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Magazine - Year 2003 - Version 2

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Language: HINDI
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गुरुकथामृत-5 - गुरु बिन कौन लगाए पार

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भाग बिना नहीं पाइए प्रेम प्रीति की भक्त। बिना प्रेम नहिं भक्ति कछु, भक्ति पर्यो सब जक्त ।। (सत्य कबीर की साखी )

श्री कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति भाग्य की चीज है, प्रेम प्रीति का विषय है, बिना प्रेम के भक्ति संभव नहीं है। एक निर्गुण कवि, समाजसुधारक कबीरदास जी जो कहते थे, “दास कबीर ने जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्हि चदरिया”-अपनी विविधतापूर्ण शैली में सदैव गुरुभक्ति-ईश्वरभक्ति की बात कहते रहे। ‘एक म्यान में दो तलवार नहीं रखी जा सकती’, से लेकर न जाने कितनी उक्तियाँ उनके द्वारा कही गई। वे लिखते हैं, “धन्य हैं वे गुरु, जो सचमुच उस भ्रमरी के समान हैं, जो निरंतर ध्यान का अभ्यास कराकर कीट को भी भ्रमरी (तितली) बना देती है। कीड़ा भ्रमरी हो गया, नई पाँखें फूट आई, नया रंग छा गया, नई शक्ति स्फुरित हुई। गुरु ने जाति नहीं देखी, कुल नहीं विचारा एवं अपने आप में मिला लिया।” यह शैली कबीरदास जी की शिक्षणपद्धति में सतत देखने में आती है। वे गुरुभक्ति की महिमा गाते-गाते नहीं थकते।

परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के दृष्टाँतों को उनकी पत्रावली के माध्यम से जब हम परिजनों के समक्ष रखते हैं तो उसके मूल में यही भाव रहता है कि अधिक-से-अधिक परिजन गुरुसत्ता के बहुआयामी पक्षों से परिचित हो सकें। आज जब वे स्थूल शरीर से नहीं हैं, सूक्ष्म व कारण रूप में ऋषियुग्म की सत्ता अपने सारे क्रिया-कलाप वैसी ही सक्रियता से कर रही है तो हम भी सभी को आश्वस्त करना चाहते हैं कि यदि मन का विश्वास प्रबल है तो आज भी वे हमें सूक्ष्म संरक्षण दे सकते हैं, हमारे कष्टों को हरने में सक्षम हैं व ढेरों चमत्कार दिखा सकते हैं। सब कुछ हमारी पात्रता एवं अटूट श्रद्धा पर निर्भर करता है। जहाँ कुतर्क जागा, संदेह पैदा हुआ, वहीं बात बिगड़ जाती है। गुरुकथामृत की इस पचासवीं कड़ी में कुछ ऐसे प्रसंग पूज्यवर की लेखनी से लिखे पत्रों के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं, जो उनके विराट रूप की झाँकी हमें दिखाते हैं। इन पत्रों से निश्चित ही सभी का विश्वास और प्रगाढ़ होगा।

21 अप्रैल, 1955 को लिखे एक पत्र में एक प्रिय शिष्य को वे लिखते हैं- विवाह में उत्पन्न किए जाने वाले सब उपद्रवों के प्रति आपको सावधान कर दिया है। साथ ही हम स्वयं भी पूरा मन और समय लगाकर विवाह की शाँति हेतु सुरक्षापूर्वक लगे रहेंगे। इन दिनों हमारा बिना सोए, बिना अन्न-जल ग्रहण किए अखण्ड सुरक्षा उपचार जारी रहेगा। बारात विदा होते ही आप पूर्ण सुरक्षा और शाँतिपूर्वक सब कार्य हो जाने पर हमें तार दे दें, ताकि अपना उपचार समाप्त कर दें। बारात आने पर भी तार दे दें।

