Books - गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा
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Language: HINDI
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विवाहित जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन
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अविवाहित रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करने के समान, विवाहित होते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करना संभव ही नहीं वरन बहुत हद तक सुगम भी है । जो लोग विवाहित हैं, उन्हें समझना चाहिए कि पत्नी गृहस्थ धर्म का मूल है । उसे कामोपभोग की सामग्री या ब्रह्मचर्य का विघ्न समझना भूल है ।
साधारणतया पत्नी से दूर रहने से नारी जाति के प्रति वासनामय विचारों की सृष्टि होती है । दूरी में सदैव एक आकर्षण रहता है जो समीपता में नष्ट हो जाता है । जिन्हें दाम्पत्य जीवन अप्राप्य है उन्हें वह अप्राप्य वस्तु बड़ी आकर्षक और सरस दीखती है तथा उसकी प्राप्ति के लिए उनके मन क्षेत्र में बडी़ घुड़दौड़ मचती रहती है किंतु जो पति-पत्नी साथ-साथ रहते हैं, वे यदि चाहें तो स्वाभाविक और सरल जीवन व्यतीत करते हुए उन विकारमय विचारों से सहज ही बच सकते हैं ।
जब तक परीक्षा की कसौटी न हो तब तक यह नहीं जाना जा सकता कि किसकी साधना किस हद तक परिपक्व हो चुकी है ? जो लोग अविवाहित रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उनकी निष्ठा किस हद तक परिपक्व हो चुकी है-इसका ठीक प्रकार पता नहीं चलता । वे प्रलोभन के समय फिसल सकते हैं, परंतु जो प्रलोभन से नित्य संघर्ष करते हैं उन्हें पता रहता है कि वे कितने संयमशील हो चुके हैं । साधन सामने रहते हुए भी जो त्याग कर सकता है उसी का त्याग परीक्षित है । अभाव को त्याग मानकर संतोष कर लेना, एक कच्चा आधार ही रहता है ।
पति-पत्नी यदि वासना पर विजय प्राप्त करते हुए संयमशील जीवन बिताएँ तो वासना के स्थान पर एक अत्यंत शक्तिशाली आध्यात्मिक तत्त्व का आविर्भाव होता है जिसे 'पतिव्रत' कहते हैं । यह तत्त्व दाम्पत्य जीवन की पूर्णता पारिवारिक सुव्यवस्था उत्तम संतति एवं आत्मशान्ति के लिए बहुत ही उपयोगी एवं आवश्यक होता है । यह तत्त्व मानव जीवन की एक अपूर्णता को पूरा कर देता है ।
द्वैत को मिटाए बिना अद्वैत की प्राप्ति नहीं हो सकती । स्त्री से दूर रहने वाला, उससे घृणा करने वाला व्यक्ति, उसे अपने से भिन्न एवं विपरीत मानता है । ऐसी दशा में द्वैत बुद्धि मजबूत होती जाती है और उसे अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति में भारी बाधा दिखाई देती है । अद्वैत की प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को अभिन्न मानने की आवश्यकता है । जैसे अपने ही सौंदर्य पर कोई मोहित नहीं होता, जैसे अपने आप से स्वयं ही वासनापूर्ति करने के भाव नहीं आते वैसे ही यदि पत्नी को अभिन्न मान लिया जाए तो वह बाधा सहज ही दूर हो जाती है, जिसके भय से ब्रह्मचारी लोग दूर-दूर भागते-फिरते हैं । अपनी अर्द्धांगिनी को, आत्मरूप समझना अद्वैत तत्व की प्रारंभिक साधना है । इसमें परीक्षित हो जाने पर आत्मभावना का विश्वव्यापी विस्तार करना सुगम होता है ।
