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Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

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भागीरथों और शुनिशेपों की खोज

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देवताओं की संख्या बहुत बड़ी है, उनमें महादेव केवल-शिव शंकर को कहते हैं। महा का अर्थ है-बडा़। अन्य देवता उतने बड़े नहीं जितने  महादेव। इसलिये शिव के अतिरिक्त और किसी को भी महादेव नहीं कहा जाता। बड़प्पन, किसी के समर्थ, वैभवशाली एवं विभूतिवान होने से नहीं मिलता वरन् लोक-मंगल से, त्याग, बलिदान एवं परदुःख निवारण के लिये करुणा की मात्रा पर निर्भर रहता है। इस कसौटी पर अन्य सभी देवताओं की तुलना में महाकाल शिव ही सर्वोत्कृष्ट सिद्ध हुए।

      समुद्र मन्थन से जो गरल निकला उससे समस्त विश्व जल जाने की सम्भावना थी। इसी विभीषिका को संसार पर आने वाली भयानक विपत्ति को भगवान् शिव ने समझा और विश्व मंगल के लिये बलिदान की बड़ी से बड़ी सीमा हो सकती है उस तक पहुँचे। महा गरल जिसकी एक बूँद से समस्त विश्व विमूर्च्छित हो सकता था, शिव ने शिरोधार्य किया और वे उसे पी गये। प्रतिक्रिया क्या हुई उसे दूसरे लोग नहीं जानते पर नीलकण्ठ का गला अनन्तकाल से लेकर अब तक रुँधा हुआ है। विष अभी तक उनके कण्ठ में बैठा है। ‘‘पीर पराई न जानने वाली दुनियाँ जय-जयकार करके अपने घर चली गयी, पर विषपान की प्रतिक्रिया क्या हुई इसे वही जानते हैं जिस पर बीती। इस त्याग ने उन्हें महादेव बना दिया।

        दूसरे देवता जहाँ अपने लिये पर्याप्त मात्रा में सुविधा साधन एकत्रित करके आमोद-प्रमोद भरा जीवनयापन करते हैं वहाँ शिव का तौर-तरीका बिलकुल अलग है। उन्होंने निहंग निर्वस्त्र रहना स्वीकार किया उतना  अपरिग्रह जितना सम्भव था, शिवजी ने अपनाया। लोकमंगल के लिये हर घड़ी मरण का वरण करने के लिये तैयार रहने की निष्ठा का प्रतीक उनका श्मशान में निवास करना है। सर्प रूपी विकारों और प्रलोभनों से वे डरते नहीं, भागते नहीं और अपने से लिपटाये रहने पर भी वह सामंजस्य संतुलन बनाये रहते हैं, पर सर्प दंश की, अवांछनीय दुर्दशा में उन्हें कभी भी नहीं पड़ना पड़ता। भूत-प्रेतों, पतितों, पीड़ितों, उपेक्षितों और उपहासास्पदों को जहाँ दूसरे सब दुरदुराते हैं वहाँ शिव-सेना में वे भरे पड़े हैं। ऐसे पतितपावन को नहीं तो फिर किसे महादेव कहा जायेगा ? जिसका ललाट उज्ज्वल चरित्र के कारण चन्द्रमा की तरह चमकता हो वह देवताओं का भी देवता महादेव नहीं तो और क्या है ?

       महान् प्रयोजनों की पूर्ति महादेव से ही सम्भव है। महादेव को प्रसन्न करने में उनका अनुग्रह प्राप्त करने में क्षुद्र, निकम्मे एवं पतित स्तर के नर-पशु नहीं वरन् महामानव ही समर्थ होते हैं। संसार पर जब-जब विपत्तियाँ आई हैं, तब-तब महादेव की, महाकाल की सहायता अपेक्षित हुई है और उसे उपलब्ध करने में महामानव ही समर्थ हुए हैं। विपन्न परिस्थितियों में इन महा मानवों की अनिवार्य आवश्यकता होती है जो अपनी महत्ता से महादेव को प्रभावित कर उनका अनुग्रह प्राप्त कर सकने में सफल हो सकें। विपन्नताग्रस्त युग जब तक ऐसे महा-मानव पैदा नहीं करता तब तक उसका परिणाम भी सम्भव नहीं होता।

