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Magazine - Year 1989 - Version 2

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नादब्रह्म की प्रभावोत्पादक सामर्थ्य

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नादब्रह्म-शब्दब्रह्म की विधा का अध्यात्म क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान है। आत्मोत्कर्ष के लिये किये जाने वाले अनेकानेक उपक्रमों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण इसे ही माना जाता है। शब्द शक्ति को चेतना का ईंधन माना गया है। जब इस ईंधन की पूर्ति में कमीवेशी होने लगती है तो व्यक्ति का समूचा व्यक्तित्व ही असंतुलित हो जाता है। मानसिक बिखराव, उद्विग्नता, संक्षोभ-विक्षोभों के रूप में इसे देखा जा सकता है। इसकी पूर्ति हेतु किये जाने वाले अनेकों प्रयोगों में से संगीत की सृजनात्मक शक्ति द्वारा किया जाने वाला उपचार भी एक है।

प्राचीनकाल में समय-समय पर वेदमंत्रों के सस्वर उच्चारण का प्रयोग स्वर विद्या के रूप में मानवी विकास के लिए एवं उसके मार्ग में शारीरिक रोगों तथा मनोविकारों के रूप में उत्पन्न अवरोधों का समाधान करने के लिए किया जाता रहा है। स्वर शास्त्र के अनुसार कायकलेवर में सात सूक्ष्मनाद सतत् उठते रहते है। इन्हें स्थूल जगत में सप्तस्वरों सा, रे, ग, म, प, ध, नि, के रूप में पहचाना जाता है। सूक्ष्म स्वरूप के दबने उभरने से जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असन्तुलन उत्पन्न होता है, उसे स्वर-विज्ञान के आधार पर उपयुक्त स्वरों के समुचित सम्मिश्रण व उन के गायन के विधान से सन्तुलित किया जा सकता है। स्वर-योग की साधना कर मनुष्य मात्र सुन्दरम् को ही नहीं सत्यम् एवं शिवम् को भी प्राप्त कर लेता है, ऐसी मनीषियों की मान्यता है।

मनुष्य जाति को भगवान ने अनेक दिव्य वरदान दिये है। उनमें से स्वर-योग-संगीत भी एक है। संगीत की विशिष्ट ध्वनि तरंगें मानसिक और शारीरिक रोगों के निवारण में चमत्कारी लाभ प्रस्तुत करती रहीं है। संगीत अब मनोरंजन मात्र नहीं रहा वरन् एक से एक महत्वपूर्ण शक्ति स्वीकार कर लिया गया है। गायन को एक प्रकार का योगाभ्यास एवं वक्ष तथा कंठ संस्थान के समीपवर्ती अवयवों का महत्वपूर्ण व्यायाम माना गया है। भारतीय संगीत शास्त्र के आचार्यों के अनुसार गायन में आवाल नाभि केन्द्र (सोलर प्लेक्सस) से उठती है और अनाहत चक्र से होती हुई ब्रह्मरंध्र तक पहुँचती है। इस मध्य तालु, कंठ, फुफ्फुस, हृदय, आमाशय, यकृत एवं आँतों को प्रभावित करती हुई एक गतिचक्र बनाती हुई पुनः अपने उद्गम स्थान नाभि तक पहुँचती है। यह गतिचक्र न केवल सूक्ष्म अंग प्रत्यंग के व्यायाम के प्रयोजन को पूरा करता है, वरन् उनको प्राणचेतना का अतिरिक्त अनुदान भी देता है। संभवतः इन्हीं कारणों से प्राचीन समय में संगीत को एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य विद्या के रूप में अपनाया गया था। यद्यपि अब वह बात नहीं रही, पर धीरे-धीरे लोग उसकी उस सामर्थ्य से परिचित होते जा रहे है।

