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Magazine - Year 1979 - August 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


उदात्त अनुदानों के लिये युग चेतना का आह्वान

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प्रत्येक जागृत आत्मा को यह अनुभव करना चाहिए कि यह परिवर्तन की परम पुनीत साध्य बेला हैं। अवांछनीयता की तमिस्रा अब तक में समाप्त होने जा रही है। ऊषा की अरुणिमा सम्मुख है। नवयुग का अरुणोदय होने में देर नहीं। उदीयमान आलोक प्रज्ञावतार है। इसके प्रकाश में हर किसी की आँखें वस्तुस्थिति को देख समझ सकने में समर्थ होंगी। अन्धकार में ही भ्रांतियां और विकृतियाँ पनपता रहता है। निशाचरों की उसी स्थिति में बन आती है। प्रभात के उपरान्त कण-कण में चेतना उभरती है। सृजनात्मक हलचलों से प्रगति के चिन्ह हर दिशा में दृष्टिगोचर होते है। उदीयमान ऊर्जा कण-कण की नव जीवन प्रदान करती है। अन्धकार का प्रकाश में प्रत्यावर्तन सब कुछ उलट पलट कर रख देता है। परिस्थितियाँ सर्वथा भिन्न स्तर की बन जाती है। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है।

युगान्तरीय चेतना ऐसे आधार खड़े कर रही है; जिससे भ्रान्तियों और विकृतियों को देर तक पैर टिकाये रहना सम्भव न हो सकेगा। उनका पलायन निश्चित है। हर व्यक्ति को सत्य और तथ्य जानने की जिज्ञासा है। अनौचित्य निहित स्वार्थ को ही छाई रहती है। भले ही विवशता में कुछ भी सहन और वहन करना पड़ता हो। जागृति के युग में तथ्य उभरते है और लोक मानस को प्रभावित करते है। पानी और हवा के प्रवाह जब अपने साथ हल्का भारी बहुत कुछ बहाते और उड़ाते रहते है तो कोई कारण नहीं कि युग प्रवाह में औचित्य का समर्थन करने वाले तत्व एक ही दिशा में न बहने लगे। जागृत आत्माओं की हर महत्वपूर्ण अवसर पर शानदार भूमिका रही है। प्रस्तुत युग संध्या में वे निष्क्रिय बने बैठे रहें, यह हो ही नहीं सकता। प्रत्येक देव मानव को इस पुनीत पर्व पर अपनी उपयुक्त भूमिका निभानी होगी। इसके लिए महाकाल की प्रेरणा उन्हें विवश करेगी। जो आनाकानी करेंगे वे आत्म-ताड़ना का दुसह दुःख सहेंगे।

संध्या काल को उपासना कृत्यों के लिए सुरक्षित रखा जाता है। अन्य समय अन्य कामों के लिए होते है पर प्रातःकाल तो आलस्य त्यागने, शौच शुद्धि में लगने एवं आत्म चिन्तन करने के लिए नियत रहता है। नव जागरण की पुण्य-बेला ऐसे ही विशेष कर्तव्य और उत्तरदायित्वों के निर्वाह के परिपालन की प्रेरणा देता है। जागृत आत्माएं तो उसके लिए एक प्रकार से महाकाल द्वारा बलात् प्रेरित की जाती है। इन दिनों भी ठीक वैसा ही हो रहा है। प्राणवानों को समय की माँग और पुकार को सुनने तथा तदनुकूल कार्यक्रम बनाने के लिए कटिबद्ध होते देखा जा रहा है।

युग निर्माण परिवार के प्राणवान परिजनों को इन दिनों सृजन शिल्पी की भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि भौतिक ललक लिप्साओं पर नियन्त्रण किया जाय। लोभ, मोह के बन्धन ढीले किये जाये। संकीर्ण स्वार्थपरता को हलका किया जाय। पेट और प्रजनन भर के लिए जीवन की सम्पदा का अपव्यय करते रहने की आदत को मोड़ा-मरोड़ा जाय। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह पर्याप्त समझा जाय। महत्वाकाँक्षाओं की दिशा बदली जाय। वासना, तृष्णा और अहंता के आवेश शिथिल किये जांयें। युग धर्म के निर्वाह के लिए कुछ बचत इसी परिवर्तन से हो सकती है। परमार्थ तभी बन पड़ता है जब स्वार्थ पर अंकुश लगाया जाय। ब्राह्मणत्व और देवत्व की गरिमा स्वीकार करने और उच्चस्तरीय आदर्शों को व्यवहार में उतारने के साहस जुटाने का यही अवसर है। उसे चूका नहीं जाना चाहिए। युग पर्व के विशेष उत्तरदायित्वों की अवमानना करने वाले जीवन्त प्राणवानों को चिरकाल तक पश्चाताप की आग में जलना पड़ता है। देव मानवों की बिरादरी में रहकर कायरता के व्यंग, उपहास सहना जितना कठिन पड़ता है उतना उच्च प्रयोजन के लिए त्याग बलिदान को जोखिम उठाना नहीं।

