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Magazine - Year 2003 - Version 2

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श्री गीता पाठ की चमत्कारिक महिमा

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मार्गशीर्ष शुक्ल-एकादशी 4 दिसम्बर गुरुवार गीता जयन्ती का पुण्य पर्व है। इन्हीं पावन क्षणों में जहाँ महायोगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण के श्रीमुख से भगवद्गीता का प्राकट्य हुआ था। साक्षात् भगवान् की वाणी होने के कारण श्रीमद्भगवद्गीता साधकों के लिए कल्पतरु की भाँति है। यह सर्वशास्त्रमयी एवं सर्वार्थ साधिका है। इसका प्रत्येक श्लोक महामंत्र है। इसके विधिपूर्वक अनुष्ठान से अनुष्ठानकर्त्ता की प्रत्येक लौकिक एवं आध्यात्मिक मनोकामना की पूर्ति होती है। इसमें किंचित भी सन्देह नहीं है कि श्रद्धा एवं विधिपूर्वक सम्पूर्ण भगवद्गीता अथवा इसके किसी मंत्र का अनुष्ठान करने पर अभीष्ट फल प्राप्त होता है।

गीता के महत्त्व को इसी सत्य से अनुभव किया जा सकता है कि समस्त शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई है, वेदों का प्राकट्य ब्रह्मा जी के मुख से हुआ है, लेकिन वे स्वयं भगवान् के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। इस तरह से शास्त्रों और भगवान् के बीच कुछ दूरी होने से थोड़ा व्यवधान आ गया है। परन्तु गीता के सम्बन्ध में ऐसी कोई बात नहीं है। यह तो स्वयं साक्षात् श्री हरि की अमृतवाणी है। अतएव इसे समस्त शास्त्रों से, यहाँ तक कि वेदों से भी बढ़कर कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

महर्षि वेद व्यास ने महाभारत के भीष्मपर्व में बड़ी ही स्पष्ट रीति से कहा है-

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥ (महाभारत भीष्मपर्व 44-1)

अर्थात्- गीता का भली प्रकार गायन करना परम कर्तव्य है। इसके रहते अन्य किसी शास्त्र के विस्तार की क्या जरूरत है। क्योंकि यह गीता तो स्वयं भगवान् पद्मनाभ श्रीहरि के मुखकमल से निकली है।

वाराह पुराण में भगवान् स्वयं कहते हैं-

गीताश्रयऽहं तिष्णमि गीता में चोत्तमं गृहम्। गीताज्ञानमुयाश्रित्य त्रींल्लोकान पालयाम्यहम्॥

अर्थात्- मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ। गीता मेरा उत्तम गृह है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।

इन सभी शास्त्रवचनों की तत्त्वकथा यही है कि गीता श्री भगवान् का परम रहस्यमय आदेश है। इसका पालन करने वाला अपने जीवन में सभी लौकिक एवं आध्यात्मिक विभूतियों को सहज ही पा लेता है। सभी प्राचीन ऋषि-मुनियों एवं वर्तमान युग के सन्तों-सिद्धों मनीषियों का मत है कि श्री मद्भगवद्गीता भगवान् की शब्दमूर्ति है। इसके प्रत्येक श्लोक में चमत्कारी मंत्र सामर्थ्य है। जिन्होंने भी इसकी सुदीर्घ साधना की है, उन सभी का यही अनुभव है कि दुर्गा सप्तशती की ही भाँति इस आध्यात्मिक सप्तशती के सविधि प्रयोग से मनोवाँछित फल प्राप्त होता है।

इन पंक्तियों के पाठक इस सत्य को स्वयं अनुभव कर सकते हैं, कि उनकी साँसारिक समस्याओं का निस्तारण एवं आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने में गीता माता सर्वसमर्थ हैं। यूँ तो गीता का प्रत्येक श्लोक महामंत्र है और उनका लौकिक एवं परमार्थिक कामनाओं की दृष्टि से उनका विशेष अनुष्ठान किया जा सकता है। परन्तु इस मंत्रमहार्णव के चौथे, नवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और पन्द्रहवें अध्यायों का कुछ विशेष ही महत्त्व है। इनमें से किसी एक अध्याय के पाठ-प्रयोग से साधकगण लाभान्वित हो सकते हैं।