संगीत की सामर्थ्य को अब न केवल भारत में, अपितु संसार के अधिकाँश देशों में समझा, स्वीकारा, और उपयोग में लाया जा रहा है। जिस प्रकार भारत में प्राचीन समय से संगीत को चिकित्सा क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता रहा है, उसी प्रकार पाश्चात्य जगत में इसे चिकित्सा के एक प्रमुख साधन के रूप में पूर्वकाल में अपनाया गया था। मिश्र के संगीत के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ “मेडिकल पेपिरी” में इस बात का उल्लेख है कि प्राचीन समय में मिश्र में संगीत का उपयोग महिलाओं सहित अन्य पालतू जानवरों की प्रजनन क्षमता बढ़ाने में किया जाता था। संगीतज्ञा टिमाथियस ने अपने एक ग्रन्थ में लिखा है कि एक बार जब सिकन्दर अचेत हो गया था और अन्य कोई उपचार कारगर नहीं हो रहा था, तो “लायर” नामक वाद्य यंत्र बजा कर उसकी चेतना को वापस लाया गया था। बाइबिल में भी संगीत चिकित्सा का विवरण मिलता है उसमें डेविड नामक एक संगीतज्ञा का संदर्भ देते हुए कहा गया है कि जब राजा साओल का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरने लगा, तो डेविड ने ही संगीत-चिकित्सा द्वारा उसे स्वस्थ बनाया था।

प॰ जर्मनी में भी संगीत-चिकित्सा का इतिहास काफी पुराना माना जाता है। वहाँ एक वाद्य यंत्र पर अंकित है कि किसी भी प्रकार के दुःख-दर्द को मिटाने में जब सभी प्रकार की औषधियाँ असफल हो जाती है, तो संगीत उपचार ही काम आता है पूर्व जर्मनी के “कार्लमारिया बोन बेवर संगीत कॉलेज” में एक विशेष प्रकार की विंग अलग खोली गई है, जिसमें बुखार तथा अन्यान्य प्रकार की पीड़ा जनक बीमारियों के इलाज के लिए संगीत का ही इस्तेमाल किया जाता है। वहाँ के हृदय क्लीनिक और दंत चिकित्सा केन्द्रों में संगीत की ध्वनियों का ही अब प्रयोग होने लगा है, क्योंकि इस चिकित्सा से दाँत उखाड़ने में जरा-सी भी तकलीफ रोगी को नहीं होती है। वहाँ एक प्रसूति विशेषज्ञ ने प्रसव पीड़ा से पीड़ित महिलाओं पर भी इस तरह के सफल प्रयोग कर दिखाये हैं, जिससे वहाँ के कई प्रसूतिगृहों में मोजार्ट द्वारा रचित भावनात्मक संगीत की धुनों को सुनाने का कार्य प्रारंभ किया गया है। डर,, तनाव, आतंक एवं मनः दौर्बल्य में तो संगीत को रामबाण औषधि माना जाता है।

पूर्वी जर्मनी के गीटिंग शहर के डा0 जौहान्स शूमिलिन ने संगीत उपचार द्वारा अनेक कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त मनुष्यों को ही नहीं, पशुओं को भी रुग्णता से छुटकारा दिलाया है। इस कार्य के लिए मिश्र के चिकित्सक दवा के अतिरिक्त संगीतमय मंत्रों का भी उच्चारण करते थे। अफ्रीका के आदिवासी आज भी मुख से विशेष प्रकार की सुरीली ध्वनि का उच्चारण करके अथवा उन्हीं के बनाये वाद्ययंत्र बजाकर रोगोपचार किया करते हैं। पाश्चात्य देशों में प्रायः सभी मानसिक रोगों के अस्पतालों में पागलों और सनकियों भ्रान्तिग्रस्त व्यक्तियों की चिकित्सा संगीत ध्वनियों से भाव विभोर कर की जाती है। इससे उनका उन्माद घटता है और मनःस्थिति में आशाजनक सुधार होता है। अमेरिका के डा.एस. जे. लोडन ने गायकों-वादकों एवं संगीत में रुचि लेने वालों का स्वास्थ्य-परीक्षण करने पर यह पाया कि वे दूसरों की अपेक्षा कहीं कम बीमार पड़ते हैं। न्यूयार्क के डा. एडवर्ड पोडोलाँस्की के अनुसार स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से संगीत एक बहुत मृदुल और सुन्दर व्यायाम है। उसका लाभ बाल-वृद्ध, दुर्बल, समर्थ सभी अपने अपने ढंग से प्राप्त कर सकते हैं इंग्लैंड की डा. मीड के अनुसार संगीत से नाड़ी संस्थान में एक विशेष प्रकार की उत्तेजना उत्पन्न होती है। तथा कुछ विशेष धुनों-प्रकम्पनों द्वारा पाचन संस्थान संबंधी शिथिलता दूर होती है। जापान के संगीतकार शिनीची सुजुकी का कहना है कि संगीत मनुष्य में भाव-संवेदना, अनुशासन, सहिष्णुता और कोमलता जगाता है। फ्रांसीसी प्राणिशास्त्री वास्तोव आन्द्रे के अनुसार संगीत प्रायः प्रत्येक जीवधारी के मस्तिष्क एवं नाड़ी संस्थान पर आश्चर्यजनक मर्मस्पर्शी प्रभाव डालता है।उनकी प्रकृति और मनःस्थिति के अनुरूप यदि संगीत बजे, तो उन्हें मानसिक प्रसन्नता और शारीरिक उत्साह प्राप्त होता है। इसी प्रकार अमेरिका के राल्फ लारेन्स और उनकी पत्नी जब आत्मविभोर होकर गाते तो हाथ-पैरों की जकड़न से रुग्ण एक महिला इतनी मुग्ध हो जाती कि अधिक व्यथित होने पर उनके गीत सुनकर ही इसे आराम मिल जाता था।

