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Magazine - Year 1982 - Version 2

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अध्यात्मतत्त्व ज्ञान के सात सूत्र

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अध्यात्म विद्या एक प्रकार का गुह्य विज्ञान है, रहस्यवाद है-यह भ्रान्ति बहुसंख्य व्यक्ति यों के मन में जड़ जमाये बैठी हैं। सही मार्ग-दर्शन के अभाव में आत्मिक प्रगति के अधिकाँश जिज्ञासु भटकते, निराश होते देख जाते हैं। ब्रह्म को, मुक्ति को, ईश्वर को बहिरंग में नहीं, अपने अन्दर कैसे तलाशे-अपना विस्मृत स्वरूप पहचान कर किस प्रकार आगे बढ़े, इसका मार्गदर्शन करने के लिये यहाँ अध्यात्म तत्त्वदर्शन के सात स्वर्णिम सूत्र दिये जा रहे हैं। इस सार गर्भित दर्शन में सारी ब्रह्मविद्या का मर्म छिपा पड़ा है। ये सात सूत्र इस प्रकार हैं—

सूर्य का प्रतिबिम्ब लहरों पर चमकता है। हर लहर अलग-अलग दीखती है और सूर्य भी अगणित। किन्तु वस्तुतः समुद्र का जल भी एक है और सूर्य भी एक। मानवी सत्ता एक है जिसे समष्टि आत्मा-परमात्मा विराट्-विश्वमानव आदि कहते हैं। फिर भी शरीरों की भिन्नता के कारण वह लहरों की तरह अलग-अलग दीखता है। परब्रह्म एक है। उसी के प्रतिबिम्ब प्रकाश ज्योति के रूप में हर किसी के अन्तराल में विद्यमान हैं। कपड़ों की अनेक परतों से ढक देने पर बल्ब का प्रकाश धूमिल पड़ जाता है है। इसी प्रकार कषाय-कल्मषों-मल आवरणों से आच्छादित रहने के कारण अन्तराल में विद्यमान ब्रह्म सत्ता भी प्रसुप्त जैसी स्थिति में जा पहुँचती है। उसका प्रकाश उपयुक्त मार्ग-दर्शन करने में अधिक सफल नहीं हो पाता। जीवन में प्रगति और प्रखरता भर देने में जैसा उसका सहयोग एवं अनुदान सम्भव है वह के मध्य में खड़ी हुई दीवार है। इसे गिराने के लिए जिस संकल्प, साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है उसी को आत्म साधना कहते हैं। यह मनुहार, रिश्वत, याचना या गिड़गिड़ाहट नहीं आत्मशोधन की प्रक्रिया है। कच्ची धातु को शोधने पर ही उसका वास्तविक स्वरूप निखरता और उपयुक्त , आभूषण बनता है। ठीक इसी प्रकार आत्म शोधन की प्रक्रिया में जो जितना सफल होता है वह उसी स्तर का महामानव भगवद् भक्त , सिद्ध पुरुष माना जाता है। आत्मिक प्रगति का राजमार्ग आत्मशोधन ही हैं।

परब्रह्म की सत्ता ब्रह्माण्डव्यापी है। वह उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की नियति व्यवस्था बनाती और समस्त गतिविधियों को स्वसंचालित क्रम से अनुशासन से बाँध कर रहती है। उसकी उपासना कर्मफल व्यवस्था स्वीकारने, मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने और नीति मर्यादा का अनुशासन पालने भर से हो सकती है।

