Magazine - Year 1983 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
यहाँ ध्रुव कुछ नहीं सभी परिवर्तन शील है।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गाड़ी के पहिये घूमते रहते हैं और धुरी यथास्थान स्थिर रहती है। इसी प्रकार समझा जाता रहा है कि पृथ्वी का एक ध्रुव स्थान है जिस पर वह लट्टू की कील की तरह घूमती रहती है। यह स्थिरता का सिद्धान्त अब निरस्त हो गया है और माना जाता है कि इस ब्रह्माण्ड में हर वस्तु गतिशील है। स्थिरता किसी के भी भाग्य में बदी नहीं है।
पृथ्वी नारंगी जैसी शकल की मानी गई है। उसके दोनों सिरों पर गड्ढे हैं। भीतर धँसा हुआ उत्तर ध्रुव और बाहर उभरा हुआ दक्षिण ध्रुव। सामान्य गोलाई पृथ्वी पर अन्यत्र तो है पर इन दोनों क्षेत्रों में व्यतिक्रम हुआ है। इसलिए सूर्य से सम्बन्धित अनुदानों का लाभ वहां अन्यत्र की तरह नहीं मिलता है। गढ्डे अपने किस्म का व्यतिरेक उत्पन्न करते हैं। पृथ्वी की भ्रमण कक्षा भी वृत्ताकार न होकर अण्डाकार है। साथ ही वह लट्टू की तरह चटकती हुई भी घूमती है। ऐसे ही कुछ अन्य कारण भी हैं जिनके कारण ध्रुवों की स्थिति में व्यतिरेक उत्पन्न होता है। वहाँ छह महीने की रात और छह महीने का दिन होता है, पर वह दिन भी वैसा नहीं जैसा कि हम अपने यहाँ देखते हैं। इसी प्रकार वह रात भी वैसी नहीं होती जैसी अन्यत्र होती है। यह व्यतिरेक ध्रुवों की अपनी भिन्नता विचित्रता के कारण है। व्यक्ति हो या ग्रह-नक्षत्र अथवा धरातल का कोई भाग खण्ड, सामान्य से असामान्य की स्थिति में रहेगा तो उसे असाधारण परिस्थितियों में भी रहना होगा। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की परिस्थितियाँ धरातल के अन्य स्थानों से इसी कारण भिन्न हैं। वहाँ और भी कितने ही आश्चर्यजनक दृश्य एवं तथ्य दृष्टिगोचर होते हैं।
उत्तरी ध्रुव में प्रायः सीटी जैसी पैनी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती रहती हैं। यह अन्तरिक्ष से धरती पर उतरने वाले अनुदानों की जानकारी देती हैं। इनके उतार-चढ़ाव को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि किस स्तर के प्रवाह ऊपर से नीचे आ रहे हैं। इस क्षेत्र में 7000 मील की ऊँचाई पर विद्युतीय गैसों का बादल मंडराता हुआ देखा गया है। समझा जाता है कि वह छलनी का काम देता है और उन्हीं ऊर्जाओं को धरती पर उतरने देता है जो उसके काम की हैं।
उत्तरी ध्रुव की धरती भीतर की ओर धँसी है। इसकी गहराई 14000 हजार फुट है। दक्षिणी ध्रुव ऊँट की पीठ पर देखे जाने वाले कूबड़ की तरह ऊपर उठा हुआ है। यह उभार 19000 फुट है। यहाँ की बर्फ स्थिर है जबकि उत्तरी ध्रुव पर वह बहती रहती है। वहाँ एस्किमो जाति के मनुष्य तथा कुत्ते, हिरन, रीछ जैसे प्राणी पाये जाते हैं पर दक्षिणी ध्रुव पर पेन्गुइन और बिना पंख वाले मच्छर के अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं है। इस क्षेत्र में रात धीरे-धीरे आती है और सूर्य बहुत कम समय तक निकलता है फिर भी उसके अस्त होते समय की लालिमा देर तक छाई रहती है। रात्रि बहुत लम्बी होती है। उसमें उत्तर दिशा में ही थोड़ी-सी प्रकाश आभा दीख पड़ती है। सूर्य किरणों के विचित्र मोड़-मरोड़ों के कारण इस क्षेत्र के आकाश में चित्र-विचित्र दृश्य दीखते रहते हैं। कभी-कभी सूर्य हरे रंग का दीख पड़ता है।
