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Magazine - Year 1984 - Version 2

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जीवन बहुमूल्य है इसे व्यर्थ न गंवायें

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First 19 21 Last
किसी वस्तु की कीमत क्या होगी, इसका निर्धारण उथले पर्यवेक्षण से कर सकना सम्भव नहीं है। जब तक उसका स्वरूप एवं उपयोगिता मालूम न हो, तब तक सही मूल्याँकन नहीं किया जा सकता। जानकारियों के अभाव में बहुमूल्य प्रकृति पदार्थ भी पैरों तले सदियों तक रौंदे जाते हैं। आदिम युग में उसकी कीमत दो कौड़ी जितनी थी। धूल कणों में ही सोना, चाँदी, पीतल, अल्यूमीनियम, लोहा, पीतल, ताँबा के अयस्क घुले मिले थे। अधिकाँश व्यक्तियों की नजरों के सामने वे आते भी थे पर किसी को भी विदित न था कि वे इतने कीमती एवं उपयोगी हो सकते हैं। पर जैसे ही उनके विषय में विस्तृत जानकारियाँ मिलीं, उन्हें बहुमूल्य समझा जाने लगा। कोयले के खदानों में ही हीरे के कण भी विद्यमान थे, पर दीर्घकाल तक वे एक अजूबे से अधिक नहीं माने जाते थे। उनकी कीमत उस दिन बढ़ी जब उनका स्वरूप ज्ञात हुआ।

पेट्रोलियम सम्पदा के विपुल भण्डार का परिचय किसी न किसी रूप में तो पहले भी मिलता रहा होगा पर ऊर्जा के रूप में प्रयुक्त करने उससे विपुल धन कमाने का सुयोग हजारों, लाखों वर्षों तक कहाँ बन सका? अभी कुछ सदियों पूर्व तक दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया की आदिम जातियाँ सोने की खदानें पर वैभव से अनभिज्ञ बनी कंगालों की तरह रहती थीं पर उन्हें अपनी बहुमूल्य सम्पदा का जरा भी बोध न था। चेतना उस समय आयी जब अंग्रेज आए और उस पर अपना आधिपत्य जमा कर मालामाल बन गये।

किसी भी वस्तु की सही कीमत लगानी हो तो उसकी विस्तृत जानकारी होनी आवश्यक है। जड़ पदार्थों की तुलना में चैतन्य घटकों की उपयोगिता एवं महता कही अधिक है। कोई भी पदार्थ क्रियाकलाप की दृष्टि से चैतन्य जीवों का स्थानापन्न नहीं बन सकता। मनुष्य चेतना सम्पन्न इस सृष्टि की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई है। तत्व दृष्टियों ने अपनी परोक्ष दृष्टि से पाया है कि सामान्य दिखायी पड़ने वाला मनुष्य भी विलक्षणताओं का भाण्डागार है। यदि उसकी प्रसुप्त क्षमताओं को जागृत किया जा सके तो उसी जड़ कलेवर में महाशक्ति सम्पन्न एक नये मानव का प्रादुर्भाव सम्भव है।

भौतिक विज्ञान की यह विडम्बना रही है कि उसने प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने वाले पदार्थों अथवा संसार के जड़ उपादानों भर का महत्व समझा। मोटी दृष्टि को जितना दिखायी पड़ा तथा प्रयोग में आया मात्र उतने का ही मूल्याँकन किया गया। परोक्ष भूमिका निभाने वाले घटकों की उपेक्षा हुई अर्थ की भाषा में जीवन की व्याख्या करने वालों ने तो कुछ दशकों पूर्व तक शरीर का भी अत्यन्त उथला मूल्याँकन किया था। कुछ विशेषज्ञों का मत था कि शरीर के विभिन्न तत्वों, कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन आदि की बाजारू कीमत लगायी जाय तो वह पचास रुपयों से अधिक नहीं प्राप्त हो सकेगी। परन्तु मानव शरीर की गहराइयों में जाकर खोज करने वालों ने अब उस मान्यता को उलट दिया है। अमरीका के येल विश्वविद्यालय के एक चिकित्सा विशेषज्ञ का मत है कि मानव शरीर से स्रावित होने वाले एन्जाइमों की ही मात्र कीमत लगायी जाय तो लाखों रुपयों से ऊपर होगी। जीवन पर्यन्त शरीर के विभिन्न सूक्ष्म संस्थानों से होने वाले स्रावों की कीमत तो करोड़ों रुपये होगी। कितने ही सूक्ष्म घटक ऐसे हैं जिनकी कीमत ही नहीं लगायी जा सकती। शरीर को स्वस्थ सन्तुलित रखने तथा मानवी विकास को गति देने में पिट्यूटरी तथा पीनियल ग्रन्थियों का जो योगदान है, उनकी कीमत किस तरह आँकी जा सकती है। वफादार नौकर की तरह बिना कहे अपनी-अपनी सक्रिय भूमिका निभाने वाले अंगों-हृदय, गुर्दे, फेफड़े, आँख, नेत्र, कान आदि के कार्यों का मूल्याँकन पैसों में कर सकना कैसे सम्भव है? उक्त विशेषज्ञ का मत है कि मनुष्य में भौतिक शरीर का ही अभी यथार्थ रूप में मूल्याँकन सम्भव नहीं हो पाया है।

