Books - कर्मकांड प्रदीप
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Language: HINDI
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भूमि पूजन प्रकरण
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संस्कार सम्पन्न भूमि- देवस्थलों की प्रथम आवश्यकता कोई भी निर्माण भूमिपूजन समारोहों से प्रारम्भ हो
सूत्र सङ्केत- भूमि में बीज ही नहीं, संस्कार भी उपजते हैं। मरघटों के वीभत्स- चीत्कार भरे डरावने और आश्रमों के शान्त, सुरभित, मनोरम वातावरण को हर कोई स्पष्ट अनुभव कर सकता है। इस अन्तर का कारण इन स्थानों में प्रसन्नता का प्रस्फुटन है, यह तथ्य का प्रतीक है कि भूमि में अच्छे- बुरे संस्कार ग्रहण करने, आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भूमि पूजन आवश्यक माना गया है। गायत्री शक्तिपीठें प्रज्ञा आलोक की प्रेरणा केन्द्र बनने जा रही हैं। अतः इन देवालयों में प्रारम्भ से ही वह संस्कार पैदा किये जाने चाहिए। इसके लिए भूमि पूजन समारोह अनिवार्य बना दिये गये हैं। पौरोहित्य की परम्परा की दृष्टि से भी भूमि पूजन कृत्य अपने उत्तरदायी सभी परिजनों को अवश्य जानना चाहिए। भवन बनाने के पूर्व, नये स्थान पर बड़े यज्ञादि करने के पूर्व तथा गृह प्रवेश क्रम में भी इस प्रक्रिया का उपयोग किया जा सकता है।
क्रम व्यवस्था- भूमि पूजन जहाँ करना हो, उस स्थान पर सामर्थ्य के अनुसार सुरुचि एवं स्वच्छता का वातावरण बनाना चाहिए। कर्मकाण्ड के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जहाँ पर होने वाले पूजन उपचार को उपस्थित समुदाय भली प्रकार देख- सुन सके। भूमि पूजन का विशेष कर्मकाण्ड भर यहाँ दिया जा रहा है। उसके आगे- पीछे सामान्य कर्मकाण्डों की विवेकपूर्ण शृङ्खला जोड़ लेनी चाहिए। यदि समय हो और व्यवस्था ठीक प्रकार बनाई- सँभाली जा सके, तो यह कार्य यज्ञ सहित सम्पन्न किया जा सकता है। पहले षट्कर्म से लेकर रक्षाविधान तक का कृत्य पूरा कर लिया जाए। उसके बाद भूमि पूजन का विशेष क्रम चलाया जाए। उसके पूर्ण होने पर अग्नि स्थापना से लेकर अन्त तक के शेष कर्मकाण्ड पूरे किये जाएँ।
यदि समय और व्यवस्था की दृष्टि से यह अधिक कठिन लगे, तो षट्कर्म के बाद सङ्कल्प, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन कराकर भूमि पूजन कर्म कराया जाए। उसके बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए पाँच घी के दीपक जलाए जाएँ। अन्त में क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, शुभकामना, अभिसिञ्चन, विसर्जन एवं जयघोष कराकर कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। क्रम इस प्रकार है-
षट्कर्म- उपयुक्त प्रतिनिधियों को पूजा स्थान पर बिठाकर पहले षट्कर्म अर्थात्
१.पवित्रीकरण, २. आचमन, ३.शिखावन्दन, ४.प्राणायाम, ५.न्यास, ६.पृथ्वी पूजन कराये जाएँ। यदि बिठाकर षट्कर्म कराने की स्थिति न हो, तो खड़े- खड़े ही केवल पवित्रीकरण मन्त्र से सामूहिक सिञ्चन कराकर आगे बढ़ा जा सकता है।
सङ्कल्प- प्रतिनिधियों के हाथ में अक्षत, पुष्प, जल आदि देकर भूमि पूजन का सङ्कल्प बोला जाए। मन्त्र बोलने के बाद पुष्प- अक्षत उसी भूमि पर चढ़ा दिये जाएँ, जिसका पूजन किया जा रहा हो।
..................नामाहं पृथिवीमातुः ऋणं अपाकर्त्तुं तां प्रतिस्वकर्त्तव्यं स्मर्त्तुं अस्याः निकृष्टसंस्कार- निस्सारणार्थं श्रेष्ठसंस्कार- स्थापनार्थञ्च देवपूजनपूर्वकं सपरिजनाः श्रद्धापूर्वकं भूमिपूजनं वयं करिष्यामहे।
