Magazine - Year 1983 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
तन्त्र अध्यात्म क्षेत्र का भौतिक विज्ञान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
चेतना की विकास प्रक्रिया को योगाभ्यास कहते हैं और शरीर को अधिक समर्थ बनाने की पद्धति को तंत्र साधना। तन्त्र प्रयोगों के द्वारा साधक के शरीर की विद्युत को सामान्य स्तर की तुलना में कही अधिक प्रखर किया जा सकता है और उसका उपयोग अपने तथा दूसरों के लिए प्रायः वैसा ही हो सकता है जैसे कि प्रकृति साधनों में से किन्हीं के द्वारा किया जाता रहा है। यह उपयोग भला भी हो सकता है, बुरा भी। आग से शीत निवारण का लाभ भी मिल सकता है और किसी घर नगर को भस्म कर देने का अनर्थ भी हो सकता है। यही बात तन्त्र साधना के सम्बन्ध में भी है। वह विशुद्ध रूप से शरीरगत पंच तत्वों में सन्निहित वरिष्ठ ऊर्जा का उत्पादन है। उपयोग प्रयोक्ता की मर्जी पर निर्भर है।
शरीर एक ऐसा अद्भुत यन्त्र है, जिसमें न केवल जीवन निर्धारण निर्वाह के सामान्य क्रिया-कलाप सहज क्रम में होते रहते हैं। वरन् यदि प्रयत्न किया जाय तो उसमें सन्निहित उन प्रसुप्त क्षेत्रों को भी जगाया जा सकता है जो वैज्ञानिक क्षेत्र में मिलते हैं, या मिल सकते हैं। अनेक यन्त्र उपकरणों की सहायता से प्रकृति शक्तियों को वशवर्ती करके उनसे आश्चर्यजनक काम लिये जाते हैं। यदि शरीरगत अदृश्य मर्मस्थलों को उभारा जा सके तो उससे भी वही काम हो सकते हैं जिन्हें वैज्ञानिक बहुमूल्य उपकरणों के माध्यम से कर सकते हैं। शरीर एक ऐसा ऊर्जा भण्डार है जिसे प्रकृति की किसी भी क्षमता के साथ संबद्ध करके उन कृत्यों को किया जा सकता है जो भौतिक जगत में मनुष्य द्वारा किये जा सकते हैं। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं उन्हें तन्त्र साधना कहते हैं। योगाभ्यास की धारा उससे सर्वथा भिन्न है। उसमें आत्मा और परमात्मा के मध्यवर्ती चेतनात्मक-भावनात्मक प्रयोजन पूरे किये जाते हैं। उस क्षेत्र की सफलताओं को ‘ऋद्धि’ कहा जाता है। वे ऋषियों में देखी जाती है। तंत्र साधना से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। सिद्धियां अर्थात् समर्थता एवं सम्पदा के सहारे मिल सकने वाली सफलताएँ।
योग का केंद्र ब्रह्मरंध्र, सहस्रार है। तन्त्र का मूलाधार- कुण्डलिनी केन्द्र है। यह जननेंद्रिय मूल में है और योग का उद्गम मस्तिष्क में। यो किसी न किसी अंश में दोनों ही साधनाओं के लिए दोनों का प्रयोग करना पड़ता है। कुण्डलिनी साधना के लिए मनोगत संकल्प चाहिए और योग साधना के लिए जननेंद्रिय संयम ब्रह्मचर्य। इस प्रकार दो धाराएँ गंगा-यमुना की तरह पृथक-पृथक होते हुए भी मूलतः हिमाचल के एक विशेष क्षेत्र के साथ समान रूप से जुड़ी हुई हैं।
