यज्ञ से अनेकानेक आधि-व्याधियों को निराकरण
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यज्ञ विज्ञान जो प्रमुख उद्देश्य मानवी अन्तराल का परिष्कृतीकरण तथा अदृश्य वातावरण का अनुकूल है। साथ ही उस माध्यम से कितने ही भौतिक प्रयोजन भी सिद्ध होते हैं। शरीरगत प्राण ऊर्जा से जीवन स्थिर रहता है और प्रकृतिगत ऊष्मा से कच्चे को पकाने के अनेकानेक प्रयोजन सम्पन्न होते रहते हैं। दोनों अग्नियाँ मूलतः एक है। चेतना क्षेत्र में काम करते समय उसे प्राणाग्नि और पदार्थों के साथ गूँथने पर उसे पावक कहते हैं। यज्ञ तत्व का मूल प्रयोजन चेतना में प्रखरता भर देने के अतिरिक्त आरोग्य लाभ जैसे लौकिक लाभ भी जुड़े हुए।
श्रम अग्नि है। पराक्रम अग्नि है। साहस अग्नि है। प्रतिभा अग्नि है। उमंग अग्नि है। श्रद्धा अग्नि है। समर्पण अग्नि है। इन अर्थों की बोधक अनेकों ऋचाएँ उपलब्ध हैं। संक्षेप में मानवी सत्ता के अंतर्गत जितनी पवित्रता और प्रखरता दृष्टिगोचर होती है उसे दिव्याग्नि का अनुदान कह सकते हैं। ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म समन्वय वर्चत् अर्थात् तदनुरूप पराक्रम। दोनों के मिलने से ब्रह्मवर्चस् शब्द बनता है। इस समन्वय को ब्रह्म-यज्ञ या विश्व-यज्ञ कह सकते हैं। यही ब्रह्माग्नि है। चाहें तो उसी को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा भी कह सकते हैं। यज्ञ का यह विराट् स्वरूप है। अग्निहोत्र तो उसका प्रतीक प्रतिनिधि भर है। भौतिक प्रयोजनों के अनेक प्रयोगों में एक आरोग्य रक्षा के लिए किया जाने वाला प्रयास 'भेषज यज्ञ’ के नाम से प्रख्यात है। व्यक्ति गत दुर्बलता एवं रुग्णता को निरस्त करने के लिए एवं वायुमण्डल की व्यापक विषाक्तता के कारण उत्पन्न होने वाले रोग उपद्रवों के शमन में ऐसे आयोजन का प्रयोग होता रहा है। यज्ञ की अनेक उपलब्धियों में एक आरोग्य उपचार विधि भी है। इसमें शारीरिक और मानसिक रोगों के निवारण की विधि व्यवस्था है। यज्ञ चिकित्सा का सीमा बन्धन मानवी रोग निवारण ही नहीं, मानसिक अस्त-व्यस्तताओं को दूर करना तथा अन्तरिक्ष में संव्याप्त विषाक्तता से उत्पन्न होने वाली विपत्तियों का निराकरण भी है। इस प्रकार यज्ञ चिकित्सा प्रचलित सभी चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में अधिक व्यापक और अधिक श्रेयस्कर ठहराती है।
‘भैषज यज्ञ’ के सम्बन्ध में अनेकों सूत्र संकेत शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं।
अग्निष्कृणोतु भेषजम्।
अथर्व. 6। 106। 3
यज्ञाग्नि औषधि का काम भी करती है।
तनूपा अग्नेऽसि तन्वं में पाहि।
आयुर्द्रा अग्नेऽस्यायुमें देहि।
बर्च्चेदा अग्नेऽसि वर्चो में देहि।
अग्ने यन्मे तन्वा अनं तन्म आपृण-यजु 3। 17