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की अपनी-अपनी विचित्रताएँ हैं, जो अजनबी को हतप्रभ कर देने के लिए पर्याप्त है। कई वस्तुएँ जमीन पर होते हुए भी अपने आकार से कई गुनी बड़ी दिखाई पड़ती हैं और हवा में अधर में लटकी हुई प्रतीत होती हैं। कई बार बर्फ में, कई बार हवा में ऐसे नकली सूर्य-चन्द्र चमकने लगते हैं जो अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक जैसे प्रतीत होते हैं। उत्तरी ध्रुव में रातें सामान्य क्षेत्रों के बीस दिनों के बराबर लम्बी होती हैं। क्षितिज में सूर्य का दर्शन भी 16 दिन तक बना रहता है। चन्द्रमा की रोशनी में सूर्य के प्रकाश की तरह काम हो सकता है।
यह दृश्यमान ध्रुव हुए। इसके अतिरिक्त दो अदृश्य ध्रुव भी हैं जिन्हें विद्युत चुम्बकीय ध्रुव कहते हैं। वे स्थान बदलते रहते हैं। जबकि दृश्यमान ध्रुवों का स्थान परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता है। जब होता है तब धरातल को प्रभावित करता है। समुद्रीय भाग का कुछ अंश थल के रूप में उभरता और थलीय भाग पानी में डूबता देखा गया है। महाद्वीपों की स्थिति में इसी कारण परिवर्तन होते रहे हैं। कुछ भाग बँटकर विलग हुए हैं। और कुछ विलग खण्डों को समीपता का लाभ मिला है। वे जुड़कर एक हो गए हैं। किन्तु विद्युत चुम्बकीय ध्रुवों के परिवर्तन से ऐसी भौगोलिक हेरा-फेरी नहीं होती। उनके कारण पृथ्वी के वातावरण पर प्रभाव पड़ता है और प्राणियों का आन्तरिक स्तर इस कारण बदलते हुए देखा गया है।
नक्शे में दिखाये गये उत्तर दक्षिण ध्रुव भौगोलिक हैं। नारंगी के शकल वाली धरती के दो सिरे गड्ढे एवं टीले जैसे हैं, यही सर्वविदित ध्रुव हैं। चुम्बकीय ध्रुव इससे भिन्न होते हैं। इन दिनों चुम्बकीय और भौगोलिक ध्रुव अति समीप होने के कारण उनकी संयुक्त स्थिति का परिचय हमें प्राप्त हो रहा है। पर सदा से ऐसा न था। और सर्वदा ऐसा रहेगा भी नहीं। चुम्बकीय ध्रुव अपना स्थान बदलते रहते हैं। यहाँ तक कि वे घूमते-घूमते एक दूसरे के स्थान तक पहुँच जाते हैं। पृथ्वी के आरम्भिक दिनों वाला उत्तरी ध्रुव दक्षिण छोर पर आया है और दक्षिण वाले ने उत्तर वाले के स्थान पर अधिकार कर लिया है। अनुमान है कि अब से दो हजार वर्ष बाद सन् 4000 में फिर यह ध्रुव परिवर्तन की एक परिधि पूरी कर लेगा। इस अवधि में एक या दो शताब्दियों का समय ऐसा भी गुजरेगा जिसमें पृथ्वी का सामान्य गुरुत्वाकर्षण शक्ति में बेतरह घट-बढ़ होने के कारण भयानक उथल-पुथल होगी।