तन्त्र साधना में मस्तिष्क के अचेतन भाग का एक रहस्यमय केन्द्र झकझोरा जाता है। इस केन्द्र को अविज्ञात, रहस्यमय या अतीन्द्रिय संस्थान के नाम से जाना जाता है। इसकी सहायता से ही जननेंद्रिय मूल में सन्निहित कुण्डलिनी क्षमता को उभारने, नियन्त्रित करने एवं दिशा विशेष में मोड़ने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। संकल्प बल के अभाव में तो जननेन्द्रिय स्वस्थ समर्थ होने पर भी यौन कर्म ठीक तरह कर सकने तक में समर्थ नहीं होते। मानसिक नपुंसकता प्रायः संकल्प बल की कमी से समर्थों को भी असमर्थ बना देती है इस सम्बन्ध में की गई वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि मानवी मस्तिष्क का एक बड़ा क्षेत्र ‘साइलेण्ट एरिया’ मौन क्षेत्र- कहलाता है। यहां की हलचलें प्रायः निस्तब्ध जैसी प्रतीत होती हैं और समझ में नहीं आता है कि इसकी उपयोगिता क्या है। तो भी पाया गया है वहाँ किसी प्रकार का आघात लगने या उभार आने से सामान्य जीवन भी असामान्य बनते देखा जाता है।
अजित मुकर्जी की ‘दि तांत्रिक वे’, स्वामी अगेहानन्द की ‘तान्त्रिक परम्परा’ - डिरोप्प की- ‘यौन ऊर्जा’- हास जेक्सन की- ‘पश्चिमी मनोविज्ञान और भारतीय साधना’- ओमर गैरिसन की- ‘तन्त्र यौन योग’- उलरिख हास रोकर की ‘हठयोग प्रदीपिका’ - फिलिप रासन की, ‘तान्त्रिक कला’ - जान दि बाइट की - ‘चेतना का सीमान्त’ हाइन रिख जीमर की ‘भारतीय सभ्यता में उपाख्यान और प्रतीक’ - जॉन वुडरफ की ‘दि सर्पेन्टाइन पावर’ आदि पुस्तकें तन्त्र के दर्शन सिद्धांत और विधि-विधान पर यत्किंचित् प्रकाश डालती है तो भी यह विषय ऐसा है कि जिसमें निजी अनुभव के आधार पर सामयिक विधि-व्यवस्था और उसकी वर्तमान परिस्थितियों में सम्भावित उपलब्धियों पर प्रकाश डाला जा सकता है एवं इस विषय में जन-मानस में बैठी भ्रांतियों को काफी सीमा तक हटाया जा सकता है।
सामयिक एवं परिस्थितियों का संकेत इसलिए किया गया है कि तन्त्र की प्रौढ़ता वाले युग में जिस प्रकार का वातावरण था, वैसा अब नहीं रहा। जलवायु में भारी अन्तर आ गया है। तद्नुसार शरीरों की क्षमता तथा मनःसंस्थानों की दृढ़ता में असाधारण हेर-फेर हुआ है। उन दिनों परम्परागत श्रद्धा के आधार पर साधनाएँ सहज सिद्ध थीं, पर अब तर्क युग में हर व्यक्ति अध्यात्म प्रतिपादनों के सम्बन्ध में शंकाशील और उदास है। इसी प्रकार चिन्तन व क्रिया दोनों में इन्द्रिय संयम घटते चले जाने से मनोबल में भी कमी आई है। आहार की शुद्धता न रहने से चित्त की चंचलता भी असाधारण रूप से बढ़ गई है। फिर प्रत्यक्ष कुछ कर गुजरने वाले अपनी सफलता देखकर अनुचरों में प्रगाढ़ विश्वास उत्पन्न करने वाले मार्गदर्शक भी कहां रहे हैं? फिर भी अध्ययन पर आधारित निष्कर्ष इस सम्बन्ध में असीम संभावनाओं का स्रोत मानवी काया को बताते हुए उस दिशा में पराक्रम पुरुषार्थ की महत्ता सिद्ध करते हैं। मानवी विद्युत सामान्यतया निर्वाह के काम चलाऊ प्रयोजनों में ही खपती रहती है किन्तु विशेष स्थिति में उसका उपयोग अन्य प्रयोजनों के लिए भी हो सकता है। इस तथ्य को प्रामाणित करने वाली घटनाएं कभी-कभी अनायास ही प्रकट होती देखी गई है।