      प्राचीनकाल में राजा सगर के ६० हजार पुत्र अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप कपिल मुनि के शाप से शापित होकर जल मरे और उनकी चितायें अनन्त काल तक जलने के लिये, उन उद्धतों की आत्माओं को जलाने के लिये निरन्तर प्रज्ज्वलित रहने लगीं। इस प्रकार चिरकाल व्यतीत हो गया। कई पीढ़ियाँ बीत गयी, तब सगर वंश में एक महा-मानव जन्मा-भागीरथ। बालक भागीरथ थोड़ा समर्थ हुआ तो उसने अपने पितरों को इस प्रकार नरक की अग्नि में जलते देखा। वे उससे बहुत दुखी हुए और उनके परित्राण का उपाय सोचने लगे। व्यापक संकट निवारण का एक ही उपाय उन्हें बताया गया-तप। तप से ही महादेव प्रसन्न होते हैं और इस दैवी सहयोग से बड़े-बड़े कठिन कार्य सम्भव होते हैं। गंगा अवतरण जैसा कठिन कार्य तप से ही सम्भव हो सकता था। स्वर्ग से उतरकर गंगा की धारा जब पृथ्वी पर आती तभी सगर सुतों का उद्धार होना था। भागीरथ ने तपस्वी जीवन स्वीकार किया, वे स्वार्थ सिद्धि के लिये नहीं, परमार्थ प्रयोजन के लिये प्रचण्ड तप करने लगे। वास्तविक तप की परख धैर्य, निष्ठा दृढ़ता एवं अडिग संकल्प की कसौटी पर की जाती है। आवेश ग्रस्त उतावले लोग तुर्त-फुर्त बहुत कुछ पा लेने के लिये व्याकुल रहते हैं। अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति में तनिक भी विलम्ब या अवरोध उन्हें सहन नहीं होता। ऐसे छछोरे दैवी अनुग्रह के अधिकारी नहीं हो सकते, इस बात को भागीरथ जानते थे इसलिये उन्होंने अगणित विघ्न बाधाओं, अवरोधों और कठिनाइयों का सामना करते हुए चिरकाल तक अपनी सतत साधना जारी रखने का निश्चय किया। सो कालान्तर में इनका पुरुषार्थ सफल हुआ। स्वर्ग में रहने वाली गंगा पृथ्वी पर आने को सहमत हो गयी। भागीरथ ने तप द्वारा यह कठिन कार्य सम्भव बना दिया कि अज्ञान ग्रस्त संसार में स्वर्गीय ज्ञान-गंगा का अवतरण हो। अविवेक से समुत्पन्न अनाचार के दावानल में जलते हुए अगणित मानव-पुत्रों का उद्धार आखिर और कर भी कौन सकता है।

    अज्ञान ग्रस्त लोगों के मस्तिष्क में ज्ञान गरिमा प्रविष्ट करने का कार्य, सद्विचारों को फैलाने का आयोजन बड़ा दुरूह है। इसमें भयानक प्रतिक्रिया होती रही है। इसी प्रतिक्रिया की लपेट में सुकरात, ईसा, मंसूर, दयानन्द, गाँधी आदि न जाने कितनों को अपने प्राण खोने पड़े और न जाने कितनों को अपार यातनायें सहनी पड़ी। स्वर्ग से-ऊँचे से नीचे गिरते समय धारा जमीन में गड्ढा कर देती है और गड्ढा अपनी भयानकता से कुछ दुर्घटना घटित न कर दे इसलिये उसके लिये महाकाल-शिव की कृपा अनुग्रह अपेक्षित हुआ। तपस्वी भागीरथ ने वह भी प्राप्त कर लिया। गंगा शिव की जटाओं में उतरी और फिर वहाँ से पृथ्वी पर बह निकली। जलते हुए सगरसुतों का श्मशान, अशान्त संसार समाप्त हो गया। ज्ञान की गंगा जहाँ बहेगी, शान्ति क्यों न होगी ? भागीरथ की तपस्या का सत्परिणाम समस्त संसार को मिला सभी ने उन्हें सराहा।

       ऐसी ही एक घटना अतीत काल में और भी हुई थी। बारह वर्ष तक लगातार दुर्भिक्ष पड़ा। इन्द्र देव ने कुपित होकर दुष्ट दुरात्मा प्रजा-जनों के दुष्कमों का दण्ड देने के लिये उन्हें वर्षा का अनुदान देना बन्द कर दिया। पानी न बरसने से घास-पात, पेड़-पौधे, जलाशय सब सूख गये। अन्न उपजना बन्द हो गया। तृषित और क्षुधित प्राणी त्राहि-त्राहि करके प्राण त्यागने लगे। सर्वत्र हाहाकार मच गया। स्थिति असह्य हो गयी तो मनीषियों ने विचार किया कि आकाश से जलधारा का अवतरण कैसे हो ? निष्कर्ष यही निकला कि देवता तप और त्याग से ही प्रसन्न होते हैं। उनके कुपित होने का एक मात्र कारण प्रजाजनों का अनाचार है। यदि त्याग और तप की अवरुद्ध परम्परा पुन: प्रचलित हो उठे तो देवताओं का मन पिघलते देर न लगे और अभीष्ट वर्षा का अभाव सहज ही दूर हो जाय।

