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Magazine - Year 1982 - Version 2

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सृष्टि सन्तुलन के कुछ शाश्वत सिद्धान्त

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समस्याएँ असन्तुलन से उत्पन्न होती है। व्यक्ति और समाज, पिण्ड और ब्रह्माण्ड सबमें ही यह नियम समान रूप से लागू होता है। असन्तुलन शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों के रूप में प्रकट होता है और समाज में वह विघटन, विद्वेष एवं अवांछनीय प्रवृत्तियों के रूप में अपना परिचय देता है। जड़ परमाणुओं में विस्फोट इस तथ्य का परिचायक है। अन्तर्ग्रही विक्षोभों में यह व्यतिक्रम ही काम करता दिखाई पड़ता है। चाहे जड़ परमाणु हो अथवा चेतन शरीर, समाज हो अथवा ब्रह्माण्ड ये सभी सुव्यवस्थित एवं उपयोगी सुसंतुलन के कारण ही बने रहते हैं।

सात सिद्धान्त ऐसे हैं जो व्यक्ति , ब्रह्माण्ड सभी को समान रूप से प्रेरणा देते, सन्तुलन रखते एवं प्रगति पथ पर आगे धकेलते हैं। वे है—(1) सहकारिता (2)संघर्षशीलता (3) सामंजस्य की प्रवृत्ति(4) क्रियाशीलता (5) अनुशासन (6) गतिचक्र (7) एकात्मता। ये ही जड़-चेतन की सुव्यवस्था एवं प्रगति के आधारभूत कारण हैं।

शरीर का स्वास्थ्य एवं विकास इन्हीं पर अवलम्बित है। आकार एवं प्रकार में शरीर के अंग-प्रत्यंग दीखते भर अलग-अलग हैं। इनकी क्रियाओं में भी अन्तर दिखाई पड़ता है। शरीर की गतिविधियों को सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो मालूम होगा कि एक अंग की उपयोगिता दूसरे के सहकार पर टिकी हुई है। हाथ काम करता है, पैर शरीर का बोझ सम्हालता है। दोनों के कार्य अलग हैं पर अवलम्बित हैं-एक दूसरे पर। पैर बागी हो जाय तो शरीर को खड़ा रखना मुश्किल होगा। हाथ अपनी भूमिका सिकोड़ ले तो श्रम के अभाव में भूखों मरने की स्थिति आ जायेगी। शरीर के भीतरी अवयवों पर भी यही नियम लागू होता है। भोजन करने से लेकर, पाचन से रसों में परिवर्तन तक और रसों से रक्त , मज्जा, हड्डी एवं माँस बनने तक की प्रक्रियाओं में विभिन्न संस्थानों की सहयोग भरी भूमिका ही सम्पन्न होती दिखाई पड़ती है। परिवार एवं समाज की सुव्यवस्था भी सहकार की भावना पर आधारित है। समाज रूपी बृहद् परिवार का हर व्यक्ति इकाई है। इसमें रहने वाले व्यक्तियों की योग्यताओं एवं क्षमताओं में अन्तर है। कोई किसी कार्य में निपुण है तो कोई किसी में। एक व्यक्ति प्रत्येक कार्य में दक्ष नहीं हो सकता।

जीवनरूपी गाड़ी को गतिशील रखने के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों की आवश्यकता पड़ती है। जिनकी आपूर्ति कोई भी व्यक्ति अपने एकांगी बलबूते नहीं कर सकता। परस्पर एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। कृषक अन्न पैदा करता है और उदार हृदय से एक छोटा-सा भाग अपने लिए रखकर शेष समाज के लिए दे देता है। श्रमिक विभिन्न प्रकार के उत्पादनों द्वारा दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की आपूर्ति करते हैं। व्यवसायी वस्तुओं के आदान-प्रदान द्वारा उन्हें उपलब्ध कराने में सहयोग देते रहे हैं। अध्यापक शिक्षा के अनुदान से समाज का बौद्धिक विकास करते हैं। चिकित्सक स्वास्थ्य रक्षा का दायित्व सम्हालते हैं। सबका कार्य अलग-अलग है, पर समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे पर किसी न किसी कार्य के लिए आश्रित है। सभी के सहकार से ही जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की आपूर्ति होती है।

व्यक्ति एवं समाज के चेतन घटक में ही नहीं, पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड के जड़ परमाणुओं में भी सहकार की परम्परा ही उनके सन्तुलन को बनाये रखती है। ग्रह नक्षत्र अपनी सम्पदा को अपने तक ही सीमित नहीं रखते दूसरे ग्रहों को भी देते हैं। सूर्य की उदारता तो देखते ही बनती है। अपने मण्डल के समस्त ग्रह नक्षत्रों को ऊर्जा एवं प्रकाश बाँटता रहता है। अन्यान्य ग्रह भी सन्तुलन चक्र में अपना सहयोग देते हैं। अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान से ही सामंजस्य बना रहता है।

