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दीहहेन्नवती तेन लोहयन्त्रेण कर्षयेत्॥
एवं नित्य समभ्यासाल्लम्बिका दीर्घताम् व्रजेत्।
यातन्दच्छेद् भ्रवोर्मध्ये तथा गच्छति खेचरो॥
रसना तालुतध्ये तु शनैः शनैः प्रवेशयेत्।
कपाल कुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरितगा॥
भ्रवोर्मध्ये गताँ दृष्टिमुद्रा भवति खेचरी॥
भावार्थ- जिह्वा के नीचे और उसकी जड़ को मिलाने वाली जो नाड़ी है, उसका छेदता हुआ निरन्तर रसना के अग्रभाग को परिचालित करे, प्रतिदिन ऐसा करने से जिह्वा बड़ी हो जाती है। क्रम से अभ्यास द्वारा जिह्वा को इतना लम्बा करे वह भौंह के मध्य तक पहुँच जाय, जिह्वा को क्रमशः तालु मूल में ले जाय। तालु के बीच के गड्ढे को कपाल-कुहर कहते हैं। जिह्वा को इस कपाल-कुहर के मध्य में ऊपर को उल्टी करके ले जाय और दोनों भौहों के मध्यस्थल को देखता रहे, इसे खेचरी मुद्रा कहते हैं। (घेरण्ड संहिता-तृतीयोपदेश

