Books - गौ संरक्षण एवं संवर्द्धन एक राष्ट्रीय कर्तव्य
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Language: HINDI
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गौरक्षा का सही तरीका
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गौ पालन का महत्व हम सभी मानते हैं और उनके साथ जुड़ी हुई धर्म भावना का भी सच्चे मन से समर्थन करते हैं। उसकी रक्षा तथा अभिवृद्धि के लिए भी सबका मन है, पर उसके लिए क्या करना चाहिए इसका कारगर उपाय न सूझ पड़ने के कारण वह नहीं हो पाता जिसे हम चाहते हैं।
बाजार में हर जगह भैंस के दूध की मांग है क्योंकि उसमें चिकनाई की मात्रा अधिक होने से स्वादिष्ट भी लगता है और घी, खोआ अधिक निकलने से लाभदायक भी रहता है। गाय का दूध पतला होता है। इसलिए या तो लोग उसे भैंस के दूध में मिलाकर किसी प्रकार खपाते है या फिर सस्ते मोल बेचते हैं। दोनों ही दशा में गाय पालने वाला घाटे में रहता है। जितना परिश्रम गाय के लिए करना पड़ता है उतना ही भैंस के लिए। वह चारा जरूर कुछ कम खाती है पर रहने के लिए जगह तथा अन्य कार्य समान ही करने पड़ते हैं। अतएव गौ पालन का रिवाज घटता जाता है और उसका स्थान भैंस लेती जा रही हैं।
संसार में सर्वत्र गौ पालन का रिवाज है। उसके दूध की आरोग्य वर्धक विशेषताओं से जन-जन परिचित हैं। भैंस के दूध को वहां तेल की श्रेणी में गिना जाता है। पीने के लिए हर कोई गौ दुग्ध को काम में लाता है। उनके यहां गौ के प्रति मातृ भावना या वध न करने की मनाही नहीं है। तो भी संसार में सर्वत्र गायों की संख्या तथा नस्ल बढ़ाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न किए जाते हैं। यही कारण है कि वे तीस किलो तक हर दिन दूध देती हैं। दिन में तीन बार मशीनों से दुही जाती हैं। इस लाभ को देखते हुए उनका वध करने की बात कोई सोचता तक नहीं। हम यदि सचमुच भावनाशील हैं और उनकी रक्षा तथा वृद्धि की अपेक्षा करते हैं तो नारे लगाने की अपेक्षा कारगर कदम उठाने पड़ेंगे।
सर्वप्रथम कोई कार्य इस संबंध में यह होना चाहिए कि जन-जन को गाय के और भैंस के दूध का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव समझाया जाय। गांधी जी ने खादी का महत्व समझाने के लिए प्रबल आन्दोलन किया था और मोटी और महंगी खादी के दूरगामी परिणामों की जानकारी कराते हुए गले उतारा था। साथ ही उत्पादन का कारगर तंत्र खड़ा किया था। तब कहीं खादी ने जड़ पकड़ी थी। इससे सौ वर्ष पूर्व चाय के व्यापारियों ने उसका प्रचार करने के लिए घर-घर जाने और बनी हुई चाय एक पैसे में बेचने तथा एक पैकिट चाय मुफ्त देने का व्यापक क्रम चलाया था। उस प्रचार ने बढ़ते-बढ़ते आज चाय को जन जीवन का अंग बना दिया है।