चुम्बकीय परिवर्तनों के अप्रत्याशित परिवर्तन होते हैं। उस कारण न केवल शीत ग्रीष्म की स्थिति में भयानक परिवर्तन हो सकते हैं वरन् प्राणियों की नस्लें भी बदल सकती हैं। भूतकाल में कितने ही हिम युग आये हैं और सर्दी की अधिकता और बर्फ का भरमार से प्राणियों की जान बचना कठिन हो गया है। जिनकी सूझबूझ काम दे गयी या जिन्हें आत्मरक्षा के साधन मिल गये, मात्र वे ही जीवित रह सके। इसी प्रकार ग्रीष्म युग में ध्रुवों की बर्फ पिघलने से समुद्र की सतह ऊपर उठी है और कितने ही महाद्वीपों को उदरस्थ करने के साथ-साथ ही नये द्वीप नीचे से ऊपर उछलने का उपक्रम बना है। इस प्रकार धरातल और समुद्र के स्थानों में आश्चर्यजनक परिवर्तन होते रहे हैं। यह सब पृथ्वी की चुम्बकीय क्षमता में व्यतिरेक उत्पन्न होने के कारण होता रहा है। इसका मूलभूत कारण ध्रुवों का स्थान बदलते रहना ही है।
ध्रुवों का असाधारण परिवर्तन अब से 90 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय की समुद्री तल छट निकालकर नील उपडाइक जैसे मूर्धन्य शोध कर्त्ताओं ने जाना है कि इस चुम्बकीय व्यतिरेक के कारण समुद्र क्षेत्र में ‘रेडियो लारिया’ नामक एक जीव कोश अचानक ही उपज पड़ा, साथ ही पूर्ववर्ती कितने ही जीवन घटकों का लोप हो गया। कितनों ही में आनुवाँशिक परिवर्तन हुए और पुरानी शकल सूरतों में भारी उलट-पुलट हो गई। ऐसा इसलिए हुआ कि धरती की चुम्बकीय दुर्बलता देखकर आकाश से कास्मिक किरणें उतर पड़ी और उनके प्रभाव से प्राणियों की नस्लें तथा पदार्थों की विशेषताओं में असाधारण व्यतिरेक उत्पन्न हुआ। कितने ही छोटी जाति के प्राणी बहुत बड़े आकार के हो गये और कितने ही विशालकाय होने पर उस बोझ से आत्मरक्षा न कर सके और सदा के लिए समाप्त हो गये। कितनों की जातियों का तो पूरी तरह रूपांतरण ही हो गया।
ध्रुवों की स्थिति का पर्यवेक्षण करने पर कई तथ्य सामने आते हैं। उनमें से एक यह है कि यहाँ कोई वस्तु स्थिर नहीं। दूसरा यह कि मानवी पुरुषार्थ का अत्यधिक महत्व होते हुए भी वह सर्वशक्तिमान नहीं है। उसे भी न केवल धरातल की वरन् ब्रह्माण्डीय परिस्थितियों से भी प्रभावित होना पड़ता है। इन तथ्यों का निष्कर्ष यह निकलता है कि हम न केवल परिवर्तनों का सामना करने की तैयारी रखें वरन् यह भी सोचें कि जानकारियाँ जो हस्तगत हैं, वे पूर्ण नहीं है। उनमें क्रमिक विकास की दिशा में बढ़ते हुए पिछली मान्यताओं की अपेक्षा अधिक प्रमाणित जानकारियां प्राप्त होती रही हैं। अभी इसमें और भी सुधार की गुंजाइश रहेगी। आत्यंतिक सत्य तक पहुँचने के लिए अभी बहुत समय धैर्य रखना पड़ेगा। साथ ही यह भी समझना होगा कि उपलब्ध जानकारियाँ न तो परिपूर्ण हैं और न स्थिर। इसलिए अपने मस्तिष्क के कपाट खुले रखे और अधिक जानने की जिज्ञासा रखते हुए, वर्तमान मान्यताओं को पत्थर की लकीर न मानें। न ही पूर्वाग्रहों से प्रभावित होकर भविष्य सुधार की सम्भावनाओं से आँखें बन्द कर लें।
ध्रुवों के परिवर्तन क्रम को देखते हुए दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि इस हेर-फेर के लिए बाधित करने वाली अन्तर्ग्रही परिस्थितियों का महत्व कम नहीं है। हमारी स्वतंत्रता सीमित है। पुरुषार्थ पर भी सीमा बन्धन है। भूलोक इस ब्रह्माण्ड परिवार का एक छोटा सा घटक और मनुष्य व्यापक प्राणि जगत का एक नगण्य सा सदस्य है। हमें अपनी मर्यादाएँ समझनी चाहिए और पारिवारिकता के अनुबंधों को ध्यान में रखकर अपनी रीति-नीति निर्धारित करनी चाहिए।