जिनकी अन्तरात्मा में ऐसी अन्तः प्रेरणा उठती हो वे उसे महाकाल प्रेरित युग चेतना का आह्वान उद्बोधन समझें और तथाकथित बुद्धिमानों और स्वजनों की उपेक्षा करके भी प्रज्ञावतार का अनुकरण करने के लिए चल पड़े। इसमें इन्हें प्रथमतः ही प्रसव पीड़ा की तरह कुछ अड़चन पड़ेगी, पीछे तो सब कुछ शुभ और श्रेय ही दृष्टि-गोचर होगा।

ज्ञानयज्ञ के लिए समयदान यही है-प्रज्ञावतार की जागृत आत्माओं से याचना। उसे अनसुनी न किया जाये। प्रस्तुत क्रिया-कलाप पर नये सिरे से विचार किया जाय उस पर तीखी दृष्टि डाली जाय और लिप्सा में, निरत जीवन क्रम में साहसिक कटौती करके उस बचत को युग देवता के चरणों पर अर्पित किया जाय’। सोने के लिए सात घन्टे, कमाने के लिए आठ घन्टे, अन्य कृत्यों के लिए पाँच घन्टे लगा देगा साँसारिक प्रयोजनों के लिए पर्याप्त होना चाहिए। इनमें 20 घण्टे लगा देने के उपरान्त चार घण्टे की ऐसी विशुद्ध बचत हो सकती है जिसे व्यस्त और अभावग्रस्त व्यक्ति भी युग धर्म के निर्वाह के लिए प्रस्तुत कर सकता है। जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो चुके है-जिन पर कुटुम्बियों की जिम्मेदारियाँ सहज ही हलकी है जिनके पास संचित पूँजी के सहारे निर्वाह क्रम चलाते रहने के साधन है, उन्हें तो इस सौभाग्य के सहारे परिपूर्ण समय दान करने की ही बात सोचनी चाहिए। वानप्रस्थों की परिव्राजकों की-पुण्य परम्परा क अवधारणा है ही-ऐसे सौभाग्यशालियों के लिए। जो जिस भी परिस्थिति में हो समयदान की बात सोचें और उस अनुदान को नव जागरण के पुण्य प्रयोजन में अर्पित करें।

प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता से सम्पन्न कई विभूतिवान व्यक्ति इस स्थिति में होते है कि अनिवार्य प्रयोजनों में संलग्न रहने के साथ-साथ ही इतना कुछ कर या करा सकते है कि उतने से भी बहुत कुछ बन पड़ना सम्भव हो सके। उच्च पदासीन, यशस्वी, धनी-मानी अपने प्रभाव का उपयोग करके भी समय की माँग पूरी करने में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा सकते हैं। विभूतिवानों का सहयोग भी, अनेकबार कर्मवीर समय-दानियों जितना ही प्रभावोत्पादक सिद्ध हो सकता है।

नव सृजन के लिए साधनों की भी आवश्यकता रहेगी ही। भौतिक प्रयोजनों में तो अर्थ साधन ही प्रधान होते है किन्तु प्रवाह बदलने जैसे अध्यात्म अभियान के लिए भी अन्ततः साधन तो चाहिए ही। यों श्रम, समय मनोयोग, भाव सम्वेदन जैसे तथ्यों की ही युग परिवर्तन में प्रमुखता मानी जायेगी। फिर भी अर्थ साधनों के बिना उन्हें भी कार्य रूप में परिणित कर सकना सम्भव नहीं हो सकेगा। वस्तुएँ तो इस निमित्त भी चाहिए ही। सामान्य निर्माण कार्यों के लिए साधन जुटाने पड़ते हैं फिर इस महानतम कार्य के लिए साधनों के बिना ही काम चलता रहे ऐसा सम्भव नहीं।

यह आवश्यक भी जागृत आत्माओं को ही पूरी करनी होगी। वैयक्तिक कार्यों में कटौती करके ही युग धर्म के लिए समयदान की व्यवस्था बन सकती है। इसी प्रकार निजी खर्चों में कटौती करके ही युग की पुकार के निमित्त अर्थ साधन प्रस्तुत कर सकना सम्भव हो सकता है। उत्तराधिकारियों के लिए जो अनावश्यक धन सम्पदा छोड़ी जाती है, उस मोह ग्रस्तता पर अंकुश लगाने का तो हर दृष्टि से औचित्य है। निजी परिवार को ही सब कुछ मानते रहना और विश्व परिवार के लिए कुछ भी न करना, ऐसा व्यामोह है जो युग शिल्पियों के लिए अशोभनीय ही ठहरता है।

युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को आरम्भ से ही एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य ज्ञान यज्ञ के लिए देते रहने की प्रेरणा दी गई है। वह दिशा निर्धारण युग शिल्पियों के लिए आरम्भिक एवं अनिवार्य कर्तव्य बोध की तरह था। अब उसमें उदात्त अभिवृद्धि का समय आगया। समय और धन दोनों ही अनुदानों का स्तर तथा परिमाण बढ़ना चाहिए। जिसे अपने अन्तरंग में जितनी युग चेतन, हलचल मचाती दिखाई पड़े उन्हें उतने से ही भाव-भरे अनुदान प्रस्तुत करने की तैयारी करनी चाहिए।

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August 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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