Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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युगचेतना का प्रकाश विश्व में इस तरह फैल रहा है
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पिछले दिनों समाचार पत्रों में सुर्खी के साथ एक समाचार छपा-”प्रवासी भारतीयों के लिए अलग मंत्रालय की माँग।” आई0ए0एन0एस॰ द्वारा प्रसारित इस समाचार में प्रवासी भारतीयों की न्यूयार्क में स्थित एक विश्वव्यापी संस्था की ओर से माँग उठायी गयी थी कि भारत सरकार इस संस्था को, जिसके साथ पंजीकृत 1.8 करोड़ भारतीय मूल के नागरिक है व विश्व भर में फैले हैं, मान्यता दे तथा इनके हितों को अपनी मातृभूमि में रक्षा हेतु एक अलग मंत्रालय गठित करें। इस संस्था का नाम है ‘गोपियो’ (ग्लोबल आर्गनाइजेशन ऑफ पीपुल ऑफ इण्डियन ऑरिजिन)। इसने न्यूयार्क में अपना 1 दिन का अधिवेशन पिछले दिनों जुलाई 97 के अंत में भारत की आजादी की स्वतन्त्रता की पचासवीं वर्षगाँठ के संदर्भ में किया एवं चीन में ऐसी ही गठित संस्था व मंत्रालय का हवाला देते हुए बताया कि उसके माध्यम से चीन के सारे विश्व भर में रहने वाले प्रतिभाशाली व भावनाशील अपनी मातृभूमि से जुड़े हैं एवं यह प्रयोग किस प्रकार भारत में भी सफल हो सकता है। इस मंत्रालय के गठन से चीन में “एक खिड़की पर मंजूरी” की प्रक्रिया कसे लाल फीताशाही हटी है एवं पूँजी निवेश से चीन की समृद्धि बढ़ी है। गोपिओं के अध्यक्ष डॉ0 थॉमस एब्राहम बड़े आशान्वित हैं व इक्कीसवीं सदी की ओर अग्रणी भारत से उन्हें बड़ी अपेक्षाएँ हैं। सभी सदस्यों के मन में अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने की उमंग है, जोश है।
परमपूज्य गुरुदेव ने आज से पच्चीस वर्ष पूर्व जब पूर्वी अफ्रीका का दौरा किया था एवं लौटकर अपना शोध प्रबन्ध ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’ के रूप में लिखा तो उनकी वेदना भी यही थी कि अपनी जन्मभूमि-मातृभूमि से पुरुषार्थ कर सुदूर देशों में आकर बसे अपने स्वजनों की सुध हम क्यों नहीं ले रहे जबकि वे हमें देना ही चाहते हैं। हमसे तो उन्हें मात्र स्नेह आत्मीयता व सहकार की आवश्यकता है। परमपूज्य गुरुदेव ने लिखा कि- “राजनैतिक या साम्प्रदायिक उप निवेशवाद के दिन अब लद गए। एक विश्व की बात सोचने के साथ ही एक संस्कृति को भी ध्यान में रखना होगा। प्रचलित अनेकानेक संस्कृतियों के उपयोगी एवं महत्वपूर्ण अंश यदि एक स्थान पर एकत्रित कर दिए जाएँ तो उसका स्वरूप एक देवसंस्कृति जैसा बन जाता है। उस दृष्टि से भारत की ओर से भी प्रयास चलना चाहिए एवं हमारे विदेश में बैठे प्रवासी परिजनों की ओर से भी।” इसके लिए परमपूज्य गुरुदेव ने संस्कृति साहित्य के विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद एवं प्रकाशन घर-घर उसे पढ़ाने तथा हर व्यक्ति का जन्मदिवस, विवाह दिवस मनाए जाने के दो कार्यक्रम प्रारम्भ में दिए थे। बाद में उन्होंने साधनात्मक पुरुषार्थ की दृष्टि से प्रदूषित वातावरण में रह रहे परिजनों से वातावरण पुष्टि के लिए व स्वयं की आत्मिक प्रगति के लिए सुनियोजित साधना गायत्री मंत्र का सुविधानुसार जप एवं न्यूनतम साप्ताहिक यज्ञ की बात भी साथ में जोड़ी थी।
