Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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दृश्य की तरह एक अदृश्य भी है।
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प्रत्यक्ष जगत जिसमें कि हम वस्तुओं के स्वरूप देखते और गुण कर्म स्वभाव से अवगत रहते हैं, सर्वविदित है। उसी में हम रहते और उसी की परिधि में व्यवहार करते हैं। उसके साथ ही जुड़ा हुआ एक अदृश्य जगत भी है जिसकी प्रत्यक्ष अनुभूति तो नहीं होता, पर उसके अस्तित्व का परिचय समय-समय पर अनेकानेक प्रमाणों से मिलता रहता है।
प्रकृति पदार्थों को ठोस और द्रव परिस्थितियों में ही देखा जाता है। पदार्थ का तीसरा स्वरूप गैस है। इस वायुभूत स्थिति में पदार्थ दृष्टि से ओझल हो जाता है। धुँए या भाप का रूप तभी तक रहता है जब तक कि उसके साथ ठोस या द्रव बना रहे। शुद्ध वायु की उपस्थिति प्रत्यक्ष नहीं देखी जा सकती। उसके द्वारा हलचलें ही अनुभव में आती हैं।
आकाश पोला दीखता तो है पर वह शून्य नहीं है। उसमें हलकी भारी गैसों के रूप में असीम पदार्थ भरा पड़ा है। वही परिस्थितिवश ठोस या द्रव बनता और अनुभव में आता रहता है। दृश्य जगत की तुलना में अदृश्य का विस्तार और महत्व कहीं अधिक है।
मरने के उपरान्त आत्माएँ अदृश्य जगत में विचरण करती रहती हैं। शरीर धारियों की दुनिया जैसी है उसमें बड़ी और विचित्रता युक्त दुनिया वह है जो अदृश्य जगत में निवास करती है। दोनों के बीच आदान-प्रदान भी चलता रहता है। पदार्थों का ही नहीं प्राणियों का भी आवागमन अदृश्य और दृश्य जगत के बीच चल सकता है। प्रयत्नपूर्वक एक क्षेत्र से दूसरे में इन्हें उतारा या भेजा जा सकता है।
जानकारियाँ प्राप्त करने में प्रधानतया हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख माध्यम होती हैं। उन्हीं के सहारे प्रत्यक्ष पदार्थ दीखते और मस्तिष्कीय ज्ञान भण्डार में सम्मिलित होते जाते हैं। यन्त्र उपकरणों के माध्यम से इन्द्रिय शक्ति में तनिक और वृद्धि हो जाती है। खुली आँखों से जो दिखाई नहीं देता उसे माइक्रोस्कोप-टैलिस्कोप आदि उपकरणों के माध्यम से देख लेते हैं। इन सबमें आधार इन्द्रियों का ही रहता है। इन्द्रिय शक्ति प्रत्यक्ष तक ही सीमित है। इसलिए आमतौर से मनुष्य की जानकारी उतने तक ही सीमित है जितना कि प्रत्यक्ष है। इस मस्तिष्क में दृश्य संसार मात्र की ही कल्पना रहती है। उसे उतना ही सीमित माना जाता है।
इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि जो इन्द्रिय शक्ति की पकड़ से बाहर है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। आत्मा को देखा नहीं जा सकता और न अन्य इन्द्रियों के सहारे उसे पकड़ा जा सकता है। तो भी वह काया में समाहित नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता है। उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित सभी माध्यम इसी स्तर के हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से विनिर्मित अन्तःकरण को किस प्रकार प्रत्यक्ष देखा जाय। भावनाएँ, मान्यताएँ, किस प्रकार देखी जायँ?