चीन में ऐसे कई बच्चे खोज निकाले गये हैं जिनमें एक्सरे-लेसर रेज जैसी वेधक दृष्टि है। वे दृष्टि की परिधि में- बाहर की वस्तुओं को देख और कागजों को पढ़ लेते हैं। ल्हासा के ‘ट्रेडिशनल मेडीसिनल स्कूल’ की शिक्षिकाओं ने इस खोज-बीन में बहुत उत्साह दिखाया और दौरा करके ऐसे विशेष क्षमता सम्पन्न बालकों को ढूंढ़ निकाला है जिनकी आंखें अदृश्य दर्शन कर सकती हैं। बड़ी उम्र वालों में यह विशेषता नहीं पाई गई। इससे प्रतीत होता है कि इस प्रकार के अनुभवों के लिए बालकपन की अवधि ही अधिक समर्थ रहती है। चीन की दो कुमारिकाओं की अतीन्द्रिय क्षमता पिछले दिनों संसार भर में चर्चा का विषय रही है। यह लड़कियां हैं 13 वर्षीय रेंग क्वेग और 11 वर्षीय बैग विंग। यह दोनों दूर रखे हुए कागजों को पढ़ सकती हैं। दीवार के पीछे बैठे हुए व्यक्तियों को पहचान सकती हैं। यहाँ तक कि कागज के टुकड़े बगल में दबा कर भी उनमें जो लिखा है उसे पढ़ सकती हैं।
इन लड़कियों का परीक्षण 30 वैज्ञानिकों द्वारा हुआ। जो तीन दिन चला और 25 टैस्ट लिये गये। इस परीक्षण के समय अन्यान्य उत्सुकजनों को भी बैठने व देखने का अवसर दिया गया। इस परीक्षण का विवरण उस देश की अनेक पत्रिकाओं में छपा। सभी इस सामर्थ्य के प्रदर्शन को देखकर हतप्रभ थे। जबकि यह प्रसुप्त क्षमताओं के जागरण की एक झलक भर थी।
पिछले दिनों तन्त्र और अनाचार प्रायः पर्यायवाची बने रहे हैं। उस विद्या का उपयोग, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, संतमन जैसे हेय प्रयोजनों के लिए होता रहा है। दूसरों को आतंकित करके या आक्रमण से अस्त-व्यस्त करके अपने क्षुद्र स्वार्थों को सिद्ध करने वाले तांत्रिकों ने इस विद्या के प्रति लोक मानस में तिरस्कार एवं भय का संचार किया है। इसके कितने ही उदाहरण प्रमाण भी देखे जाते हैं।
स्काटलैंड यार्ड के उड़न दस्ते के प्रमुख राबर्ट फेवियन ने नौकरी से निवृत्त होने के उपरान्त अपनी अनुभव पुस्तक प्रकाशित की है। उसमें ऐसे अनेक विवरणों का उल्लेख है जिसमें तांत्रिकों द्वारा कितने ही लोगों को न केवल हैरान किया वरन् उन्हें मार तक डाला गया। इंग्लैंड के वारबिक शायर नगर में कुछ समय पूर्व एक उद्यान मालिक चार्ल्स वालटन की लाश बरगद के पेड़ तले पड़ी हुई मिली। जमीन कुरेदने के लिए काम आने वालों पैने दांतों वाला लोहे का पंजा उसकी गरदन में घुसा हुआ था। साथ ही एक इस तरह की दरार सीने में थी जैसी कब्रिस्तानों में क्रूस चिन्ह की पाई जाती है। इस हत्या का रहस्य खोजने का काम वहाँ की गुप्तचर संस्था स्काटलैंड के अधिकारी राबर्ट फेबियन को सौंपा गया। उसने घटना के समीपवर्ती लोगों से पूछताछ करने की कोशिश की तो लगा कि वे जानते हुए भी बताना नहीं चाहते। इसी प्रकार की एक मौत इस इलाके में पहले भी हो चुकी है। अन्ततः उसने जाना कि यह मारण मन्त्र के प्रयोग का मामला है। इस विद्या को उस क्षेत्र के कई यांत्रिक जानते हैं। और किसी लालच या प्रतिशोध वश ऐसे कृत्य जादू के जोर से करते रहते हैं।
