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Magazine - Year 1984 - Version 2

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बुढ़ापे की रोकथाम सम्भव भी और सरल भी

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नियति व्यवस्था में उत्पादन, अभिवर्धन, अवसान और समाधान की चार प्रवृत्तियाँ चलती हैं। यह निर्धारण सभी प्राणियों और पदार्थों पर समान रूप से लागू होता है। उत्पादन के उपरान्त अभिवृद्धि का क्रम चलता है। यह एक सीमा तक पहुँचकर परिपक्व हो जाता है। इसके उपरान्त ढलने की बारी आती है। क्षीणता चल पड़ती है। दुर्बलता बढ़ती है और अन्ततः वह समय आ पहुँचता है जब उसका स्वरूप बदले। वस्तुतः आमूल-चूल परिवर्तन को ही मरण कहते हैं। वही पदार्थ फिर नया रूप लेता है। इस प्रकार कबाड़े को गलाने और नये उपकरण ढालने के गोरख-धन्धे में प्रकृति का लुहार लगा रहता है। उसकी भट्टी गरम ही रहती है। इतने पर भी इस परिवर्तन क्रम की गति को शिथिल रखना या अधिक ईंधन झोंककर खेल जल्दी खतम कर देना बहुत कुछ मनुष्य की बुद्धिमता और संयमशीलता पर निर्भर है।

मनुष्य सदा स्वस्थ या प्रौढ़ रहना तो चाहता है पर व्यवस्था उसकी इच्छानुरूप बन नहीं पाती। यौवन देर तक ठहरता नहीं और अनपेक्षित बुढ़ापा आ धमकता है। इस स्थिति में कुरूपता भी बढ़ती है और असमर्थता भी। अन्त क्या होता है इसे सभी जानते हैं। बूढ़े के लिए मृत्यु के मुख में जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

फिर भी इच्छा तो बनी ही रहती है कि बुढ़ापा देर में आये और अधिक दिन जीने का अवसर मिले। जिन्दगी में ऐसा ही कुछ रस और आकर्षण है कि उसे सहज छोड़ते नहीं बनता। अब तक बुढ़ापे को रोकने और मरण का दिन अधिक आगे धकेलने के लिए अनेकानेक प्रयास होते रहे हैं। उनमें आँशिक सफलता ही मिली है फिर भी आशा बलवती है- प्रयत्न क्रम भी रुका नहीं है। जितना कुछ हाथ लगे, उतना ही सही, इस दृष्टि ने उस प्रयास में अभी भी विराम नहीं लगने दिया है। दीर्घ जीवन की बुढ़ापा रोकने की शोध एवं चेष्टा अभी भी चल रही है।

इस सन्दर्भ में खोज करने वालों ने जो तथ्य ढूँढ़ निकाले हैं उनमें चार प्रमुख हैं (1) शरीर का तापमान कम करना (2) ठण्डे वातावरण में रहना (3) प्रजनन में अति न बरतना (4) मस्तिष्कीय उद्विग्नता में बचना। यह चार अवलम्बन ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर प्रकृति व्यवस्था के साथ सहयोग करते हुए समर्थता को देर तक बनाये रहा जा सकता है। इन चारों प्रयोगों को भारत के ऋषि कल्प व्यक्ति अपनी जीवनचर्या में सतर्कतापूर्वक समाविष्ट करते रहे हैं। फलतः उन्हें सामान्यजनों की तुलना में कहीं अधिक लम्बा जीवन जीने का अवसर मिला है। हिमालय के शीतल क्षेत्रों को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र चुना। स्वल्पाहार, उपवास अपनाया। पेट पर भार लदने और तापमान बढ़ने जैसा प्रसंग न आने दिया। ब्रह्मचर्य को साधना का आवश्यक अंग माना और स्थित प्रज्ञ जैसा निस्पृह स्वभाव बनाकर सन्तुष्ट रहने एवं हँसते-हँसाते समय गुजारने का अभ्यास किया। प्रकृति से विद्रोह करने की अपेक्षा सहयोग देने की दूरदर्शिता अपनाकर उन्होंने जीवन सम्पदा का समुचित लाभ उठाया। उन्हीं लाभों में एक बुढ़ापे को देर तक रोके रहना और कम से कम कष्टदायक बनने देना भी है। वह राजमार्ग अभी भी उन सब के लिए खुला है जो जादुई तरीके अपनाने की अपेक्षा प्रकृति क्रम के साथ तालमेल बिठाकर अधिक नफे में रहने की नीति पर विश्वास करते हैं। आधुनिक विज्ञान ने इस सन्दर्भ में रसायन ढूँढ़ने और शल्यक्रिया की असफलता देखते हुए प्रकृति सहयोग से बुढ़ापा रोकने पर जोर देना आरम्भ किया है।

