल प्रवाह में जाने क्या-क्या साथ ही तैरता डूबता, बहता चला जाता हैं। जागृत आत्माओं के अपने उदात्त दृष्टिकोण और उदार आचार से पर लोक श्रद्धा उभरेगी तो अनेकों व्यक्तियों एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रगति के पथ पर द्रुतगति से अग्रसर होते देखा जा सकेगा।

इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि अपने युग की समस्याएं परिस्थितिजन्य दीखती भर है वस्तुतः उनका उद्भव विकृत मनःस्थिति से हुआ है। जड़ तक पहुँचने पर ही समाधान खोजा जा सकेगा। मनःस्थिति बदलने से ही परिस्थितियाँ बदलेंगी। नाली साफ करने पर ही मक्खी, मच्छरों और दुर्गन्ध फैलाने वाले विषाणुओं से छुटकारा मिलता है। रक्त शुद्धि का चिरस्थायी उपचार किये बिना निरंतर उठते रहने वाले फोड़े’-फुन्सियों से पिण्ड नहीं छूटता। समस्याएँ असंख्य हैं, उनके बाह्योपचार भी असंख्यों हो सकते है। यह प्रयत्न हो रहे है और होते भी रहे है। प्रतिफल और अनुभव भी सामने है। समाधान चाहे शासन तन्त्र में ढूंढ़ें हो, चाहे अर्थ तन्त्र ने। बात कुछ बनी नहीं है। एक हाथ जोड़ने के साथ ही दो हाथ-टूटने का सिलसिला चलता रहे तो गुत्थियों को सुलझाना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। बुद्धि और सम्पदा की, साधन और सामर्थ्य की इन दिनों कोई कमी नहीं। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के इतिहास में मनुष्य कभी इतना समृद्ध और सशक्त नहीं हुआ, जितना इन दिनों हैं। साथ ही यह भी सच है कि वर्तमान में उस पर जितनी विपन्नता छाई है उतनी भूतकाल में कभी भी सहन नहीं करनी पड़ी।

समस्याएं सुलझेंगी तो एक-एक करके नहीं, वरन् एक साथ ही उनका समाधान निकलेगा। क्योंकि उनका उद्गम एक है। अस्वस्थता दूर होनी होगी तो उस पर मात्र समय से-आहार-विहार संबंधी अनुशासन के सहारे ही विजय प्राप्त की जा सकेगी। असंयम का दौर रहते, आहार को बहुमूल्य बनाने एवं चिकित्सा उपचार के पहाड़ जैसे साधन खड़े करने पर भी कोई हल न मिलेगा। नित नई औषधियों का आविष्कार होगा और नित नूतन अस्पताल खुलेंगे किन्तु दुर्बलता और रुग्णता पर विजय प्राप्त करने का स्वप्न दिन-दिन दूर ही हटता जायेगा।

मनुष्य की वितृष्णा आंतरिक समाधान, सन्तुलन, सन्तोष जैसे चिन्तन से ही शान्त होगी। अन्यथा तनिक-तनिक सी बातों पर उत्तेजना, उद्विग्नता के ज्वालामुखी फूटते रहेंगे। वस्तुओं का बाहुल्य और व्यक्तियों का अनुकूलन एक स्वप्न है जिसकी पूर्ति व्यावहारिक जीवन में सम्भव नहीं। हर किसी को ताल-मेल बिठाकर चलना पड़ता है। अधिकार के साथ कर्तव्य को-उपार्जन के साथ सन्तोष को -संघर्ष के साथ सहयोग को-उपभोग के साथ संयम को मिलाकर चलने से ही मानसिक सन्तुलन बनता है। किसी को मानसिक तनावों से छुट-कारा पाना है तो अनुकूल परिस्थितियां नहीं है। चिंतन में विधायक तत्वों को भर लेने-दृष्टिकोण को ऊँचा उठा लेने से ही काम चल जाता है। संव्याप्त विक्षोभ और असंतोष का समाधान इसी प्रकार होगा। अनुकूल के लिए किया गया पुरुषार्थ तो दूसरा चरण है।