सामान्य पूजा उपचार- सङ्कल्प के बाद व्यवस्थानुसार देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि कार्य कराए जाएँ।
भूमि अभिसिञ्चन- शुभ कार्य के लिए जिस भूमि का प्रयोग किया जाना है, उसमें पवित्रता के सञ्चार के लिए यह प्रक्रिया है। एक प्रतिनिधि पात्र में पवित्र जल लेकर कुशाओं, आम्र- पल्लवों या पुष्पों से भूमि के चारों ओर छींटे लगाएँ। नीचे लिखे पाँचों मन्त्रों के साथ देवशक्तियों से उस क्षेत्र सहित सभी परिजनों के लिए पवित्रता की याचना की जाए।
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा॥ -१९.३९ ॐ पुनाति ते परिस्रुत* सोम* सूर्यस्य दुहिता। वारेण शश्वता तना॥ -१९.४ ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥ -१.१२, ४.४ ॐ पवित्रेण पुनीहि मा शुक्रेण देव दीद्यत्। अग्ने कृत्वा क्रतूँ१रनु॥ -१९.४० ॐ पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः। यः पोता स पुनातु मा॥ -१९.४२
दिग्पाल पूजनः- भूमि में बीज ही नहीं संस्कार भी उपजते हैं। मरघटों के वीभत्स चीत्कार भरे, डरावने और आश्रमों के शान्त सुरभित मनोरम वातावरण को हर कोई स्पष्ट अनुभव कर सकता है। इस अन्तर का कारण इन स्थानों के संस्कार होते हैं। गन्दे स्थलों पर जाते ही बुरे भाव और रमणीक स्थानों में प्रसन्नता का प्रस्फु टन- यह इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भूमि में अच्छे बुरे संस्कार ग्रहण करने- आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भूमिपूजन आवश्यक माना गया है। अतः इन देवालयों में प्रारम्भ से ही वह संस्कार पैदा किये जाने चाहिए। उसके लिये भूमिपूूजन समारोह अनिवार्य बना दिया गया है। पौरोहित्य की परम्परा की दृष्टि से भी भूमिपूजन कृत्य अपने उत्तरदायी सभी परिजनों को अवश्य जानना चाहिये।
राजतन्त्र, समाजतन्त्र अर्थतन्त्र आदि सन्तुलित व्यवस्था एवं अनुशासन के आधार पर ही टिकते हैं। पृथ्वी की दसों दिशाओं में व्यवस्था एवं सन्तुलन के लिए उत्तरदायी दश देवशक्तियों को दिक्पाल की संज्ञा दी गयी है। भूमिपूजन के समय उन हितकारी शक्तियों को मान्यता देते हुए उनका पूजन किया जाता है। कामना एवं प्रार्थना की जाती है कि वे होने वाले कार्यों में विघ्न न आने दें। सन्तुलन व्यवस्था बनाये रखने के हमारे प्रयासों को सफ ल बनाने में प्रेरणा एवं सहयोग प्रदान करें। पूजन के लिए प्रतिनिधि के हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प, जल आदि देकर मन्त्र बोलें। यज्ञवेदी या पूजावेदी के चारों ओर उन्हें हर मन्त्र के साथ उसी दिशा में चढ़ायें, जिस दिशा का मन्त्र में उल्लेख है। आठ दिशाओं में चारों ओर पाताल के लिए चौकी के नीचे तथा आकाश के लिए चौकी के ऊपर पूजा द्रव्य चढ़ायें। मन्त्र क्रमशः इस प्रकार है -
१. पूर्व दिशा में-
ऐरावत समारूढं, वज्रहस्तं महाबलम्। आश्रितं दिशि पूर्वस्यां, इन्द्रमावाह्याम्यहम्॥ ॐ इन्द्राय नमः। आवाहयामि,स्थापयामि,पूजयामि॥
२. आग्नेय दिशा में- छागपृष्ठ समारूढं, शक्तिहस्तं महाबलम्। आश्रितं दिशि चाग्नेयां, अग्निमावाह्याम्यहम्॥
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
३. दक्षिण दिशा में- महिषपृष्ठ समारूढं, दण्डहस्तं महाबलम्। याम्यां दिशि समासीनं, यममावाह्याम्यहम्॥ ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,पूजयामि॥
