
Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
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Language: HINDI
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आज की सबसे बडी़ बुद्धिमत्ता और लोक-सेवा
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आँधी, तूफान के समय जो पेड़ अकड़े खड़े रहते हैं वे अक्सर उखड़ जाते हैं किन्तु जो नम जाते हैं-झुक जाते हैं वे आसानी से बच जाते हैं। बेंत जैसे पौधे और गिलोय जैसी वेलें किसी भी आँधी-तूफान में अपना अस्तित्व इसलिये बचाये रखने में समर्थ होते हैं कि वे समय की गति को समझ कर अपनी रीति-नीति बदल देते हैं। आँधी का प्रवाह जिधर झुकने के लिये उन्हें विवश करता है उधर झुक जाते हैं?
वेशक आदर्शों को छोड़ने के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं हो सकता। पाप के साथ पटरी नहीं बिठायी जा सकती, पर इतना तो हो ही सकता है कि जहाँ अपनी भूल हो वहाँ दुराग्रह छोड़ दिया जाय। इतनी समझदारी तो बरतनी ही चाहिये कि जब तक दण्ड शिर पर आगरजे तब तक पैर रोककर चलने और हाथ रोककर करने की बात स्वीकारी जाय। चोर भी जब पकड़ा जाता है और अदालत के सामने लाया जाता है, तो सज्जनता और दीनता का इजहार करता है ताकि कठोर दण्ड से थोड़ा-बहुत बचाव संभव हो सके। महाकाल का कठोर दण्ड जब कि शिर पर आ पहुँचा है हमें चाहिये कि अपनी गतिविधियाँ बदल दें। उस दिशा में झुक जायें जिधर अगले ही दिन तकने के लिये सर्वसाधारण को विवश होना पड़ेगा। समय से पूर्व सम्भल जाना बुद्धिमानी है। जो सूर्योदय से पूर्व उठ बैठते हैं वे नफे में रहते हैं।
अब तक जो हो चुका सो हो चुका पर अब अविलम्ब हमें सुधारना और बदलना चाहिये, यह निष्कर्ष इस उद्बोधन का है जो भविष्य की सम्भावनाओं की चर्चाओं के साथ प्रस्तुत किया गया है। महाकाल समय पलट देने के लिये समुद्यत है। यह गन्दा और फूहड़ जमाना निकम्मा और नाकारा सिद्ध हो चुका है। जिस दिशा में हम चल रहे हैं वह दिन-दिन अधिकाधिक संकट उत्पन्न करती चली आई है और अब सर्वनाश की सम्भावना सामने आ खड़ी हुई है। ऐसी दशा में वापिस लौटने और दिशा बदलने के अतिरिक्त और कोई मार्ग़ नहीं। दुराग्रह पूर्वक यह रीति-नीति जारी रखी गयी तो मानवीय अस्तित्व को सुरक्षित रख सकना भी सम्भव न रह जायगा।
गर्मी आने पर भी जो जाड़े के गरम कपड़े धारण किये रहने का आग्रह करता है उसे नासमझ ही कहा जायगा। जब तक पोल चल सकती थी चल गयी पर अब जब कि मनुष्य जाति के भावनात्मक पुनर्निर्माण का सारा सरंजाम तैयार खड़ा है, तब पुराने ढर्रे पर अड़े रहने से कोई लाभ नहीं। नये युग में संकीर्ण स्वार्थपरता का लक्ष्य लेकर जीना और तृष्णा, वासना के गोरख-धन्धों में उलझे रहना शायद ही किसी अत्यन्त घृणित व्यक्ति के लिये सम्भव हो। आज तो यही लोक रीति है और सब इसी चाल-ढाल में मदमस्त हैं, पर कल तो यह सब आमूल-चूल बदलने वाला है। दौलत समेटने, अहंकार को पोसने और विलासिता के ठाठ-बाट जमाने की आज की लोक-नीति अगले कल एक अजायब घर की चीज बनने जा रही है। तब कोई इस ढर्रे पर न जियेगा। हर व्यक्ति अपने अन्तरंग जीवन में उत्कृष्टता और बाह्य जीवन में आदर्शवादिता का प्रश्रय देगा। इस प्रतिस्पर्द्धा में जो जितना आगे बढ़ सकेगा उसे उतना ही बड़ा आदमी-महामानव, श्रद्धास्पद एवं सम्मानास्पद माना जायेगा। संकीर्ण स्वार्थो की गन्दगी में लिपटे हुए लोग तो अस्पर्शों जैसे घृणित बने खड़े होगे। तब राई-रत्ती दान-पुण्य या कुछ कर्मकाण्ड पूरे करके कोई स्वर्ग मुक्ति के सपने न देखेगा वरन् जीवन को सांगोपांग रूप से उत्कृष्ट बनाने की जीवन साधना द्वारा ही आत्म-कल्याण की मंजिल पार किया करेगें।