आज जो लोग गाय का दूध या घी लेना भी चाहते हैं, उन्हें शुद्ध वस्तु पर्याप्त मात्रा में मिलने की कोई व्यवस्था नहीं है। विक्रेता भैंस के दूध में पानी मिलाकर उसे गाय का बता देते हैं। शुद्धता की गारंटी न रहने से खरीददार भी मन मारकर बैठ जाता है और आर्थिक लाभ की दृष्टि से घाटे में रहने के कारण पालने वाला भी उनकी उपेक्षा करता है। फलतः गौधन घटता ही जाता है। कसाई खानों में उनकी संख्या बढ़ते जाने का कारण यह है कि गाय दूध की अपेक्षा मांस और चमड़े की दृष्टि से लाभदायक बनती जा रही है।
गौरक्षा का कार्य भारत जैसे कृषि प्रधान और दूर देहातों में फैले हुए देश के लिए नितान्त आवश्यक है। यहां छोटी जोत बैलों से ही जोती, बोई और सींची जा सकती है। बैल न रहेगा तो इस देश का गरीब किसान कृषि कार्य से वंचित रह जाएगा और पेट के लाले पड़ेंगे। भैंस का बच्चा खेती की जरूरतें पूरी नहीं कर सकता।
इसके अतिरिक्त विकास की दिशा में पैर रखते हुए अगले दिनों परिवहन का कार्य अत्यधिक विस्तृत करना होगा। शहरों और कस्बों के साथ देहातों की यातायात की कड़ी मिलाने से ही वस्तुओं को वहां से लाना और वहां तक पहुंचाना संभव हो सकेगा। जो कार्य रेल या ट्रक नहीं कर सकते वह कार्य बैल गाड़ियों से ही संभव होगा। पहले की तरह स्त्री-बच्चों का निकटवर्ती रिश्ते नाते के स्थानों तक सुविधा पूर्वक आवागमन बैलगाड़ियों से ही संभव है। अब उनकी धुरी और पहियों में सुधार होने और सरकार का इरादा देहातों में सड़कें बनाने का हो जाने से निश्चय ही बैलगाड़ी का उद्योग भी बढ़ेगा। कृषि कार्य में तो स्थिति को देखते हुए बैल की अनिवार्य आवश्यकता है ही।
बाल मृत्यु एवं कुपोषण से रक्षा तथा रोगियों के उचित आहार के लिए गौ दुग्ध से ही काम चलता है। इन कार्यों की आवश्यकता भैंस के दूध से नहीं पूरी हो सकती। इसलिए स्वास्थ्य का महत्व समझने वाले समझदार वर्ग में से हर किसी को यह समझना और समझाना होगा कि गाय का दूध ही उपरोक्त प्रयोजन की पूर्ति करता है। गाढ़ापन और चिकनाई चाहिए तो मूंगफली, तिल, सोयाबीन जैसी वस्तुएं पानी में पीसकर तैयार कर लेने से भैंस के दूध से भी सस्ता पड़ सकता है। इनके तेल से पकवान भी बन सकते हैं। फिर चिकनाई के लोभ में भैंस के दूध को प्रश्रय दिया जाय, इसका क्या तुक है? समस्त संसार दूध की आवश्यकता गौ दुग्ध से पूरी कर रहा है। मांसाहारी तक उसी को महत्व दे रहे हैं। फिर हम ही ऐसे अभागे क्यों रहें कि जय गौमाता की बोलें और दूध-घी भैंस का उपयोग करें।
जन साधारण को गाय के दूध घी की महत्ता समझाई जाय। किसान को कहा जाय कि वह बछड़ों के बिना कृषि और यातायात परिवहन की समस्या हल न कर सकेगा। इसलिए गौपालन उसके जीवन मरण का प्रश्न है। उसे श्रद्धा ही नहीं सावधानीपूर्वक अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए नए सिरे से रुचिपूर्वक अपनाना चाहिए और तदनुरूप ही पशु पालने की नई नीति निर्धारित करनी चाहिए।
