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Magazine - Year 2003 - Version 2

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Language: HINDI
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आइए अपसंस्कृति की माया को चुनौती दें, विद्याविस्तार करें

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भारत की सम्पदा का लगभग दो सौ वर्षों तक दोहन करने के उपरान्त अगस्त 1947 में अंग्रेज इस देश से विदा हुए। साम्प्रदायिक वैमनस्य के विष के साथ वे यहाँ भीषण गरीबी भी विरासत में छोड़ गये। अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अपने शासनकाल में उन्होंने बड़ी चतुराई के साथ जीवन रस को सींचने वाली इस देश की प्राचीन साँस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनैतिक संस्थाओं को यथाशक्ति नष्ट और भ्रष्ट किया और उनके प्रति यहाँ के लोगों के मन में अनास्था उत्पन्न करने का भरसक प्रयास किया। स्वतंत्रता के बाद गुलामी के इस कलंक को मिटाने व अपनी नियति आप निर्धारित करने का महान् कार्य भारत माँ की संतानों पर था। उसने अपनी यह कार्य अपने ढंग से किया भी। उसके प्रयासों के खट्टे-मीठे, कटु एवं तिक्त फल आज हमें दृष्टिगोचर भी हो रहे हैं। भौतिक रूप से कुछ उपलब्धियों को बटोरते हुए भी आँतरिक रूप से विपन्न एवं दरिद्र ही हैं। ऐसा क्यों हुआ है? हमारे प्रयासों की दिशा में कौन सा मौलिक भटकाव रहा है? व कैसे हम राष्ट्रीय विकास की सर्वांगीण रूपरेखा तय कर सकते हैं। यह विचार मंथन आज अनिवार्य एवं अपेक्षित है।

यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि नदी, पर्वत, वन और मैदान से भी अधिक किसी राष्ट्र का अस्तित्व वहाँ की जनता, वहाँ के स्त्री-पुरुषों पर निर्भर करता है, वे ही यथार्थ में उसकी शक्ति, उसकी सर्वातिशायी, सारवान् सम्पदा होते हैं। समग्र शिक्षा के संस्कार द्वारा इस शक्ति को उपयोगी बनाना, इस सम्पदा को सँवारना, हर काल और हर परिस्थिति में हर शासन का प्रथम और परम कर्त्तव्य होता है। दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में इस संदर्भ में अक्षम्य प्रमाद हुआ है। न केवल देश के कर्णधारों ने शिक्षा की उपेक्षा की है, अपितु इसके महत्त्व को भी कभी हृदयंगम नहीं किया।

उल्टा साधनों की कमी की आड़ लेकर हमारे राष्ट्र के नव निर्माताओं ने उपयुक्त शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के निर्माण के महत्त्वपूर्ण विषय में अपनी उपेक्षा को ढकने का प्रयास किया है। परिणाम में यह विडम्बना स्पष्ट दिखाई देती है कि स्वाधीनता आन्दोलन के समय में, प्रायः नितान्त साधनविहीन होने पर भी तत्कालीन प्रबुद्ध नेता देशवासियों में व्यापक रूप से त्याग, बलिदान, पारस्परिक सौहार्द्र, सरलता और निर्भीकता जैसे गुण जगा सके, जबकि आज न केवल राष्ट्र के प्रति इन आदर्श भावों का अधिकाँशतः लोप हो गया है, अपितु इनके स्थान पर स्वार्थ, असहिष्णुता, वैमनस्य, भ्रष्टता, अनैतिकता जैसे अवगुणों ने मनुष्यों के हृदयों में गहरी जड़ें जमा ली हैं।

हमारे ही देश में वैदिक काल में जब शिक्षा के क्षेत्र में हमारे साधनों की स्थिति यह थी कि न कागज था, न कलम और न ही किताब; शिक्षा सभी स्त्री-पुरुषों के लिए अनिवार्य थी और निःशुल्क भी। मुख्य बात यह थी कि उस समय के लोग यह जानते और मानते थे कि स्वस्थ और स्वच्छ सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन तब तक सम्भव ही नहीं है, जब तक प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित न हो। इतना ही नहीं, वे शिक्षा के लक्ष्यों के विषय में भी अत्यन्त स्पष्ट थे। शिष्य के चरित्र का निर्माण करना, विविध विषयों का उसको ज्ञान कराना और उसकी बुद्धि को ऐसा समर्थ बना देना कि वह जीवन में उठने वाले किसी भी प्रश्न के विषय में विवेकपूर्ण विचार कर सके और सही निर्णय ले सके; समवेत रूप से आचार्य के कर्त्तव्य अथवा शिक्षा के लक्ष्य थे। वैदिक काल में शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम उपयुक्त इन मुख्य प्रयोजनों को सिद्ध करने का आनुषंगिक माध्यम मात्र थे। जबकि आज राष्ट्र शिक्षा के विषय में किसी स्पष्ट दिशा से हीन दिखाई देता है।