इन दिनों एक सर्वेक्षण के अनुसार उच्चस्तरीय डिग्री प्राप्त चिकित्सक, इंजीनियर, कम्प्यूटर विद्, पेरामेडीकल वर्कर्स एवं व्यवसायी बड़ी संख्या में विदेश में कार्यरत हैं। इनमें अधिकतम अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, साउथ अफ्रीका में हैं। भारत में प्रति वर्ष 12,500 चिकित्सक एवं 3500 से अधिक तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त औद्योगिकी वर्ग के निष्णात व्यक्ति निकलते हैं जिनमें से प्रायः पंद्रह से बीस प्रतिशत तुरन्त बाहर नौकरी पर जाते हैं। यह क्रम 1960-61 से सतत् बढ़ता चला जा रहा है। ऐसा अनुमान है कि प्रायः बीस हजार चिकित्सक (एम0डी0, एम0एस॰ स्तर के), पंद्रह हजार चिकित्सक (एम0बी0बी0एस॰ स्तर के), लगभग पैंतीस से चालीस हजार तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त मास्टर ऑफ साइंस उपर्युक्त देशों में हैं। शिक्षितों का सघनतम अनुपात अभी ऊपर लिखे देशों में ही है एवं ऐसा अनुमान है कि साढ़े चार करोड़ प्रवासी भारतीयों में प्रायः दो करोड़ इन देशों में स्थायी में स्थायी नागरिक के रूप में रह रहे हैं। फिजी, सूरीनाम, मारीशस, मेडागास्कर, जापान, सिंगापुर, मलेशिया, चीन, रूस, फ्राँस पुर्तगाल, बेल्जियम, स्पेन, इटली, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, टर्की कुवैत, ईरान, सउदी अरब, तंजानिया, केन्या, युगाण्डा, जिंबाब्वे में भी भारतीय बड़ी संख्या में हैं। लैटिन अमेरिकन राष्ट्र ब्राजील, अर्जेन्टीना, ऊरुग्वे, पनामा, इक्वाडोर में इनकी संख्या कम है पर इनकी उपस्थिति वहाँ बड़ा महत्व रखती है। अमेरिका में नासा, जो अंतरिक्ष में वैज्ञानिकों को भेजती है।, अधिकाँश वैज्ञानिक भारत, तैवान, कोरिया या जापान के हैं। जर्मनी में बंगाल से गए ढेरों वैज्ञानिक उच्च पदों पर महत्वपूर्ण स्थिति में कार्य कर रहे है। इंग्लैण्ड में भारतीय साँसद के रूप में चुने गए हैं एवं उनका हाउस ऑफ कामन्स व हाउस ऑफ लार्डस् में अच्छा खासा दबदबा है। यही स्थिति कनाडा की है जहाँ पश्चिम में स्थित वैंकूवर से पूर्व में स्थिति टोरेण्टो मण्ट्रियल तक पंजाब व गुजरात से गए भारतीय बहुतायत में हैं-तीन तो मंत्री हैं एवं कुछ साँसद । अमेरिका भारत से क्षेत्रफल की दृष्टि से लगभग 4 गुना बड़ा प्राकृतिक संसाधनों से भरा देश है। यहाँ चप्पे-चप्पे में भारतीय-गुजरात, पंजाब, तेलगू, तमिल, बंगाल, उ0प्र0 मूल के बसे हुए हैं एवं भिन्न-भिन्न रूपों में उपार्जन कर देव-संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने के प्रयास में लगे हैं। जापान व चीन में पिछले दिनों उद्योग से जुड़े काफी भारतीय जाकर बसे हैं। हाँगकाँग चूँकि अब चीन में मिल गया है, वहाँ के सभी सिंध मूल के भारतीय प्रसन्नतापूर्वक तालमेल बिठाकर वहाँ कार्य कर रहे हैं। यही स्थिति जापान की है, जहाँ भारतीय उद्योग तंत्र में महत्वपूर्ण स्थानों पर हैं।
