Magazine - Year 1984 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वेदों में यज्ञ चिकित्सा का प्रतिपादन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अथर्ववेद 1।2।31, 32, 4, 37, 5।23, 29 में अनेक प्रकार के रोगोत्पादन कृमियों का वर्णन आता है। वहाँ इन्हें यातुधान, क्रव्यात्, पिशाच, रक्षः आदि नामों से स्मरण किया है। ये श्वास वायु, भोजन, जल आदि द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर या मनुष्य को काटकर उसके शरीर में रोग उत्पन्न करके उसे यातना पहुँचाते हैं, अन्तः ये ‘यातुधान’ हैं। शरीर के माँस को खा जाने के कारण ये ‘क्रव्यात्’ या ‘पिशाच’ कहलाते हैं। इनसे मनुष्य को अपनी रक्षा करना आवश्यक होता है, इसलिए ये ‘रक्षः’ या राक्षस हैं। यज्ञ द्वारा अग्नि में कृमि-विनाशक औषधियों की आहुति देकर इन रोग कृमियों को विनष्ट कर रोगों से बचाया जा सकता है। अथर्व 1।8 में कहा गया है- इदं हविर्यातुधानात् नदी येन मिवावहत्।य इदं स्त्री पुमानकः इह स स्तुवतां जनः॥1॥ यजैषामग्ने जनिमानि वेल्थ गुहासतामन्त्रिणां जातवेदः।ताँस्त्वं ब्राह्मणा वावधानो जह्योषां शततहमग्ने॥4॥ “अग्नि में डाली हुई यह हवि रोग-कृमियों को उसी प्रकार दूर बहा ले जाती है, जिस प्रकार नदी पानी के झागों को। जो कोई स्त्री या पुरुष इस यज्ञ को करे उसे चाहिए कि वह हवि डालने के साथ मन्त्रोच्चारण द्वारा अग्नि का स्तवन भी करे। हे प्रकाश अग्ने! गुप्त से गुप्त स्थानों में छिपे बैठे हुए भक्षक रोग-कृमियों के जन्मों को तू जानता है। वेद मन्त्रों के साथ बढ़ता हुआ तू उन रोग-कृमियों को सैकड़ों बन्धों का पात्र बना।” इस वर्णन से स्पष्ट है कि मकान के अन्धकारपूर्ण कोनों में, सन्दूक, पीपे आदि सामान के पीछे, दीवार की दरारों में एवं गुप्त से गुप्त स्थानों में जो रोग कृमि छिपे बैठे रहते हैं, वे कृमि हर औषधियों के यज्ञीय धूम्र से नष्ट हो जाते हैं। अथर्ववेद 5।29 में इस विषय पर और भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। अक्ष्यो निविध्य ह्रदयं निविध्य,जिह्वा नितृन्द्धि प्रदशाता मृणीही। पिशाचो अस्य यतमो जघास- अग्ने यविष्ठ प्रति तँ शृणीही॥ “हे यज्ञाग्ने! जिस माँस भक्षक रोग कृमि ने इस मनुष्य को अपना ग्रास बनाया, उसे तू विशिष्ट कर दे। हृदय चीर दे, जीभ काट दे।” आमे सुपम्वे शबले विपम्कवे, यो मा पिशाचो अशने ददम्न।तदात्मना प्रजया पिशाचा,वियातयन्तामगदोऽयमस्तु॥ क्षीरे मा मन्थे यतमो ददम्भ-अकृष्ट पन्चे अशने धान्ये यः।अपां मा पाने यतमो ददम्भः,कृव्याद् यातूनां शयने शयानम्॥ दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ-क्रव्याद् यातूनां शयने शयानम्।तदात्मना प्रजया पिशाचा,वियातयन्ता भगदोऽयमस्तु॥ “कच्चे, पक्के, अधपके या तले हुए भोजन में प्रविष्ट होकर जिन माँस भक्षक रोग-कृमियों ने इस मनुष्य को हानि पहुँचाई, वे सब रोग-कृमि, हे यज्ञाग्नि! तेरे द्वारा सन्तति सहित विनष्ट हो जायें, जिससे कि हम निरोग हों। दूध में, मठे में, बिना खेती के पैदा हुए जंगली धान्य में, कृषि जन्य धान्य में, पानी में, बिस्तर पर सोते हुये दिन में या रात में जिन रोग-कृमियों ने इसे हानि पहुँचाई है, वे सब, हे यज्ञाग्ने! तेरे द्वारा सन्तति सहित विनष्ट हो जायें, जिससे कि यह मनुष्य समुदाय निरोग हो।” न तं तक्ष्त्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते।य भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते॥ अर्थात्- “जिस मनुष्य को गूगल औषधि की उत्तम गन्ध की प्राप्ति होती है, उसे रोग पीड़ित नहीं करते और अभिशाप या आक्रोश उसे नहीं घेरता।” प्राचीन काल में महारोग फैलने के समय में बड़े-बड़े यज्ञ किये जाते थे और जनता उनसे आरोग्य लाभ करती थी। उन्हें भैषज्य-यज्ञ कहते थे। गोपथ ब्राह्मण में लिखा है- भैषज्य यज्ञाः वा एते यच्चातुमास्मानि। तस्माद् ऋतुसन्धिषु प्रयुज्यन्ते। ऋतु सर्न्धिष वै र्व्याधिर्जायते। -गी. ब्रा.। उ. 1।19 “जो चातुर्मास्य यज्ञ हैं वे भैषज्य यज्ञ कहलाते हैं, क्योंकि वे रोगों को दूर करने के लिए होते हैं। ये ऋतुसन्धियों में किये जाते हैं, क्योंकि ऋतुसन्धियों में ही रोग फैलते हैं।” जिस क्षय चिकित्सा में आधुनिक विज्ञान इतनी विवशता प्रकट करता है उसी की चिकित्सा का वेद भगवान आशापूर्ण शब्दों में आदेश देते हैं- मुंचामि त्वा हविसा जीवनाय कमज्ञात,मक्ष्यायुत राजक्ष्मात्।ग्राहिर्जग्राह यद्यैतदेव तस्या इन्द्राणि,प्रभुमुक्तयेनमृ॥1॥अथर्व का. 3 सू 10 मन्त्र अर्थ- हे व्याधिग्रस्त। तुमको सुख के साथ चिरकाल तक जीने के लिए गुप्त यक्ष्मा रोग और सम्पूर्ण प्रकट राजयक्ष्मा रोग से आहुति द्वारा छुड़ाता है। जो इस समय में इस प्राणी का पीड़ा ने या पुराने रोग ने ग्रहण किया है, उससे वायु तथा अग्नि देवता इसको अवश्य छुड़ावे। इससे अगला मन्त्र इस प्रकार है- यदि दिक्षितायुयदि वा परे तो यदि,सृत्योरत्तिकं नीत एवं।तमा हरामि निऋते रुपस्थाद,रुपार्शमेवं शतशारदाय॥1॥-अथर्व का. 3 सुक्त 11 मन्त्र अर्थ- यदि रोग के कारण न्यून आयु वाला हो, अथवा इस संसार के सुखों से दूर हो, चाहे मृत्यु के निकट आ चुका हो, ऐसे रोगी को भी मैं महारोग के पाश से छुड़ाता हूँ। इस रोगी को सौ शरद ऋतुओं तक जीने के लिए प्रबल बनाया गया है। विसवैते जामान्य जानं यतो जामान्य जायसे। कथह तत्र तवं हनो यस्य कृणयो हविगृहे॥ अर्थ- “हे क्षय रोग! तेरे उत्पन्न होने के विषय में हम निश्चय से जानते हैं कि तू जहाँ ये उत्पन्न होता है वहाँ किस प्रकार हानि कर सकता है? जिसके घर में हम विद्वान नाना औषधियों से या रोग-नाशक हवि, चरु या अन्न द्वारा क्षय-रोग को निकाल देते हैं, वहाँ से सब प्रकार से क्षय रोग दूर हो जाता है।” प्रयुक्तया यथा चेष्टया राजयक्ष्मा पुराजितां।तां वेद विहिता मिष्ट मारोग्यार्थी प्रायोजयेत्॥ “जिस यज्ञ के प्रयोग से प्राचीन काल में राजयक्ष्मा रोग नष्ट किया जाता था, आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को उसी वेद-निहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।” प्राकृतिक नियमों के साथ नित्य-प्रति नियमपूर्वक हवन करने वाला कदापि रोगी नहीं हो सकता, यह वेदवर्णित सुनिश्चित मत है और क्षय रोग तो उसके घर के निकट आने से घबरायेगा, क्योंकि श्रुति का आदेश है- न यं यक्ष्मा अरुन्धते नैन शपथ का अश्नुते।यं मेषजस्य गुग्गुलो, सुरभिर्गन्धो अश्नुते॥ विष्यं चस्तस्माद् यक्ष्मा मृगाद्रश्ला द्रवेरते॥ आदि-अथर्व. का. 19 सू. 38 मन्त्र 12 अर्थ- “जिसके शरीर को रोगनाशक गूगल का उत्तम गन्ध व्यापता है, उसको राज-यक्ष्मा की रोग पीड़ा नहीं होती। दूसरे को शाप भी नहीं लगता। उससे सब प्रकार के यक्ष्मा रोग शीघ्रगामी हरिणों के समान काँपते हैं, डरकर भागते हैं।” यज्ञ प्रक्रिया में किस रोग में, किस विधान से किस मन्त्र एवं औषधि का उपयोग किया जाय, इसकी रहस्यमयी विद्या का मन्थन आज फिर से किया जाना जरूरी है। जब उसके सत्परिणाम सामने आयेंगे तो निश्चय ही यह चिकित्सा-पद्धति संसार की सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति होगी।