शिक्षा जैसे अतिशय महत्त्व के विषय के प्रति स्वतंत्र भारत की कितनी उपेक्षा वृत्ति रही है यह इसी बात से प्रकट है कि आज भी हमारी शिक्षा का ढाँचा भूयसा वही है जिसे दासवृत्ति वाले अंग्रेजी पढ़े-लिखे कर्मचारियों को तैयार करने के प्रयोजन से लार्ड मैकाले की सिफारिश पर अंग्रेजों ने खड़ा किया था। उसमें थोड़ा सा परिवर्तन इस रूप में हुआ है कि आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य प्रतीत होने वाले कतिपय विषयों का प्रशिक्षण देने वाले इंजीनियरिंग कॉलेज, आई.आई.टी., मेडिकल कॉलेज, कृषि कॉलेज, बिजनेस मैनेजमेंट संस्थान जैसी शिक्षा संस्थाओं की वृद्धि हो गई है। स्पष्टतया इन संस्थाओं का उद्देश्य शिक्षार्थियों को केवल तत्तद् विषयों का ज्ञान कराना है। निचले स्तर पर अर्थात् स्कूल के स्तर पर पाठ्यक्रम और शिक्षा व्यवस्था, सामान्य रूप से इन्हीं विशिष्ट विषयों की शिक्षा देने वाली संस्थाओं के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने की दृष्टि से नियोजित होते हैं। जो गिने-चुने छात्र स्कूल की शिक्षा पूरी करके इनमें प्रवेश पा लेते हैं उनके लिए लक्ष्मी मंदिर के द्वार खुल जाते हैं, लेकिन जो इनमें प्रवेश से वंचित रह जाते हैं वे खण्डित मनोरथ की कसक हृदय में लिए जीवनभर इधर-उधर भटकते रहते हैं। यह अत्यन्त स्पष्ट है कि शिक्षा की इस व्यवस्था में न तो छात्रों के चरित्र निर्माण का कोई संकल्प है और न ही उसे दैनन्दिन जीवन से जोड़ने और उसे जीवन की चुनौतियों से जूझने के लिए उसे तैयार करने का प्रयत्न। परिणामस्वरूप हमारा कोई-कोई शिक्षित व्यक्ति अपने विशिष्ट विषय का प्रकाण्ड पंडित तो हो सकता है, लेकिन इस बात को कोई भरोसा नहीं कि वह अच्छा मनुष्य या अच्छा नागरिक भी होगा।

स्पष्टतया हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह व्यवसायीकरण हुआ है। इसका जीवन निर्माण एवं संस्कार से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। इसका एकमात्र उद्देश्य धन एवं अधिक से अधिक धन का उपार्जन भर रह गया है। और लक्ष्मी की एकाकी उपासना, कभी भी, किसी के लिए श्रेयस्कर सिद्ध नहीं हुई है। भारतीय परम्परा में अर्थ एवं काम प्रधान भोगवादी संस्कृति को कभी मानव के लिए कल्याणकारी नहीं माना गया है। जबकि औद्योगीकरण एवं वैज्ञानिक प्रगति से उपजी संस्कृति में इन्हीं तत्त्वों की प्रधानता रही है। इनसे उपजी अद्भुत उपलब्धियाँ एवं भौतिकवादी चकाचौंध आम मानव के लिए दुर्निवार आकर्षण वाली सिद्ध हुई, क्योंकि एक ओर इसने मनुष्य की शक्ति को इतना बढ़ा दिया कि वह यथार्थ ही प्रकृति का स्वामी प्रतीत होने लगा और दूसरी ओर संख्यातीत योग्य वस्तुओं का विपुल उत्पादन कर सामान्यातीत सामान्य व्यक्ति के भी जीवन को पहले की तुलना में अधिक सुविधा सम्पन्न बना दिया।

