
Books - बच्चों की शिक्षा ही नहीं दीक्षा भी आवश्यक
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Language: HINDI
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बालकों की पढ़ाई का ध्यान रहे
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मनुष्य जीवन को तीन आधारभूत प्राथमिक आवश्यकतायें कही गई हैं—भोजन, वस्त्र और आवास। पर विचारशील एक और चौथी आवश्यकता भी अनिवार्य मानते हैं। वह आवश्यकता है शिक्षा। भरपेट भोजन, शीत गर्मी से बचाव के लिए वस्त्र और रहने के लिए मकान तो स्थूल आवश्यकतायें हैं जो दिखाई देती हैं। पर चौथी आवश्यकता शिक्षा की गणना शायद इसलिए नहीं की गयी हो कि करोड़ों लोगों का जीवन उसके बिना भी चल रहा था। अभावग्रस्त स्थिति का जहां तक प्रश्न है असंख्य लोग हैं ऐसे जिनके पास अपना घर नहीं है, पहनने, ओढ़ने को पर्याप्त वस्त्र नहीं हैं और शरीर का समुचित पोषण हो सके वैसा सम्पूर्ण पोषण नहीं मिल पाता।
लेकिन प्राथमिक आवश्यकतायें तो हैं। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म का अधिक महत्व है, वृक्ष की अपेक्षा बीज अधिक कीमती होता है। उसी प्रकार प्राथमिकता का क्रम जमाना हो तो आज के समय में मनुष्य को भोजन, वस्त्र और मकान की अपेक्षा शिक्षा का पहला स्थान है। अशिक्षित और गंवार लोग थोड़ा बहुत मेहनत मजदूरी से या सामान्य अकल से कमाते हैं तथा उस कमाई का जिस तरह उपयोग करते हैं उससे स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। जबकि शिक्षित और सभ्य व्यक्ति उतनी ही आमदनी में अच्छी प्रकार गुजारा कर लेते हैं।
भोजन, वस्त्र और आवास की आवश्यकतायें स्वयं पूर्ण करने की जिम्मेदारी तो युवावस्था में आती है। बचपन में माता-पिता से ही वे पूरी होती रही हैं, उनकी पूर्ति का दायित्व उन्हीं पर रहता है। विशेष ध्यान जिस प्राथमिक आवश्यकता पर अभिभावकों द्वारा दिया जाना चाहिए वह है बच्चों की शिक्षा-दीक्षा। शिक्षा का मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है और उसकी ओर बचपन से ही ध्यान दे दिया जाये तो ठीक अन्यथा आगे मुश्किल है। इसीलिए प्राचीन मनीषियों ने यह मर्यादा बांध दी थी कि बच्चा पांच वर्ष तक का होते ही गुरुकुल भेज दिया जाना चाहिए ताकि वह विद्याध्ययन द्वारा अपनी क्षमताओं का विकास कर सके। कई स्थानों पर कहा गया है— ‘‘जागतिक सुख और पारलौकिक आनन्द की प्राप्ति का साधन विद्या ही है। सभी उत्कृष्ट कर्मों की परिसमाप्ति ज्ञानपूर्ण कर्म में ही होती है तथा उसी से शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विकास सम्भव होता है।’’
प्राचीनकाल में विद्या का अर्थ व्यक्ति की अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास की सामर्थ्य किया जाता था। यही कारण था कि उन्हें विषय विशेष के साथ सामान्य ज्ञान की जानकारी भी दे दी जाती थी और इस पद्धति से दी जाती थी कि छात्र उसके प्रभाव को अपने व्यक्तित्व में आत्मसात् कर ले।
इस स्तर की विद्या का प्रबन्ध आज भले ही सम्भव न हो पर जैसी भी शिक्षा है वह जीवन में उपयोग तो आती है। जिस युग में हम निवास कर रहे हैं वह जनता का युग है। प्रजातंत्र का युग है। और प्रजातंत्र तभी सफल हो सकता है जब कि उस देश के नागरिक सुशिक्षित और समझदार हों।