इतनी अधिक चिंता अपने प्रिय शिष्य की, उसके परिवार की सुरक्षा की। यद्यपि उनके स्तर की सत्ता सब कुछ जानती रही, फिर भी लौकिक दृष्टि से लिखना कि सब कार्य शाँतिपूर्वक होने पर तार दे दें, यह बताता है कि वे कितने व्यवहारकुशल भी थे। बिना सोए, बिना अन्न-जल ग्रहण किए सुरक्षा-उपचार एक अखंड समय विशेष में यह कार्य वही कर सकता है, जो किसी को अपनी आत्मीय, बहुत ही नजदीक की सत्ता समझे। परमपूज्य गुरुदेव ने एक नहीं, लाखों-करोड़ों को इस स्तर तक अपनी नजदीकी आत्मीयता का पोषण दिया और उसी का परिणाम है यह विराट गायत्री परिवार।

एक और पत्र लेते हैं। यह पत्र 22/3/64 को गामड़ी गुजरात के एक परिजन को लिखा गया था। वे लिखते हैं-पत्र मिला। कुशल समाचार पढ़कर प्रसन्नता हुई। बच्चा गायत्री माता के विशेष प्रसाद स्वरूप आपको प्राप्त हुआ है। यह वही बालक है, जो पहले चला गया था। माता ने आपकी श्रद्धा-भक्ति के अनुरूप ही आपको लौटाया है। बड़ा होने पर प्रत्येक बात में यह पहले गुजरे हुए बालक जैसा ही दिखाई देगा।

पत्र अपने आप में स्पष्ट है। अपने प्रिय शिष्य को गायत्री उपासना के माध्यम से उसी बालक को वापस लौटाया गया है, जो अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ था। गायत्री “सर्वकामधुक्” समस्त कामनाओं की पूर्ति कराने वाली शक्ति है-सब कुछ इसके माध्यम से संभव है, पर उसके लिए स्वयं की साधना व पात्रता भी चाहिए तथा एक समर्थ गुरु का अवलंबन भी। गायत्री का सिद्ध महापुरुष भी हर किसी को यह नहीं दे देता, न ही सृष्टि के विधान में वह कोई हस्तक्षेप करना चाहता है, परन्तु जहाँ शिष्य का हित हो, शिष्य स्वयं पूरा समर्पण भाव रख वह सब कुछ करने को तैयार हो, जो गुरु कह रहे हैं, तब समर्थ गुरु अपने अनन्य प्रेम के कारण उसके लिए ऐसा भी कर देते हैं। लिखा भी है पूज्यवर ने-”माता ने आपकी श्रद्धा-भक्ति के अनुरूप ही आपको लौटाया है।” यही समझना जरूरी है। परमपूज्य गुरुदेव ने स्वयं श्रेय न लेकर सारा श्रेय माता गायत्री को एवं अपने शिष्य की श्रद्धा-भक्ति को दिया है। ऐसा कितनों को मिला, कितनों ने ही उनसे इतना कुछ पाया, पर देने की बारी आई तो वे दे पाए क्या ? यह विचारणीय है।

दिगौड़ा टीकमगढ़ के एक परिजन को पूज्यवर ने अपने 30/10/65 के पत्र में लिखा-बच्चे के स्वर्गवास का समाचार पढ़कर हमें भी आपकी ही तरह आघात लगा। आपका परिवार हमें अपने निजी परिवार जैसा ही प्रिय है। स्वर्गीय आत्मा फिर आप लोगों के घर अवतरित हो, ऐसा प्रयत्न कर रहे हैं।

ठीक वैसा ही पत्र है, जैसा ऊपर दिया गया है। यहाँ भी वही आश्वासन है। अपने प्रिय शिष्य के मानसिक दुःख और आघात से विचलित गुरु उसे आश्वस्त करते हैं एवं एक वर्ष बाद ही उसे पुनः पुत्ररत्न देते हैं, जो आगे चलकर गुरु कार्य कर सके। यह आश्वासन कौन दे सकता है ? जिसे सामने वाले से अत्यधिक स्नेह हो, स्वयं में सृष्टि के नियमों में हस्तक्षेप करने की शक्ति हो। विश्वामित्र स्तर की नूतन सृष्टि का सृजेता होने जैसे महामानव की पात्रता वाले सद्गुरु ही ऐसा कर सकते हैं। 20/1/67 का विलासपुर (छ ग) के एक परिजन को लिखा ऐसा ही एक पत्र है-तुम्हारा बच्चा चला गया, इसका दुःख है। इस आत्मा को फिर तुम्हारी गोदी में बुला देने का प्रयत्न करेंगे।