अर्थात्-हे अग्नि! तुम शरीर के रक्षक हो, मेरे शरीर के करो। तुम दीर्घायु तुम दीर्घायु प्रदान करने वाले हो मुझे दीर्घायु बनाओ। तुम तेजस्वी हो, हमें तेजस्विता प्रदान करो। मेरे शरीर की कमी और विषमता को दूर कर उसे पूर्ण बनाओ।
यदि क्षितायुर्यदि वापरेतो यदि,
मृत्योरन्तिकं नीत एव।
तमा हरामि निर्ऋ्रतोरुपस्था-दस्यार्ष मेन शतशारदाय॥
अर्थात्-अग्निहोत्र के माध्यम से, आयु क्षीण हुए जीवनी-शक्ति नष्ट हुए तथा मृत्यु के समीप पहुँचे हुए व्यक्ति रोग के चंगुल से छूटते हैं। रोगी मृत्यु के मुख से पुनः आते हैं और 100 वर्ष जीवित रहने की शक्ति प्राप्त करते हैं।
न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैन शपथको अश्नुते।
यं मेषजस्यं गुग्गुलोःसुरभिर्गन्धो अश्नुते॥
विष्वञ्चस्तमाद् यक्ष्मा मृगाद्रश्ला द्रवेरते आदि॥
अथर्व. का. 19 सू. 38 मं. 1, 2
अर्थात्-जिनके शरीर को रोग नाशक गूगुल का उत्तम गन्ध व्यापक है उसको राज-यक्ष्मा की रोग पीड़ा नहीं होती। दूसरे का शाप भी नहीं लगता। उससे सब प्रकार के यक्ष्मा-रोग शीघ्रगामी हरिणी के समान काँपते हैं, डर कर भागते हैं।
यदि क्षितायुर्यदि वा परे तो यदि,
मृत्योरन्तिकं नीत एवं।
तमा हरामि निऋते रुपस्था−
फस्पार्शमेनंशतशारदाय-अथर्व का. 3 सूक्त 11 मन्त्र 2
अर्थात्-यदि रोग के कारण न्यून आयु वाला हो, अथवा इस संसार के सुखों के से दूर हो, चाहे मृत्यु के निकट आ चुका हो, ऐसे रोगी को भी महारोग के पाश के यज्ञ छुड़ाता है। साथ ही दीर्घ जीवन भी प्रदान करता है।
प्रयुक्त ता यथा चेष्टया राजयक्ष्मा पुराजिता।
ताँ वेद विहिता मिष्टमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्॥
—चरक चि. स्थान अ. 8 श्लोक 12
अर्थात्-जिस यज्ञ के प्रयोग से प्राचीन काल में राजयक्षमा रोग नष्ट किया जाता था, आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को उसी वेद-विहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।
सन्तान न होने पर पुत्रेष्टि यज्ञ किये जाते थे। जो जन्म ले चुके उनकी स्वस्थता एवं प्रतिभा निखारने में भी यज्ञ का उपभोग है—
....................एष एतत्करोति याश्य त्वेवास्य प्रजा जातायाश्चाजातास्ताउभयी रुद्रियात्प्रमु्रञ्च्ति अस्यानमीवाः अकिल्वषाः प्रजाः प्रजायन्त तस्माद्वाऽएष एतैर्यजते-शतपथ 2। 6। 2। 2
अर्थात्-यह यज्ञ, उस सन्तान को जो उत्पन्न हो चुकी है और उस सन्तान को भी जो उत्पन्न नहीं हुई है-रोगमुक्त रखे रहता है।
भैषज्य यज्ञ’ ऋतुओं के सन्धिकाल में होते थे क्योंकि इसी समय व्यापक स्तर पर व्याधियों का प्रकोप होता था। शतपथ-ब्राह्मण में इनका इस प्रकार उल्लेख है—
भैषज्य यज्ञा वा एते। ऋतु सन्धुषु व्यार्ध्जायते तस्माहतुसन्धिषु प्रयुज्यन्ते।’