शिक्षा की उपयोगिता कदम-कदम पर अनुभव की जाती है। अशिक्षित व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण से तो अनभिज्ञ रहता ही है समय और समाज की गति तथा परिस्थितियों से भी अपरिचित रहता है। फलस्वरूप उसे कदम-कदम पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। अपनी समस्याओं का समाधान वह गांठ की अकल से नहीं कर सकता अपनी स्थिति के समाचार और दूरस्थ स्वजनों की सहायता पत्र लिखकर प्राप्त नहीं कर सकता न उनके समाचारों को जान सकता है। बाजार में सबसे अधिक उसी के ठगने का डर रहता है, किसी की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर अपना ही नुकसान कर बैठने की सम्भावना भी उसी के साथ अधिक जुड़ी रहती है। यहां तक कि वह दूर की यात्रा भी निरापद रूप से नहीं कर सकता। जो काम बूते का हो उसे कर लेना, उससे जो मिले उसके औने-पौने में अपना गुजारा चला लेना और अपने जैसे ही बच्चे पैदा कर डालना। इसी परिधि में उसका सारा जीवन चक्र घूमता रहता है और आरम्भ से लेकर अन्त तक अस्त-व्यस्त जीवन गुजार देता है।
अभिभावकों की जरा सी नासमझी का कुफल उनकी सन्तानों को सारे जीवन भर भोगना पड़ता है। यद्यपि हमारे देश में शिक्षा प्रसार की ओर ध्यान दिया गया है तथा उसके लिए जोरदार असर कारी कदम उठाये गये हैं पर शिक्षितों की संख्या अभी बीस प्रतिशत से अधिक नहीं पहुंच सकी है। सौ में से बीस आदमी शिक्षित जिनमें से अधिकांश साक्षर मात्र उनकी शिक्षा अक्षरज्ञान तक सीमित। सरकार कितना ही प्रचार करे पर जब तक माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता अनुभव नहीं करेंगे तब तक सन्तोषजनक उपलब्धियां मिलना मुश्किल है। आज के बच्चे कल के नागरिक हैं, भविष्य का भारत उन्हीं के हाथों में जायेगा और वे अशिक्षित तथा अज्ञान ग्रस्त ही रहे तो राष्ट्र का भविष्य क्या होगा? और उसके लिए जिम्मेदार होंगे आज के अभिभावक भावी पीड़ी के निर्माता। जो यह सोचते हैं कि बच्चों के लिए शिक्षा की क्या आवश्यकता जो धन्धा हम करते हैं वही बच्चों को सिखा देंगे। आप हल बैल से खेती करते हैं और उन्नत किसानों ने ट्रैक्टर से खेती करना सीख लिया है। आपके हल बक्सर से तो अपना बच्चा जमीन भी नहीं जोत पायेगा और शिक्षित किसान बीज डाल लेगा तथा अंकुर फूटने लगेंगे।
आने वाला युग प्रतिस्पर्धा का युग है। हर व्यक्ति अपनी योग्यता का स्तर दूसरों से अधिक से अधिक उन्नीस रख कर ही जी सकेगा अन्यथा वह बर्बाद हो जायेगा। और उसकी बर्बादी का कारण होंगे माता-पिता जिन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित और योग्य बनाने की बात ही नहीं सोची। उल्टे उन लोगों की हंसी उड़ाई जो अपने बच्चों को दो मील दूर स्कूल भेजते रहे।
ऐसे अभिभावकों के लिए ही कहा गया है—‘‘माता-पिता बैरी भये जो न पढ़ाये बाल।’’ शास्त्रकारों ने स्पष्ट घोषणा की है ‘माता बैरी पिता शत्रु जे न बालक पढ़िताः। वह माता बैरी है वह पिता शत्रु हैं जिन्होंने अपने बालक को समुचित रूप से शिक्षा देने की ओर ध्यान नहीं दिया।