गाय का सही दूध और सही घी सर्वसाधारण को उपलब्ध हो सके इसलिए प्रामाणिक डेरियां खुलनी चाहिए। इस नए उद्योग की अभिवृद्धि की अभी देश में बहुत आगे बढ़ने की गुंजायश है। ढेरों विचारशील व्यक्ति ऐसे हैं जो गाय का दूध ही पसन्द करेंगे। मक्खन-घी भी वे उसी का लेना चाहेंगे। इसके लिए प्रामाणिक वस्तु मिलने और समीपवर्ती क्षेत्रों में ही उसके उपलब्ध होने का प्रबन्ध होना चाहिए। इसके बिना श्रद्धालु और विचारशील लोग भी अपने को असहाय अनुभव करेंगे और भैंस का दूध एवं वनस्पति घी जैसे अब तक प्रयोग करते रहे हैं उसी प्रकार आगे भी करते रहेंगे। मात्र धर्म श्रद्धा ही सब कुछ नहीं होती उसे जीवित रखने का व्यावहारिक स्वरूप भी बनना चाहिए। अन्यथा कल्पना की पोथी उड़ाने से कोई समाधानकारक हल न निकल सकेगा।
अच्छी नस्ल की अधिक दूध और अच्छे बछड़े दे सकने में समर्थ गायों की जगह-जगह डेरियां बनाई जाएं। उनका दूध और घी प्रामाणिक मिले और ग्राहक को उन्हें अपने समीपवर्ती स्थान पर ही मिलने की व्यवस्था रहे। अभी भी दूध की सप्लाई शहर और कस्बों में साइकिल वाले दूधिए ही करते हैं। उनकी शैली अपनाने में कुछ नया करना और नया सीखना नहीं है। लोगों के पास पैसा भी है। नए उद्योग खोलने की तलाश में भी रहते हैं। सहकारी समितियों को भी सरकारी प्रोत्साहन मिल रहा है। धार्मिक एवं विचारशील वर्ग गौरस चाहता भी है। भले ही वह थोड़ा महंगा ही क्यों न हो। किसानों को अच्छे बछड़े चाहिए। सुगठित डेरियों द्वारा ये सब बातें संभव हो सकती हैं और वे जनता की एक महती आवश्यकता पूरी कर सकती हैं।
आवश्यक नहीं कि यह कार्य सदा बड़ी डेरियां ही करें। उनकी विधि व्यवस्था, सुविधा एवं लाभदायक प्रक्रिया समझ में आने पर हर किसान उसे अपनाने लगेगा। जो परिश्रम उसे भैंस के लिए करना पड़ता है यदि उतना ही करने पर उतना ही लाभ मिल जाता है तो हर कोई यही पसन्द करेगा कि भैंस के स्थान पर गाय पालकर अपने देश को सच्चे अर्थों में गोपालों का देश बनाया जाय।
बाजार में हर जगह भैंस के दूध की मांग है क्योंकि उसमें चिकनाई की मात्रा अधिक होने से स्वादिष्ट भी लगता है और घी, खोआ अधिक निकलने से लाभदायक भी रहता है। गाय का दूध पतला होता है। इसलिए या तो लोग उसे भैंस के दूध में मिलाकर किसी प्रकार खपाते है या फिर सस्ते मोल बेचते हैं। दोनों ही दशा में गाय पालने वाला घाटे में रहता है। जितना परिश्रम गाय के लिए करना पड़ता है उतना ही भैंस के लिए। वह चारा जरूर कुछ कम खाती है पर रहने के लिए जगह तथा अन्य कार्य समान ही करने पड़ते हैं। अतएव गौ पालन का रिवाज घटता जाता है और उसका स्थान भैंस लेती जा रही हैं।
संसार में सर्वत्र गौ पालन का रिवाज है। उसके दूध की आरोग्य वर्धक विशेषताओं से जन-जन परिचित हैं। भैंस के दूध को वहां तेल की श्रेणी में गिना जाता है। पीने के लिए हर कोई गौ दुग्ध को काम में लाता है। उनके यहां गौ के प्रति मातृ भावना या वध न करने की मनाही नहीं है। तो भी संसार में सर्वत्र गायों की संख्या तथा नस्ल बढ़ाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न किए जाते हैं। यही कारण है कि वे तीस किलो तक हर दिन दूध देती हैं। दिन में तीन बार मशीनों से दुही जाती हैं। इस लाभ को देखते हुए उनका वध करने की बात कोई सोचता तक नहीं। हम यदि सचमुच भावनाशील हैं और उनकी रक्षा तथा वृद्धि की अपेक्षा करते हैं तो नारे लगाने की अपेक्षा कारगर कदम उठाने पड़ेंगे।