परिवार छोटे करने का प्रयोग पाश्चात्य देशों में व्यापक रूप से चला है। पति-पत्नी और न्यूनतम बच्चे यही है आधुनिक परिवार का स्वरूप। संयुक्त परिवार को तो आफत समझा गया और उनको विखण्डित किया गया, पर इतने से भी समस्या कहाँ सुलझी। छोटे परिवार भी आपाधापी के केन्द्र है और स्नेह सौजन्य की कमी का रोना उनमें भी रोया जाता है। जबकि कितने ही बड़े कुटुम्ब स्नेह सिक्त सहकारी संस्था के रूप में अपनी सार्थकता और सफलता सिद्ध करते है। पारिवारिक समस्याओं की गणना असंख्य है, किन्तु उनके मूल में भावनात्मक दरिद्रता ही प्रधान कारण रही होती है। परिवार का सुख, प्रचुर साधना के, रूप यौवन के अथवा व्यवस्था उपचार के सहारे उपलब्ध होने को आशा की जाती है, किन्तु देखा यह गया है कि जहाँ इन सबकी प्रचुरता है वहाँ भी मनोमालिन्य कम नहीं है। तथ्य ढूंढ़ने पर भावनाओं को दरिद्रता ही कुटुम्बों को विश्रृंखलित एवं विपन्न बनाती है। इसका निराकरण हो सके तो अभावग्रस्त घरौंदे में भी लोग देवोपम स्नेह सौजन्य का आनंद लेते हुए दिन बिता सकते है।

समाज में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित है। इनमें परिपाटी उतनी घातक नहीं होती जितनी कि उनकी आड़ में नंगा नृत्य करने वाली दुष्टता। दहेज, समस्या नहीं है। बेटी की विदाई में अभिभावक अपनी सम्पदा का एक अंश उपहार में देते हों तो उसमें कोई अनौचित्य नहीं है। दहेज ने कन्या भक्षी पिशाच का रूप तो उसके पीछे काम करने वाली निष्ठुर अहंकारिता और स्वार्थपरता ने उत्पन्न किया है। यदि इन तत्वों को हटा दिया जाय तो नव परिणीता की स्त्री धन के रूप में कुछ उपहार मिल जाने से निश्चिन्तता और प्रसन्नता ही रहेगी। यही बात अनेकानेक प्रचलनों से संबंध है। कुप्रथाएँ बदली जानी चाहिए यह आवश्यक है किन्तु स्मरण रखा जाये कि दुष्टता के रहते सुधार के नाम पर किये गये परिवर्तन भी सन्तोषजनक परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकेंगे। बिना दहेज के तथाकथित आदर्श विवाहों की आजकल धूम है। इसमें भी पर्दे के पीछे लेन-देन पनप रहा है। उसे सुधारवाद का दुर्भाग्य ही कह सकते है। समाज सुधार के बाह्य प्रयत्न कितने ही आवश्यक क्यों न हों उनकी सार्थकता सद्भावना के जीवन्त रहने पर ही हो सकती है। सद्भावना प्रथा परम्परा नहीं है। यह आध्यात्मिक उपलब्धि है। समाज में प्रचलित अनेकों कुप्रथाओं का उन्मूलन तो होना ही चाहिए, पर आत्यंतिक समाधान की तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए अब तक कि सद्-भावनाओं की हरितमा अन्तःक्षेत्रों में लहलहाने न लगे।