४.- नैऋर्त्यदिशा में- महाप्रेत समारूढं, खड्गहस्तं महाबलम्। नैऋ र्त्यां दिशि चासीनं, निऋर्तिमावाह्याम्यहम्॥ ॐ निऋर्तये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
५. पश्चिम दिशा में- महामकरमारूढं, पाशहस्तं महाबलम्। वारुण्यां दिशि चाश्रित्यं, वरुणमावाह्यहम्॥ ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
६. वायव्यदिशा में- मृगपृष्ठ समारूढं, हस्तेंऽकुशमेव च ।। वायव्यां दिशि चाश्रित्यं, वायुमावाह्याहम्॥ ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
७. उत्तर दिशा में- श्वेताश्वे समारूढं, गदाहस्तं महाबलम्। उदीच्यां दिशि चाश्रित्यं, कुबेरमावाह्याम्यहम्॥ ॐ कुबेराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
८. ईशान दिशा में- वृषपृष्ठ समारूढं, शूलहस्तं महाबलम्। ईशान्यां दिशि चाश्रित्यं, ईशमावाह्याम्यहम्॥ ॐ ईशानाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
९. नीचकी ओर- नागपृष्ठ समारूढं, हलहस्तं महाबलम्। पातालतलमाश्रित्यं, अनन्तमावाह्याम्यहम्॥ ॐ अनन्ताय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
१० ऊपर की ओर- हंसपृष्ठ समारूढं, स्रुवहस्तं महाबलम्। ब्रह्मणो दिशमाश्रित्य, ब्रह्मणा मावाह्याम्यहम॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
प्राणप्रतिष्ठा एवं पूजन
ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥ ॐ शेषमूर्ध्निस्थितां रम्यां, नानासुखविधायिनीम्। विश्वधात्रीं महाभागां, विश्वस्य जननीं पराम्॥ यज्ञभागं प्रतीक्षस्व, सुखार्थं प्रणमाम्यहम्। तवोपरि करिष्यामि, मण्डपं सुमनोहरम्। क्षन्तव्यं च त्वया देवि! सानुकूला मखे भव। निर्विघ्न मम कर्मेदं, यथा स्यात्त्वं तथा कुरु॥ -गी०पु० प०
अर्थात्- शेषनाग के सिर पर स्थित विविध सुख- भोगों को प्रदान करने वाली, विश्व का पालन करने वाली, महाभाग्यवती विश्व के समस्त जीवों को जन्म देने वाली हे वसुन्धरे! हम आपको नमन करते हैं। आप यज्ञ भाग की प्रतीक्षा करें। हम आपके धरातल पर सुन्दर मण्डप का निर्माण करेंगे। कष्ट के लिए हमें क्षमा करें। आप यज्ञ में हमारे अनुकूल रहें। हमारा यह यज्ञ कार्य जैसे भी निर्विघ्न सम्पन्न हो, वैसी कृपा करें।
माङ्गलिक द्रव्य स्थापना
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हि * सीः। नि वर्त्तयाम्यायुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ -३.६३
अर्थात्- आप (छुरा या उस्तरा) नाम से ही शिव- कल्याणकारी हैं, स्वयं धारयुक्त शस्त्र आपके पिता हैं। हम आपको नमन करते हैं। हमें पीड़ित न करें। हम आयु, पोषक अन्नादि, सुसन्तति, ऐश्वर्य- वृद्धि, उत्तम- प्रजा एवं श्रेष्ठ वीर्य लाभ के लिए विशिष्ट सन्दर्भ में मुण्डन कृत्य में प्रयास करते हैं।
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ -२३.१
अर्थात्- सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ परम- पुरुष (प्रजापति) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के एक मात्र उत्पादक और पालक रहे। वे सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान थे, वही स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, हम उसी आनन्द स्वरूप प्रजापति की तृप्ति के लिए आहुति समर्पित करते हैं। (उनके अतिरिक्त और किसे आहुति समर्पित करें)।