शरीर का तापक्रम घटा देने से बुढ़ापा देर में आता है, यह सिद्धान्त विज्ञान क्षेत्र में अब मान्यता प्राप्त करता जा रहा है। इस तापक्रम के सन्दर्भ में दो बातें कही जाती हैं एक यह कि वातावरण ठण्डा हो, दूसरी यह कि शरीर में पाई जाने वाली स्वाभाविक गर्मी सामान्य तापमान से घटाकर किन्हीं उपायों से कम कर दी जाय। दोनों ही सुयोग मिल सके तब तो उसे सोना सुगन्ध का संयोग कहा जायेगा।

कैलीफोर्निया युनिवर्सिटी के किये प्रयोगों में सिद्ध हुआ है कि शरीर का तापमान तीन डिग्री घटा दिया जाय तो आयुष्य तीस वर्ष बढ़ सकती है।

जीव कोषों की संरचना पर अनुसंधान करने वाले बुढ़ापे के पीछे प्रकृति व्यवस्था के उद्देश्य छिपे पाते हैं। प्रकृति हर प्राणी को तब तक ही सहन करती और पोषण देती है जब तक वह वंशवृद्धि में समर्थ रहता है। वह अपने उद्यान को हरा-भरा देखना चाहती है। इसलिए प्रजनन क्रम चलता रहे, यह उस अभीष्ट है। इसके लिए न केवल प्रजनन तंत्र समर्थ रहना चाहिए वरन् परिपक्वता भी इस स्तर की होनी चाहिए ताकि वह इस हेतु बलिष्ठ शुक्राणु और डिम्बाणुओं की सत्ता बनाये रहे। जब जीव कोश घिसते-घिसते हल्के और दुर्बल हो जाते हैं तो प्रकृति इस बात पर उतारू होती है कि ऐसे निकम्मे शरीरों को हटाकर उनका स्थान नये परिपुष्ट शरीरों को दिया जाय। स्थान देने से तात्पर्य है- पोषण एवं व्यवस्था का होना। आवश्यक नहीं कि अन्न-वस्त्र जैसे साधनों की कमी को ही पोषण कहा जाय, पाचन तंत्र दुर्बल पड़ जाने जैसी अक्षमताओं को भी पोषण का अभाव कहा जा सकता है। प्रकृति झटके की नीति नहीं अपनाती। उसे हलाल का सिद्धान्त पसन्द है। उसकी कसौटी पर जो उपयोगी सिद्ध नहीं होते, उन्हें वह बूचड़खाने में भेजने की अपेक्षा वनवास देती है और अपनी मौत मरने के लिए खुला छोड़ देती है। संक्षेप में यही बुढ़ापा है। उस स्थिति में ऐसे अनेकों लक्षण प्रकट होते हैं, जिनसे शरीर यात्रा क्रमशः अधिक कष्टसाध्य होती जाती है। लँगड़ा लूला धकड़ा आखिर ऐसी स्थिति में कब तक जिये? उसमें प्रकृति व्यवस्था से लड़ने की क्षमता कहाँ? ऐसी दशा में वह समय कुसमय दम तोड़ने के लिए विवश होता ही है।

प्रजनन क्षमता सही और देर तक बनी रहे इसके लिए आवश्यक यह है कि उस तंत्र का अनावश्यक रूप व्यतिक्रम न हो। यौनाचार में अति न बरती जाय। बच्चे बहुत न हों। रति कर्म में संयम बरता जाय। लम्बी आयुष्य पाने वालों और जल्दी मरने वालों के बीच यह प्रमुख अन्तर पाया जाता है। दीर्घ जीवी प्राणी प्रजनन में उपेक्षा बरतते हैं। इसके विपरीत जिन्हें जल्दी मरना है, वे जल्दी-जल्दी उस काम को निपटाते हैं, उतावली बरतते हैं और शक्ति का भण्डार समाप्त करते हैं जीवन लीला समाप्त करते हैं। मनुष्यों के लिए भी यही बात है। जवानी में बुढ़ापे के दृश्य उपस्थित करने में सबसे बड़ा कारण अपरिपक्व स्थिति में ही यौनाचार पर उतारू होना- कम आयु में ही कई बच्चे पैदा कर लेना है। इस प्रयास में स्त्रियाँ पुरुषों से भी अधिक घाटे में रहती हैं। उन्हें भ्रूण पालने और दूध पिलाने में अपने को अपेक्षाकृत अधिक निचोड़ना पड़ता है। यौनाचार में उन्हीं को अधिक घाटा पड़ता है।

अमेरिकी जीव विज्ञानी डा. बैरोज ने इस प्रयोग के लिए स्वरूप जीवी समुद्री जन्तु रोटिकर को चुना। वह मात्र 18 दिन जीवित रहता है। उसके निवास जलाशय का तापक्रम 10 डिग्री घटा दिया। इससे इसका जीवन काल दूना हो गया। इसके अतिरिक्त उसी प्राणी पर यह प्रयोग भी किया गया कि एक को भरपूर भोजन की सुविधा दी गई किन्तु दूसरे को आधे पेट रहने जितना सामग्री दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि बाहरी तापमान कम रहने और पाचन में ईंधन कम जलने की स्थिति में उसका जीवनकाल तीन गुना हो गया। इससे इस रहस्य पर से पर्दा उठा कि अधिक खाने से भीतरी गर्मी बढ़ती है। यदि स्वल्पाहार का स्वभाव डाला जाय तो पाचन भी ठीक हो और अनावश्यक भार वहन में जो जीवनी शक्ति का अपव्यय होता है, वह भी रुके। तापक्रम कम रखने का उपयुक्त तरीका कम भोजन से काम चला लेना है। कम भोजन करने पर ठीक प्रकार से पचा हुआ आहार कहीं अधिक शक्ति प्रदान कर देता है जबकि बहुत खाने वाला पचाने के लिए पेट के अखाड़े में मल्लयुद्ध लड़ता रहता है।