बुद्धि और मन की परतें और भी विलक्षण और भी सामर्थ्यवान हैं। बुद्धि की प्रखरता की परिणति ही सर्वत्र वैज्ञानिक आविष्कारों के रूप में दिखायी पड़ रही है। उसी का एक छोटा सा-अनुदान पाकर कोई वैज्ञानिक बन जाता है तो कोई गणितज्ञ। कोई चिकित्सा विशेषज्ञ कहलाता है तो कोई अध्यापक नित नये साधनों का विकास उसी के सहयोग से हो रहा है। भौतिक उपलब्धियों में उसी की प्रमुख भूमिका होती है।

प्रज्ञा स्तर तक पहुँची अन्वेषक बुद्धि ही विचारकों मनीषियों, तत्त्ववेत्ताओं को जन्म देती है। बुद्धि की गहरी परत ‘इन्ट्यूशन’ की है। जबकि बुद्धि का सामान्य तथा लौकिक पक्ष इन्टेलीजेन्स कहलाता है। भौतिक तथ्यों को खोजने वाली ‘इन्टेलीजेन्स’ स्तर की बुद्धि है जबकि पराभौतिक सत्यों की खोज में ‘इन्ट्यूशन’ स्तर की बुद्धि ही काम आती है। अभी मनुष्य ‘इन्टेलीजेन्स’ के धरातल पर है उँगली पर गिने जाने वाले थोड़े से व्यक्ति ही ‘इन्ट्यूशन’ के स्तर पर पहुँच पाते हैं। जिस दिन संसार इस द्वितीय स्तर पर पहुँचेगा, दुनिया का स्वरूप कुछ और ही होगा।

मन की परतें कोई कम विलक्षण नहीं हैं। मनुष्य इच्छाओं, आकाँक्षाओं तथा कल्पनाओं के उभार को तो अनुभव करता था पर एक सदी पूर्व तक उनके स्वरूप एवं सामर्थ्य से अपरिचित था। बीसवीं सदी में विज्ञान के साथ-साथ मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति हुयी है। अब अनुभव किया जाने लगा है कि मन की शक्ति शरीर से कम नहीं कहीं अधिक ही है। मनुष्य को अभीष्ट साँचे में ढालने के लिए मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का सिलसिला भी चल पड़ा है। मनः क्षेत्र को अब महत्वपूर्ण उपलब्धियों एवं सम्भावनाओं का आधार समझा जा रहा है।

शरीर, मन और बुद्धि के प्रत्यक्ष पक्षों एवं उनकी सामर्थ्यों का जितना परिचय मिला है, उसी के आधार पर मनुष्य का मूल्याँकन किया गया है पर अधिकाँश परतें अभी भी अविज्ञात हैं जो प्रत्यक्ष की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान हैं। जिस दिन उन पक्षों का रहस्योद्घाटन होगा उस दिन मनुष्य अनुभव करेगा कि तत्त्ववेत्ता ऋषियों की वह उक्ति अक्षरशः सही है कि “मनुष्य से महान एवं श्रेष्ठ इस संसार में और कुछ भी नहीं।”

जीवन का यथार्थ मूल्याँकन वस्तुतः वही कर सकते हैं जो उसकी गरिमा से परिचित हों। पशु-पक्षियों की दृष्टि में बहुमूल्य पदार्थों की भी कीमत दो कौड़ी के बराबर होती है। जो अविकसित एवं पिछड़े हैं अथवा पक्षु प्रवृत्तियों में संलग्न रहते हैं, उनके लिए मनुष्य जीवन कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। निरुद्देश्य भटकने पर प्रजनन जितने प्रयोजनों में जीवन गँवा देने, मरने और मारने पर उतारू साधारण व्यक्ति जीवन का मूल्य कहाँ समझते हैं। वे तो उस ना समझ की तरह हैं, जिसे अनायास ही चन्दन का उद्यान हाथ लग गया था और वह उससे अनजान बना उसे कोयला बनाकर बाजार में कोड़ियो के मोल बेचता रहा है। अधिकाँश व्यक्ति आत्मगरिमा से अपरिचित होने से अपनी सामर्थ्यों को कोयला बनाते रहते थे और हाथ मलते हुए इस दुनिया से पश्चाताप के आँसू बहाते चल बसते हैं। अधिक अच्छा हो कि जीवन को जैसे तैसे काटने की अपेक्षा उसके स्वरूप पर गम्भीरता से विचार कर लिया जाय। इतना सम्भव हो सके तो निरर्थक भटकावों से बचने तथा सामर्थ्यों को सुनियोजित करने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

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