तत्पश्चात् सुविधानुसार यज्ञ- दीपयज्ञ का शेष क्रम पूरा कर सकते हैं। उपस्थित जनसमुदाय से भी पुष्पाञ्जलि कराई जा सकती है।
सूत्र सङ्केत- भूमि में बीज ही नहीं, संस्कार भी उपजते हैं। मरघटों के वीभत्स- चीत्कार भरे डरावने और आश्रमों के शान्त, सुरभित, मनोरम वातावरण को हर कोई स्पष्ट अनुभव कर सकता है। इस अन्तर का कारण इन स्थानों में प्रसन्नता का प्रस्फुटन है, यह तथ्य का प्रतीक है कि भूमि में अच्छे- बुरे संस्कार ग्रहण करने, आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भूमि पूजन आवश्यक माना गया है। गायत्री शक्तिपीठें प्रज्ञा आलोक की प्रेरणा केन्द्र बनने जा रही हैं। अतः इन देवालयों में प्रारम्भ से ही वह संस्कार पैदा किये जाने चाहिए। इसके लिए भूमि पूजन समारोह अनिवार्य बना दिये गये हैं। पौरोहित्य की परम्परा की दृष्टि से भी भूमि पूजन कृत्य अपने उत्तरदायी सभी परिजनों को अवश्य जानना चाहिए। भवन बनाने के पूर्व, नये स्थान पर बड़े यज्ञादि करने के पूर्व तथा गृह प्रवेश क्रम में भी इस प्रक्रिया का उपयोग किया जा सकता है।
क्रम व्यवस्था- भूमि पूजन जहाँ करना हो, उस स्थान पर सामर्थ्य के अनुसार सुरुचि एवं स्वच्छता का वातावरण बनाना चाहिए। कर्मकाण्ड के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जहाँ पर होने वाले पूजन उपचार को उपस्थित समुदाय भली प्रकार देख- सुन सके। भूमि पूजन का विशेष कर्मकाण्ड भर यहाँ दिया जा रहा है। उसके आगे- पीछे सामान्य कर्मकाण्डों की विवेकपूर्ण शृङ्खला जोड़ लेनी चाहिए। यदि समय हो और व्यवस्था ठीक प्रकार बनाई- सँभाली जा सके, तो यह कार्य यज्ञ सहित सम्पन्न किया जा सकता है। पहले षट्कर्म से लेकर रक्षाविधान तक का कृत्य पूरा कर लिया जाए। उसके बाद भूमि पूजन का विशेष क्रम चलाया जाए। उसके पूर्ण होने पर अग्नि स्थापना से लेकर अन्त तक के शेष कर्मकाण्ड पूरे किये जाएँ।
यदि समय और व्यवस्था की दृष्टि से यह अधिक कठिन लगे, तो षट्कर्म के बाद सङ्कल्प, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन कराकर भूमि पूजन कर्म कराया जाए। उसके बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए पाँच घी के दीपक जलाए जाएँ। अन्त में क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, शुभकामना, अभिसिञ्चन, विसर्जन एवं जयघोष कराकर कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। क्रम इस प्रकार है-
षट्कर्म- उपयुक्त प्रतिनिधियों को पूजा स्थान पर बिठाकर पहले षट्कर्म अर्थात्
१.पवित्रीकरण, २. आचमन, ३.शिखावन्दन, ४.प्राणायाम, ५.न्यास, ६.पृथ्वी पूजन कराये जाएँ। यदि बिठाकर षट्कर्म कराने की स्थिति न हो, तो खड़े- खड़े ही केवल पवित्रीकरण मन्त्र से सामूहिक सिञ्चन कराकर आगे बढ़ा जा सकता है।
सङ्कल्प- प्रतिनिधियों के हाथ में अक्षत, पुष्प, जल आदि देकर भूमि पूजन का सङ्कल्प बोला जाए। मन्त्र बोलने के बाद पुष्प- अक्षत उसी भूमि पर चढ़ा दिये जाएँ, जिसका पूजन किया जा रहा हो।
..................नामाहं पृथिवीमातुः ऋणं अपाकर्त्तुं तां प्रतिस्वकर्त्तव्यं स्मर्त्तुं अस्याः निकृष्टसंस्कार- निस्सारणार्थं श्रेष्ठसंस्कार- स्थापनार्थञ्च देवपूजनपूर्वकं सपरिजनाः श्रद्धापूर्वकं भूमिपूजनं वयं करिष्यामहे।
