Books - गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा
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Language: HINDI
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गृहस्थ जीवन की सफलता
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शास्त्रों में कहा है कि ''न गृहं मित्याह गृहिणी गृहं मुच्यते'' घर को, घर नहीं कहते वरन गृहिणी को ही घर कहते हैं और लोक प्रसिद्ध है कि 'बिन धरनी घर भूत का डेरा ।' लोक और शास्त्र की बात समर्थन व्यवहार द्वारा हो जाता है ।
मनुष्य जीवन का आधार प्रेम है । जहाँ प्रेम है वहाँ स्वर्ग है, सुख है । जिस घर में प्रेम नहीं वहाँ रहने की इच्छा ही नहीं होती, ठहरने की आकांक्षा नहीं रहती । प्रेम में एक आकर्षण है, एक खिंचाव है ।
जब तक मनुष्य अपनी ही अपनी बात सोचता है, तब तक कहीं से भी उसे आकर्षण प्राप्त नहीं होता । आकर्षण या खिंचाव उसी समय उसे अनुभव होता है, जब वह अपने को भूलकर औरों के प्रति अपना उत्सर्ग कर देता है । जब स्वार्थ को 'खत्म करके परम स्वार्थ की शरण लेता है ।
कौन मानव जान-बूझकर दुःख की ओर कदम बढ़ाता है, परेशानी को मोल लेना चाहता है । जीवन का कम ही है- सुख की ओर बढ़ना शांति की ओर चलना । लेकिन अपने सुख की चिंता नहीं, जब तक दूसरों के सुख की चिंता न होने लगे तब तक सुख पास नहीं आता । इसी से तो हम कहते हैं कि दूसरे के लिए त्याग करना ही मानव का परम स्वार्थ है । दूसरे के लिए सुख खोजने की प्रवृत्ति उत्पन्न करने से अपने लिए सुख पाने का राजपथ तैयार किया जाता है । इसे प्रवृत्ति का जनक है- गृहस्थ जीवन । वह एक ऐसी पाठशाला है, जहाँ इस हाथ देकर उस हाथ पाने की तात्कालिक शिक्षा प्राप्त होती है ।
विवाहित जीवन के लिए एक नारी को पराये घर से लाते है और अपना घर और उसकी ताली-कुंजी दे देते हैं, तो ठंढी सांस लेते हैं । उसे उस घर की मालकिन बना देने पर ही मानवीय सुख की की शुरुआत कर देते हैं और तब फिर पुरुष का सारा व्यापार अपने लिए न होकर उस नारी के लिए होता है, जो कि अपने नहीं थी, पर जिसके लिए सब कुछ उत्सर्ग कर दिया गया । घर लाई हुई नारी को सुखी रखना एकमात्र यही कर्तव्य पुरुष का रह जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि वह आई हुई नारी अपना सर्वस्व पुरुष के प्रति समर्पित कर देती है । स्वयं भूखी रहकर भी वह पुरुष को तृप्त कर देना चाहती है। यह परस्पर का आत्मसमर्पण ही गृहस्थ जीवन के सुख की कुंजी है ।
परंतु यह सुख उस समय मिट्टी में मिल जाता है, जब एकदूसरे के प्रति त्याग की भावना समाप्त हो जाती है या समाप्त होने के लिए कदम बढ़ाती है । जब एकदूसरे को शंका की नजर से देखते हैं या एकदूसरे को अपने अधीन रखने के प्रयत्न में लग जाते हैं, आप जानते हैं, इसमें कौनसी भावना काम करने लगती है ? वह भावना होती है दूसरे को कम देना और अधिक पाने की इच्छा रखना । यह इच्छा जिस दिन अंकुरित होती है, सुख और शांति की भावना का उसी दिन से तिरोभाव आरंभ हो जाता है और एक नया शब्द जन्म लेता है, जिसके द्वारा दूसरे को अपने काबू में रखने के लिए मानव चेष्टा करता है । वह शब्द है- अधिकार । अधिकार दूसरे से कुछ चाहता है परंतु दूसरे को देने की बात भूल जाता है । इस माँग और भूख की लड़ाई में ही गृहस्थ जीवन का सुख विदा माँगना आरंभ कर देता हैं ।
