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Magazine - Year 2003 - Version 2

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जीवात्मा की क्रमिक विकास−यात्रा

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मानव जीवन आकस्मिक उत्पत्ति नहीं है। जन्म और मृत्यु संयोग मात्र नहीं है। यह एक क्रमिक विकास की शृंखला है जिसके द्वारा विश्व में व्याप्त परमात्म तत्व अपने प्रयोजन को मानव आत्म चेतना के द्वारा पूर्ण करती है। आत्म चेतना के शाश्वत काल में जीवन और मृत्यु दिवस-रात्रि की तरह घटित होते रहते हैं। ऋग्वेद (10/16/5) में इसी तत्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है।

अवसृण पुनरग्ने पितृहायो यस्य आहुतयिरति स्वधामिः। आपुर्वसान उपवेतु शेषः सं गच्छताँ तन्ना जातवेदाः॥

अर्थात् ‘मृत्यु के उपरान्त जब पंच तत्व अपने-अपने में मिल जाते हैं, तब जीवात्मा बचा रहता है और यह जीवात्मा ही दूसरी देह धारण करता है।’

यही रहस्य है पुनर्जन्म का। इसी रहस्य को जानने के लिए लोग सदियों से प्रयास करते रहे हैं। वास्तव में पुनर्जन्म कोई विश्वास व्यवस्था भर नहीं है अपितु यह एक विशुद्ध विज्ञान है। यह हमारे अतीत और अनागत जीवन की व्याख्या करता है।

पश्चिमी तत्वज्ञ प्लेटो ने पुनर्जन्म की व्याख्या ‘मृत्यु तथा मरण का प्रदीर्घ अहायास’ (ड्ड द्यशठ्ठद्द ह्यह्लह्वस्रब् शद्ध स्रद्गड्डह्लद्ध ड्डठ्ठस्र स्रब्द्बठ्ठद्द) कहकर की है। प्लूटार्क तथा सोलोमन भी पुनर्जन्म पर आस्था रखते थे। पाइथागोरस का विचार था कि साधुता का पालन करने पर आत्मा का जन्म उच्चतर लोकों में होता है। दुष्कृत आत्माएँ निम्न पशु योनि आदि में आती हैं।

मनोविज्ञान की नवीन शाखा परामनोविज्ञान की खोजों द्वारा प्राप्त तथ्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मृत्यु केवल स्थूल शरीर को ही समाप्त कर पाती है। मरने के बाद भी मृत व्यक्ति की आत्मा इस संसार के व्यक्तियों पर अपना प्रभाव डालती रहती है। स्थूल शरीर को ही व्यक्तित्व मानना तथा यह कहना कि स्थूल शरीर के समाप्त होने पर व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार से यह कहना कि बल्ब के फूट जाने या फ्यूज हो जाने पर बिजली ही नहीं रह गई तथा उस बल्ब के स्थान पर कोई बल्ब ही नहीं जल सकता। प्रो. एस. सी. नारथ्राव कहते हैं कि आत्मा के अमरत्व का निषेध करने वाले पाश्चात्य जड़वादी भी भौतिक शास्त्रार्न्तगत शक्ति तथा अचेतन द्रव्य की अध्यक्षता को मानकर एक तरह से अमरत्व की स्वीकृति ही देते हैं। नारथ्राप के अलावा अन्य आधुनिक वैज्ञानिक भी मृत्यु के बाद भी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं।

पुलिट्जर पुरस्कार विजेता विलियम सरोपन ने अपनी पुस्तक ‘द ह्यूमन कॉमेडी’ में लिखा है कि हममें से कदाचित ही कोई मृत्यु के विषय में सोचता है। यदि सोचता भी है तो यही कि आगे क्या होता है? किसी के लिए मृत्यु ही सबका अवसान है तो कोई स्वर्ग और नर्क में विश्वास रखता है। कई व्यक्तियों के अनुसार यह जीवन अनेक बीते हुए जन्मों में से एक है और भविष्य में भी यह क्रम चलता रहेगा। विश्व में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अपनी पूरी शक्ति के साथ सदा जीवित रहना चाहते हैं। विज्ञान ने इस रहस्य को काफी हद तक जानने की कोशिश की है।

क्या कोई मनुष्य तत्काल ही पुनर्जन्म ग्रहण करता है या धीरे-धीरे अथवा बहुत लम्बे समय की अवधि में? क्या दूसरे जीवधारी जैसे पशु आदि मनुष्य शरीरों में पुनर्जन्म लेते हैं? क्या हम सदैव पुनर्जन्म लेते हैं या जन्म-मरण का यह चक्र कहीं समाप्त भी होता है? क्या आत्मा निरन्तर नर्क का दुःख भोगती है या सदा के लिए स्वर्ग के सुखों का उपभोग करती है? क्या भावी पुनर्जन्म पर हमारा अपना वश चल सकता है? इस सम्बन्ध में जितने भी वैज्ञानिक अनुसंधान हुए उसके अनुसार पुनर्जन्म की व्याख्या की जाती रही है।