सामान्य पूजा उपचार- सङ्कल्प के बाद व्यवस्थानुसार देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि कार्य कराए जाएँ।
भूमि अभिसिञ्चन- शुभ कार्य के लिए जिस भूमि का प्रयोग किया जाना है, उसमें पवित्रता के सञ्चार के लिए यह प्रक्रिया है। एक प्रतिनिधि पात्र में पवित्र जल लेकर कुशाओं, आम्र- पल्लवों या पुष्पों से भूमि के चारों ओर छींटे लगाएँ। नीचे लिखे पाँचों मन्त्रों के साथ देवशक्तियों से उस क्षेत्र सहित सभी परिजनों के लिए पवित्रता की याचना की जाए।
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा॥ -१९.३९ ॐ पुनाति ते परिस्रुत* सोम* सूर्यस्य दुहिता। वारेण शश्वता तना॥ -१९.४ ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥ -१.१२, ४.४ ॐ पवित्रेण पुनीहि मा शुक्रेण देव दीद्यत्। अग्ने कृत्वा क्रतूँ१रनु॥ -१९.४० ॐ पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः। यः पोता स पुनातु मा॥ -१९.४२
दिग्पाल पूजनः- भूमि में बीज ही नहीं संस्कार भी उपजते हैं। मरघटों के वीभत्स चीत्कार भरे, डरावने और आश्रमों के शान्त सुरभित मनोरम वातावरण को हर कोई स्पष्ट अनुभव कर सकता है। इस अन्तर का कारण इन स्थानों के संस्कार होते हैं। गन्दे स्थलों पर जाते ही बुरे भाव और रमणीक स्थानों में प्रसन्नता का प्रस्फु टन- यह इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भूमि में अच्छे बुरे संस्कार ग्रहण करने- आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भूमिपूजन आवश्यक माना गया है। अतः इन देवालयों में प्रारम्भ से ही वह संस्कार पैदा किये जाने चाहिए। उसके लिये भूमिपूूजन समारोह अनिवार्य बना दिया गया है। पौरोहित्य की परम्परा की दृष्टि से भी भूमिपूजन कृत्य अपने उत्तरदायी सभी परिजनों को अवश्य जानना चाहिये।
राजतन्त्र, समाजतन्त्र अर्थतन्त्र आदि सन्तुलित व्यवस्था एवं अनुशासन के आधार पर ही टिकते हैं। पृथ्वी की दसों दिशाओं में व्यवस्था एवं सन्तुलन के लिए उत्तरदायी दश देवशक्तियों को दिक्पाल की संज्ञा दी गयी है। भूमिपूजन के समय उन हितकारी शक्तियों को मान्यता देते हुए उनका पूजन किया जाता है। कामना एवं प्रार्थना की जाती है कि वे होने वाले कार्यों में विघ्न न आने दें। सन्तुलन व्यवस्था बनाये रखने के हमारे प्रयासों को सफ ल बनाने में प्रेरणा एवं सहयोग प्रदान करें। पूजन के लिए प्रतिनिधि के हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प, जल आदि देकर मन्त्र बोलें। यज्ञवेदी या पूजावेदी के चारों ओर उन्हें हर मन्त्र के साथ उसी दिशा में चढ़ायें, जिस दिशा का मन्त्र में उल्लेख है। आठ दिशाओं में चारों ओर पाताल के लिए चौकी के नीचे तथा आकाश के लिए चौकी के ऊपर पूजा द्रव्य चढ़ायें। मन्त्र क्रमशः इस प्रकार है -
१. पूर्व दिशा में-
ऐरावत समारूढं, वज्रहस्तं महाबलम्। आश्रितं दिशि पूर्वस्यां, इन्द्रमावाह्याम्यहम्॥ ॐ इन्द्राय नमः। आवाहयामि,स्थापयामि,पूजयामि॥
२. आग्नेय दिशा में- छागपृष्ठ समारूढं, शक्तिहस्तं महाबलम्। आश्रितं दिशि चाग्नेयां, अग्निमावाह्याम्यहम्॥
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
३. दक्षिण दिशा में- महिषपृष्ठ समारूढं, दण्डहस्तं महाबलम्। याम्यां दिशि समासीनं, यममावाह्याम्यहम्॥ ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,पूजयामि॥