मरणोत्तर जीवन को इन्द्रिय शक्ति के सहारे देखा जाना नहीं जा सकता। तो भी यह नहीं कहा जा सकता है कि मरने और जन्मने के मध्य वाली स्थिति में जीवात्मा की सत्ता रहती ही नहीं या उसे उस अवधि में कुछ करना-सहना ही नहीं पड़ता। अदृश्य का भी अस्तित्व है। अस्तु अदृश्य लोक की मान्यता भी किसी न किसी रूप में स्वीकारनी पड़ती है। अतीन्द्रिय क्षमता द्वारा जो कार्य होते हैं, उन गतिविधियों का कार्य क्षेत्र अदृश्य जगत ही होता है। शाप-वरदान की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है इसे जानना हो तो अदृश्य जगत की मान्यता के बिना कोई समाधान सम्भव न होगा। फलित होने वाले सार्थक स्वप्नों की पृष्ठभूमि समझने के लिए भी अदृश्य जगत की मान्यता आवश्यक है। विचार संचार-प्राण विनिमय-अशरीरी प्राणधारी आदि का कार्यक्षेत्र वही है। प्रकृति का स्थूल पक्ष बुद्धि के लिए बोधगम्य है। उसकी सूक्ष्म शक्तियों का अनुमान गणितीय आधार पर उनके फलितार्थों को देखते हुए ही लगाया जाता है।
बारमूडा (अटलांटिक महासागर) का ब्लैक होल अब ब्रह्माण्ड क्षेत्र में पाये जाने वाले महा विवरों में से एक माना जाने लगा है। अभी इससे भी बड़े रहस्यों पर पर्दा उठना शेष है। एन्टी यूनीवर्स- एन्टी मैटर- एन्टी एटम एवं एन्टी पार्टीकल की चर्चा अब कल्पना क्षेत्र से आगे बढ़कर यथार्थता बन गई है और उसकी शोध गम्भीरता पूर्वक हो रही है। यह अदृश्य का ही पर्यवेक्षण है।
इस संदर्भ में उन घटनाओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, जिनमें कितने ही व्यक्ति देखते-देखते रहस्यमय रूप से अदृश्य होते रहते हैं। ढूँढ़ने पर भी कोई अता-पता नहीं लगता। मन समझाने के लिए इसे किसी अदृश्य सत्ता अन्तर्ग्रही शक्तियों द्वारा किया गया अपहरण मान लिया जाता है। फिर भी असमंजस तो बना ही रहता है। सम्भावनाएँ और आशंकाएँ कुछ और भी हो सकती हैं।
अदृश्य लोक से पृथ्वी पर उतरने वाली जीवात्माओं और उनकी कारगुजारियों का विस्तृत वर्णन देखना हो तो जे. एच. ब्रेनन की “दि अल्टीमेट एल्सव्हेयर” पुस्तक पढ़नी चाहिए। यह वर्णन योग वाशिष्ठ में वर्णित लीला प्रसंगों से कुछ कम नहीं है। उसमें ऐसे सैकड़ों प्रमाणों का संकलन है जिनसे सिद्ध होता है कि अदृश्य लोक के प्राणी समय-समय पर पृथ्वी पर आते और अपनी चित्र-विचित्र कार गुजारियाँ दिखाते रहे। उनके आगमन और प्रयोजन कार्यक्रम पर भी इस पुस्तक में ऐसे अनुमान लगाये गये हैं, जिन्हें सहज ही अमान्य नहीं ठहराया जा सकता।
खलनायक हिटलर विश्व विजय के सपने देखता था। इसके लिए उसने युद्ध को- प्रचार को- षड़यन्त्र उपक्रम को ही माध्यम नहीं बनाया था वरन् वह अभीष्ट की पूर्ति के लिए अदृश्य सहायता भी चाहता रहता था। इसके लिए तांत्रिक उपचारों के लिए भी प्रयत्नशील था। इस तथ्य की जानकारी उसके सम्बन्ध में लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक “दि अर्किल्ट राइख” को पढ़कर जानी जा सकती है।
गुह्य विज्ञान के मूर्धन्य शोधकर्ता ब्रेनन ने अपने उपरोक्त ग्रन्थ में पुलिस रिकार्डों में दर्ज संसार भर की ऐसी घटनाओं का उल्लेख किया है जिनने बहुत लोगों के अचानक अदृश्य हो जाने के विवरण हैं। उनने कुछ भी ऐसे सूत्र नहीं छोड़े जिनके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सके कि वे कहाँ और क्यों चले गये? उनके सम्बन्ध में यही सोचा गया कि किन्हीं अदृश्य शक्तियों ने उनका अपहरण किया होगा।