उपासना वाला परमेश्वर-परमात्मा-ससीम हैं। परब्रह्म असीम। ससीम परमात्मा की उन सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय समझना चाहिए जो मानवी गरिमा का स्तर ऊँचा रखने की प्रेरणा देती है। साथ ही पात्रता के अनुरूप प्रतिफल अनुग्रह, अनुदान भी प्रदान करती है। इसे मनोविज्ञान का भाषा में सुपर चेतना-परिष्कृत अन्तःकरण कहते हैं। अध्यात्म भाषा में इसी को परम ज्योति कहते हैं। यह देव सत्ता विश्वव्यापी हैं। जो उसके साथ जिस स्तर का संपर्क साधता उसे वह तदनुरूप निहाल करती रहती है। यही आत्मा परमात्मा के बीच चलने वाला आदान-प्रदान है। भक्त और भगवान के बीच चलने वाले आदान- प्रदान का यही केन्द्र बिन्दु है। भक्ति का तात्पर्य है अन्तराल में विद्यमान उच्चस्तरीय आस्थाओं के साथ एकात्म भाव की-अद्वैत की-स्थापना इसके लिए शरणागति, समर्पण, विसर्जन, विलय की मनोभूमि बनानी पड़ती है। बिन्दु का सिन्धु में, नाले का नदी में, पतंगे का दीपक में, चीनी का दूध में, पत्नी का पति में विलय विसर्जन इसका उदाहरण है कि आत्मा का परमात्मा में किस प्रकार एकात्म होना चाहिए। यह न तो कल्पना की उड़ान है न भावावेश का उत्तेजन, यह न तो कल्पना की उड़ान है न भावावेश का उत्तेजन, वरन् इसका सीधा और सुनिश्चित प्रमाण उपाय यह है कि भक्त अपनी क्षुद्र कामनाओं का ईश्वर के-विराट् के-आदर्श के चरणों में समर्पण करे और अन्तराल में परमात्मा के संकेत, संदेश एवं अनुशासन को पूरी तरह प्रतिष्ठित करे।

विश्वव्यापी उत्कृष्टता ही परमात्मा है। समष्टि आत्मा-विराट् ब्रह्म यही है। इसे अन्तराल में धारण करने के लिए स्थान खाली करना और बुहारना पड़ता है। संकीर्ण स्वार्थपरता की गन्दगी हटानी पड़ती है। उसके स्थान पर अपने को विराट् का एक छोटा घटक-विश्व नागरिक अनुभव करना पड़ता है। ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की भावना विकसित करके घर परिवार के थोड़े से लोगों को ही अपना मानते रहने की संकीर्णता छोड़नी पड़ती है और विश्व मानव के-समष्टि जगत् के प्रति अपनी सघन आत्मीयता विकसित करनी पड़ती है। वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श को व्यावहारिक जीवन में उतारना पड़ता है। संक्षेप में स्वार्थ को परमार्थ में-संकीर्णता को व्यापकता में, कामना को भावना में परिणत करने का नाम ही ईश्वरी प्राप्ति है। जो इस दिशा में जितना आगे बढ़ा वह उसी स्तर का भक्त बना और भगवान का अनुग्रह प्राप्त कर सकने में सफल हुआ है।

जीवन सत्ता को परमात्मा सत्ता मे-क्षुद्र को महान में-परिणत करने की प्रक्रिया विशुद्ध भावनात्मक है। दृष्टिकोण, रुझान, स्वभाव, आदर्शवादी परिवर्तन देखकर ही यह अनुमान लगाया जात है कि कौन किस स्तर का भगवद् भक्त है और किसे उस दिशा में कितनी सफलता मिली है। इसकी पृष्ठभूमि बनाने के लिए भगवान के-आदर्शवादी समुच्चय के साथ भक्त अपने आपे को जोड़ने, लिपटने और घटाने की भाव कल्पनाएँ करता रहता है। इसके लिए बेल का पेड़ के साथ लिपटना, बंसी का वादक के होठों से लगना, सीप को स्वाति बिन्दुओं को आत्मसात् करना, ईधन का आग में खप जाना, झाड़ियों का समीपवर्ती चन्दन की सुगन्ध अपने में भर लेना, नाले का नदी में मिलकर तद्रूप हो जाना, पतंग का उड़ाने वाले के इशारे पर उचकना, बाजीगर के इशारे पर कठपुतली का नाचना जैसे उदाहरणों के साथ आत्मा और परमात्मा की मध्यवर्ती सघन आत्मीयता-शरणागति की-श्रद्धा विकसित करनी होती है।

