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Magazine - Year 2003 - Version 2

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गुरुचेतना में विलय ही शिष्य का लक्ष्य हो

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शिष्य संजीवनी के प्रत्येक नए सूत्र के साथ यात्रा रहस्यमय होती जाती है। शिष्यत्व निखरता चला जाता है। शिष्य की अन्तर्चेतना का चुम्बकत्व इतना सघन हो जाता है कि उस पर स्वतः ही गुरुकृपा बरसती चली जाती है। गुरुदेव की शक्तियाँ उसमें आप ही समाती चली जाती हैं। कई बार साधकों के मन में जिज्ञासा अंकुरित होती है कि गुरुदेव की कृपा पाने के लिए क्या करें? उनका दिव्य प्रेम हमें किस तरह मिलें? किस भाँति परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य शक्तियों के अनुदान से हम अनुग्रहीत हों? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है- शिष्यत्व विकसित करें। शिष्य संजीवनी में प्रतिमास बताए जाने वाले सूत्र ही वह विधि है जिसके द्वारा सहज ही साधक में शिष्यत्व का विकास होता है। उसमें अपने सद्गुरु की कृपा शक्ति को ग्रहण-धारण करने की पात्रता पनपती है।

इसमें बताया जा रहा प्रत्येक सूत्र अनुभव सम्मत है। जिसके वचन है, उसने इन सूत्रों के प्रत्येक अक्षर में समाए सच को अनुभव किया है। इसकी प्रक्रिया एवं परम्परा अभी भी गतिमान है। इस सत्य का अनुभव आप आज और अभी कर सकते हैं। जो शिष्य संजीवनी के सूत्रों को आत्मसात करने की कोशिश कर रहे हैं- वे जानते हैं कि प्रतिदिन उनके पाँव अध्यात्म के रहस्यमय लोक की ओर बढ़ रहे हैं। हर नया सूत्र उन्हें नयी गति-नयी ऊर्जा एवं नया प्रकाश दे रहा है।

इस बार के पाँचवे सूत्र में भी सत्य का यही उजाला है। शिष्य संजीवनी का वही गुणकारी रूप है। इसमें कहा गया है- जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो। क्योंकि तुम्हारे भीतर समस्त संसार का प्रकाश है। इसी प्रकाश से तुम्हारा साधना पथ प्रकाशित होगा। यदि तुम इसे अपने भीतर नहीं देख सकते, तो कहीं और उसे ढूंढ़ना बेकार है। जो तुमसे परे है, केवल उसी की इच्छा करो। वह तुमसे परे है, इसलिए जब तुम उसे प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हारा अहंकार नष्ट चुका होता है। जो अप्राप्य है, केवल उसी की इच्छा करो। वह अप्राप्य है, क्योंकि पास पहुँचने पर वह बराबर दूर हटता जाता है। तुम प्रकाश में प्रवेश करोगे, किन्तु तुम ज्योति को कभी भी छू न सकोगे।

शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा सा है, किन्तु इसमें बड़े ही रहस्यमय सच समाए हैं। और सच कहो तो अध्यात्म सदा से रहस्य ही है। रहस्य का मतलब ही होता है कि जिसे खोजने तो हम निकल सकते हैं, परन्तु जिस दिन हम उसे खोज लेंगे उस दिन हमारा कोई पता ही न होगा। अध्यात्म के अलावा जितनी दूसरी खोजें हैं, वे तथ्य परक हैं। तथ्य और रहस्य में एक भारी फर्क है। और वह भारी फर्क यह है कि तथ्य चाहे जिस किसी चीज से सम्बन्धित हो, सदा ही बुद्धि से नीचे रहता है, लेकिन रहस्य हमेशा ही बुद्धि से ऊपर रहता है। तथ्य की गहराई को जब बुद्धि खोजने जाती है, तो स्वयं खो जाती है। तथ्यों को हम अपनी मुट्ठी में रखने में समर्थ होते हैं, पर रहस्य स्वयं हमें ही अपनी मुट्ठी में रख लेता है।