       धरती वालों ने उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की परम्पराओं को अपनाना-कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग पर चलना पुन: आरम्भ कर दिया है, देवताओं को इस बात का विश्वास दिलाने और प्रमाण देने की आवश्यकता पड़ी। इसके लिये नरमेध रचाया जाना था। बहुत दिन से बलि प्रथा बन्द हो गयी थी उसका नये सिरे से शुभारम्भ करना था। लोग हिचकिचा रहे थे, यज्ञीय बलि के लिये अपने को कौन प्रस्तुत करे ? पहला साहस कौन दिखाये ? प्रश्न चुनौती जैसा बनता जा रहा था, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। नरमेध का आयोजन हो न सकेगा, कोई अपनी बलि देगा नहीं, तब फिर बारह वर्ष से चले आ रहे दुर्भिक्ष का अन्त भी न होगा। नरमेध आयोजन की व्यवस्था सुनकर लोगों में जिस आशा का संचार हुआ था वह प्रमुख साधन बलिदान की व्यवस्था न बनने के कारण निराशा में परिणत होने लगी।

       सन्नाटे को चीरता हुआ एक व्यक्ति आगे बढ़ा-नाम था उनका-शुनिशेप। उसने यज्ञ के अध्वर्यु और ऋत्विजों को सम्बोधित करते हुए कहा-“यज्ञीय बलिदान के लिये सर्वप्रथम प्रस्तुत हूँ।’’ आशा की किरणें फूटीं, यज्ञ आयोजन आरम्भ हुआ, एक के बाद एक लोग बलि के लिये आगे बढ़ने लगे। परम्परा प्रचलित हुई तो आदमियों का ताँता लग गया। मनुष्यों की बदली मनोवृत्ति का परिचय पाकर आशुतोष शिव प्रसन्न हुए और उन्होने दुर्भिक्ष निवारण के लिये विपुल वर्षा की व्यवस्था कर दी। प्रणियों के दुःख दूर हुए और सर्वत्र सुख शान्ति भरे मोद-मंगल मनाये जाने लगे।

परिस्थिति आज भी ठीक उसी तरह की है। मनुष्यों ने अपनी नैतिक मर्यादायें छोड़ दी हैं, परमार्थ का उदार मानवीय दृष्टिकोण भुला दिया गया और हर कोई अपने व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थो की पूर्ति में वेतरह व्यस्त हो गया। इसके फलस्वरूप वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में असंख्य विकृतियाँ उलझनें और समस्यायें उत्पन्न होनी ही थीं और उनकी प्रतिक्रिया अगणित शोक-संतापों के रूप में ही उपस्थित हो सकती थी। आज साधनों का दुर्भिक्ष भले ही न हो भावनात्मक दुर्भिक्ष इतना विषम है कि नारकीय दावानल में जलते हुए प्राणी हर दिशा में हा-हाकार कर रहे हैं। महाकाल कुपित होकर कठोर प्रताड़ना का सरंजाम जुटाने में व्यस्त है।