और अशिक्षित व्यक्तियों की तुलना पशु से की गई है तथा कहा गया है बिना पढ़े नर पशु कहावें, ऐसा क्यों कहा गया है। एक बच्चा सौभाग्य से पढ़ लिखकर विद्वान बन गया और दूसरा घर गृहस्थी का ही काम सम्हालता है। दोनों ही बच्चे एक ही मां-बाप की सन्तान हैं पर दोनों में बड़ा अन्तर आ जाता है। यह बात अलग है अनपढ़ भी साम तक अपने भोजन की व्यवस्था कर ले लेकिन बोलचाल और रहन सहन में जमीन आसमान का अन्तर रहेगा। पढ़ा लिखा सलीके से बात-चीत करेगा, आगन्तुक का द्वार पर स्वागत करेगा, व्यवहार कुशल होगा और अपना रहन-सहन सुसंस्कृत मनुष्यों जैसा रखेगा। जबकि बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति न तो तरीके से बातचीत कर सकेगा न व्यवहार कुशलता बरतेगा। ऐसे व्यक्ति को मनुष्य श्रेणी से अलग रखा जाय तो अस्वाभाविक नहीं है। क्योंकि उसके साथ माता-पिता ने शत्रुतापूर्ण बर्ताव किया है।
लेकिन प्राथमिक आवश्यकतायें तो हैं। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म का अधिक महत्व है, वृक्ष की अपेक्षा बीज अधिक कीमती होता है। उसी प्रकार प्राथमिकता का क्रम जमाना हो तो आज के समय में मनुष्य को भोजन, वस्त्र और मकान की अपेक्षा शिक्षा का पहला स्थान है। अशिक्षित और गंवार लोग थोड़ा बहुत मेहनत मजदूरी से या सामान्य अकल से कमाते हैं तथा उस कमाई का जिस तरह उपयोग करते हैं उससे स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। जबकि शिक्षित और सभ्य व्यक्ति उतनी ही आमदनी में अच्छी प्रकार गुजारा कर लेते हैं।
भोजन, वस्त्र और आवास की आवश्यकतायें स्वयं पूर्ण करने की जिम्मेदारी तो युवावस्था में आती है। बचपन में माता-पिता से ही वे पूरी होती रही हैं, उनकी पूर्ति का दायित्व उन्हीं पर रहता है। विशेष ध्यान जिस प्राथमिक आवश्यकता पर अभिभावकों द्वारा दिया जाना चाहिए वह है बच्चों की शिक्षा-दीक्षा। शिक्षा का मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है और उसकी ओर बचपन से ही ध्यान दे दिया जाये तो ठीक अन्यथा आगे मुश्किल है। इसीलिए प्राचीन मनीषियों ने यह मर्यादा बांध दी थी कि बच्चा पांच वर्ष तक का होते ही गुरुकुल भेज दिया जाना चाहिए ताकि वह विद्याध्ययन द्वारा अपनी क्षमताओं का विकास कर सके। कई स्थानों पर कहा गया है— ‘‘जागतिक सुख और पारलौकिक आनन्द की प्राप्ति का साधन विद्या ही है। सभी उत्कृष्ट कर्मों की परिसमाप्ति ज्ञानपूर्ण कर्म में ही होती है तथा उसी से शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विकास सम्भव होता है।’’
प्राचीनकाल में विद्या का अर्थ व्यक्ति की अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास की सामर्थ्य किया जाता था। यही कारण था कि उन्हें विषय विशेष के साथ सामान्य ज्ञान की जानकारी भी दे दी जाती थी और इस पद्धति से दी जाती थी कि छात्र उसके प्रभाव को अपने व्यक्तित्व में आत्मसात् कर ले।
इस स्तर की विद्या का प्रबन्ध आज भले ही सम्भव न हो पर जैसी भी शिक्षा है वह जीवन में उपयोग तो आती है। जिस युग में हम निवास कर रहे हैं वह जनता का युग है। प्रजातंत्र का युग है। और प्रजातंत्र तभी सफल हो सकता है जब कि उस देश के नागरिक सुशिक्षित और समझदार हों।
शिक्षा की उपयोगिता कदम-कदम पर अनुभव की जाती है। अशिक्षित व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण से तो अनभिज्ञ रहता ही है समय और समाज की गति तथा परिस्थितियों से भी अपरिचित रहता है। फलस्वरूप उसे कदम-कदम पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। अपनी समस्याओं का समाधान वह गांठ की अकल से नहीं कर सकता अपनी स्थिति के समाचार और दूरस्थ स्वजनों की सहायता पत्र लिखकर प्राप्त नहीं कर सकता न उनके समाचारों को जान सकता है। बाजार में सबसे अधिक उसी के ठगने का डर रहता