शिष्य संजीवनी का यह पाँचवा सूत्र कुछ ऐसा ही है। सूत्रकार इस मानवीय स्वभाव से परिचित है कि मनुष्य इच्छा किए बिना रह नहीं सकता। हर पल एक नयी इच्छा-नयी चाहत मन में अंकुरित होती रहती है। इच्छाओं की यह बेतरतीब बाढ़ हमारा सारा जीवन रस चूस लेती है। सूत्रकार कहते हैं कि इसका उलटा भी सम्भव है। यानि कि यदि इच्छा के स्वरूप को बदल दिया जाय, तो इच्छा का यह नया रूप हमारे जीवन रस को चूसने या सोखने की बजाय बढ़ाने वाला सिद्ध हो सकता है। इसके लिए करना इतना भर होगा- कि जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो। जबकि हम करते इसके ठीक उल्टा हैं। उसे चाहते हैं- उसे पाने की कोशिश करते हैं, जो बाहर है। ये बाहर की इच्छाएँ किसी भी तरह यदि पूरी हो भी जाती हैं, तो भी परेशानियाँ और अंधेरा ही बढ़ता है।

परन्तु जो भीतर है, उसकी चाहत रखने से प्रकाश बढ़ता है। इसी प्रकाश से साधना का पथ प्रकाशित होता है। भीतर की यह खोज ही जीवन में सार्थकता देती है। इच्छा के सम्बन्ध में सूत्रकार एक दूसरा बिन्दु उठाते हैं- कि जो तुमसे परे हैं, केवल उसकी इच्छा करो। जबकि साधारण तौर पर उसकी इच्छा करते हैं, जिसे हम पा सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप कभी भी अपने आप से बड़े न हो सकेंगे। लेकिन यदि चाहत कुछ अपने से परे होने की हो, तो यह आपको अपने से भी बड़ा बना देगी। इस इच्छा में विकास है, गति है। इसको पाने की चाहत हमें अपने आप से बड़ा बनाती है। और ध्यान रहे कि आप अपने से बड़े, हम अपने से बड़े तभी हो सकते हैं, जब हम और आप पूरी तरह मिट जाएँ। बाबा कबीर कहते हैं- हेरत-हेरत हे सखी, रह्य कबीर हेराय। यानि कि खोजते-खोजते, चाहत करते-करते कबीर नहीं रहा। और जब कबीर मिट गया- तभी हुआ मिलन। तभी पूरी हुई चाहत।

इच्छा के सम्बन्ध में अगला बिन्दु है कि जो अप्राप्य है केवल उसी की इच्छा करो। आध्यात्मिक जीवन तो परम साहस की माँग करता है। अरे क्या करना ऐसी इच्छा का, जो सहज ही पूरी हो सकती है। जो सहज प्राप्य है, वह इच्छा तो बेकार है, उसकी कोई कीमत नहीं। अप्राप्य वह है जिसे हम और आप कभी भी अपनी मुट्ठी में बाँध नहीं सकते। इस अर्थ में भी वह अप्राप्य है। क्योंकि ज्यों-ज्यों तुम पास पहुँचोगे त्यों-त्यों वह दूर हटता जाएगा। प्रकाश के पास पहुँच कर भी ज्योति दूर रह जाती है। ज्योति से मिलन तो ज्योति बनकर ही होता है। ज्योति में समाकर ज्योति से एकाकार होकर ही ज्योति से मिला जा सकता है।

इस सूत्र के सार को यदि समझे- तो बात इतनी भर है कि साहसपूर्ण इच्छा तो अपने सद्गुरु में समाने की है। गुरुचेतना में विलय ही शिष्य की पहचान है। इसी में शिष्यत्व का खरापन है। सद्गुरु ही प्रकाश स्रोत के रूप में हमारे अन्तःकरण में है। वही परमचेतना के रूप में हमसे परे है। और वही अभी अप्राप्य है। उनकी परम ज्योति को स्वयं को मिटाकर ही छुआ जा सकता है। उनमें समाकर ही जीवन पूर्ण होता है। बार-बार हजार बार बल्कि लाखों बार यह बात दुहराई जा सकती है कि जो शिष्य है, जिन्हें शिष्यत्व प्राप्त हुआ है- उनकी केवल देह बची रह जाती है, बाकी तो उनमें चेतना सद्गुरु की रहती है। गुरुदेव ही शिष्य की देह को आधार बना कर अपनी लीला करते रहते हैं पर ऐसा होता तभी है, जब उपरोक्त सूत्र का सही-सही अनुपालन हो। सूत्रों एवं व्याख्या का क्रम अभी आगे भी है- जिसे साधक अखण्ड ज्योति के अगले अंकों में पढ़ेंगे।

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