ये सभी एक तरह के पत्र सद्गुरु की सामर्थ्य के, उनके अनन्य प्रेम के, उनकी गायत्री सिद्धि के द्योतक हैं। हम तनिक भी उनकी सत्ता पर विश्वास रख सकें तो हम भी सुपात्र बन बहुत कुछ पा सकते हैं।

गुरु सहारा देता है, सतत संरक्षण देता है। सद्गुरु का सिर पर हाथ है तो फिर कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकता, यह विश्वास मन में आ जाता है। आत्मबल बढ़ जाता है। फिर निर्भय-निश्चिंत होकर शिष्य अपना पुरुषार्थ अपने से ज्यादा गुरुकार्यों के लिए करने को तैयार हो जाता है। एक पत्र 27/4/1968 का है, जो दिल्ली के एक परिजन को लिखा गया है-

हम कहीं भी रहें। तुम लोगों का पूरा स्मरण सदा रखते हैं। बच्चे की समस्या जटिल है, पर उसे हमने अपने जिम्मे ले लिया है। उसे टल गई समझें।

पत्र में स्पष्ट आश्वासन है। यह भी संकेत है कि शरीर कहीं भी हो, उनका मन, अंतःकरण सदा अपने शिष्यों के साथ है। इतना-सा भी किसी के पास सहारा हो तो वह असंभव दीख पड़ने वाले कार्य भी करके दिखा देता है। ऐसा हुआ, तब ही तो यह विराट परिवार बड़ा हुआ। वास्तव में ऐसे पत्रों के पीछे छिपे मर्म को यदि कोई समझ ले तो वह इस परिवार की, विराट संगठन की जड़ों की मजबूती का कारण समझ सकता है। आत्मीयता की, पारिवारिकता की धुरी पर ही कोई संगठन खड़ा हो सकता है। ऐसे संगठन ही स्थायी व भगवत्कर्म के लिए समर्पित कार्य करने वाले होते हैं।

अब अंत में एक पत्र और। साधक की जिज्ञासा स्वप्नों को लेकर है। उसका जवाब जरा देख लें। पत्र 28/1/70 का है।

शुभ स्वप्नों में उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ हैं। आपके आत्मिक तथा भौतिक जीवन को गतिशील बनाए रखने के लिए हम शक्तिभर प्रयत्न करेंगे। आपकी आत्मा पहले भी बहुत ऊँची रही है। बीच में ही कुछ मलीनता आ गई थी। जिनका भुगतान इन दिनों हो रहा है। आप जल्दी ही वर्तमान बंधनों से मुक्त हो लेंगे। हमारे तप का एक अंश आपको मिलेगा और आप हमारी नाव पर चढ़कर इस भवसागर को आसानी से पार कर लेंगे।

गुरु की नाव पर बैठकर कोई भी शिष्य पार हो सकता है। वह हमारा पिछला-वर्तमान-भविष्य सब कुछ जानता है। वही हमें बंधनों से मुक्त करा सकता है। गुरु के तप का एक अंश उसके लिए सुरक्षित है, क्योंकि पात्रता वह सिद्ध कर चुका है एवं अपने उज्ज्वल भविष्य के परिचायक शुभ स्वप्नों का समाधान खोज रहा है। यह एक खुला निमंत्रण है, हर किसी को। जिसे भवसागर को पार करना हो, वह सद्गुरु की नाव में बैठ जाए उनका अनंत प्रेम भी पाएगा और बंधनमुक्ति भी। इतना स्पष्ट निमंत्रण होते हुए भी हम सकुचा क्यों जाते हैं?

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