उपर्युक्त विश्लेषण इसलिए सामने रखा गया ताकि यहाँ बैठे हमारे भारतीय समुदाय को अपने एक विशिष्ट अंग की जानकारी हो सके जो बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व प्रायः सभी देशों में कर रहा है। जितनी बड़ी संख्या प्रवासी भारतीयों की है उससे कम जनसंख्या वाले देश विश्व में कुछ नहीं तो कम से कम पचास है। इससे हमें एक ताकत का अहसास हो सकता है जो हमारे पास है, हमारी ही जड़ों से जुड़ी नियमित संपर्क बनाए रखे हुए है। इनके पास जो पूँजी है उसके द्वारा भारत पर चढ़ा कर्ज हो मात्र नहीं उतारा जा सकता अपितु भारत अपनी संसाधनों की सम्पदा व उस पूँजी के बल पर पूरे विश्व का आर्थिक नेतृत्व कर सकता है, यह ‘फाँरचून’ पत्रिका का विश्लेषण है।
यहाँ से गए भारतीय, प्रारम्भ में तो वहाँ की चकाचौंध में लिप्त हो पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित हो उसी को अंगीकार कर बैठे थे। किन्तु जैसे-जैसे उनकी दूसरी व तीसरी पीढ़ियाँ निकलने लगीं, उन्हें अनुभव हुआ कि उन्हें साँस्कृतिक पोषण की, आध्यात्मिक खुराक की आवश्यकता है नहीं तो वे अपनी संततियों का खो देंगे। गुजराती परिवारों ने अपने घरों में बच्चों से गुजराती में , पंजाबी परिवारों ने हिन्दी या पंजाबी में बोलने का क्रम जारी रखा, इसी का परिणाम है कि वहाँ तीसरी पीढ़ी को सँभालने में अधिक समय नहीं लगा। भारत से जाने वाले धर्मतंत्र के अग्रदूतों ने उन्हें उनकी पहचान दी एवं क्रमशः 95-96 तक का समय आने तक यह स्थिति आने लगी कि ऐसा लगा कि भारतीय मूल से जुड़े हमारे परिजन एवं उनके बच्चे अब साँस्कृतिक दूत की भूमिका निभाकर वहाँ के मूल अँग्रेज अमेरिकन, एशियन, कैनेडियन, फ्रेंच, स्पेनिश व्यक्तियों को भी भारतीय परिवेश में रंग सकेंगे, उन्हें मानसिक शान्ति-ध्यान का संदेश दे सकेंगे तथा संभवतः आगामी दस वर्षों में विश्व संस्कृति के विराट परिकर में बाँध सकेंगे।
परमपूज्य गुरुदेव की 1972 की यात्रा के बाद एक छिटपुट प्रयास 1971-80 में केन्या-नैरोबी से विदेश प्रवास का आरम्भ हुआ जो 1984-85 तक ही चल पाया था। किन्हीं कारणों वश बड़ी शानदार शुरुआत वाले इस प्रयास के बदलते स्वरूप को देखकर पूज्य गुरुदेव द्वारा रोक लगायी गयी। किन्तु प्रवासी परिजनों का विभिन्न देशों से आने, उनसे पत्राचार का क्रम चलता रहा, बढ़ता रहा अनेकों शाखाएँ विभिन्न देशों में खुलीं एवं गायत्री साधना एवं यज्ञ को आधार मानकर भारत मूल के परिजनों ने अपनी सक्रियता एवं शाँतिकुँज-हरिद्वार, परमपूज्य गुरुदेव वंदनीया माताजी के प्रति श्रद्धा को अडिंग बनाए रख निरन्तर अपने गुरुद्वारे आने का क्रम जारी रखा। 