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Magazine - Year 2003 - Version 2

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गायत्री-साधना की सफलता के प्रमुख लक्षण

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गायत्री उपासना प्रारंभ करते ही साधक की अंतः प्रक्रिया में तेजी से परिवर्तन प्रारंभ होते हैं। आग पर चढ़े कड़ाहे में, जब तक आँच नहीं लगती, तब तक उसमें भरे जल में कोई हलचल दिखाई नहीं देती, किंतु जैसे-जैसे आग तेज होती है, जल में हलचल, उबलना, खौलना, भाप बनना सब प्रारंभ हो जाता है। साधना की आँच से भी वैसा ही विचारमंथन और आत्मिक जगत में हल-चल प्रारंभ होती है। यह स्थिति तब तक चलती रहती है, जब तक पिछले संस्कारों का परिमार्जन नहीं हो जाता। उसके बाद शनैः-शनैः ऐसे लक्षण प्रकट होने प्रारंभ हो जाते हैं, जिन्हें साधना की सफलता और सिद्धि प्राप्ति के लक्षण कह सकते हैं। यह उपलब्धि चर्चित नहीं होनी चाहिए, अन्यथा साधक का अहंकार बढ़ेगा और वह पथभ्रष्ट होगा, किंतु उन्हें अनुभव कर सफलता के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है। सफलता के लक्षण इस प्रकार हैं-

शरीर में हलकापन और मन में उत्साह होता है।

शरीर में से एक विशेष प्रकार की सुगंध आने लगती है।

त्वचा पर चिकनाई और कोमलता का अंश बढ़ जाता है।

तामसिक आहार-विहार से घृणा बढ़ जाती है और सात्विकता में मन लगता है।

स्वार्थ का कम और परमार्थ का अधिक ध्यान रहता है।

नेत्रों में तेज झलकने लगता है।

किसी व्यक्ति या कार्य के विषय में वह जरा भी विचार करता है तो उसके संबंध में बहुत-सी ऐसी बातें स्वयमेव प्रतिभासित होती हैं, जो परीक्षा करने पर निकलती हैं।

उसका व्यक्तित्व आकर्षक, नेत्रों में चमक, वाणी में बल, चेहरे पर प्रतिभा, गंभीरता तथा स्थिरता होती है, जिससे दूसरों पर अच्छा प्रभा पड़ता है। जो व्यक्ति उसके संपर्क में आते हैं, वे उससे काफी प्रभावित हो जाते हैं तथा उसकी इच्छानुसार आचरण करते हैं।

साधक को अपने अंदर एक दैवी तेज की उपस्थिति प्रतीत होती है। वह अनुभव करता है कि उसके अंतःकरण में कोई नई शक्ति काम कर रही है।

बुरे कामों में उसकी रुचि हट जाती है और भले कामों में मन लगता है। कोई बुराई बन पड़ती है तो उसके लिए उसे बड़ा खेद और पश्चाताप होता है। सुख के समय वैभव में अधिक आनंदित न होना और दुख, कठिनाई तथा आपत्ति में धैर्य खोकर किंकर्तव्यविमूढ़ न होना उसकी विशेषता होती है।

भविष्य में जो घटनाएं घटित होने वाली हैं, उनका उसके मन में पहले से ही आभास होने लगता है। आरंभ में तो कुछ हलका-सा ही अंदाज होता है, पर धीरे-धीरे उसे भविष्य का ज्ञान बिल्कुल सही होने लगता है।

उसके शाप और आशीर्वाद सफल होते हैं। यदि वह अंतरात्मा से दुखी होकर किसी को शाप देता है तो उस व्यक्ति पर विपत्तियां आती हैं और प्रसन्न होकर जिसे वह सच्चे अंतःकरण से आशीर्वाद देता है, उसका मंगल होता है, उसके आशीर्वाद विफल नहीं होते।

वह दूसरों के मनोभावों को चेहरा देखते ही पहचान लेता है। कोई व्यक्ति कितना ही छिपाए, उसके सामने वह भाव छिपते नहीं। वह किसी के भी गुण, दोषों, विचारों तथा आचरणों को पारदर्शी की तरह अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देख सकता है।

वह अपने विचारों को दूसरे के हृदय में प्रविष्ट कर सकता है। दूर रहने वाले मनुष्यों तक बिना तार या पत्र की सहायता के अपना संदेश पहुँचा सकता है।

जहाँ वह रहता है, उसके आस-पास का वातावरण बड़ा शाँत एवं सात्विक रहता है। उसके पास बैठने वालों को, जब तक वे समीप रहते हैं, अपने अंदर एक अद्भुत शाँति, सात्विकता तथा पवित्रता अनुभव होती है।

वह अपनी तपस्या, आयु या शक्ति का एक भाग किसी को दे सकता है और उसके द्वारा दूसरा व्यक्ति बिना प्रयास के ही अधिक लाभान्वित हो सकता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों पर ‘शक्तिपात’ कर सकते हैं।