है, किसी की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर अपना ही नुकसान कर बैठने की सम्भावना भी उसी के साथ अधिक जुड़ी रहती है। यहां तक कि वह दूर की यात्रा भी निरापद रूप से नहीं कर सकता। जो काम बूते का हो उसे कर लेना, उससे जो मिले उसके औने-पौने में अपना गुजारा चला लेना और अपने जैसे ही बच्चे पैदा कर डालना। इसी परिधि में उसका सारा जीवन चक्र घूमता रहता है और आरम्भ से लेकर अन्त तक अस्त-व्यस्त जीवन गुजार देता है।
अभिभावकों की जरा सी नासमझी का कुफल उनकी सन्तानों को सारे जीवन भर भोगना पड़ता है। यद्यपि हमारे देश में शिक्षा प्रसार की ओर ध्यान दिया गया है तथा उसके लिए जोरदार असर कारी कदम उठाये गये हैं पर शिक्षितों की संख्या अभी बीस प्रतिशत से अधिक नहीं पहुंच सकी है। सौ में से बीस आदमी शिक्षित जिनमें से अधिकांश साक्षर मात्र उनकी शिक्षा अक्षरज्ञान तक सीमित। सरकार कितना ही प्रचार करे पर जब तक माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता अनुभव नहीं करेंगे तब तक सन्तोषजनक उपलब्धियां मिलना मुश्किल है। आज के बच्चे कल के नागरिक हैं, भविष्य का भारत उन्हीं के हाथों में जायेगा और वे अशिक्षित तथा अज्ञान ग्रस्त ही रहे तो राष्ट्र का भविष्य क्या होगा? और उसके लिए जिम्मेदार होंगे आज के अभिभावक भावी पीड़ी के निर्माता। जो यह सोचते हैं कि बच्चों के लिए शिक्षा की क्या आवश्यकता जो धन्धा हम करते हैं वही बच्चों को सिखा देंगे। आप हल बैल से खेती करते हैं और उन्नत किसानों ने ट्रैक्टर से खेती करना सीख लिया है। आपके हल बक्सर से तो अपना बच्चा जमीन भी नहीं जोत पायेगा और शिक्षित किसान बीज डाल लेगा तथा अंकुर फूटने लगेंगे।
आने वाला युग प्रतिस्पर्धा का युग है। हर व्यक्ति अपनी योग्यता का स्तर दूसरों से अधिक से अधिक उन्नीस रख कर ही जी सकेगा अन्यथा वह बर्बाद हो जायेगा। और उसकी बर्बादी का कारण होंगे माता-पिता जिन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित और योग्य बनाने की बात ही नहीं सोची। उल्टे उन लोगों की हंसी उड़ाई जो अपने बच्चों को दो मील दूर स्कूल भेजते रहे।
ऐसे अभिभावकों के लिए ही कहा गया है—‘‘माता-पिता बैरी भये जो न पढ़ाये बाल।’’ शास्त्रकारों ने स्पष्ट घोषणा की है ‘माता बैरी पिता शत्रु जे न बालक पढ़िताः। वह माता बैरी है वह पिता शत्रु हैं जिन्होंने अपने बालक को समुचित रूप से शिक्षा देने की ओर ध्यान नहीं दिया।
और अशिक्षित व्यक्तियों की तुलना पशु से की गई है तथा कहा गया है बिना पढ़े नर पशु कहावें, ऐसा क्यों कहा गया है। एक बच्चा सौभाग्य से पढ़ लिखकर विद्वान बन गया और दूसरा घर गृहस्थी का ही काम सम्हालता है। दोनों ही बच्चे एक ही मां-बाप की सन्तान हैं पर दोनों में बड़ा अन्तर आ जाता है। यह बात अलग है अनपढ़ भी साम तक अपने भोजन की व्यवस्था कर ले लेकिन बोलचाल और रहन सहन में जमीन आसमान का अन्तर रहेगा। पढ़ा लिखा सलीके से बात-चीत करेगा, आगन्तुक का द्वार पर स्वागत करेगा, व्यवहार कुशल होगा और अपना रहन-सहन सुसंस्कृत मनुष्यों जैसा रखेगा। जबकि बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति न तो तरीके से बातचीत कर सकेगा न व्यवहार कुशलता बरतेगा। ऐसे व्यक्ति को मनुष्य श्रेणी से अलग रखा जाय तो अस्वाभाविक नहीं है। क्योंकि उसके साथ माता-पिता ने शत्रुतापूर्ण बर्ताव किया है।