सर्वप्रथम कोई कार्य इस संबंध में यह होना चाहिए कि जन-जन को गाय के और भैंस के दूध का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव समझाया जाय। गांधी जी ने खादी का महत्व समझाने के लिए प्रबल आन्दोलन किया था और मोटी और महंगी खादी के दूरगामी परिणामों की जानकारी कराते हुए गले उतारा था। साथ ही उत्पादन का कारगर तंत्र खड़ा किया था। तब कहीं खादी ने जड़ पकड़ी थी। इससे सौ वर्ष पूर्व चाय के व्यापारियों ने उसका प्रचार करने के लिए घर-घर जाने और बनी हुई चाय एक पैसे में बेचने तथा एक पैकिट चाय मुफ्त देने का व्यापक क्रम चलाया था। उस प्रचार ने बढ़ते-बढ़ते आज चाय को जन जीवन का अंग बना दिया है।
आज जो लोग गाय का दूध या घी लेना भी चाहते हैं, उन्हें शुद्ध वस्तु पर्याप्त मात्रा में मिलने की कोई व्यवस्था नहीं है। विक्रेता भैंस के दूध में पानी मिलाकर उसे गाय का बता देते हैं। शुद्धता की गारंटी न रहने से खरीददार भी मन मारकर बैठ जाता है और आर्थिक लाभ की दृष्टि से घाटे में रहने के कारण पालने वाला भी उनकी उपेक्षा करता है। फलतः गौधन घटता ही जाता है। कसाई खानों में उनकी संख्या बढ़ते जाने का कारण यह है कि गाय दूध की अपेक्षा मांस और चमड़े की दृष्टि से लाभदायक बनती जा रही है।
गौरक्षा का कार्य भारत जैसे कृषि प्रधान और दूर देहातों में फैले हुए देश के लिए नितान्त आवश्यक है। यहां छोटी जोत बैलों से ही जोती, बोई और सींची जा सकती है। बैल न रहेगा तो इस देश का गरीब किसान कृषि कार्य से वंचित रह जाएगा और पेट के लाले पड़ेंगे। भैंस का बच्चा खेती की जरूरतें पूरी नहीं कर सकता।
इसके अतिरिक्त विकास की दिशा में पैर रखते हुए अगले दिनों परिवहन का कार्य अत्यधिक विस्तृत करना होगा। शहरों और कस्बों के साथ देहातों की यातायात की कड़ी मिलाने से ही वस्तुओं को वहां से लाना और वहां तक पहुंचाना संभव हो सकेगा। जो कार्य रेल या ट्रक नहीं कर सकते वह कार्य बैल गाड़ियों से ही संभव होगा। पहले की तरह स्त्री-बच्चों का निकटवर्ती रिश्ते नाते के स्थानों तक सुविधा पूर्वक आवागमन बैलगाड़ियों से ही संभव है। अब उनकी धुरी और पहियों में सुधार होने और सरकार का इरादा देहातों में सड़कें बनाने का हो जाने से निश्चय ही बैलगाड़ी का उद्योग भी बढ़ेगा। कृषि कार्य में तो स्थिति को देखते हुए बैल की अनिवार्य आवश्यकता है ही।