अनुष्ठान विधि के क्रम में सृष्टि, स्थिति व संहार का क्रम प्रचलित है। इनमें से प्रत्येक पाठ का अपना खास ढंग है। और तदानुसार उसका फल भी विशेष है। चालीस दिनों तक नित्य नियमित संहार क्रम से तीन पाठ करने से बड़े से बड़ा संकट दूर होता है। संहार क्रम में अठारहवें अध्याय से प्रारम्भ करके प्रथम अध्याय तक क्रमशः उलटे क्रम में पाठ किया जाता है। दरिद्रता निवारण के लिए गीता का अनुष्ठान स्थिति क्रम में करना चाहिए। इस क्रम में छठे अध्याय से प्रारम्भ करके अठारहवें अध्याय तक, फिर पाँचवे अध्याय से पहले अध्याय तक पाठ किया जाता है। चालीस दिनों तक इस तरह से तीन पाठ नियमित करने से समस्त आर्थिक संकट दूर होते हैं। पारिवारिक सुख-शान्ति एवं विवाह या सन्तान की कामना के लिए सृष्टि क्रम का विधान है। इसमें प्रथम अध्याय से शुरू करके अठारहवें अध्याय पर पाठ का समापन किया जाता है। अनुष्ठान का क्रम चालीस दिनों तक नियमित तीन पाठ का है।

इन पाठ विधियों का प्रयोग आध्यात्मिक दृष्टि से भी किया जा सकता है। आध्यात्मिक भावना एवं प्रभु विश्वास के साथ संहारक्रम से पाठ करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। स्थिति क्रम से पाठ साधक में भक्ति भाव को जन्म देता है। सृष्टि क्रम से पाठ करने पर साधक के अन्तःकरण में कर्मयोगी होने का बल अंकुरित होता है। इन पाठ्यक्रमों के अलावा गीता के कतिपय श्लोकों के जप एवं सम्पुटित पाठ का भी विधान है। श्लोकों की यह प्रयोग विधि काफी विस्तृत है। स्थानाभाव के कारण सभी प्रयोगों का एक साथ उल्लेख करना यहाँ सम्भव नहीं है। बस कुछ ही महत्त्वपूर्ण प्रयोगों की यहाँ चर्चा की जा रही है। यदि पाठकों का विशेष आग्रह हुआ तो भविष्य में आगामी अंकों में इन प्रयोगों का विस्तार किया जा सकेगा।

गुरु कृपा एवं स्वप्नादेश के लिए गीता के दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक- ‘कार्यण्यदोषो पहत स्वभावः...’ के जप का विधान है। चालीस दिनों में इस सम्पूर्ण श्लोक का सवा लाख जप किया जाना चाहिए। इतना जप यदि परिस्थितिवश न सम्भव हो तो किसी भी एकादशी से रात्रि में सोते समय पवित्र भावदशा में इस श्लोक का निरन्तर एक माला जप करते रहना चाहिए। यह प्रयोग अनुभूत है। ऐसा करने से निश्चित ही गुरुकृपा प्राप्त होती है। साथ ही स्वप्न में विकट समस्या का समाधान मिलता है। इस श्लोक का सम्पुट लगाकर भगवद्गीता का पाठ विधान भी है।

शरणागति एवं पापक्षय के लिए गीता के अठारहवें अध्याय के 66 वें श्लोक ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजं’ का चालीस दिवसीय सवा लाख का अनुष्ठान करने से महापातक नष्ट होते हैं एवं भगवद्भक्ति की प्राप्ति होती है। यदि इस सम्पूर्ण श्लोक के लगातार पाँच अनुष्ठान किए जाएँ तो पिछले जन्मों के सभी संचित पापों का शमन होता है व पुण्यों की प्राप्ति होती है। इस श्लोक का सम्पुट लगाकर गीता के 151 पाठ करने से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं।

श्री मद्भगवद्गीता के पाठ के साथ गायत्री महामंत्र के प्रयोग का विधान भी है। गायत्री महामंत्र के सम्पुट के साथ गीता पाठ करने से महा असम्भव कार्य भी सम्भव होते हैं। विधाता के लिखे कुअंकडडडड मिटते हैं। इसे जो भी साधक चाहे अनुभव कर सकते हैं। अनुभव से बड़ा प्रमाण भला और क्या होगा। सम्पुट कैसे लगाएँ इसके लिए शास्त्र वचन है- ‘मन्त्रमादौ पुनश्लोकमन्ते मन्त्रं पुनः पठेत्। पुनर्मन्त्रं पुनः श्लोकं क्रयोऽयमुदये शुभः।’ अर्थात् श्लोक के आदि एवं अन्त में सम्पुट का मन्त्र लगाना चाहिए। यानि कि श्री भगवद्गीता के प्रत्येक श्लोक के आदि एवं अन्त में गायत्री महामंत्र अथवा जिस भी श्लोक मंत्र का सम्पुट करना हो, लगाना चाहिए। इसी के साथ इस विशेष पाठ की अवधि में अनुष्ठान के सभी विधि नियमों का पालन करना चाहिए। ऐसा करने से भी श्रीमद्भगवद्गीता के साधक के जीवन में आश्चर्यजनक अनुभूतियाँ एवं चमत्कार घटित होते हैं। इसमें किसी को तनिक सा भी संशय नहीं करना चाहिए।

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