शासन सत्ता किस पार्टी के हाथ में रहती है। प्रश्न यह नहीं वरन् यह भी शासन को चलाते है वे किस स्तर के है। घोषणा पत्रों और साइन बोर्डों के बदलने से व्यक्तियों की गोटें इधर से उधर बिठाने भर से स्वच्छ शासन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। वोटर से लेकर नेताओं तक की नीयतें बदले तभी कुछ काम चलेगा। उत्थान के लिए बनने वाली योजनाएं उपयुक्त संचालकों के अभाव में किस प्रकार असफल होती है इसका प्रमाण पग-पग पर मिल सकता है। अपराधों के नियन्त्रण में पुलिस, कचहरी, जेल आदि का ढाँचा अति स्वल्प मात्रा में ही कारगर सिद्ध होता है। अपराधी मनोवृत्ति का शमन करने एवं नियन्त्रण कर्ताओं के निर्लोभ एवं कर्तव्यपरायण होने से ही बात बनेगी। अन्यथा अपने ढंग से पनपते रहेंगे और नियन्त्रण का ढकोसला अपनी जगह खड़ा रहेगा। अनैतिकता के वैयक्तिक एवं सामाजिक रूप अनेकानेक है इन सभी पर अंकुश लगने का एक ही उपाय हैं, व्यक्ति के अन्तःकरण में धर्म धारण का घनीभूत होना।

नेतृत्व की हर क्षेत्र में माँग है, पर उसे प्रतिभा और चतुरता के सहारे उपलब्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। फलतः वह अभिनेताओं जैसे कौतुक कौतूहल दिखाकर समाप्त हो जाती है। स्थायित्व उस गरिमा में है जो चिन्तन और चरित्र के हर घटक में छाई रहती है जिसमें भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण की-छद्म एवं स्वार्थ साधन के लिए कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती। ऐसे उच्चस्तरीय नेतृत्वों का उदय ही जब बन्द हो गया तो लोक चेतना क्यों न जगायें? भटकने और भटकाने वाले लोग ही मिल जुलकर नेता और अनुयायियों की मण्डलियाँ बना-बनाकर जल-कल्याण के नाम पर शालीनता का निर्माण करने में लगे हुए हैं। यह परिस्थिति और किसी तरह दूर नहीं हो सकती। प्रज्ञावतार की प्रेरणा से उत्पन्न उत्कृष्टता सम्पन्न मनःस्थिति ही नेतृत्व के अभाव को पूरा कर सकने में समर्थ हो सकती है।

अर्थ सुविधा के लिए साधनों का बाहुल्य उतना आवश्यक नहीं जितना उपलब्धियों को मिल-जुलकर खाने और उन्हें मात्र औचित्य के लिए ही उपयोग करने की धारणा। श्रमशीलता, ईमानदारी, मितव्ययिता जैसे सद्गुणों की कमी पड़ने पर ही दरिद्रता की विपत्ति सहन करनी पड़ती है अन्यथा मनुष्य की आवश्यकताएं ही कितनी हैं उन्हें सरलता पूर्वक स्वल्प साधनों से ही पूरा किया जा सकता है जिसके सहारे आत्म-कल्याण एवं समाज-कल्याण के लिए बहुत कुछ कर सकना सम्भव हो सके।

दृष्टि पसार के वास्तविकता को ढूंढ़ने पर समस्त समस्याओं का एक ही कारण दीखता है-आस्था संकट निकृष्ट चिन्तन। इसका निराकरण आज एक ही उपाय से हो सकता है। अन्तःचेतना का ऊर्ध्वगमन, उन्नयन, अभ्युदय, प्रज्ञावतार की तूफानी गतिविधियाँ जन-जन के अन्तःकरण को झकझोरेंगी और उसे क्रमशः उस दिशा में धकेलती घसीटती ले चलेंगी जहाँ उसे शालीनता और सदाशयता से बढ़कर और कुछ मूल्यवान प्रतीत ही नहीं होता हो। मूर्धन्य देव-मानवों के माध्यम से प्रज्ञावतार आस्था संकट के निवारण का प्रयत्न कर रहा है। धर्म क्षेत्र की नर्सरी में ही महामानवों के कल्पवृक्ष उत्पन्न होते रहेंगे। इस समय भी उसी के प्रभाव में कल्प वृक्षों की नई पौध उग रही है।

First 18 20 Last


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August 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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