बाल मृत्यु एवं कुपोषण से रक्षा तथा रोगियों के उचित आहार के लिए गौ दुग्ध से ही काम चलता है। इन कार्यों की आवश्यकता भैंस के दूध से नहीं पूरी हो सकती। इसलिए स्वास्थ्य का महत्व समझने वाले समझदार वर्ग में से हर किसी को यह समझना और समझाना होगा कि गाय का दूध ही उपरोक्त प्रयोजन की पूर्ति करता है। गाढ़ापन और चिकनाई चाहिए तो मूंगफली, तिल, सोयाबीन जैसी वस्तुएं पानी में पीसकर तैयार कर लेने से भैंस के दूध से भी सस्ता पड़ सकता है। इनके तेल से पकवान भी बन सकते हैं। फिर चिकनाई के लोभ में भैंस के दूध को प्रश्रय दिया जाय, इसका क्या तुक है? समस्त संसार दूध की आवश्यकता गौ दुग्ध से पूरी कर रहा है। मांसाहारी तक उसी को महत्व दे रहे हैं। फिर हम ही ऐसे अभागे क्यों रहें कि जय गौमाता की बोलें और दूध-घी भैंस का उपयोग करें।
जन साधारण को गाय के दूध घी की महत्ता समझाई जाय। किसान को कहा जाय कि वह बछड़ों के बिना कृषि और यातायात परिवहन की समस्या हल न कर सकेगा। इसलिए गौपालन उसके जीवन मरण का प्रश्न है। उसे श्रद्धा ही नहीं सावधानीपूर्वक अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए नए सिरे से रुचिपूर्वक अपनाना चाहिए और तदनुरूप ही पशु पालने की नई नीति निर्धारित करनी चाहिए।
गाय का सही दूध और सही घी सर्वसाधारण को उपलब्ध हो सके इसलिए प्रामाणिक डेरियां खुलनी चाहिए। इस नए उद्योग की अभिवृद्धि की अभी देश में बहुत आगे बढ़ने की गुंजायश है। ढेरों विचारशील व्यक्ति ऐसे हैं जो गाय का दूध ही पसन्द करेंगे। मक्खन-घी भी वे उसी का लेना चाहेंगे। इसके लिए प्रामाणिक वस्तु मिलने और समीपवर्ती क्षेत्रों में ही उसके उपलब्ध होने का प्रबन्ध होना चाहिए। इसके बिना श्रद्धालु और विचारशील लोग भी अपने को असहाय अनुभव करेंगे और भैंस का दूध एवं वनस्पति घी जैसे अब तक प्रयोग करते रहे हैं उसी प्रकार आगे भी करते रहेंगे। मात्र धर्म श्रद्धा ही सब कुछ नहीं होती उसे जीवित रखने का व्यावहारिक स्वरूप भी बनना चाहिए। अन्यथा कल्पना की पोथी उड़ाने से कोई समाधानकारक हल न निकल सकेगा।
अच्छी नस्ल की अधिक दूध और अच्छे बछड़े दे सकने में समर्थ गायों की जगह-जगह डेरियां बनाई जाएं। उनका दूध और घी प्रामाणिक मिले और ग्राहक को उन्हें अपने समीपवर्ती स्थान पर ही मिलने की व्यवस्था रहे। अभी भी दूध की सप्लाई शहर और कस्बों में साइकिल वाले दूधिए ही करते हैं। उनकी शैली अपनाने में कुछ नया करना और नया सीखना नहीं है। लोगों के पास पैसा भी है। नए उद्योग खोलने की तलाश में भी रहते हैं। सहकारी समितियों को भी सरकारी प्रोत्साहन मिल रहा है। धार्मिक एवं विचारशील वर्ग गौरस चाहता भी है। भले ही वह थोड़ा महंगा ही क्यों न हो। किसानों को अच्छे बछड़े चाहिए। सुगठित डेरियों द्वारा ये सब बातें संभव हो सकती हैं और वे जनता की एक महती आवश्यकता पूरी कर सकती हैं।
आवश्यक नहीं कि यह कार्य सदा बड़ी डेरियां ही करें। उनकी विधि व्यवस्था, सुविधा एवं लाभदायक प्रक्रिया समझ में आने पर हर किसान उसे अपनाने लगेगा। जो परिश्रम उसे भैंस के लिए करना पड़ता है यदि उतना ही करने पर उतना ही लाभ मिल जाता है तो हर कोई यही पसन्द करेगा कि भैंस के स्थान पर गाय पालकर अपने देश को सच्चे अर्थों में गोपालों का देश बनाया जाय।