परन्तु जैसा कि भौतिकी के जनक अलबर्ट आइन्स्टाइन ने स्वीकार किया था कि चेतना का यथेष्ट स्वरूप विवेचन भौतिक घटनाओं के रूप में नहीं किया जा सकता। इस महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि विज्ञान के स्वयं सिद्ध विधानों को मानव जीवन पर लागू करने का वर्तमान फैशन न केवल पूरी तरह गलत है अपितु यह ग्लानि योग्य भी है। हालाँकि प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना जाता है परन्तु जब मनुष्य भौतिक इन्द्रियों की पहुँच से पार किसी तत्व को समझने का प्रयास करता है तब ज्ञान के उच्चतम स्रोत के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता।

पुनर्जन्म का सिद्धान्त हमारे अतीत, वर्तमान और अनागत जन्मों से संबंधित सूक्ष्म विधानों की साँगोपाँग व्याख्या करता है। यदि कोई पुनर्जन्म को समझना चाहता है तो उसे ऊर्जा के रूप में चेतना की आधारभूत अवधारणा को उन भौतिक तत्वों से भिन्न और उत्कृष्ट स्वीकार करना पड़ेगा जिससे भौतिक शरीर का निर्माण होता है। आत्म सता के संकल्प एवं कर्म ही प्रत्येक मनुष्य की प्रगति या पतन के आधार बनते हैं। मनुष्य की अपनी इच्छा शक्ति एवं उसके कर्म ही जीवन प्रवाह के नये-नये मोड़ों का कारण बनते हैं। यह इच्छा ही कर्म का स्वरूप गढ़ती है। कर्मफल एवं संस्कार प्रारब्ध का निर्माण करते हैं और प्रारब्ध पुनर्जन्म के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। गीताकार इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए कहते हैं-

यं यं वापि स्मरन्भाव त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः॥

अर्थात् ‘हे कुन्तीपुत्र! यह मनुष्य अन्त काल में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस-उस को प्राप्त होता है परन्तु सदा जिस भाव का चिंतन करता है अन्तकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है।’

मानवीय चेतना इतनी उत्कृष्ट एवं परिष्कृत है कि उसका निचली योनि में जाना लगभग असम्भव है। फिर भी यदि कोई मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति का भीषण दुरुपयोग करे तो ऐसे जाना स्वाभाविक है। परन्तु मनुष्य योनि में आने तक जीवात्मा इतनी विकसित तो हो ही जाती है कि वह आनन्द प्राप्त के लिए मानवीय सद्गुणों से निरन्तर दूर हटता जाये। जब कभी वह मोह एवं वासना के आवेग में पतन की ओर अग्रसर होता है, उसका अपना अन्तःकरण ही उसे कचोटने लगता है। जिस प्रकार देवत्व का जीवन बहुत कम लोग ही प्राप्त कर पाते हैं उसी प्रकार हीनतर प्रवृत्तियां भी कम ही लोग अपना पाते हैं। अधिकाँश लोग अपनी सामर्थ्य भर ऊपर उठने का प्रयास करते ही हैं।

किसी व्यक्ति के पिछले जन्मों की प्रवृत्तियों एवं संस्कारों का लेखा-जोखा उसकी वर्तमान प्रवृत्तियों गतिविधियों के आधार पर किया जा सकता है। मन, बुद्धि एवं अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ ही अगले जन्म की आधारशिला बनती है। पुनर्जन्म एक शाश्वत व्यक्तित्व के सतत् नये-नये स्वरूप धारण करने की शृंखला मात्र नहीं है। वरन् यह आध्यात्मिक विकास का साधन है। भगवान् के अपरिमित सौंदर्य के नवीन ढंग से अभिव्यक्त करने का माध्यम है।

अमर जीवात्मा मरण-धर्मी शरीर के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है। इस जन्म लेने, जीवन धारण करने का एक ही मौलिक प्रयोजन है जीवन और सृष्टि में परमात्म सौंदर्य की परिपूर्ण अभिव्यक्ति। इस निमित्त व्यक्तिगत आत्माएँ विभिन्न रूपों में विकसित होती हैं। यह विकास मानव शरीर की प्राप्ति तक चलता रहता है। परन्तु मानव शरीर भी अन्तिम स्तर नहीं है। अपितु यह भी उच्चतर स्तरों के लिए एक सीढ़ी मात्र है। निम्न से उच्च, पशु से मानव तक की प्रगति सुनिश्चित है। जीवात्मा मानव शरीर को पुनः-पुनः धारण करती है। इस क्रम में शरीर भले ही मानवाकार में बना रहता है, पर निरन्तर भगवत् सौंदर्य की अभिव्यक्ति में वृद्धि होती रहती है और अन्ततः जीवात्मा विकास की पूर्णता अर्थात् परमात्मा से एकत्व मोक्ष की प्राप्त करती है।

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