शुद्ध 'प्रेम' को परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप कहा है । यह प्रेम नर-नारी के पवित्र मिलन से सुगमतापूर्वक और अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है । माता का पुत्र में, बहन का भाई में, पति का पत्नी में जितने विशुद्ध प्रेम का उद्वेक होता है, उतना पुरुष-पुरुष में या स्त्री-स्त्री में नहीं होता । प्रकृति ने उभयलिंग के प्राणियों के सम्मिलन में एक सहज प्रेमधारा छिपा रखी है । यदि उसे स्वार्थपरता या वासना से दूषित न किया जाए तो प्रकृतिप्रदत्त एक स्वर्गीय निर्झरिणी के अमृत जल का रसास्वादन हर आत्मा कर सकती है । यह समझना भारी अज्ञान है कि कामसेवन से ही दाम्पत्य प्रेम बढ़ता है । सच बात तो यह है कि संयमी आत्मा ही 'प्रेम' को उत्पन्न कर सकती है और उसके रसास्वादन का आनंद ले सकती हैं ।
काम को 'मनसिज' कहा है । यह विकार मन में उत्पन्न होता है और यहीं से संहार लीला प्रारंभ करता है । मन से यदि कामचिंतन करते रहा जाए और शरीर से ब्रह्मचर्य रखा जाए तो उसका कोई विशेष लाभ न होगा क्योंकि मन में उत्पन्न होने वाली वासना से मानसिक व्यभिचार होता रहेगा और आत्मिक बल संचय न हो सकेगा । उसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति साधारण गृहस्थ धर्म का पालन करता है और मन से निर्विकार रहता है तो उसका थोड़ा सा शारीरिक स्खलन उतना हानिकारक नहीं होता, जितना कि अविवाहित का मानसिक उद्वेग । यों शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार का संयम रखा जाए तो सर्वोत्तम है ।
'अर्द्धांगिनी' और 'धर्मपत्नी' ये दोनों ही शब्द आत्मिक पूर्णता और धर्म प्रतिपालन के अर्थबोधक है । पत्नी इन दोनों कार्यों में सहायक होती है, इसलिए उसे अभिन्न अंग एवं जीवनसहचरी माना है । कामिनी, रमणी, रूपसी आदि की विकारग्रस्त दृष्टि स्त्री के प्रति रखना नारी जाति के प्रति अपराध एवं अपमान व्यक्त करना है । स्वाभाविक एवं सरल दृष्टिकोण अपनाकर नारी को एक सच्चा साथी, मित्र एवं आत्मभाग माना जाए तो उससे जिस प्रकार मानसिक जीवन में सुविधा मिलती है, वैसे ही आत्मकल्याण के मार्ग में भी भारी सहयोग मिल सकता है । स्त्री ब्रह्मचर्य की बाधा नहीं । वह असंयम के विकारों को अनियंत्रित नहीं होने देती और मनुष्य को सुसंयत जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करती है ।
साधारणतया पत्नी से दूर रहने से नारी जाति के प्रति वासनामय विचारों की सृष्टि होती है । दूरी में सदैव एक आकर्षण रहता है जो समीपता में नष्ट हो जाता है । जिन्हें दाम्पत्य जीवन अप्राप्य है उन्हें वह अप्राप्य वस्तु बड़ी आकर्षक और सरस दीखती है तथा उसकी प्राप्ति के लिए उनके मन क्षेत्र में बडी़ घुड़दौड़ मचती रहती है किंतु जो पति-पत्नी साथ-साथ रहते हैं, वे यदि चाहें तो स्वाभाविक और सरल जीवन व्यतीत करते हुए उन विकारमय विचारों से सहज ही बच सकते हैं ।
जब तक परीक्षा की कसौटी न हो तब तक यह नहीं जाना जा सकता कि किसकी साधना किस हद तक परिपक्व हो चुकी है ? जो लोग अविवाहित रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उनकी निष्ठा किस हद तक परिपक्व हो चुकी है-इसका ठीक प्रकार पता नहीं चलता । वे प्रलोभन के समय फिसल सकते हैं, परंतु जो प्रलोभन से नित्य संघर्ष करते हैं उन्हें पता रहता है कि वे कितने संयमशील हो चुके हैं । साधन सामने रहते हुए भी जो त्याग कर सकता है उसी का त्याग परीक्षित है । अभाव को त्याग मानकर संतोष कर लेना, एक कच्चा आधार ही रहता है ।
पति-पत्नी यदि वासना पर विजय प्राप्त करते हुए संयमशील जीवन बिताएँ तो वासना के स्थान पर एक अत्यंत शक्तिशाली आध्यात्मिक तत्त्व का आविर्भाव होता है जिसे 'पतिव्रत' कहते हैं । यह तत्त्व दाम्पत्य जीवन की पूर्णता पारिवारिक सुव्यवस्था उत्तम संतति एवं आत्मशान्ति के लिए बहुत ही उपयोगी एवं आवश्यक होता है । यह तत्त्व मानव जीवन की एक अपूर्णता को पूरा कर देता है ।
