Books - गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा
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Language: HINDI
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उत्तरदायित्व का निर्वाह
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विवाह के पश्चात आप पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है । पति को पत्नी के स्वास्थ्य, आराम, मानसिक तथा शारीरिक सुख का ध्यान रखना है तथा पत्नी को पति के कार्य, पेशे, भोजन, मनोरंजन, बच्चों की देख-भाल, गह-प्रबंध इत्यादि में अपने पृथक-पृथक उत्तरदायित्व का निर्वाह करना है । पति का कार्यक्षेत्र अधिकतर घर के बाहर संघर्षपूर्ण कार्यस्थल है, जहाँ उसे जीविकोपार्जन करने के हेतु कठोर परिश्रम, कार्यदक्षता, कौशल प्रदर्शित करना होता है । उसका उत्तरदायित्व अधिक है, क्योंकि उसे जीविका कमाने का कार्य तत्परता से करना होता है । पत्नी अपने गृह-प्रबंध, मृदुल सहानुभूतियाँ पूर्ण व्यवहार तथा सौंदर्य से घर को स्वर्ग बनाती है ।
हमें विवाहित जीवन में अपनी जिम्मेदारी निभानी है, अपने जीवनसाथी की निर्बलताओं को सहानुभूतिपूर्ण ढंग से निकालना है, उसके स्थान पर उत्तम गुणों का समावेश करना है । हम सब तरह के असंतोष को दूर करेंगे, परस्पर एकदूसरे के दृष्टिकोण को समझेंगे, आपसी गलतफहमियों को न बढ़ने देंगे - यह मानकर दाम्पत्य जीवन में प्रविष्ट होना श्रेयस्कर है । यह समझाने की भावना सुखमय दाम्पत्य जीवन का मूलमंत्र है ।
कौन पति-पत्नी नहीं झगड़ते ? विचारों में अंतर कहाँ नहीं है ? एक जैसे स्वभाव कहाँ मिलते हैं ? ऐसा कौन है जिसमें कमजोरियाँ, दुर्गुण, शारीरिक या मानसिक दुर्बलताएँ नहीं हैं । यदि आप एकदूसरे की दुर्बलताओं पर कलह करेंगे तो अल्पकाल में असंतोष नामक महा भयंकर राक्षस आपका विवाहित जीवन कटु बना देगा । आपका सौंदर्य और प्रेम-पिपासु मन एक स्त्री की सुंदरता छोड़ दूसरी, दूसरी से तीसरी, चौथी, दसवीं न जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरेगा । मन की बागडोर ढीली न कीजिए । अपने जीवनसाथी में ही सरलता, सौंदर्य, कौशल, माधुर्य, खोज निकालिए उसकी अपूर्णता को पूर्ण बनाइए । अशिक्षित है तो शिक्षित कीजिए । पुस्तकें समाचारपत्र, कहानियाँ उपन्यास, पढ़ाइए यदि स्वास्थ्य खराब है, तो स्वास्थ्य रक्षा व्यायाम पौष्टिक भोजन और दुश्चिताओं को दूर कर उसे सुंदर बनाइए किंतु उसे त्यागने का भाव कदापि मन में उदित न होने दीजिए । त्यागने की बात सोचना, एकदूसरे की सहायता न करना, शील-सौंदर्य की अभिवृद्धि न करना, विद्या प्रदान न करना पति के लिए लज्जा के विषय हैं ।
एक विद्वान ने सुखमय विवाहित जीवन की कुंजी इन शब्दों में भर दी है । वे कहते हैं- "जिस प्रकार जिस उद्यान का माली उसका ध्यान नहीं रखता तो वहाँ घास-फूँस उग जाती है, काँटे उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार जब पति-पत्नी दाम्पत्य प्रेम की सतर्कता और ध्यानपूर्वक रक्षा नहीं करते तो वे कटु भावों, (मनोमालिन्य, ईर्ष्या, ऊँच-नीच का भाव, शिक्षा-अशिक्षा, संदेह-गलतफहमी, असंतोष, मानापमान) में परिवर्तित हो जाता है । प्रत्येक कार्य आलस्य, नीरसता, रोग, परपुरुष या परस्त्री का दाह के रूप में दाम्पत्य सुख को हानि पहुँचाने की धमकी देने लगता है ।