संगीत में शामक ही नहीं, उत्तेजक शक्ति भी है। युद्धों में तो सदा से ही इसके इस वरुप का उपयोग होता रहा है। भगवान कृष्ण ने शंख बजाकर महाभारत-युद्ध का उद्घोष किया था। बिगुल,नगाड़े, भेरी, मृदंग,बीन झाँझ जैसे वाद्यों के उपयोग का वर्णन युद्ध इतिहासों में मिलता है। वर्तमान समय में भी शत्रुपक्ष के सैनिकों में भयग्रस्तता उत्पन्न करने वाली ध्वनि लहरियाँ उत्पन्न की जाती हैं, जिससे प्रतिपक्षी को परास्त किया जा सके। युद्धबंदियों के बीच ऐसी ध्वनियाँ बजाई जाती हैं, जिससे वे भविष्य में युद्ध करने योग्य हीं न रहें और उनसे किसी पराक्रम की आशा न की जा सके। विज्ञान के विकास के साथ-साथ एक ध्वंसात्मक अभिशाप यह भी जन्मा है कि मस्तिष्कीय जनम देने वाली ध्वनि तरंगों, का प्रयोग अब विभिन्न राष्ट्र करने लगे हैं। रूप ने तो एक बार ध्वनियुद्ध का यह प्रयोग उत्तरी कनाडा के एक बहुत बड़े क्षेत्र पर कर भी डाला। परिणाम स्वरूप अगणित नागरिकों में अकारण बेचैनी, तनाव, चिड़चिड़ापन आतिद के चिन्ह विकसित होते देखे गये। आत्म-हत्या करने वालों की संख्या अचानक बढ़ गई। पता चला कि एक विशिष्ट फ्रीक्वेंसी पर उत्तरीध्रुव के एक द्वीप से सोवियत रूप द्वारा प्रसारित रेडियो तरंगों के कारण यह विनाशकारी स्थिति उत्पन्न हुई है। यह ध्वनि तरंगों का निषेधात्मक उपयोग है। वस्तुतः ध्वनि का उपयोग तो सृजनात्मक प्रयोजनों में मनःशक्ति संवर्धन, मनोविकारों से मुक्त करने में होना चाहिए।

जिस प्रकार रसों में हास्यरस, वीर, श्रृंगार, शान्त, रौद्र आदि नौ रसों को प्रमुखता मिली है, उसी प्रकार संगीत में भी इन्हीं के आधार पर नौ रस गायब विधा के अंतर्गत आते हैं। प्रत्येक के लिये विशेष राग रागनियों और विशेष समय पर ही बजाये जाने का विधान है। समय,राम और रस के सम्मिश्रण से एक विशेष प्रकार का ध्वनि-प्रवाह उत्पन्न होता है, जिससे मानसिक रोगों की चिकित्सा होती है।

संगीत के साथ जब नृत्य का समन्वय होता है, तो उससे कितने ही स्थूल-सूक्ष्म अंग अवयवों का व्यायाम होता है, जो जीवन में उल्लास भरी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं। इसी कारण गायक, वादक और नर्तक सामान्य रूप से स्वस्थ तो होते हीं हैं, प्रफुल्लित और स्फूर्तिवान भी देखे जाते हैं यह संगीत-नृत्य का प्रत्येक अनुदान है।