विविध वस्तुओं का संख्यातीत उत्पादन कर उद्योगों ने यथार्थ में ही मनुष्य के सुख की वृद्धि की है, यह भी शंकनीय है। भोगों में ही सुख की खोज करने वालों राजा ययाति की कथा और गीता के निर्भ्रान्त वचन (2/70)बताते हैं कि कामकामी को कभी सुख-शान्ति नहीं मिल सकती। मनुष्य के लिए कौन सी और कितनी सामग्री आवश्यकता पूर्ति का साधन है अथवा विलास का यह विवेक बनाये रखना ज्ञानी के लिए भी कठिन है, विशेष रूप से तब जब उसको प्राप्त करने के लिए उपेक्षित धनरूप शक्ति स्वायत्त हो। आधुनिक बाजारों और सम्पन्न लोगों के घरों का यदि अवलोकन किया जाये तो यह सरलता से स्पष्ट होगा कि आवश्यक सामग्री की तुलना में विलास सामग्री की ही सर्वत्र बहुलता है। इसी के परिणाम स्वरूप आधुनिक मनुष्य में आडम्बर प्रियता और केवल आसपास के मित्र-परिचितों के साथ अनपेक्षित स्पर्द्धाभाव के कारण नये-नये किन्तु यथार्थ में अनावश्यक पदार्थों को जुटाते रहने की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।

युक्ति के लिए यदि यह स्वीकार भी कर लिया जाये कि औद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप आधुनिक मनुष्य का जीवन भौतिक दृष्टि से अत्यधिक सुखी हो गया है, फिर भी इस तथ्य को नकारना तो बिल्कुल असम्भव है कि उसका आन्तरिक जीवन निपट दारिद्रय से ग्रस्त हो गया है। औद्योगीकरण के बलवत् प्रभाव के कारण यूरोप और अमरीका से दूसरे देशों में फैलने वाली इस नई संस्कृति के स्वभावतः नये मूल्य हैं, नये आदर्श और नये लक्ष्य हैं। सार रूप में इसकी व्याख्या भोग मूलक और व्यक्ति प्रधान संस्कृति के रूप में की जा सकती है। मनुष्य अपने स्वभाव से आज भी एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन यह एक विडम्बना है कि व्यक्ति प्रधान यह आधुनिक संस्कृति मनुष्य की त्याग, सहयोग मूलक संघवृत्ति को बढ़ावा देकर उसे एक-दूसरे के साथ भावात्मक रूप से संश्लिष्ट करने वाली परिवार, जाति जैसी सामाजिक संस्थाओं का उन्मूलन कर उद्योग, व्यवसाय, बाजार जैसी आर्थिक संस्थाओं का जाल फैला रही है, जो मनुष्य की संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धामूलक विघटन वृत्ति को बढ़ावा देकर उसमें दूसरे की कीमत पर अपना निजी स्वार्थ सिद्ध करने का कौशल उत्पन्न करके व्यवहार में उसे दूसरों से विश्लिष्ट कर रही है।

इस नई संस्कृति से आक्रान्त भारतीय समाज की आज बड़ी विचित्र दशा है। इसमें एक और सदियों से चले आते हुए पुराने संस्कारों में पली-बढ़ी पुरानी पीढ़ी है, जो यह देखकर हैरान है कि राम, भरत, सीता, सावित्री और सत्यवान जैसे चरित्रों को जन्म देने वाली इस देव भूमि में माता-पिता बोझ, भाई-बहन पैतृक सम्पत्ति को हड़पने वाले षड्यन्त्रकारी, बच्चे अपने जन्मदाताओं के आर्थिक अभ्युदय की बाधा और पति-पत्नी एक दूसरे से छुटकारा पाने के लिए एक-दूसरे के छिकन्वेषणकारी कैसे बन गये? मित्रों की एक-दूसरे के दुःखों को बाँटने वाली अहैतुकी मैत्री कैसे खो गई? केवल कर्त्तव्य भावना से अपने नियोग को पूरा करने की शुचिता कैसे विलुप्त हो गई? परिश्रम और ईमानदारी से कमाई सूखी रोटी का मिठास कैसे नष्ट हो गया? दिन-रात खोज में दौड़ते रहने पर भी भीड़ भरे राज मार्गों और लुभावने पदार्थों से सजे हुए बाजारों में मनुष्य का सुख-चैन कैसे अदृश्य हो गया?