वृक्ष का अस्तित्व एवं विकास उसकी जड़ों पर निर्भर रहता है। जड़े दीखती नहीं। तना, टहनियाँ और पत्र, पुष्प ही दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु अदृश्य तथ्य यह है कि जड़ें ही जमीन से खुराक खींचती और पेड़ को विकसित परिपुष्ट बनाती हैं। व्यक्तित्व वृक्ष की जड़े मनुष्य के अदृश्य अन्तराल में हैं। वे जितनी गहराई तक प्रवेश करती हैं-धरती से जितना खाद पानी खींच पाती हैं उसी अनुपात से वृक्ष बढ़ता है। वृक्ष को पत्ते, फलों फूला से लदते देखकर यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि सुषमा आकाश के ग्रह नक्षत्रों ने भी स्वर्गस्थ देवताओं ने बरसाई है। बाहर का वैभव वस्तुतः आत्म सत्ता की पवित्रता और प्रखरता पर निर्भर है। बाहर भटकने में कस्तूरी मृग जैसी मूर्खता नहीं अपनानी चाहिए अंतर्मुखी होना चाहिए। अन्तराल को कुरेदना चाहिए। जमीन को जोतने से ही अच्छी फसल उगती है। जिसने अपने कुसंस्कारों का जितना परिशोधन कर लिया, जो चिन्तन में उत्कृष्टता और चरित्र में आदर्शवादिता का जितना समावेश कर सका, समझना चाहिए उसकी समर्थता, सम्पन्नता और प्रगतिशीलता उसी अनुपात से सुनिश्चित हो गई।

आत्मदेव सबसे बड़ा देव है। उसकी सेवा साधना का प्रतिफल नकद धर्म का तरह सुनिश्चित है। हेय अन्तःकरण वाले नर-पिशाच नर-पशु नारकीय, पिछड़े पतित कहे जाते हैं और प्रतिकूलता, भर्त्सना एवं खीज़ से भरे रहते हैं। उदात्त परिष्कृत दृष्टिकोण, स्वभाव, एवं क्रिया कलाप समन्वय स्वर्ग कहलाता है। उत्कृष्ट व्यक्ति त्व ही देवत्व है। संकीर्णताएँ, निकृष्टताएँ ही भव-बन्धन है जो उनसे उबर सका वह जीवन मुक्त कहलाता है।

व्यक्तित्व में चुम्बकत्व रहता है। वह अपने सजातियों को खींचता और घेरता रहता है। वह अपने सजातियों को खींचता और घेरता रहता है। वृक्षों का चुम्बकत्व बादलों को आकाश से खींचता और बरसने के लिए विवश करता है। धातुओं की खदान अपने चुम्बकत्व से दूर-दूर तक की भूमि से सजातीय कणों को खींचते और अपने भण्डार में निरन्तर वृद्धि करते रहते हैं। मनःस्थिति ही परिस्थितियों को-साथी सहयोगियों को-न्यौत बुलाती है। फूल खिलता है तो भौंरे गीत गाते और तितलियों के शोभायमान झुण्ड इठलाते हैं। गंदगी से मक्खी, मच्छर और दुर्गन्धित कृमि-कीटक लदे रहते हैं। इसमें किसी का बाहरी हस्तक्षेप नहीं। अपने ही आन्तरिक स्तर एवं आकर्षण का चमत्कार है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। वर्तमान को सुव्यवस्थित बनाकर कोई भी अपना भविष्य उज्ज्वल बना सकने में समर्थ है। इसी प्रकार दुष्टता-भ्रष्टता अपनाने से लेकर आत्म हत्या करने तक की हर किसी को छूट है। किन्तु कृत्यों का प्रतिफल सृष्टि व्यवस्था का अविच्छिन्न अंग है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना का एक ही उपाय है अपने वर्तमान का सुव्यवस्थित निर्धारण। उसका तात्पर्य है आकांक्षाओं-विचारणाओं और गतिविधियों का उत्कृष्टता परक निर्धारण। यह कार्य हर किसी को स्वयं करना पड़ता है। दूसरे इस प्रयास में यत्किंचित् सहायता भर दे सकता है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना, व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की प्रक्रिया में स्वयं तत्परता बरतने पर निर्भर है। अपना काम आप ही करना चाहिए। ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं।