      स्थिति को बदला कैसे जाय ? इसका एक ही उपाय है-लोग अपनी रीति-नीति बदले, भावनात्मक परिवर्तन करें और तौर-तरीके उलटें-स्वार्थ निमग्नता को परमार्थ प्रयोजनों की अभिरुचि में परिवर्तित करें। देवता ऐसी ही मनोभूमि के लोगों को प्यार प्रदान करते हैं, उन्हीं पर उनका अनुग्रह बरसता है। इस उदात्त दृष्टि एवं जीवन पद्धति का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ का मेरुदण्ड है-बलिदान। निरीह पशुओं का खून बहा डालना तो एक पैशाचिक कृत्य है। बलिदान का मर्म है परमार्थ के लिये अधिकाधिक आत्म-संयम और तप, त्याग का उदार परिचय-अपने लिये कम से कम रखकर अपनी क्षमता, योग्यता और समृद्धि का परमार्थ के लिये उत्सर्ग। यही मानवोचित पुण्य-परम्परा है। जब तक ऐसे यज्ञानुष्ठान घर-घर में होते रहते हैं, देवता प्रसन्न होकर विपुल सुख-शान्ति की वर्षा करते रहते हैं, पर जैसे ही लोगों ने यज्ञ से मुँह मोड़ा कि दैवी अनुग्रह की वर्षा बन्द हो जाती है। यज्ञ अग्निहोत्र को भी कहते हैं। अग्निहोत्र यज्ञीय परम्परा का एक प्रतीकात्मक पुण्य प्रदर्शन है। वास्तविक यज्ञ है-परमार्थ परायण जीवन जीने का निश्चय देवता यही चाहते हैं और यही करने वालों को विभूतियाँ प्रदान करते हैं। स्वार्थरत यज्ञ विरोधी लोग दैवी कोप के भाजन बनते हैं और उन्हें वस्तुओं का सही सुख-शान्ति भरी परिस्थितियों का असह्य दुर्भिक्ष अवश्य त्रास देता है। अस्तु परिस्थिति बदलने की योजना बनाने वालों को बलिदानों की व्यवस्था करनी होती है-नरमेध रचाने होते हैं। ऐसे आयोजन खड़े करने होते हैं जिनसे अधिकाधिक तप-त्याग करने की परम्परा प्रचलित हो सके। गाँधीजी अभी कुछ ही दिन पूर्व ऐसे नरमेध के ब्रह्मा रह चुके हैं, जिसमे हजारों-लाखों बलिदानियों ने बढ़-चढ़कर जौहर दिखाये थे। उस नरमेध से संतुष्ट हुए देवताओं ने भारत को हजार वर्ष की गुलामी से मुक्त किया और स्वाभिमानी, पुरुषार्थी लोगों की पंक्ति में बैठ सकने का अवसर प्रदान किया। यह एक कदम पूरा हुआ-यज्ञ का एक खण्ड चरण भी सम्पन्न हुआ। अभी दो चरण और शेष हैं। विश्व के भावनात्मक नव-निर्माण की आवश्यक पृष्ठभूमि की रचना और उसकी संघर्षात्मक स्थिति आने पर अधिक से अधिक बलिदान करने की तैयारी।

              इन पुण्य प्रयोजनों के लिये बातूनों और ढोंगियों की नहीं बलिदानियों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अभियान तैयार है, पर बलिदान का अवसर आते ही चतुर लोग बगलें झाँकते और बहाने बनाते दीख पड़ते हैं। किसी को फुरसत की कमी है, किसी की आर्थिक स्थिति खराब है, तो कोई तथाकथित झंझटों में फँसा है-वेचारा क्या करे ? धूर्त बहाने-बाज इस प्रकार अपनी आत्मा को धोखा देकर किसी प्रकार मन बहला सकते हैं, पर देवता तो असलियत जानते हैं। उन्हें तो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहिये कि धरती वालों ने बलिदानी परम्परायें अपनायी या नहीं ? इस प्रमाण के लिये आगे बढ़ने और साहस दिखाने से ही तो नरमेध पूरा हो सकता है और उसी से तो देवताओं का कोप अनुग्रह में बदल सकता है।

      आज फिर शुनिशेप आगे कदम बढ़ा सकें, बलिदानों की परम्परा पुन: प्रचलित हो सके तो वर्तमान विश्व संकट का समाधान हो सकता है। सगर के ६० हजार जलते हुए वेटे-भारत के ८० करोड़ नागरिक- विश्व की पाँच अरब प्रजा श्मशान में जलती हुई चिताओं जैसी जिन्दगी जी रहे हैं। इन्हें शान्ति प्रदान करने के लिये ज्ञान-गंगा का अवतरण आवश्यक है। गंगावतरण की सम्भावना विद्यमान है-पर भागीरथ नहीं। दुर्भिक्ष का अन्त कर विपुल वर्षा का सरंजाम नरमेध रचा पड़ा है, पर शुनिशेप अभी भी चुप्पी साधे बैठे हैं। न जाने कब तक गंगा को भागीरथों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, न जाने कब तक नरमेध का यज्ञकुण्ड बलिदानी शुनिशेपों की बाट जोहता रहेगा ?

    हम इस अभाव की पूर्ति कर सकें तो युग की एक महती आवश्यकता पूरी हो जाय। इतिहास को अपनी पुनरावृत्ति का अवसर मिल जाय।
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