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Magazine - Year 1984 - Version 2

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चित्तवृत्ति निरोध का तत्व दर्शन

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योग शब्द बहुचर्चित है। इसका सामान्य अर्थ कौतुक कौतूहलों के साथ जोड़ा जाता है। योगी से आशा की जाती है कि वह कोई ऐसा अजूबा पेश करे, जिससे उसकी विलक्षणता सिद्ध होती हो। शरीर से कोई ऐसी हरकत कर दिखाये जिसे सामान्य जन न कर सकते हों। वस्तुओं की कुछ ऐसी उलट-पुलट करे जैसा कि लोक प्रचलन में संगति न होती हो। मदारी, बाजीगर प्रायः ऐसे ही अँगूठे दिखाते रहते हैं। कोई-कोई तो उन्हीं को योगी मान बैठते हैं। पर जब उनके फटे हाल होने और सड़क पर बैठकर कैसा प्रदर्शन करते- पैसा माँगते दीखते हैं तो विश्वास नहीं होता और समझा जाता है कि असल की नकल हो रही है। सिद्धियों के बारे में जो लोक कल्पना प्रचलित है उस कौतूहल के कारण ही लोग उस ओर आकर्षित होते हैं।

महर्षि पतंजलि के अनुसार योग “चित्तवृत्तियों का निरोध” है। मन का स्वभाव चंचल है। यह उसकी संरचना भी है और विशेषता भी। इसी आधार पर अगणित कल्पनाएँ करना और उनमें से ज्ञान अनुभव के आधार पर काट छाँट करके जो उपयुक्त है, उन्हें रोक कर शेष को भगा देना, इसी आधार पर बन पड़ता है। मन में यदि चंचलता न हो तो फिर वह कल्पना करने, निष्कर्ष निकालने तक में समर्थ न हो। तब उसे घटिया जीव-जन्तुओं की तरह प्रकृति प्रेरणा से शरीर यात्रा भर की हलचलें अपना सकना ही बन पड़े। चंचलता दोष नहीं गुण है। जिसकी कल्पना शक्ति जितनी प्रखर होती है, जिसका मन जितना अधिक दौड़ता है वह उतना ही अधिक बुद्धिमान सिद्ध होता है।

चित्त वृत्तियों के निरोध के दो वर्ष हैं। एक यह कि अनावश्यक अन्तर्गत, निरुद्देश्य, कल्पनाएँ न करने के लिए मन को सधाया जाय। उस पर ऐसा अनुशासन लगाया जाय कि वह किसी भी विषय की कैसी ही अनपढ़ कल्पना न करने लगे। उसकी गतिशीलता एक निर्धारित मार्ग पर ही चले। वर्जनाओं का व्यतिक्रम न करे। परिस्थितियों को देखते हुए जो सम्भव नहीं उसके लिए ख्वाबी पुलाव न पकायें। बिना पंख की रंगीली उड़ानें न उड़ें। दिवा स्वप्न न देखें। शेखचिल्ली का उपहासास्पद उदाहरण प्रस्तुत न करें। जो सोचना हो दिशाबद्ध सोचें। सामर्थ्य, परिस्थिति और सम्भावना का तालमेल बिठाते हुए चिन्तन का ऐसा मार्ग निर्धारित करें जिस पर चलने का प्रयास करते हुए किन्तु उपयोगी उपलब्धियों को हस्तगत करने की सम्भावना बने, आशा बँधे।

वस्तुतः चिन्तन को सीमाबद्ध, दिशाबद्ध रखने वाले ही साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक, अन्वेषक स्तर के होते हैं। शोध प्रबन्ध लिखने वालों को इसी मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है। आर्चीटेक्ट स्तर के लोग विशाल भवनों में प्रयुक्त होने वाली छोटी से छोटी वस्तुओं का भी विवरण बना देते हैं। महत्वपूर्ण योजनाएँ बनाने वाले ऐसे ही सधे हुए मस्तिष्क वाले होते हैं। उस विशेषता का अभाव रहने पर सुविकसित स्तर के मनुष्य भी बेसिलसिले की कल्पनाएँ करते रहते हैं। किसी प्रसंग के पूरा होने से पूर्व ही अन्य प्रकार के विचारों में लौट पड़ते हैं। ऐसे लोग कोई काम पूरा करना तो दूर, विवेचन या निर्धारण तक ठीक प्रकार नहीं कर पाते। उन्हें सदा असफलताओं का ही मुँह देखना पड़ता है। अपूर्णता रहने की स्थिति में कोई काम नहीं बन पड़ता। इस कठिनाई से उबरने और सफलता की दिशा में सुनियोजित गति से बढ़ने का लाभ जिस एकाग्रता के सहारे बन पड़ता है उसी को अर्जित करने के लिए योग दर्शन के प्रवक्ता पातंजली ने ‘चित्त वृत्ति का निरोध’ कहा है।