उसे स्वप्न में, जाग्रति में, ध्यानावस्था में रंग-बिरंगे प्रकाश पुँज, दिव्य ध्वनियाँ, दिव्य प्रकाश एवं दिव्य वाणियाँ सुनाई पड़ती हैं। कोई अलौकिक शक्ति उसके साथ बार-बार छेड़खानी, खिलवाड़ करती हुई सी दिखाई पड़ती है। उसे अनेक प्रकार के ऐसे दिव्य अनुभव होते हैं, जो बिना अलौकिक शक्ति के प्रभाव के साधारणतः नहीं होते।

उपर्युक्त चिह्न तो प्रत्यक्ष प्रकट होते हैं। अप्रत्यक्ष रूप से अणिमा, लघिमा, महिमा आदि योग शास्त्रों में वर्णित अन्य सिद्धियों का भी आभास मिलता है। वह कभी-कभी ऐसे कार्य कर सकने में समर्थ होता है, जो बड़े ही अद्भुत, अलौकिक एवं आश्चर्यजनक होते हैं।

जिस समय सिद्धियों का उत्पादन एवं विकास हो रहा हो, वह समय बड़ा ही नाजुक और बड़ी ही सावधानी का है। जब किशोर अवस्था का अंत और नवयौवन का आरंभ होता है, उस समय वीर्य का शरीर में नवीन उद्भव होता है। इस उद्भवकाल में मन बड़ा उत्साहित, काम-क्रीड़ा का इच्छुक एवं चंचल रहता है। यदि इस मनोदशा पर नियंत्रण न किया जाए तो कच्चे वीर्य का अपव्यय होने लगता है और वह नवयुवक थोड़े ही समय में शक्तिहीन, वीर्यहीन, यौवनहीन, होकर सदा के लिए निकम्मा बन जाता है। साधना में भी सिद्धि का प्रारंभ ऐसी ही अवस्था है, जबकि साधक अपने अंदर एक नवीन आत्मिक चेतना अनुभव करता है और उत्साहित होकर प्रदर्शन द्वारा दूसरों पर अपनी महत्ता की छाप बिठाना चाहता है। यह क्रम यदि चल पड़े तो वह कच्चा वीर्य - प्रारंभिक सिद्धि तत्त्व स्वल्प काल में ही अपव्यय होकर समाप्त हो जाता है और साधक को सदा के लिए छूँछ एवं निकम्मा हो जाना पड़ता है।

संसार में जो भी क्रिया-व्यापार चल रहा है, वह कर्मफल के आधार पर चल रहा है। ईश्वरीय सुनिश्चित नियमों के आधार पर कर्मबंधन में बँधे हुए प्राणी अपना-अपना जीवनक्रम चलाते हैं। प्राणियों की सेवा का सच्चा मार्ग यह है कि उन्हें सत्कर्म में प्रवृत्त किया जाए, आपत्तियों को सहने का साहस दिया जाए। यह आत्मिक सहायता हुई। तात्कालिक कठिनाई को हल करने वाली भौतिक सहायता भी देनी चाहिए। आत्मशक्ति खरच करके कर्त्तव्यहीन व्यक्तियों को संपन्न बनाया जाए तो यह उनको और अधिक निकम्मा बनाना होगा, इसलिए दूसरों की सेवा के लिए सद्गुण और विवेकदान ही श्रेष्ठ है। दान देना हो तो धन आदि जो हो, उसका दान करना चाहिए। दूसरों का वैभव बढ़ाने में आत्मशक्ति का सीधा प्रत्यावर्तन करना अपनी शक्तियों को समाप्त करना है। दूसरों को आश्चर्य में डालना या उन पर अपनी अलौकिक सिद्धि प्रकट करने जैसी तुच्छ बातों में कष्टसाध्य आत्मबल को व्यय करना ऐसा ही है, जैसे कोई मूर्ख होली खेलने का कौतुक करने के लिए अपना रक्त निकालकर उसे उलीचे। यह मूर्खता की हद है। अध्यात्मवादी, दूरदर्शी होते हैं, वे साँसारिक मान-बड़ाई की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते।

पर आजकल समाज में इसके विपरीत धारा ही बहती दिखाई पड़ती है। लोगों ने ईश्वर-उपासना, पूजा-पाठ, जप-तप को भी साँसारिक प्रलोभनों का ही साधन बना लिया है। उनका उद्देश्य किसी प्रकार धन प्राप्त करना होता है। ऐसे लोगों को प्रथम तो उपासनाजनित शक्ति ही प्राप्त नहीं होती और किसी कारणवश थोड़ी-बहुत सफलता प्राप्त हो गई तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और आगे के लिए रास्ता बंद हो जाता है। दैवी शक्तियाँ कभी किसी अयोग्य व्यक्ति को ऐसी सामर्थ्य प्रदान नहीं कर सकतीं, जिससे वह दूसरों का अनिष्ट करने लग जाए।

प्रदर्शन की अहंता का स्पर्श करें नहीं और अनिष्ट की बात सोचें नहीं, तब फिर संसार का कल्याण और परमार्थ ही एकमात्र कामना रह जाएगी। ऐसा व्यक्ति ही दूसरों को सन्मार्गगामी बनाता है। गायत्री उपासकों से उसी की अपेक्षा की जाती है।

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