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Magazine - Year 2003 - Version 2

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जन्म−जन्मान्तर तक चलने वाली भावदशा

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अन्तर्यात्रा का विज्ञान अन्तर्यात्रा के पथिकों के लिए प्रकाश का स्रोत है। इसके पथ प्रदर्शन में अनगिनत योग साधक अपने साधना मार्ग में नित्य प्रति प्रगति कर रहे हैं। इनमें से कुछ भावप्रवण साधक ऐसे भी हैं, जो महर्षि पतञ्जलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म सहचर्य भी अनुभव कर रहे हैं। सच में श्रद्धा सेतु है। हृदय में श्रद्धा प्रगाढ़ हो तो देश एवं काल की दूरियाँ भी सिमट जाती हैं। लोक-लोकान्तर के सत्य पलक झपकते ही भाव चक्षुओं के सामने आ विराजते हैं। दिव्य लोकों में तपोलीन ऋषि सत्तायें भी हृदयाकाश में प्रत्यक्ष होकर मार्गदर्शन देती हैं। यह उद्गार मात्र एक काल्पनिक विचार भर नहीं, एक जीवन्त अनुभूति है। जो इन क्षणों में भी किसी को हो रही है। यह एक ऐसा प्रखर स्वर है, जिसमें अनगिनत साधकों के समवेत स्वर समाये हैं।

जो साधनारत हैं उन सभी का यही कहना और मानना है कि अन्तर्यात्रा के विज्ञान की प्रत्येक कड़ी जीवन साधना में एक नया अनुभव बनकर प्रकट होती है। अनुभूतियों एवं साक्षात्कार के नये झरोखे अन्तर्चेतना में खुलते हैं। पिछली कड़ी में असम्प्रज्ञात समाधि पर चिंतन किया गया है। महर्षि के अनुसार यह सम्प्रज्ञात समाधि का अगला कदम है। सम्प्रज्ञात समाधि में जहाँ चेतन मन अपनी शुद्धतम भावदशा में होता है। वहीं असम्प्रज्ञात समाधि में इसका सहज विलय हो जाता है। यानि कि असम्प्रज्ञात समाधि में सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है। यह असम्प्रज्ञात समाधि किसे उपलब्ध होती है? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि कहते हैं-

भवप्रत्ययो विदेह प्रकृति लयानाम् ॥ 1/19॥

शब्दार्थ - विदेह प्रकृति लयानाम् = विदेह एवं प्रकृतिलय योगियों का (उपर्युक्त योग); भवप्रत्ययः = भव प्रत्यय (जन्म होने से ही सहज प्राप्त) कहलाता है।

अर्थात् - विदेहियों और प्रकृतिलयों को असम्प्रज्ञात समाधि सहज ही उपलब्ध होती है। क्योंकि अपने पिछले जन्म में उन्होंने अपने शरीरों के साथ तादात्म्य बनाना समाप्त कर दिया था। वे फिर से जन्म लेते हैं क्योंकि इच्छा के बीज बने रहते हैं।

विदेह एवं प्रकृतिलय बड़े ही सौंदर्यपूर्ण शब्द हैं। इनमें आध्यात्मिक भावों का अवर्णनीय सौंदर्य समाया है। इनमें से विदेह का अर्थ है-जो जान लेता है कि अब वह देह नहीं है। यह अनूठी स्थिति उसे असम्प्रज्ञात समाधि के बाद ही उपलब्ध होती है। असम्प्रज्ञात समाधि की विभूतियाँ तो उसे पिछले जन्म में ही प्राप्त हो चुकी। इस जन्म में तो वह प्रारम्भ से ही असम्प्रज्ञात का वैभव धारण किये हुए जन्मता है। उसे जीवन की शुरुआत से ही इस सत्य का सम्पूर्ण बोध होता है कि वह देह नहीं है। देह तो उसने सिर्फ इसलिए धारण की है कि पिछले कर्मों का हिसाब-किताब बराबर करना है। पिछले कर्म बीजों को नष्ट करना है। कर्मों का सारा खाता बराबर करना है। ऐसे विदेह योगियों का जन्म तो बस समाप्त हो रहे हिसाबों से बना होता है। हजारों जन्म, अनगिन सम्बन्ध, बहुत सारे उलझाव और वादे, हर चीज को समाप्त करना है।