४.- नैऋर्त्यदिशा में- महाप्रेत समारूढं, खड्गहस्तं महाबलम्। नैऋ र्त्यां दिशि चासीनं, निऋर्तिमावाह्याम्यहम्॥ ॐ निऋर्तये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
५. पश्चिम दिशा में- महामकरमारूढं, पाशहस्तं महाबलम्। वारुण्यां दिशि चाश्रित्यं, वरुणमावाह्यहम्॥ ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
६. वायव्यदिशा में- मृगपृष्ठ समारूढं, हस्तेंऽकुशमेव च ।। वायव्यां दिशि चाश्रित्यं, वायुमावाह्याहम्॥ ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
७. उत्तर दिशा में- श्वेताश्वे समारूढं, गदाहस्तं महाबलम्। उदीच्यां दिशि चाश्रित्यं, कुबेरमावाह्याम्यहम्॥ ॐ कुबेराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
८. ईशान दिशा में- वृषपृष्ठ समारूढं, शूलहस्तं महाबलम्। ईशान्यां दिशि चाश्रित्यं, ईशमावाह्याम्यहम्॥ ॐ ईशानाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
९. नीचकी ओर- नागपृष्ठ समारूढं, हलहस्तं महाबलम्। पातालतलमाश्रित्यं, अनन्तमावाह्याम्यहम्॥ ॐ अनन्ताय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि॥
१० ऊपर की ओर- हंसपृष्ठ समारूढं, स्रुवहस्तं महाबलम्। ब्रह्मणो दिशमाश्रित्य, ब्रह्मणा मावाह्याम्यहम॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
प्राणप्रतिष्ठा एवं पूजन
ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥ ॐ शेषमूर्ध्निस्थितां रम्यां, नानासुखविधायिनीम्। विश्वधात्रीं महाभागां, विश्वस्य जननीं पराम्॥ यज्ञभागं प्रतीक्षस्व, सुखार्थं प्रणमाम्यहम्। तवोपरि करिष्यामि, मण्डपं सुमनोहरम्। क्षन्तव्यं च त्वया देवि! सानुकूला मखे भव। निर्विघ्न मम कर्मेदं, यथा स्यात्त्वं तथा कुरु॥ -गी०पु० प०
अर्थात्- शेषनाग के सिर पर स्थित विविध सुख- भोगों को प्रदान करने वाली, विश्व का पालन करने वाली, महाभाग्यवती विश्व के समस्त जीवों को जन्म देने वाली हे वसुन्धरे! हम आपको नमन करते हैं। आप यज्ञ भाग की प्रतीक्षा करें। हम आपके धरातल पर सुन्दर मण्डप का निर्माण करेंगे। कष्ट के लिए हमें क्षमा करें। आप यज्ञ में हमारे अनुकूल रहें। हमारा यह यज्ञ कार्य जैसे भी निर्विघ्न सम्पन्न हो, वैसी कृपा करें।
माङ्गलिक द्रव्य स्थापना
ॐ शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हि * सीः। नि वर्त्तयाम्यायुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ -३.६३
अर्थात्- आप (छुरा या उस्तरा) नाम से ही शिव- कल्याणकारी हैं, स्वयं धारयुक्त शस्त्र आपके पिता हैं। हम आपको नमन करते हैं। हमें पीड़ित न करें। हम आयु, पोषक अन्नादि, सुसन्तति, ऐश्वर्य- वृद्धि, उत्तम- प्रजा एवं श्रेष्ठ वीर्य लाभ के लिए विशिष्ट सन्दर्भ में मुण्डन कृत्य में प्रयास करते हैं।
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ -२३.१
अर्थात्- सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ परम- पुरुष (प्रजापति) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के एक मात्र उत्पादक और पालक रहे। वे सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान थे, वही स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, हम उसी आनन्द स्वरूप प्रजापति की तृप्ति के लिए आहुति समर्पित करते हैं। (उनके अतिरिक्त और किसे आहुति समर्पित करें)।
तत्पश्चात् सुविधानुसार यज्ञ- दीपयज्ञ का शेष क्रम पूरा कर सकते हैं। उपस्थित जनसमुदाय से भी पुष्पाञ्जलि कराई जा सकती है।