वियतनाम सन् 1885 में फ्रेंच इण्डोचीन के नाम से जाना जाता था। उस वर्ष 600 फ्राँसीसी सैनिक केन्द्रीय छावनी से सैगोन के लिए भेजे गये। निर्दिष्ट स्थान जब 15 मील की दूरी पर था तो तब सारा जत्था अचानक इस प्रकार गायब हो गया मानो वह वहाँ था ही नहीं। भारी खोज मुद्दतों तक होती रही पर ऐसा एक भी सुराग न मिला जिससे उनके अदृश्य होने का कारण समझा जा सके। न वे किसी ने पकड़े, न मरे, न भागे, न कोई शस्त्र, वस्त्र, पदचिन्ह ही ऐसे छोड़ गये, जिनके सहारे खोजी लोग किसी सम्भावना की कल्पना कर सकें। अदृश्य अपहरण ही लोगों की जबान पर बना रहा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ काल की ही बात है। चीन के दक्षिण नानकिंग प्रान्त में 10 दिसम्बर 1939 की एक विलक्षण घटना घटी। 3000 सैनिक तीसरे पहर अपनी छावनी में मौजूद थे। एक घण्टे बाद उन्हें ड्यूटी पर बुलाने के लिए बिगुल बजाया गया तो पाया गया कि उनमें से एक भी मौजूद नहीं था। उनके हथियार, कपड़े, जूते आदि जहाँ के तहाँ रखे थे पर उनके शरीर का कहीं अता-पता न था। उनके घर-परिवार, सम्बन्धी मित्र सभी खोज डाले गये। सारे चीन का चप्पा-चप्पा छाना गया पर इन 3000 में से एक भी जीवित या मृतक स्थिति में कहीं नहीं पाया जा सका। इतने वर्ष बीत जाने पर भी वह रहस्य अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। जापानियों द्वारा अपहरण की आशंका भी निर्मूल सिद्ध हुई। युद्धकाल बीत जाने पर जापानी रिकार्डों में पाया गया था कि उस स्थान पर आक्रमणकारी पहुँचे ही नहीं थे और न कोई जत्था भागकर वहाँ पहुँचा था।
उत्तरी कनाडा के चर्चित पुलिस स्टेशन से पचास मील दूर एस्किमो लोगों का एक गाँव था ‘अंजिकुनी’। सन् 1930 में प्रकाशित नक्शे में इस गाँव की आबादी तथा लम्बाई चौड़ाई का विवरण छपा है। किन्तु 1930 के अगस्त मास में ऐसी कुछ अनहोनी हुई कि उस पूरे गाँव के मनुष्यों, जानवरों का ही नहीं मलबे तक का अस्तित्व पूरी तरह गायब हो गया। भूमि ऐसी हो गई मानों वहाँ कभी किसी आबादी का अस्तित्व था ही नहीं। इससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात एक और थी कि वहाँ के कब्रिस्तान में पूर्व से गढ़े एक भी मुर्दे के अवशेष नहीं पाये गये। लगता था कि उन्हें भी उखाड़ कर ले जाया गया। उस सारे प्रदेश को छान डालने पर भी इसका कोई कारण या निशान उपलब्ध नहीं हुआ। यह रहस्य अभी तक अविज्ञात ही है।
क्या उद्देश्य लोक में जाने के बाद कोई फिर वापस लौटता है? इसका मात्र एक ही प्रमाण ब्रेनन की पुस्तक में संकलित है। जर्मनी के न्यूरेम वर्ग नगर में सड़क पर घूमता हुआ एक पागल पाया गया। वह देखने में तो धरती निवासी गोरा ही प्रतीत होता था पर उसकी जानकारियाँ विचित्र प्रकार की थीं। वह किसी विचित्र भाषा के दस शब्द भर बोल पाता था। रोशनी उसकी आँख सहन नहीं कर पाती थीं। जलती आग को देखकर वह ऐसा आश्चर्य करता था जैसे उसने पहली बार ऐसा देखा हो।
उसे कौतूहल तो माना गया पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। कुछ दिन वह ऐसे बदहवासी की स्थिति में घूमता रहा। एक दिन उसकी किसी ने पार्क में घूमते समय हत्या कर दी। ऐसे अनगढ़ अपरिचित का न तो कोई शत्रु था और न धन प्रलोभन की स्थिति थी, जिसके कारण उसे कोई मारता। समझा गया कि वह किसी अपहरण किये गये मनुष्य की अदृश्य लोक से वापसी की घटना थी। वापसी किन परिस्थितियों में हुई, उसका अनुमान तो नहीं लगा, पर यह समझा गया कि भेद न खुलने के भय से शायद उसी लोक वालों ने उसकी हत्या की जिनने कि उसका कभी अपहरण किया होगा।
ये सारे घटनाक्रम बताते हैं कि हमारी जानकारियाँ दृश्य जगत तक सीमित हैं। इसलिए हमारी दृष्टि एवं क्रिया भी सीमित रहती है। यदि अदृश्य को समझा जा सके और उसके साथ परोक्ष रूप से सम्बन्ध जोड़ा जा सके तो हमारा दृष्टिकोण वैभव, व्यक्तित्व एवं पराक्रम भी अब की अपेक्षा अनेकों गुना सुविकसित समुन्नत स्तर का हो सकता है।