
जल : एक जीवन मूरि
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जल की व्यापता और सुलभता के कारण हमारी दृष्टि उसके गुणों की आरे नहीं जाती। वस्तुतः दुनिया में पानी से बढ़कर दूसरी कोई औषधि नहीं। जल को जीवन कहा गया है। यह नामकरण उसके गुण को देखकर ही किया गया था। शरीर का पाचन, रक्त परिभ्रमण रस-स्राव स्नायु संचालन एवं सभी जैविक कार्यों में जल का अमूल्य योगदान हैं यदि सही ढंग से जल का सेवन किया जाय तो बीमार पड़ने , एवं डाक्टरों के पास दौड़ने जैसा झंझट ही न पड़े। शरीर शास्त्रियों के अनुसार काया का दो तिहाई भाग जल से ही भरा हैं यह शरीर के 69 से अधिक प्रतिशत भाग को बनाता है रक्त का 73 प्रतिशत भाग पानी ही हैं जो आक्सीजन के अतिरिक्त रोगों से जूझने वाली कोशिकाओं की फौज को वहाँ पहुँचाता है जहाँ उसकी आवश्यकता होती हैं खून के जलीय अंश के कारण ही रोग प्रतिकारक कण एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचे पाते हैं। माँस पेशियों के द्रव्य में 75 प्रतिशत और हड्डियों की मज्जा में 22 प्रतिशत पानी हैं जिसके कारण जोड़ों में चिकनाहट प्रतीत होती है और भीतरी अंग अवयव आपस में चिपकते नहीं, चमड़ी सूखती नहीं। शरीर की सूक्ष्मतम कोशिकाओं के भीतर विद्युत संवहनशीलता के आधार इलेक्ट्रोलाइट्स सोडियम व पोटेशियम है जिनका उचित संतुलन पानी में घुले हुए लवणों के कारण ही स्थापित हो पाता है यह कथन कि मस्तिष्क निरंतर पानी पर तैर रहा है विलक्षण सा प्रतीत होता हैं किंतु मस्तिष्क ही सभी 15 बिलियन कोशिकायें पानी के कणों से ही विनिर्मित है और उनका कुल परिमाण खोपड़ी की क्षमता का 60 प्रतिशत तक होता है वसा ऊतकों में जल 20 प्रतिशत होता है। यहां तक कि सुखी दीखने वाली हड्डियों में 25 प्रतिशत और धारीदार पेशियों में 70 प्रतिशत जल ही होता है शरीर की सभी कोशिकाएं जल में डूबी रहती है ताकि व नम रह सकें जिससे रुधिर वाहिकाओं और कोशिकाओं के बीच पदार्थों को मार्ग में आने-जाने के लिए सुगम कर सके। इसके द्वारा ही उपयोगी अंश फेफड़ों में और अनुपयोगी अंश किडनी में चला जाता है इस प्रकार जल भोजन को पेट के अनुकूल बनाने से लेकर रक्त बनने की प्रक्रिया में सहायक है। मात्र संरचना में ही नहीं वरन् शरीर की आंतरिक क्रियाओं में भी जल का महत्वपूर्ण स्थान है यह शरीर में उत्पन्न दूषित पदार्थ ही साँद्रता कम कर रक्त को पतला करके उसमें ओजस्वी कणों की वृद्धि करता है। सड़े-गले पदार्थों को घुलाकर, त्वचा , मूत्र तथा श्वास के द्वारा बाहर निकाल फेंकता है शरीर के दूषित पदार्थ जब बाहर निकल जाते हैं तो रक्त परिशोधन को प्रक्रिया को बल मिलता है भोज्य पदार्थ को गुर्दा के फिल्टर वाले पहले भाग से छन-छन कर दूसरे भाग वाले नली तथा लघु नलिकाओं के लंबे मार्ग से गुजरना पड़ता है। उन्हीं मार्गों से उच्छिष्ट पदार्थों को बाहर निकालने में जल गुर्दों की मदद करता है। संधि तथा आँतरिक अंगों के लिए जल स्नेहक (लुव्रिकेटर) की भूमिका निबाहता है ताप नियंत्रक के रूप में शरीर से ऊष्मा हटाने में सहायक होता है ज्यों ही शरीर गर्म हुआ कि अधिक रक्त त्वचा की ऊपरी सतह पर आ जाता है उनके द्वारा प्रेषित स्वेद बूंदें रोम कूपों से वाष्पन क्रिया हेतु शरीर वातानुकूलित अर्थात् गर्मी में ठंडा एवं सर्दी में गरम रहता है। जल का उपयोग जितना अनिवार्य है उतना ही इसका कम प्रयोग अनेकानेक रोगों को जन्म देने वाला भी। चूंकि यह शरीर जल द्वारा ही संचालित है अतः इसके न्यूनतम सेवन से इसके अंदर अनेक गड़बड़ियां उत्पन्न हो जाती है शरीर में ऐंठन मल उत्सर्जन के रुकावट , पेट दर्द, आदि का कारण जल की न्यूनता ही है ऐसे व्यक्ति प्रायः परेशान से रहते हैं एवं चिकित्सा के लिए डाक्टर के पास रंग बिरंगी गोलियों, चूर्ण आदि का सेवन करते हैं और मूल कारणों को न जानने के कारण कई अनेक रोगों से ग्रसित हो जाते हैं पेट में भारीपन के कारण शरीर में सुस्ती छाई रहती है। शरीर कमजोर हो जाता है और चेहरा निस्तेज। ये कमी शरीर में उत्पन्न हो ही नहीं इसके लिए प्रकृति ने मनुष्य के अनुकूल खाद्य पदार्थों में जल के अंश को संतुलित बनाया है। जिसे यदि प्राकृतिक रूप में लिया जाय तो कमी पूरी हो सकती हैं “न्यूट्रिशन एण्ड डायट इन हेल्थ एण्ड डिजीज“ के अनुसार हमारे भोज्य पदार्थों में सत्तर प्रतिशत नमी होती है बिना जलीय अंश के हम भोज्य पदार्थों के ग्रास गले के नीचे उतार नहीं पाते हैं। ताजी सेम में 79 प्रतिशत और सलाद वर्ग के सब्जियों में 15 प्रतिशत और पानी होता है । शुद्ध दूध में भी पानी की मात्रा अस्सी प्रतिशत होती है। भोजन के अन्यान्य पदार्थों में जलीय अंश कुछ न कुछ होता ही हैं । यहाँ तक कि शरीर को प्राप्त , होने वाले कार्बोहाइड्रेट वसा और प्रोटीन के