हम पहले ही बतला चुके हैं कि प्रेम के जीवन में सुख है और प्रेम त्याग और समर्पण का पाठ पढ़ाता है । वहाँ अधिकार नामक शब्द का प्रवेश निषेध है । वहाँ तो एक ही शब्द जा सकता है जिसका पर्याय है कर्त्तव्य । अपना कर्त्तव्य करते चलो । जो तुम्हारा प्राप्य है अपने आप मिल जाएगा । लेकिन कर्तव्य की बात भूलकर प्राप्य की बात को सामने रखने से प्राप्य के प्राप्त करने में कठिनाई रहती है । समस्त झगड़े-बखेड़ों की यही एकमात्र जड़ है । यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि दुनियाँ का कार्य स्वयं ही आदान- प्रदान से चल रहा है, जब कुछ दिया जाता है तब तुरंत ही कुछ मिल जाता है । देना बंद होते ही मिलना बंद हो जाता है, इसलिए लेने की आकांक्षा होने पर देने की भावना पहले बना लेना आवश्यक होता है । अधिकार में लेने की भावना भरी रहती है, देने की नहीं । इसलिए आपस का प्रेम कम होना आरंभ हो जाता है । जिस दिन ये अधिकार की लालसा गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो जाती है, गृहस्थ जीवन कलह का अखाड़ा बन जाता है । आज यही कारण है कि अधिकांश मानव इसी के शिकार हो रहे हैं और अपने जीवन को अशांत एवं दुखी बनाए हुए हैं । अपने ही हाथों उन्होंने अपनी सुख-सुविधा को लात मार दी है ।
अधिकार की मंशा है दूसरों को अपने अधीन रखना, अपनी इच्छा के अधीन रखना, अपने सुख का भोग या यंत्र बनाना । जब किसी भावना का प्रवाह एक ओर से चलना आरंभ हो जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया दूसरी ओर से भी होना आरंभ हो जाती है । जब एकदूसरे को अपने भोग का यंत्र बनाना चाहता है तो दूसरा भी पहले को यंत्र बनाने की धुन में लग जाता है ।
पुरुष ने जिस दिन से स्त्री को अपने भोग का उपकरण बनाना विचारा, उसी दिन से स्त्री ने भी पुरुष को अपनी तृप्ति का साधन बनाने की ठानी । एकदूसरे को सुख देने, प्रसन्न रखने की भावना का लोप हो गया । प्रेम की जगह भोग ने आश्रय लिया । घरनी की जगह रमणी की प्रतिष्ठा हुई और घर भूत का डेरा बनने लगा । गृहिणी जो आत्मसाधिका थी, लिपस्टिक जंफर, जार्जेट, विलायती तरीके के जूतों की साधिका बनी । दिखावट बढी़ रुपयों की माँग बड़ी, स्वच्छता बढ़ी और पुरुष ने उसे दबाकर रखने की माँग को बढ़ाया । इस तरह गृहकलह जन्मा भोग और अधिकार के प्रश्न ने सेवा को खोया, प्रेम को खोया और आज घर-घर में चिताएँ जुल रही हैं ।
एक युग था जब कि पति के बिना नारी घर में नहीं रह सकती थी और पति के सुख को ही अपना सुख मानने वाली नारी पति के साथ वन जाकर भी वन में, सुखी थी लेकिन आज अधिकार का प्रश्न उठाने वाली महल में स्वच्छंद रहने पर भी एक टीस, एक वेदना लिए जिंदा हैं । भूमि शयन, बल्कल वसन, असन कन्द फलमूल । तेकि सदा सब दिन मिलहि, समय-समय अनुकूल । ।
भावना बदलते ही जिंदगी बदल गई । जिंदगी की तृप्ति और शांति दोनों विदा ले गए । मानव जीवन का जो श्रेयस्कर मार्ग था उसे छोड़कर भ्रष्ट पथ होने का पुरस्कार हजारों नर-नारी रात-दिन भोग रहे हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि उन्हें फिर से आर्यपथ पर चलने की तैयारी करनी चाहिए ।
अधिक माँगने से नहीं, देने से मिलता है । कर्त्तव्य-कर्म करने से स्वयं उसका बदला मिल जाता है । भारतीय दर्शन में 'कर्त्तव्य' का नाम ही धर्म है । पुरुष धर्म और नारी धर्म दोनों का आदि स्रोत समर्पण है । दोनों की भावनाओं में, दिल में और दिमाग में समर्पण की, उत्सर्ग की भावना के बीजों को आरोपित करने से फिर से शांति, तृप्ति और सुख का समावेश हो जाएगा । विवाहित जीवन का जो उद्देश्य है, वह सफल होगा ।