सहयोग के साथ संघर्ष का क्रम भी अनिवार्य रूप से डडडडडा है। सन्तुलन के लिए यह भी आवश्यक है। सहयोग सजातीय के प्रति-सत्प्रवृत्तियों के प्रति होना आवश्यक है। विजातीय तत्व-अवांछनीयताओं के प्रति नहीं। वहाँ तो संघर्ष का रास्ता अपनाना पड़ता है। विकृतियाँ समय-समय पर कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं। वे शरीर की हो अथवा समाज की उनसे लोहा लेना पड़ता है। स्वास्थ्य संरक्षण के लिए शरीर के अंगों का आपसी सहकार जितना आवश्यक है उतना ही बाहरी अवरोधों से सुरक्षा के उपाय भी। नेत्र को हर क्षण धूल के कणों, छोटे कीड़ों का सामना करना पड़ता है। रक्त के श्वेत कण बाहर से आये विषाणुओं को मारने के लिए अपनी पूरी शक्ति से जुट जाते हैं। हार और जीत का-मरने और मारने का फैसला हुए बिना वे कुशल सैनिकों की भाँति युद्ध मोर्चे पर डटे रहते हैं। संघर्ष की यह प्रवृत्ति ही शरीर संस्थान को बीमारियों के बाह्य प्रकोप से बचाये रहती है। कमजोरी जराजीर्ण स्थिति में इसके अवरोध आने से ही अनेकों प्रकार की बीमारियाँ अपना अड्डा शरीर में जमा लेती हैं।

समाज की सुव्यवस्था के लिए भी सहकार के साथ-साथ संघर्ष का होना आवश्यक है। अवांछनीय तत्व वहीं घुसपैठ मचाते हैं जहाँ वे देखते है कि विरोध का अभाव है। विरोध न करने के करण ही चन्द डाकू आततायी अपने प्रयोजन में सफल हो जाते हैं अन्यथा उनकी इतनी सामर्थ्य कहाँ कि विपुल जन-समुदाय से लोहा ले सकें। समाज का पराभव सहकार के अभाव में ही नहीं होता वरन् अवांछनीयताओं के प्रति संघर्ष न करने के कारण भी होता है।

सन्तुलन के लिए तीसरा सिद्धान्त है-सामंजस्य की प्रवृत्ति-परिस्थितियों से तालमेल बिठाने की कला। सहनशीलता सहिष्णुता का गुण। मौसम के अनुरूप शरीर अपने को ढाल लेता है। शीत ऋतु में ठण्ड सहन करने की क्षमता तथा गर्मी में ताप सहन करना। अभ्यास करने पर कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी रहने की सामर्थ्य विकसित कर लेता है। ध्रुव प्रदेशों की भयंकर ठण्ड एवं सहारा जैसे मरुस्थल की भीषण गर्मी में भी शरीर अपने को ढाल लेता है। शरीर की सहनशीलता एवं सहिष्णुता की क्षमता ही उसका अस्तित्व बनाये रखती है।

सामंजस्य समाज की सुव्यवस्था के लिए भी अपनाना पड़ता है। समाज में रहने वाले व्यक्तियों के स्वभाव अभिरुचियों में भारी अन्तर होता है। हर मनुष्य में देव और दानव भी-सद्गुण है और अवगुण भी। उनसे तालमेल बिठाकर चलना पड़ता है। अवगुणों से अपने को बचाये रखने तथा सद्गुणों से लाभ उठा लेना सामंजस्य दृष्टि द्वारा ही सम्भव है। हर व्यक्ति को न तो अपने इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है और न ही स्वभाव में परिवर्तन किया जा सकता है। आपसी संघर्ष परस्पर ताल-मेल न बिठा पाने के कारण ही उत्पन्न होता है।

जड़-चेतन में, व्यक्ति एवं समाज में सन्तुलन के लिए चौथा महत्वपूर्ण पक्ष है क्रियाशीलता का। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय स्पष्ट होगा कि विराम नाम की स्थिति का कहीं भी अस्तित्व नहीं है। स्थिर-जड़ दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं के परमाणुओं में भी तीव्र गति हो रही है। बिना विश्राम लिये परमाणु के कण प्रोटान, इलेक्ट्रान एक निश्चित गति से नाभिक के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे हैं। वस्तुओं का अस्तित्व इस गति प्रक्रिया पर ही टिका हुआ है। यह एक क्षण के लिए भी बन्द नहीं होता स्थिरता का अर्थ होगा वस्तु को अपनी सत्ता ही गँवा बैठना।

विराट् सृष्टि का कोई भी घटक स्थिर नहीं रहता। पृथ्वी 29.8 कि. मी. प्रति सेकेण्ड की गति से चक्कर काट रही है। चन्द्रमा तीव्र रफ्तार से दौड़ा चला जा रहा है। सूर्य भी स्थिर नहीं है। अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों की भी यही स्थिति है। उनमें से एक भी विश्राम के मूड में आ जाय तो सारा सन्तुलन डगमगा जायेगा।