1991 में परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण एवं श्रद्धाँजलि समारोह के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति (बाद में राष्ट्रपति) डॉ0 शंकरदयाल शर्मा द्वारा तिलक लगाकर परमवंदनीया माताजी की उपस्थिति में प्रथम दल की 26 जून 1991 को इंग्लैण्ड के दौरे पर रवाना किया गया। जन चेतना को जगाने, उनके गौरव का आभास कर दिलों की दूरी मिटाने का प्रयास इस दल द्वारा किया गया। पूरे यू0के0 में स्थान-स्थान पर कार्यक्रम हुए जिनमें 108 कुण्डी यज्ञ 4 स्थानों पर, 51 कुण्डी यज्ञ प्रायः दस स्थानों पर एवं छिटपुट कार्यक्रम हुए । उसी दौरे पर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पहली बार वहाँ के छात्रों के बीच इंग्लिश में व्याख्यान हुआ। विभिन्न सेमिनार में कई मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट भी आए एवं प्रभावित होकर गए। बी0बी0सी0 वर्ल्ड ने भी वार्ता रिकार्ड कर दो बार रिले की। यह प्रारम्भिक प्रयास क्रम बाद में यू0के0 के साथ नार्वे, डेनमार्क, केन्या, तंजानिया, जिंबाब्वे तथा 1992 में आस्ट्रेलिया, फिजी, न्यूजीलैण्ड, साउथ अफ्रीका, यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका, कनाडा के विस्तृत दौरे में परिणत हो गया। मात्र दो वर्ष के अन्दर अनेकानेक शाखाएँ स्थापित हो गयीं, घर-घर में ज्ञान घट स्थापित हुए, देव स्थापनाएँ हुई, साथ ही कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण भी चला। इससे स्थानीय स्तर पर कई कार्यकर्त्ता प्रशिक्षित हो आगामी वर्ष में होने वाले लेस्टर (यू0के0), टोरेण्टो (कनाडा), लॉसएँजेल्स (यू0एस0ए0) के अश्वमेध महायज्ञों के लिए तैयार होते चले गए। गायत्री मंत्र की धुन का संकीर्तन व दीपयज्ञों की धूम अमेरिका, कनाडा के चर्चों तक पहुँच गयी। इसी बीच एक विशिष्ट उपलब्धि ‘हाउस ऑफ काँमन्स’ में शान्तिकुँज प्रतिनिधि के उद्बोधन के रूप में मिली जिसमें कई साँसद भारतीय संस्कृति की प्राणचेतना से अनुप्राणित हुए। इस बीच विभिन्न कथा वाचकों, धर्मोपदेशकों के जाने व कार्यक्रम सम्पन्न करते रहने का क्रम सारे विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में चलता रहा किन्तु गायत्री परिवार का एक ही उद्देश्य रहा कि किसी तरह अपनी युवा पीढ़ी को पाश्चात्यीकरण की आँधी दौड़ में शामिल होने से बचाया जाय। पूज्यवर द्वारा दिया गया वैज्ञानिक चिंतन इतना सटीक है कि उसने युवा वर्ग को विशेष रूप से प्रभावित कर मिशन का एक अंग बना दिया। प्रारम्भ में अब तक जुड़े नए परिजनों में युवक-युवतियों का प्रतिशत प्रायः 65 से 70 प्रतिशत के बीच है। उन्हें शान्तिकुँज से नियमित साहित्य मिलने लगा जिसने उन्हें जीवन जीना सिखाया। देव-स्थापना क्रम ने घर में शाँति ला दी, दुर्व्यसन मिटा दिए एवं आस्तिकता विस्तार की प्रक्रिया काफी