द्वैत को मिटाए बिना अद्वैत की प्राप्ति नहीं हो सकती । स्त्री से दूर रहने वाला, उससे घृणा करने वाला व्यक्ति, उसे अपने से भिन्न एवं विपरीत मानता है । ऐसी दशा में द्वैत बुद्धि मजबूत होती जाती है और उसे अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति में भारी बाधा दिखाई देती है । अद्वैत की प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को अभिन्न मानने की आवश्यकता है । जैसे अपने ही सौंदर्य पर कोई मोहित नहीं होता, जैसे अपने आप से स्वयं ही वासनापूर्ति करने के भाव नहीं आते वैसे ही यदि पत्नी को अभिन्न मान लिया जाए तो वह बाधा सहज ही दूर हो जाती है, जिसके भय से ब्रह्मचारी लोग दूर-दूर भागते-फिरते हैं । अपनी अर्द्धांगिनी को, आत्मरूप समझना अद्वैत तत्व की प्रारंभिक साधना है । इसमें परीक्षित हो जाने पर आत्मभावना का विश्वव्यापी विस्तार करना सुगम होता है ।
शुद्ध 'प्रेम' को परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप कहा है । यह प्रेम नर-नारी के पवित्र मिलन से सुगमतापूर्वक और अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है । माता का पुत्र में, बहन का भाई में, पति का पत्नी में जितने विशुद्ध प्रेम का उद्वेक होता है, उतना पुरुष-पुरुष में या स्त्री-स्त्री में नहीं होता । प्रकृति ने उभयलिंग के प्राणियों के सम्मिलन में एक सहज प्रेमधारा छिपा रखी है । यदि उसे स्वार्थपरता या वासना से दूषित न किया जाए तो प्रकृतिप्रदत्त एक स्वर्गीय निर्झरिणी के अमृत जल का रसास्वादन हर आत्मा कर सकती है । यह समझना भारी अज्ञान है कि कामसेवन से ही दाम्पत्य प्रेम बढ़ता है । सच बात तो यह है कि संयमी आत्मा ही 'प्रेम' को उत्पन्न कर सकती है और उसके रसास्वादन का आनंद ले सकती हैं ।
काम को 'मनसिज' कहा है । यह विकार मन में उत्पन्न होता है और यहीं से संहार लीला प्रारंभ करता है । मन से यदि कामचिंतन करते रहा जाए और शरीर से ब्रह्मचर्य रखा जाए तो उसका कोई विशेष लाभ न होगा क्योंकि मन में उत्पन्न होने वाली वासना से मानसिक व्यभिचार होता रहेगा और आत्मिक बल संचय न हो सकेगा । उसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति साधारण गृहस्थ धर्म का पालन करता है और मन से निर्विकार रहता है तो उसका थोड़ा सा शारीरिक स्खलन उतना हानिकारक नहीं होता, जितना कि अविवाहित का मानसिक उद्वेग । यों शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार का संयम रखा जाए तो सर्वोत्तम है ।
'अर्द्धांगिनी' और 'धर्मपत्नी' ये दोनों ही शब्द आत्मिक पूर्णता और धर्म प्रतिपालन के अर्थबोधक है । पत्नी इन दोनों कार्यों में सहायक होती है, इसलिए उसे अभिन्न अंग एवं जीवनसहचरी माना है । कामिनी, रमणी, रूपसी आदि की विकारग्रस्त दृष्टि स्त्री के प्रति रखना नारी जाति के प्रति अपराध एवं अपमान व्यक्त करना है । स्वाभाविक एवं सरल दृष्टिकोण अपनाकर नारी को एक सच्चा साथी, मित्र एवं आत्मभाग माना जाए तो उससे जिस प्रकार मानसिक जीवन में सुविधा मिलती है, वैसे ही आत्मकल्याण के मार्ग में भी भारी सहयोग मिल सकता है । स्त्री ब्रह्मचर्य की बाधा नहीं । वह असंयम के विकारों को अनियंत्रित नहीं होने देती और मनुष्य को सुसंयत जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करती है ।