बाह्य रूप से स्थिर दिखाई पड़ते हुए भी शरीर के भीतर निरन्तर गति बनी हुई है। श्वास 18 बार प्रति मिनट के हिसाब से भीतर आता है। हृदय 72 सब 75 बार प्रति मिनट धड़कता है। हृदय 5−6 लीटर रक्त प्रति मिनट फेंकता है। रक्त 07 से. मी. प्रति सेकेण्ड की गति से चलता है। शरीर के भीतरी अवयव कभी भी शान्त नहीं बैठते। स्थिरता तो मृत्यु का पर्याय है-क्रियाशीलता जीवन का शरीर ही नहीं परिवार एवं समाज को सुविकसित करने, जीवन्त बनाये रखने में गतिशीलता की ही भूमिका होती है।

पाँचवाँ पक्ष है-अनुशासन का। अनुशासन के अभाव में क्रियाशीलता उच्छृंखल बन जाती है। यही जड़ परमाणुओं को आपस में बाँधे रहता है परमाणु के प्रत्येक कण अपनी निर्धारित कक्षा एवं गति में चक्कर काटते रहते हैं। अनुशासन की मर्यादाओं का उल्लंघन करते ही भयं कर विस्फोट का संकट उत्पन्न हो जाता है। शरीर के प्रत्येक अवयव अपने सीमा क्षेत्र में रहते हुए अपनी निर्धारित भूमिका सम्पन्न करते हैं। उनके बागी होते, उच्छृंखल बनते ही अनेकानेक रोग उठ खड़े होते हैं। तथा जीवन-मरण तक का संकट उत्पन्न हो जाता है।

पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता एवं अनैतिकता को बढ़ावा देती हैं। नैतिकता का अंकुश न रहे तो परिवार को टूटते एवं समाज को बिखरते देरी नहीं लगती। जड़ सृष्टि हो अथवा चेतन दोनों के सन्तुलन के लिए अनुशासन का होना आवश्यक है।

जड़-चेतन को सुव्यवस्थित बनाये रखने के लिए एक स्वचालित प्रक्रिया चल रही है। जिसे गतिचक्र कहते हैं। जिसका एक निश्चित प्रयोजन है। सृष्टि का प्रत्येक घटक अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति में संलग्न है। बादल बरसता है पृथ्वी की प्यास बुझाने के लिए। नदियाँ प्राप्त जल को समुद्र को सौंप देती है। समुद्र भी संग्रह नहीं करता। प्राप्त जल को वाष्प बनाकर उड़ा देना है जो बादलों में परिवर्तित हो जाता है। यह चक्र बिना किसी व्यतिरेक के चलता रहता है।

शरीर में भी यह परिवर्तन चक्र सतत् देखा जा सकता है। भोजन से रस, रस से रक्त माँस-मज्जा बनने की प्रक्रिया निर्बाध रूप से सम्पन्न होती रहती हैं। नई कोशिकाएँ उत्पन्न होती हैं-पुरानी का निष्कासन होता है। शरीर मरता है-नये का प्रादुर्भाव होता है। फलतः जीवन-मरण का चक्र जीव-जगत का प्रवाह बनाये रहता है। यदि वह चक्र रुक जाय तो जीवन का अस्तित्व हो संकट में पड़ जायेगा ।

सहकारिता, संघर्षशीलता, सामंजस्य, क्रियाशीलता, अनुशासन, गतिचक्र के सिद्धान्त एकात्मकता के बिना अधूरे रह जाते हैं। समस्त सृष्टि में-जड़-चेतन में एक जोड़ने के लिए ही सभी व्यापार चल रहे हैं। एक सत्ता में समस्त सृष्टि गुँथी हुई है। एक ब्रह्म ही सर्वव्यापी है- सब में समाया हुआ है। सभी सिद्धान्त इसी तथ्य का बोध कराते हैं। प्रकृति एवं जीव जगत के बीच काम कर रहा इकालोजिकल सन्तुलन उस एक सत्ता का ही परिचय देते हैं। जैसे-जैसे इस दिशा में मनुष्य के कदम आगे बढ़ेंगे वह विराट् एक चेतना और भी स्पष्ट रूप में व्यक्त होती जायेगी। अनुभूति का अभाव ही समाज में अनेकानेक समस्याएँ खड़ी कर रहा है। एकात्मता के बोध से ही समाज में स्नेह-सौहार्द एवं आत्मीयता की भावना बढ़ेगी।

ये सात सिद्धान्त ऐसे हैं जो सन्तुलन के लिए आवश्यक हैं। चाहे वह शरीर के लिए अभीष्ट हो अथवा समाज अथवा ब्रह्माण्ड के लिए। इन सातों का परिपालन अनिवार्य हैं। असन्तुलन जन्य विक्षोभों को दूर करने के लिए मनुष्य को इन सातों सिद्धान्तों का व्यावहारिक जीवन में समावेश करने से चैन से रहने और प्रगति डडडड पर आगे बढ़ने का सुयोग मिलेगा।

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