गुप्तचर विभाग के पास ऐसी ही कुछ और भी घटनाएँ दर्ज हैं। सन् 1971 में लन्दन में ऐसी कितनी ही मृत्युएं हुईं जिन्हें न रोगजन्य कहा जा सकता था न दुर्घटनाजन्य। अच्छे खासे आदमी ऐसे ही बेमौत मरे थे। कहा जाता था कि वहाँ के घुमक्कड़ बंजारे ऐसे कृत्य करते हैं उनके जादू से ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं। पूछताछ करने पर बंजारा सभा के एक सदस्य ग्रेटन पक्सन ने यह स्वीकार भी किया था कि बंजारे यह विद्या जानते हैं और उनकी मरण विद्या से ऐसी घटनाएं घटित होती भी रहती हैं। उन्होंने प्रमाण में ऐसी घटनाओं का वर्णन भी किया।
इस संदर्भ में मनोविज्ञान वेत्ताओं से पूछा गया तो उनने कहा कि भयभीत प्रकृति के शंकाशील व्यक्ति किसी के डरा देने पर इस प्रकार स्व संकेतों के आधार पर मृत्यु के मुंह में जा सकते हैं। इन्हें एक प्रकार से अन्ध विश्वासजन्य आत्म-हत्या का मामला कहा जा सकता है।
कैलीफोर्निया के फिल्म अभिनेता ल्यू ग्रेजाना को किसी तांत्रिक ने मार डालने की चुनौती दी थी। वह डर गया और अपने को एक कमरे बन्द कर लिया। दरवाजा तक वह खोलता नहीं था। ऊपर के रोशन दान से ही घर वाले उसे भोजन पानी पहुँचाते थे। इस प्रकार निर्धारित चुनौती की 22 दिन अवधि समाप्त होने पर उसने दरवाजा खोला और बाहर निकला। इसे संयोग ही कहना चाहिए कि जैसे ही वह भयभीत मनःस्थिति में सड़क पर बाहर आया कि एक दनदनाता हुआ भारवाही ट्रक उधर से आया और उसे कुचलता हुआ निकल गया।
तन्त्र के हेय प्रयोजन करने वाले अपना व्यक्तित्व एवं स्वभाव भी तद्नुरूप बनाते हैं। “मघं मासं च मीनं च मुद्रा मैथुन मेवच” को अपनाकर जीवित भूत प्रेतों जैसे ढाँचे में अपने को ढालते हैं। श्मशान सेवन, अघोरी आचरण, मृतकों के कपालों का उपयोग, पशुबलि जैसे कृत्यों से अपने को आतंक आक्रमण के लिए पैने हथियार की तरह विनिर्मित करते हैं। आसुरी प्रकृति वाले प्रायः इसी दिशा में कदम बढ़ाते हैं और अपने को शुक्राचार्य विनिर्मित असुर सम्प्रदाय का अनुयायी बताते हैं। सिद्ध तांत्रिकों में रावण, कुम्भकरण, मारीच, भस्मासुर आदि का उल्लेख करते हैं। तो भी यह विद्या वस्तुतः वैसी है नहीं। दुरुपयोग से यों अच्छे साधनों की भी बदनामी होती है पर तथ्यतःतन्त्र एक महत्वपूर्ण आत्मविज्ञान है। उसमें कायगत भौतिकी क्षमता को उभारने का वैसा ही प्रयोजन सध सकता है जैसा कि भौतिक विज्ञानी विभिन्न उपकरणों से साधते हैं। बारूद से पहाड़ तोड़कर रास्ता भी बनाया जा सकता है और किसी अच्छे खासे निर्माण को बर्बाद भी किया जा सकता है। अणु शक्ति से विश्व ऊर्जा की आवश्यकता पूरी हो सकती है। साथ ही यह भी सम्भव है कि उसका विस्फोट करके किसी क्षेत्र, महाद्वीप या समूचे विश्व को भस्मसात् बना दिया जाय। तन्त्र के दुरुपयोग से ही उसका स्तर गिरा है। यदि उसे सही रीति से समझा, संजोया और सत्प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाय तो उसे अध्यात्म क्षेत्र के भौतिक प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त हो सकने वाला अन्तिम महत्वपूर्ण सामर्थ्य स्रोत कहा जा सकता है।