अर्थात्-ऋतुओं के सन्धि काल में —ग्रीष्म और सर्दी के बीच तथा सर्दी और गर्मी के बीच-व्याधियों का प्रकोप बढ़ जाता है अतः इन भैषज्य-यज्ञ उनका निराकरण किया जाता है।
लगभग ऐसा ही प्रतिपादन 'छान्दोग्योपनिषद्' का भी है। वहाँ भैषज्य-यज्ञ के विषय में लिखा हुआ है—
भेषजकृतो ह वा एष यज्ञो यत्नैवंविद् ब्रह्मा भवति।(छान्दो. 4। 17। 18)
अर्थात्-आरोग्य शास्त्र का ज्ञाता, जिसमें ब्रह्मा होता है, उस यज्ञ को भैषज्य-यज्ञ कहा जाता है।’
वनस्पति ही मनुष्य का खाद्य है। उसी के भीतर बनता और बढ़ता है। यह वनस्पति अंश शरीर में न्यूनाधिक पड़ने में कई प्रकार के रोग उठते हैं। उनकी पूर्ति विशेष गुण वाली वनस्पतियाँ जड़ी-बूटियाँ करती हैं और खोये आरोग्य को फिर से प्रदान करने का अवसर प्रदान करती हैं। यज्ञादि में वनस्पतियों को होमने से वही लाभ मिलता है जो उनसे बनी हुई औषधियाँ प्रदान करती हैं। यज्ञ प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाली औषधियों की अभ्यर्थना करते हुए कहा गया है—
‘शमिता नो वनस्पतिः।’ (यजु. 21। 21)
अर्थात्—’ वनस्पतियाँ हमें शान्ति-प्रदान करने वाली हैं।’ वे औषधियाँ रोगों को दूर करके शक्ति प्रदान करने वाली होती हैं—
सहस्व में आरातीः सहस्व पृतनायतः।
सहस्व सर्व पाप्मान सहमानास्योषधेः-यजु 12। 99
अर्थात्—’ हे औषधि (वनस्पति) तू रोगों को दूर करने वाली है, अतः मेरी शक्ति हरने वाले रोगों को दूर कर। युद्ध की तरह शरीर में हलचल मचाने वाले सब रोगों को पराजित कर। दूर कर।
भेषज यज्ञों में होनी गई वनस्पतियों में वैयक्तिक और सामूहिक आरोग्य रक्षा के उपरोक्त सूत्र संकेतों के अतिरिक्त और भी बड़ी बात यह है कि उस प्रयोग से मनोविकार दूर होते हैं। कषाय-कल्मष कटते हैं और व्यक्ति यों को सत्प्रवृत्तियों में भर देने वाले उभार उमगते हैं। ऐसी सर्वतोमुखी प्रखरता उपलब्ध होने का आश्वासन श्रुति देती है। प्रार्थना शैली वेदों की अपनी प्रतिपादन प्रक्रिया है। उसे मात्र मनुहार न माना जाय वरन् समझा जाय कि अमुक्त अवलम्बन अपनाने में अमुक्त लाभ प्राप्त करने का आश्वासन है। यज्ञ से समग्र
व्यक्ति त्व विकसित होने का एक आश्वासन इस प्रकार है—
‘प्राणश्च मेऽपानश्च मेऽव्यानश्च मेऽसुश्च में चित्तं च म आधीतं च में वाक् च में मनश्च में चक्षुश्च में श्रौत्नं च में दक्षश्च में बलं च में यज्ञेन कल्पताम् ॥ (यजु. 18। 2)
मेरा, प्राण मेरा अपान, मेरा व्यान, मेरे अन्य प्राण, मेरा चित्त, मेरे विचार, मेरी वाणी, मेरा मन, मेरा नेत्र, मेरा कान, मेरी दक्षता, और मेरा बल यज्ञ के सम्पन्न हो-यज्ञीय ऊर्जा से युक्त होकर अधिक प्रखर व प्रभावी हो।
देव सविता प्रसुव यज्ञं प्रसुवयज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गर्न्धवःकेतपूःकेतंनःपुनातु वाचस्पतिर्वाचं न ॥