सी. क्लाइव मैकी के प्रयोगों से भी इसी सिद्धान्त की पुष्टि हुई है। उसने प्रयोग के लिए चूहों को दो स्थानों पर रखा। एक वर्ग को भरपूर भोजन की सुविधा दी गई। दूसरों को आधे पेट रहने जितना ही साधन मिला। अधिक खाने वाले तगड़े तो जल्दी हुए पर उनका जीवनकाल लम्बा न रहा। इसके विपरीत कम खाने वालों के शरीरों पर अनावश्यक भार भी नहीं लदा, फुर्ती भी नहीं घटी और जिन्दगी भी अपेक्षाकृत अधिक लम्बी मिली।

लोग बहुधा आवश्यकता से बहुत अधिक खाते हैं। जो खाते हैं वह भी स्वाद के लोभ में इस स्तर का बना लिया जाता है जो पोषण देने की अपेक्षा पाचन की जटिलता के कारण उल्टा प्राण सोखने लगे। उत्तेजित पाचन प्रक्रिया अनावश्यक तापमान की वृद्धि करती है और दीर्घजीवन में भारी व्यतिरेक खड़ा करती है। विशेषज्ञों का कथन है कि जितना खाया जाता है उससे आधे में ही काम चल सकता है। इससे अधिक बचत और समय की बर्बादी रुकने का अतिरिक्त लाभ मिलता है।

आयुष्य विज्ञान के संशोधकों ने जीवन और मरण का सम्बन्ध मस्तिष्कीय सक्रियता के साथ जोड़ा है। उनने अपने प्रयोगों में पाया कि मरने के दिन निकट आने पर मनुष्य की मस्तिष्कीय उद्विग्नता बढ़ जाती है, वह अधिक सोचता और अधिक परेशान रहता है। इसका प्रभाव नाड़ी संस्थान पर पड़ता है। जीव कोशों का नया प्रजनन घट जाता है। नये जीवकोश बनाने में असमर्थ रहने पर वे कुछ काम ढूँढ़ते हैं और आपस में ही लड़भिड़ कर एक दूसरे को कुतरने-निगलने लगते हैं। यह मरण की पूर्व भूमिका है। चिन्तित मनःस्थिति में जीवनकाल जल्दी समाप्त होता है जबकि प्रसन्न और अलमस्त रहने वाले अभावों के बीच रहकर भी लम्बी जिन्दगी जी लेते हैं। शक्ति भण्डार के जल्दी चुकने में मस्तिष्कीय सक्रियता का अधिक होना भी बुरा है। इसी कारण तथाकथित बुद्धिजीवी सामान्य जनों की अपेक्षा जल्दी मरते हैं।

समाधि, अभ्यास एवं प्राण नियमन के सहारे भी क्षरण की अति रोकी जा सकती है, पर वे उपचार विशेषज्ञों से ही बन पड़ते हैं। समाधि तो और भी कठिन है। उसमें हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है और तापमान बहुत ही कम रह जाता है ऐसी दशा में जीवकोशों को रात्रि शयन जैसा विश्राम मिल सकता है और वे नये सिरे से नई स्फूर्ति के साथ काम करना आरम्भ कर देते हैं। हर समाधि को एक काया कल्प माना जाता है। यों औषधि उपचार के सहारे भी छोटे-बड़े कल्प चलते हैं पर समाधि का स्तर उन सबमें ऊँचा है। इतने पर भी वह सब विशेषज्ञों के संरक्षण में चलने वाला- मनस्वी लोगों द्वारा अपनाया जा सकने वाला उपक्रम ही है।

प्राणायामों के कुछ ऐसे उपचार हैं, जिनसे श्वास क्रम के व्यतिक्रम से उत्पन्न होने वाली क्षति को रोका जा सकता है। इस आधार पर भी तापमान के नियमन में सहायता मिल सकती है।

जिन पर बुढ़ापे का प्रभाव न्यूनतम हुआ है और जो मरण पर्यन्त सक्षम बने रहे उनकी जीवनचर्या का पर्यवेक्षण करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि जीवनी शक्ति के भण्डार को चुका देने वाली उद्धत आतुरता न बरती जाय। आहार-विहार का समय रखा जाय तो अजर-अमर होने जैसी बात न बनने पर भी मनुष्य लम्बे समय तक निरोग जीवन जी सकता है और अपनी क्षमता इस स्तर की बनाये रह सकता है जिसमें बुढ़ापे को कुरूप, कष्टदायक एवं अभिशाप न कहना पड़े।

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