बलवती हुई। यू0के0 में श्री वेदमाता गायत्री परिवार, तंजानिया केन्या में गायत्री परिवार युगनिर्माण अमेरिका व कनाडा में आलवर्ल्ड गायत्री परिवार न्यूजीलैण्ड, फिजी, आस्ट्रेलिया में श्री वेदमाता गायत्री परिवार के नाम से संगठन पंजीकृत व चेरिटी रजिस्ट्रेशन प्राप्त कर प्रायः तीन सौ से अधिक शाखाओं के रूप में वहाँ से शासन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं व विधिवत् कार्य कर रहे हैं।
युवावर्ग को 5 मिनट आहार-व्यायाम हेतु, 5 मिनट मानसिक प्रखरता के विकास हेतु प्राणायाम के लिए तथा 5 मिनट मानसिक शाँति व दिव्य शक्तियों के जागरण हेतु सूर्य के ध्यान के लिए देने का जो आग्रह केन्द्रीय प्रतिनिधियों ने किया उसके परिणाम 1993-94 से ही देखे जाने लगे एवं यह प्रक्रिया और समय बढ़ाकर सभी ने आरम्भ भी की व वहाँ के मूल के छात्रों को भी इससे जोड़ा। सभी ने न्यूनतम तीन वर्ष में एक बार शान्तिकुँज, गायत्री तपोभूमि आने, पढ़ाई में मन लगाकर सतत् पढ़ने, आत्मनिर्भर होते ही एक कार्यकर्त्ता के रूप में समयदान-अंशदान करने का संकल्प लिया जो कि एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। साउथ अफ्रीका, अमेरिका व कनाडा, इंग्लैण्ड में मिली उपलब्धियों से एक बात समझ में आई कि सीधी सरल अँग्रेजी में साहित्य युवावर्ग को उपलब्ध कराना चाहिए। इसी बीच शान्तिकुँज प्रतिनिधि को सम्मान पूर्वक इंडिया हैरिटेज फाउण्डेशन की ओर से ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज्म’ का मानक संरक्षक व संपादन सलाहकार नियुक्त किया गया। पारस्परिक परामर्श से साउथ कैरोलीना यूनिवर्सिटी में हो रहे इस कार्य में डॉ0 शेषगिरि राव एवं मुनि चिदानन्द जी ने इन पंक्तियों के लेखक से भरपूर सहयोग चिंतन के स्तर पर माँगा। इससे भावी संभावनाएँ काफी प्रबल हो गयी हैं।
1993 में परमवंदनीया माताजी की उपस्थिति में तीन विराट् अश्वमेध महायज्ञ लेस्टरशायर (यू0के0), टोरेण्टो (ओण्टेरियो-कनाडा) एवं लॉसएंजेल्स (कैलोफोर्निया-यू0एस0ए0) में जुलाई अगस्त में भव्यता के साथ संपन्न हुए। प्रत्येक में प्रायः 1 लाख से डेढ़ लाख की उपस्थिति रही एवं देवसंस्कृति का विराट रूप पहली बार वहाँ के लोगों ने देखा। दर्शकों, भागीदारों, रुचि लेने वालों में वहाँ के मूल के लोगों का अनुपात तीस प्रतिशत था। इन अश्वमेधों की परिणति स्वरूप ही जो यहाँ नहीं आ सकते थे, मातृसत्ता के दर्शन उन्हें वहीं हो गए एवं परिजनों की संख्या बढ़ती ही चली गई। विजन 2000 (वाशिंगटन) एवं वर्ल्ड पार्लियामेण्ट ऑफ रिलीजन (शिकागो) में 1993 में ही आयोजित थी। इनमें मिशन की शीर्ष भागीदारी रही एवं वैज्ञानिक अध्यात्मवाद प्रधान चिन्तन को बड़ी उत्सुकता पूर्वक सभी के द्वारा सुना गया। लॉसएंजेल्स, सेक्रामेण्टो, सेनफाँसिस्कों, साँन होजे, शिकागो, अटलाण्टा, हास्टन, वाशिंगटन मियामी, न्यूजर्सी न्यूयार्क, बोस्टन, अलबामा
*समाप्त*