संगीत के ऐसे अय चिकित्सीय लाभों को उपलब्ध कराने के लिए वेल्स विश्वविद्यालय में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान के डा. डायलान जोन्स को 31 हजार पौण्ड का सरकारी अनुदान मिला है, ताकि वह संगीत की रोगवारक क्षमता को जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत करने से प्रयोग-परीक्षण द्वारा भली-भाँति जाँच सकें। डा. जोन्स ने ध्वनि तरंगों के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का बड़ी गहनता से अध्ययन किया है। उनके मतानुसार मन ही मन गुन गुनाने का भी उतना ही प्रभाव शरीर एवं मन पर पड़ता है, जितना कि उच्च स्वर से गाने का। वे प्रतिदिन प्रातः सायं की वेलो में मंद स्वर में गाने की महत्ता बताते हैं व कहते हैं कि इससे व्यक्ति सदैव निरोग बना रहता है। “सोहम्” जप व भजन की महत्ता इसीलिए बतायी गयी है।

केन्द्रीय इलैक्ट्रो रसायन अनुसंधान संस्थान कराईकुड़ी के वैज्ञानिक डा. पी.वी.माथुर के अनुसार संगीत के सातों स्वरों कीर संरचना काल्पनिक नहीं, एक गणितीय सिद्धान्त के आधार पर ही संभव हुई है। उनने संगीत की 22 श्रुतियों का भी रहस्योद्घाटन किया है। प्रत्येक राग में इनमें से 14 की उपस्थिति होना नितान्त आवश्यक है। संगीत के स्वरों में एक क्रमबद्धता और लयबद्धता है। उसी को सरगम के नाम से जाना जाता है। श्रुतियों का प्रमुख कार्य स्वरों में भावतरंगों उत्पन्न करने का होता है। प्रायः देखने में आता है कि भारतीय रागों में 13 स्वरों का ही प्रयोग होता चला आ रहा है और शेष स्वचर क्रम को किसी भी राग में नहीं जोड़ा जाता। यदि इस क्रम को भी मिला लिया जाय तो संगीत से भाव-संवेदनाओं का उभार कई गुना बढ़ सकता है और उसकी आरोग्य-वर्धिनी-शक्ति भी तदनुरूप बढ़ जाती है।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि आजकल संगीत मात्र नट विद्या गलेबाजी की कला मात्र बनकर रह गया है। भोग-विलास की तृप्ति के काम आने वाला एक नशा बन गया है। एक ऐसा नशा जो धुत्त थिति में व्यक्ति को पतन-पराभव की ओर ले जाता है। स्वर-साधना को पहले कला के अंतर्गत रा गया था, पर आज ऐसील बात नहीं रही। वह अब गायकी बन गई है। कुत्साओं के उभार के लिए उसका प्रस्तुत किया जाना जनजीवन को मात्र विषपान ही कराता है।

जिस प्रकार हर वस्तु के भला और बुरा, अच्छा और खराब दो पक्ष होते हैं, उसी प्रकार संगीत के भी दो पहलू हैं। पिछले दिनों उसके बुरे स्वरूप को ही उभारा गया था, जिसके कारण उसकी क्षमताएँ कुँठित हुई और वह बदनाम हो गया। अगला समय भावप्रधान आने वाला है, जिसमें संगीत की अहम् भूमिका होगी। भाव-चेतना को झकझोरने और जगाने के लिए उसे एक महत्वपूर्ण उपचार के रूप में अपनाया जायेगा। इसके लिए आवश्यक है कि उसके स्वस्थ स्वरूप को उभारा जाय, तभी वह अपनी रोगनिवारक क्षमता का सही सही परिचय दे सकता है और नादयोग के रूप में शिवत्व प्राप्ति का पाथेय बन सकता है। शास्त्रों में उसकी इसी क्षमता विशेषता के कारण इसका इतना गुणगान किया गया है। इसके इसी स्वरूप की प्रतिष्ठा की आज महती आवश्यकता है। इस क्षेत्र में और भी गहन अनुसंधान कर उन निष्कर्षों से जन−जन को लाभान्वित किया जा सकता है।

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