अरस्तू के ब्रह्माण्ड का केन्द्र अपनी पृथ्वी थी और अन्य सभी ग्रह-नक्षत्र उसकी परिक्रमा करते थे। रोमन चर्च ने भी यही मान्यता अपना ली। बाद में जब गैलीलियो, कोपरनिकस, न्युटन आदि ने उस मान्यता में परिवर्तन करने का प्रयास किया तो उन्हें पूर्व पंथियों के साथ लड़ाई मोल लेनी पड़ी और उत्पीड़न भरी प्रताड़ना सहनी पड़ी। इससे पूर्व अरस्तू की मान्यता को एक दूसरा खगोलवेत्ता एरिस्यर्कस भी चुनौती दे चुका था। वह सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र बताता था और आकाश को जगमगाते तारों से सजी हुई चादर कहता था।
अब न तो सूर्य ध्रुव केन्द्र है और न महासूर्य, जिसकी परिक्रमा में अपना सौरमण्डल निरंतर परिभ्रमण करता रहता है। महासूर्यों का समुदाय किसी अतिसूर्य के इर्द-गिर्द घूमता है। परिक्रमा क्रम अन्ततः कहाँ तक पहुँचता है, कोई नहीं जानता।
ध्रुव अन्तर्ग्रही परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं तथा प्रभावित करते हैं। पृथ्वी के पास सब कुछ अपना नहीं है। उपलब्ध वैभव में से अधिकाँश भाग तो उसे सूर्य से अनुदान रूप में प्राप्त हुआ है। किन्तु बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती। समूचा ब्रह्माण्ड पृथ्वी को कुछ न कुछ प्रदान करता है। वह साधारण भी होता है और असाधारण भी। यह पृथ्वी की ध्रुवों की सूझबूझ और क्षमता पर निर्भर है कि वे उसमें से कितना आवश्यक उपयोगी समझते हैं और कितना ग्रहण कर सकने की पात्रता से सम्पन्न है।
उत्तरी ध्रुव अन्तर्ग्रही क्षेत्र के सिर का काम करता है। अन्त, जल, वायु जैसे आहार वही ग्रहण करता और पेट में धकेलता है। आँख, कान, नाक आदि बाह्य ज्ञान को मस्तिष्क गह्वर तक पहुँचाने का काम भी शिर का ही है। दोनों ही ध्रुव बेतुका बेडौल होते हुए भी ग्रहण विसर्जन का काम करते हैं। दक्षिण ध्रुव को गुदा मार्ग कहना चाहिए। पचने के उपरान्त जो अनावश्यक मलवा कचरा शेष रह जाता है वह इसी मार्ग से आन्तरिक्ष के खाई खन्दक में धकेल दिया जाता है। इस प्रकार हम अंतर्ग्रही परिस्थिति से सतत् प्रभावित होते भी हैं और करते भी हैं।
ध्रुव क्षेत्र की स्थिति इस ब्रह्माण्ड की भौतिक स्थिति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी देने और आदान-प्रदान में समर्थ रहने की है। वह स्थिरता के पूर्वाग्रह अपनाने वालों को निरुत्साहित करती है और कहती है- ‘इस परिवर्तनशील विश्व में हम हठवादी न बनें, जिज्ञासु की तरह अधिक और सही जानने की उत्सुकता बनाये रहें। साथ ही हमें यह भी सोचना होगा कि पृथ्वी समेत उसके समस्त जड़ चेतन निवासी किसी विशाल विश्व व्यवस्था के अनुशासन में बँधे हुए उपलब्ध स्वतन्त्रता का इतना ही उपयोग करें जिससे विश्व अनुशासन में विग्रह और व्यतिरेक उत्पन्न न हो। ग्रहण का औचित्य है, वह उपलब्ध भी है। किन्तु विसर्जन की बात को भूलें नहीं ध्रुव ग्रहण और विसर्जन में निरत रहकर ही अपने ग्रह गोलक का सन्तुलन बनाये हुए है। हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियाँ भी इसी विश्व व्यवस्था के अनुरूप बननी और गतिशील रहनी चाहिए।