स्वदतु-यजु अर्थात्-मन वाणी, बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञपति की उपासना की जाय।
आयुर्यज्ञेन कल्पताँ प्राणो यज्ञेन कल्पताँ चक्षुर्यज्ञेन कल्पताँ श्रोत्नं यज्ञेन कल्पताँ वाग्यज्ञेन कल्पताँ मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्॥
यजु. 18। 29
अर्थात्-यज्ञ से आयु, यश से प्राण, यज्ञ से दर्शन-शक्ति यज्ञ से श्रवण-शक्ति , यज्ञ के वाक्-शक्ति , यज्ञ से मन, तथा यज्ञ से आत्मा, बलवान्, समर्थ व प्रखर बने।
विपत्तियाँ मात्र शारीरिक रुग्णता के रूप में ही नहीं आती वरन् उनकी आधि भौतिक, आधि दैविक एवं आध्यात्मिक कारण एवं स्वरूप भी है। ‘प्रारब्धजन्य, दुष्कृतों के फलस्वरूप ने केवल रोग वरन् अन्य प्रकार के संकट भी उत्पन्न होते हैं। उनके निराकरण में यश विधि जितनी फलप्रद सिद्ध होती है उतनी और कोई नहीं। इस संदर्भ में कितने ही शासन वचन उपलब्ध होते हैं। जिनमें यज्ञानुष्ठान जैसे अन्य धर्मकृत्यों को अपनाने से रुग्णता तथा दूसरी व्यथाओं के निराकरण की बात कही गई है—
“मन्तौषधि, मणि मगंल, वत्युपहार होम, प्रायश्चित्तोपवास, स्वस्त्ययन, प्रणिपातगमनादि।
युक्तिव्यपाश्रयं-पुनराहरौषधि द्रव्याणाँ योजना।
सत्वावजयः पुनरहितेभ्योऽर्थेभ्योमनोनिग्रहः।”
अर्थात्-मन्त्र यन्त्र, होम, यज्ञ, निगम, प्रायश्चित्त, उपवास, प्रणिपात (साष्टांग प्रणाम) तथा तीर्थाटन आदि के द्वारा इसमें कायिक, मानसिक एवं महामारी रोगोपचार होता है।
प्रशाभ्यत्यौषधैः पूर्वो दैवयुक्ति व्यपाश्रयैः।
—चरक सूत्र 1। 15। 56
अर्थात्-पूर्व जन्माजित भोग अथवा देव एवं ग्रह जनित रोगोपचार के लिए जो यन्त्र, मन्त्र, यज्ञ, हवन, दान पूजन एवं व्रतोपवास किया जाता है, आशु फलदायक होने के कारण इसे प्रथम कहा गया है।
रसायन तपो जाप योग सिर्द्धर्महात्मभिः।
कालमृत्युरपि प्राज्ञैर्जीयते नालसै नरै॥
अर्थात्-रसायन महौषधि, मृत्युञ्जय आदि जप− तप, ब्रह्मचर्यादि एवं योग की सिद्धियों से काल-मृत्यु भी टाल जाता है।
इस प्रकार भेषज यज्ञ से आरोग्य लाभ होने की तरह की अन्य समस्याओं के समाधान एवं उत्थान अभ्युदय के अनेक प्रयोजनों में यज्ञ का आश्रय लेने से भारी सहायता मिलती है।
स्वास्थ्य रक्षा एवं जीवनी शक्ति संवर्द्धन के लिये यज्ञ प्रक्रिया द्वारा मानव मात्र की तथा पर्यावरण की चिकित्सा का प्रावधान आर्षकालीन महामानवों द्वारा बनाया गया है। इस पूरे प्रकरण के हर पहलू को वैज्ञानिक पद्धति से जाँचना-परखना मनीषा का कर्त्तव्य है। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने इस दुष्कर कार्य को अपने हाथ में लिया है अगले दिनों सारा विश्व इस ऋषि प्रणीत विद्या के रहस्यों को व उसके महत्व को जानकर कृतकृत्य होगा, इसमें रत्ती मात्र भी सन्देह नहीं।