उपासना के समस्त उपचारों का एकमात्र उद्देश्य है आत्मा को परमात्मा स्तर का विकसित करने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्मशोधन और आत्म परिष्कार के दो कदम अनवरत रूप से बढ़ाते चलना। आत्मशोधन अर्थात् संचित कुसंस्कारों का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन। आत्म परिष्कार अर्थात् सत्प्रवृत्तियों का अपने गुण, कर्म, स्वभाव में अधिकाधिक समावेश। पूजा अर्चा के-योग तप के-जप ध्यान के समस्त क्रिया कृत्य-आत्मनिर्माण एवं आत्म विकास का लक्ष्य प्राप्त कराने के उद्देश्य से ही सृजित किये गये हैं। कार्य कारण को संगति बिठाकर जो क्रिया-कृत्यों को-लक्ष्य का ध्यान रखते हुए-भावना पूर्वक सम्पन्न करते हैं उनकी उपासना सही होने के कारण सुनिश्चित परिणाम भी उत्पन्न करती है-जो ऐसे ही अन्धेर में ढेले फेंकते हैं और मनमाने अर्थ लगाते हैं उन्हें भटकावजन्य थकान के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

उपासना याचना नहीं है। याचना करने से भी किसी को कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ कहाँ मिलती है। पात्रता और प्रामाणिकता ही सब कुछ रहे। याचना से उच्च पदवी किसे मिली हैं? प्रतिस्पर्धा जीतने वाले ही पुरस्कृत होते हैं।

भक्त और भगवान के मध्यवर्ती आदान-प्रदान में कुछ भ्रान्तियाँ इन दिनों बुरा तरह घर कर गई हैं। इनसे जितनी जल्दी पीछा छुड़ाया जा सके उतना ही उत्तम है। “भगवान प्रशंसा के भूखे हैं। उन्हें भेंट उपहारों की भारी जरूरत पड़ रही है। जो प्रशंसा और पूजा की जितनी रिश्वत देता है, उस पर भगवान उतने ही प्रसन्न होते हैं। प्रसन्नता का उपहार एक ही है-पूजा अर्चा करने वाले को उचित अनुचित मनोकामनाओं को पूरी कर देना। आज वही भ्रान्ति जन-जन के मन-मन में घुसी हुई है। पूजा पत्री का सारा उपचार इसी भ्रान्ति की धुरी पर भ्रमण करता है। इस मान्यता को अपनाने वाले ‘सस्ते में बहुमूल्य लाभ’ प्राप्त करने की नीति का औचित्य अनौचित्य तक नहीं सोचते। यह तो ठग विद्या, जेब कटी की मछलीमारों चिड़ीमारों जैसी दुर्गति हुई। इसमें भक्ति के साथ जुड़ी हुई नीति निष्ठा कहाँ है? कम देकर अधिक पाने की लिप्सा अनैतिक एवं अवांछनीय है। भक्ति को उत्कृष्टता में तो सेवा साधना की उदारता का समावेश रहता है। अधिक देकर कम पाने या न पाने की मनोवृत्ति की भक्ति भावना कही जाती है। भगवान को प्रसन्न करने और उनसे कुछ महत्वपूर्ण पाने के लिए इससे घटिया स्तर का दृष्टिकोण तनिक भी काम नहीं आता।

भगवान यदि तथाकथित भक्तों की मनुहार उपहार प्रक्रिया को ही सब कुछ मान बैठे और इतने भर आडम्बर से मनोकामना पूरी कर दे तो फिर उन्हें न्यायकारी, निष्पक्ष, कर्म व्यवस्था का सूत्र संचालक कैसे कहा जा सकेगा? ईश्वर अपना स्तर और विधान समाप्त करके ही भक्तों के लिए उनकी कामना पूर्ति वाली नई आचार संहिता गढ़ते तो ही यह आशा का जा सकती है कि पूजा उपचार के बदले मनोकामनाएँ पूर्ण होने का सिलसिला चल सके। इस स्वार्थान्ध परिकल्पना का अध्यात्म क्षेत्र से जितनी जल्दी बहिष्कार बन पड़े किया जाना चाहिए।

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