प्रकृतिलय की अवस्था और भी उत्कृष्ट है। प्रकृतिलय योगी का देह से नाता टूटने के साथ प्रकृति के साथ भी तादात्म्य नहीं रहता। ऐसे योग साधकों के लिए न तो देह का कुछ महत्त्व और न ही संसार का। इनके लिए न कोई अभिव्यक्ति और न ही संसार है। ऐसे योगी बस एक बार जन्म लेते हैं। उनके इस जन्म का कारण बस इतना होता है कि उन्हें अपने वचन पूरे करने हैं, बहुत सारे कर्म गिरा देने हैं। सारा पिछला बेबाक करना है। वे तो बस देते हैं, चुकाते हैं-माँगते नहीं-चुकाते हैं। प्रकृतिलय योगियों की कोई भी चाहत नहीं होती। उन्हें भला चाहत कैसे हो सकती है, वे तो बस अपने दिये हुए वचनों को निभाने आते हैं। अपने किन्हीं कर्म बीजों को नष्ट करने के लिए देह धारण करते हैं।

परम पू. गुरुदेव ऐसे महान् योगियों में महर्षि रमण का नाम लेते हैं। गुरुदेव के अनुसार महर्षि को बचपन से ही प्रकृतिलय अवस्था प्राप्त हुई। देह से उनका तादात्म्य तो जैसे था ही नहीं। किशोरावस्था के लगभग जब उन्हें मृत्यु का अनुभव हुआ, तब तो उनकी दशा नितान्त भिन्न हो गयी। ऐसी भावदशा उन्हें उपलब्ध हुई कि न तो दैहिक तादात्म्य रहा और न ही प्रकृति तथा संसार का कोई नाता बचा। सत्तरह वर्ष की अवस्था में ही वह तिरुवलामल्लाई तप लिए के आ गये। उनके तप का प्रारम्भ इस जिज्ञासा से हुआ कि मैं कौन हूँ? क्यों देह नहीं हूँ, प्रकृति भी नहीं हूँ, यह सत्य उन्हें सदा से प्रत्यक्ष था। अब तो बस यात्रा को आगे बढ़ाना था। सो उन्होंने प्रयत्नपूर्वक यात्रा आगे बढ़ाई। सहज ही आत्मबोध हुआ, साथ ही कर्मबीज भी समयानुसार नष्ट होते गये। महर्षि रमण के तप के प्रभाव से समूचा देश भी प्रभावित एवं प्रकाशित हुआ।

विदेह एवं प्रकृतिलय अवस्था प्राप्त महायोगियों का जीवन कई अर्थों में विलक्षण व अद्भुत होता है। इस सम्बन्ध में भगवान् बुद्ध के जीवन की एक घटना बड़ी ही भाव भरी है। निर्वाण के अनुभव के बाद भी भगवान् तथागत मौन थे। मगध सम्राट के साथ अन्य कई राज्यों के नरेश उनसे प्रार्थना कर चुके थे कि वे कुछ बोलने की कृपा करें। निर्वाण के परम अनुभव के बारे में बतायें। परन्तु भगवान् हर बार यह कहकर टाल जाते कि अभी ठीक समय नहीं आया। एक दिन अचानक तथागत ने घोषणा की कि वह पंचशाल गाँव में अपना पहला प्रवचन करेंगे। सम्राटों के आग्रह को अस्वीकार कर एक सामान्य गाँव में प्रवचन। और इस गाँव में वैसे भी कुछ ही झोपड़ियाँ थी। तथागत की घोषणा से गाँव के लोग तो जैसे उद्वेलित हो गये।

हर्ष एवं आश्चर्य से उद्वेलित-उत्तेजित गाँव के लोगों के बीच भगवान् बुद्ध प्रवचन हेतु पहुँच गये। सभी तैयारियाँ जैसे-तैसे पूरी की गयी। परन्तु भगवान् को जैसे अभी भी किसी की प्रतीक्षा थी। तभी एक हरिजन युवती आयी और बुद्ध ने प्रवचन प्रारम्भ किया। प्रवचन की समाप्ति के बाद लोग पूछने लगे-क्या आप इसी युवती का इन्तजार कर रहे थे, बुद्ध मुस्कराये और बोले-हाँ मुझे इसी की प्रतीक्षा थी। मैंने इसे पिछले जन्मों की यात्रा में वचन दिया था कि महाबोधि का प्रथम अनुभव मैं सर्वप्रथम इसे बताऊँगा। बस वह वचन पूरा करना था। सो आज पूरा हुआ। ‘असम्प्रज्ञात को उपलब्ध’ व्यक्ति इसी भावदशा में जीता है, यह भावदशा जन्मान्तर की साधना के अलावा प्रयत्नपूर्वक भी इस जीवन में पायी जा सकती है। इसी की व्याख्या में महर्षि पतञ्जलि का अगला सूत्र है। जिसकी चर्चा सभी योग साधक ‘अखण्ड ज्योति’ के अगले अंक में पढ़ेंगे।

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