दूसरी ओर नई पीढ़ी यह सोच-सोचकर हैरान है कि पुराने लोगों को इतनी मोटी बात भी समझ में क्यों नहीं आती कि समाज मूलतः व्यक्ति से ही बनता है। इसलिए व्यक्ति के विकास पर ही अन्ततः समाज का विकास निर्भर करता है। पारिवारिक परिवेश व्यक्ति की स्वतंत्रता में व्यर्थ ही रोका-टोकी करके उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयत्न में अवरोधक क्यों बनता है? क्यों पाप-पुण्य का ताना-बाना बुनकर एक काल्पनिक परलोक का हौवा उसके सामने खड़ा करने की हठीली कोशिश की जाती है कि वह अपने कौशल से अपने अभ्युदय के लिए सोत्साह उद्यम न कर सके? क्यों अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता और संघर्षपरता को संकीर्ण स्वार्थपरायणता माना जाता है? क्यों स्त्री-पुरुष के नैसर्गिक आकर्षण को कृत्रिम मर्यादाओं से बाँधने का कुचेष्टा की जाती है? धरती पर साक्षात् स्वर्ग से उतर आने पर भी मन में मिथ्या आशंकाएँ और विभीषिकाएँ पैदा कर, क्यों उसे ऐश्वर्य भोग से विमुख करने का व्यर्थ प्रयास किया जाता है? क्यों उद्यमशीलता और साहसनिष्ठता को अशान्ति कहकर लाँछित किया जाता है?

स्पष्टतया वर्तमान भारतीय समाज की यह दशा मात्र दो पीढ़ियों में प्रायः दिखाई पड़ने वाले अन्तर के कारण नहीं है, वस्तुतः यह दशा भिन्न-भिन्न जीवन मूल्यों पर आधारित दो संस्कृतियों के टकराव के कारण बनी। लगभग छप्पन वर्षों तक ‘अर्थ’ की उपासना कर लेने के बाद और उसके परिणामों से अच्छी तरह से परिचित हो जाने के बाद अब यह निश्चय करने का समय आ गया है कि स्वतंत्र भारत धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप मनुष्य के सर्वांगीण विकास पर बल देने वाली अपनी समन्वयात्मिका प्राचीन संस्कृति को अपनाये या फिर केवल जीवन के भौतिक पक्ष को ही एकान्त सत्य मानने वाली व्यक्तिवादी पाश्चात्य संस्कृति को अंगीकार करे। अपने प्रति राग और पराये के प्रति द्वेष के भाव को त्यागकर केवल आत्म-कल्याण का अनुसंधान करते हुए, हमें अपनी दिशा निश्चित करनी चाहिए। विश्ववंद्य कविकुलगुरु कालिदास ने एक प्रसंग में कहा है, पुरानी होने से ही हर कोई वस्तु अच्छी नहीं हो जाती और न ही नई होने मात्र से ही कोई बुरी। केवल मूढ़ भेड़चाल को अपनाते हैं, जबकि बुद्धिमान विवेक का आश्रय लेते हुए गुण-दोष की परीक्षा करते हुए स्वयं चुनाव करते हैं। इस संदर्भ में यह भी स्मरणीय है कि जो राष्ट्र केवल अपने समय में वर्तमान में ही जीता है, वह सदा दीन होता है; यथार्थ में समुन्नत वही होता है, जो अपने आपको अतीत की उपलब्धियों तथा भविष्यत् की सम्भावनाओं के साथ जोड़कर रखता है। अपसंस्कृति की माया की एवं आक्रामक चुनौती को शिकस्त देने तथा युग की माँग को पूरा करने हेतु, हमें देव संस्कृति के शाश्वत मूल्यों को पुनः जाग्रत् करना होगा और अपने राष्ट्रीय जीवन में उनको जीवन्त अभिव्यक्ति देनी होगी। इस निमित्त किया गया हमारा अकिंचन सा भी किन्तु ईमानदार प्रयास भारत माता के प्रति सच्ची भावांज्जलि होगी।

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