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Magazine - Year 1996 - Version 2

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धर्म का पवित्र प्रवाही

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धर्म तो गंगा का पवित्र प्रवाह है। जिसका स्पर्श अन्तःकरण में निर्मलता का शीतल अहसास जगाता है। अपनी छुअन से औरों को निर्मल करने वाला धर्म खुद मलिन कैसे हो सकता है। वह भला भ्रष्ट किस तरह हो सकता है ? विधर्मियों द्वारा पवित्र स्थल, धार्मिक स्थल, धर्म आदि को भ्रष्ट किए जाने की बातें बच्चों का बचपना ही तो है। इन्हें सुनकर समझ में नहीं आता कि हँसें या रोएँ। हकीकत में ऐसी बातों से धर्म को तो कुछ नहीं होता; हाँ, अपना अहम् और अपनी स्वार्थी भावनाएँ जरूर जख्मी होती हैं।

स्वधर्मी और विधर्मी- ये सम्भव ही नहीं। धर्म में विधर्म जैसा कुछ भी नहीं होता। इस दुनिया में सूर्य एक है, धरती एक है तो भला धर्म दो, तीन या पाँच किस तरह हो सकते हैं? वास्तव में अज्ञान और अधर्म के लिए संख्या की कोई सीमा ही नहीं है। जितने चाहो, जितनी तरह के चाहो उतने गिन लो।

समूचे विश्व में क्या कोई ऐसा भी इंसान है, जो साँस में कार्बन डाइऑक्साइड लेता हो, कानों से देखता हो और आँखों से सुनता हो। है क्या कोई ऐसा मनुष्य? यथार्थ में ऐसा सम्भव ही नहीं। बायें हाथ से लिखने वाले, दायें हाथ से लिखने वाले, ईश्वर में आस्था रखने वाले और ईश्वर में आस्था नहीं रखने वाले मनुष्य मिलेंगे, किन्तु श्वास में प्राणवायु न लेने वाले जीवित मनुष्य कहीं नहीं मिलेंगे। शाकाहारी, माँसाहारी, काले, गोरे, पीले मनुष्य सबने देखे होंगे, परन्तु वे सबके सब साँस में प्राणवायु ही लेते हैं। इसमें विभिन्नता ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलती। धर्म भी प्राणवायु है। इसमें जो भेद दिखाई देते हैं, वे इसे ग्रहण करने वालों की शक्ल-सूरत के है अथवा फिर अपने अज्ञान से उपजे अधर्म के।

शुद्ध प्राणवायु की ही भाँति शुद्ध धर्म को पाने की कोशिश होनी चाहिए। शुद्ध हवा पाने के लिए हम क्या करते है? उसे अशुद्ध करने वाली चीजों का हटाने की कोशिश करते हैं। ठीक इसी तरह धर्म को अशुद्ध करने वाले तत्वों को हटा दिया जाय, तो शुद्ध धर्म बड़ी ही सरलता एवं स्वाभाविकता से अपने पास आ जाएगा।

धर्म को अशुद्ध करता है कौन? और कोई नहीं, अपने ही झूठे व्यवहार और अपनी ही झूठी मान्यताएँ। इन झूठे व्यवहारों एवं झूठी मान्यताओं को कैसे पहचान जाय? इस पहचान का तरीका बड़ा सरल है। इंसान-इंसान के बीच जा भेद खड़ा करे, परस्पर द्वेश पैदा करे, वे सबके सब मिथ्या-झूठ हैं। जरा सोचिए, यह हम ही कर पाएँगे कि मेरे उसके बीच भेद कौन पैदा कर रहा है, कौन है जो बैर के बीज बोये जा रहा है? यदि “ईश्वर” है, तो सन्देहास्पद है। यदि वह “धर्म” है, तो अधर्म है। यदि वह “शास्त्र” है तो बकवास हैं।

धर्म विवेक को, हमारी आपकी अन्तरात्मा को जाग्रत करता है। वह मनुष्य की आत्मश्रद्धा को बढ़ाता है। धर्म का पवित्र प्रवाह बिना किसी भेद-भाव के मनुष्य मात्र के भीतर प्रेम की फसल को उपजाता है। जो इसके विपरीत करता है, वह अवश्य अधर्म है। इसे हर तरह से छोड़कर धर्म के निर्मल प्रवाह का स्पर्श पाने की कोशिश करना ही मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है।

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