दूसरा अर्थ चित्तवृत्ति का पशु-प्रवृत्तियों के रूप में लिया जाता है। अन्य जीवधारियों की तरह मनुष्य भी पशु वर्ग का एक प्राणी है। उसकी कायिक संरचना बन्दर से मिलती-जुलती है। डार्विन जैसे विकासवादियों ने उसे बन्दर की औलाद ठहराया है। प्राणि समुदाय में कुछ मौलिक प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं उसी के सहारे वे निर्वाह साधन जुटाते और कठिनाइयों से यथासम्भव बचने का प्रयत्न करते रहते हैं। आहार उपलब्ध करने के लिए दौड़−धूप करने और वंश−वृद्धि का अवसर मिलने पर उसके लिए बेचैन हो उठने की प्रवृत्ति इन सभी में समान रूप से पाई जाती है। इसके अतिरिक्त सुविधा साधनों पर लपक पड़ने, साथियों को धकेल कर अपना काम बना लेने की आदत भी उनमें होती है। जिससे अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की आशंका हो, उसमें लड़ पड़ने का स्वभाव भी उनका होता है। घाटा या खतरा दीखने पर पलायन करते भी वे देखे जाते हैं। संक्षेप में यही प्राणि प्रवृत्तियाँ है।

मनुष्य का स्तर अन्य जीवधारियों से ऊँचा है। वह उन्हीं प्रवृत्तियों को अपनाये तो फिर सामाजिक प्राणी न बन सकेगा। स्वार्थों की लड़ाई हर घड़ी बनी रहेगी। समर्थता और बुद्धिमता के रूप में जितना कुछ विशेष मिला है, उसका उपयोग इसी प्रयोजन के लिए होता रहेगा। जिसके लिए कि अन्य प्राणी किया करते हैं। ऐसी दशा में स्नेह-सौजन्य के विकसित होने की आशा नहीं की जा सकती। इस अभाव में सहकार भी चले- आदान प्रदान एवं अनुदान प्रतिदान का क्रम भी बने यह सम्भव नहीं हो सकता।

पशु प्रवृत्तियों को एक शब्द में संकीर्ण स्वार्थपरता कहा जा सकता है। उसमें निर्बलों पर आक्रमण करने की- सुविधाओं को लूट लेने की पूरी छूट है। व्यक्तिगत संयम अनुशासन के लिए जितने प्रतिबन्ध प्रकृति ने लागू कर रखे हैं उतना ही वे पालन करते हैं। सामाजिक विग्रह एवं उत्कर्ष का विचार करके वे कोई नियम निर्धारित नहीं करते और न ऐसे अनुशासन बनाते अपनाते हैं। जिससे समुन्नत स्तर का व्यक्तित्व उगाया या समाज व्यवस्था के माध्यम से बन पड़ने वाला प्रगति क्रम चलाया जा सके। मानवी उत्कर्ष इन्हीं सीढ़ियों पर क्रमिक पदार्पण करते हुए सम्भव हुआ है। यदि पशु प्रवृत्तियों पर नियमन न हो सके तो फिर समझना चाहिए कि आदिम युग के वनमानुषों की स्थिति में वापस लौटने के लिए विवश होना पड़ेगा।

चित्त वृत्तियों के निरोध का दूसरा तात्पर्य यही है कि वैयक्तिक कर्त्तव्यों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के लिए उन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाया जाय जो वनमानुष काल से लेकर अब तक किसी न किसी रूप में अचेतन क्षेत्र में दबी पड़ी है। नीति धर्म और अनुशासन के अनुयायियों को तोड़कर जो दाँव लगते ही उसी पुराने अभ्यास को कार्यान्वित करने लगती है जिसे मानवी स्तर विकास को देखते हुए हेय ठहराया और दण्डनीय अपराधों की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। इस रोकथाम के लिए आवश्यक है कि ऐसा चिन्तन क्रम अपनाया जाय। ऐसी मान्यता, भावना एवं आकाँक्षा का घेरा बनाया जाय। जिससे पशु प्रवृत्तियों को उच्छृंखलता प्रकट करने से पूर्व ही जकड़ा और मर्यादा में रहने के लिए बाधित किया जा सके।

यही है चित्त वृत्तियों के निरोध का योगानुशासन जिसे अपनाने पर मानसिक बिखराव रुकता और अनौचित्य अपनाने पर अंकुश लगता है। यह प्रयास देखने में निषेधात्मक लगता है। पर वह उतना सीमित है नहीं। बिखराव और अपव्यय की रोकथाम करने पर सहज ही सामर्थ्य का संचय होता है। इस संचय को उपयोगी दिशा में नियोजित करना योग का दूसरा प्रयोजन है। अपव्ययी आलसी दरिद्र के लिए तो उन्नति के सभी द्वार बन्द हैं जबकि जमा पूँजी होने पर उसके सहारे सुविधा एवं प्रगति के अनेकों सरंजाम जुटाये जा सकते हैं। आत्मिक प्रगति का यही एकमात्र सुनिश्चित मार्ग है।

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