उस नवयुग के आगमन की संभावना स्पष्ट है। आगामी विश्व- व्यापी उथल-पुथल, समग्र क्रान्ति, उसी को पूर्व सूचना, प्रसव पीड़ा है। अच्छा हो ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाकर हम चलें। आँधी- तूफानों से टकराने की अपेक्षा समय रहते अपने को झुका लें। जो अवश्यम्भाबी है, जो उचित है उसके अनुकूल चलना ही ठीक है। गायत्री परिवार में यही रीति-नीति अपनाने का अभ्यास डालने के लिये शत सूत्री युग निर्माण योजना का आविर्भाब हुआ है। उस आचार संहिता को अपना कर अपने भावनास्तर और क्रिया-कलाप को उस प्रकार का मोड़ दिया जा सकता है, जो नवयुग में हर किसी को शिरोधार्य स्वीकार करना पड़ेगा। परमार्थ में रुचि बढे़, लोक-मंगल में कुछ श्रम, समय लगे तो धीरे-धीरे उस प्रकार का अभ्यास हो जायेगा, जो नवयुग के अनुरूप, अनुकूल है। एकबारगी बदलना कठिन पड़ेगा इसलिये शुभारम्म आज से ही करना उपयुक्त है।
स्वयं तो हम बदलें ही दूसरे उन सबको भी बदलने की प्रेरणा दें, जिनको वस्तुत: प्यार करते हैं और हित चाहते हैं। स्त्री, पुत्र, भाई, भतीजे, कुटुम्बी सम्बन्धी, मित्र परिजन सभी को इस प्रकार की प्रेरणा करें कि सभी अपनी रीति-नीति सुधारें। यह कर्तव्य हमें इन दिनों अधिक तत्परता पूर्वक पालन करना चाहिये। क्योंकि महाकाल की भावी दण्ड व्यवस्था अन्धाधुन्ध नहीं सप्रयोजन है। यदि लोग बदल जाते हैं सुधर जाते हैं, तो उस क्रूर कर्म की विशेष आवश्यकता न रह जायगी। हमारा परिर्वन भावी आपत्तियों को टाल सकने में समर्थ हो सकता है। विश्व-मानव को आज सबसे बड़ी सेवा यही हो सकती है कि हम जन- साधारण को दुर्बुद्धि त्यागने और सन्मार्ग पर चलने के लिये रजामन्द करने का प्रयत्न करें। युग निर्माण योजना एक ऐसा ही व्यापक कार्यक्रम है। महाकाल की इच्छा भी पूरी हो जाय और हम काल दण्ड के प्रहारों से बच भी जाँय इसका यदि कोई उपाय हो सकता है तो वह युग निर्माण योजना के क्रियाकलापों के माध्यम से जन-मानस में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत कर देना ही होगा। वही आज का सबसे बड़ा परमार्थ है।
वेशक आदर्शों को छोड़ने के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं हो सकता। पाप के साथ पटरी नहीं बिठायी जा सकती, पर इतना तो हो ही सकता है कि जहाँ अपनी भूल हो वहाँ दुराग्रह छोड़ दिया जाय। इतनी समझदारी तो बरतनी ही चाहिये कि जब तक दण्ड शिर पर आगरजे तब तक पैर रोककर चलने और हाथ रोककर करने की बात स्वीकारी जाय। चोर भी जब पकड़ा जाता है और अदालत के सामने लाया जाता है, तो सज्जनता और दीनता का इजहार करता है ताकि कठोर दण्ड से थोड़ा-बहुत बचाव संभव हो सके। महाकाल का कठोर दण्ड जब कि शिर पर आ पहुँचा है हमें चाहिये कि अपनी गतिविधियाँ बदल दें। उस दिशा में झुक जायें जिधर अगले ही दिन तकने के लिये सर्वसाधारण को विवश होना पड़ेगा। समय से पूर्व सम्भल जाना बुद्धिमानी है। जो सूर्योदय से पूर्व उठ बैठते हैं वे नफे में रहते हैं।
अब तक जो हो चुका सो हो चुका पर अब अविलम्ब हमें सुधारना और बदलना चाहिये, यह निष्कर्ष इस उद्बोधन का है जो भविष्य की सम्भावनाओं की चर्चाओं के साथ प्रस्तुत किया गया है। महाकाल समय पलट देने के लिये समुद्यत है। यह गन्दा और फूहड़ जमाना निकम्मा और नाकारा सिद्ध हो चुका है। जिस दिशा में हम चल रहे हैं वह दिन-दिन अधिकाधिक संकट उत्पन्न करती चली आई है और अब सर्वनाश की सम्भावना सामने आ खड़ी हुई है। ऐसी दशा में वापिस लौटने और दिशा बदलने के अतिरिक्त और कोई मार्ग़ नहीं। दुराग्रह पूर्वक यह रीति-नीति जारी रखी गयी तो मानवीय अस्तित्व को सुरक्षित रख सकना भी सम्भव न रह जायगा।
गर्मी आने पर भी जो जाड़े के गरम कपड़े धारण किये रहने का आग्रह करता है उसे नासमझ ही कहा जायगा। जब तक पोल चल सकती थी चल गयी पर अब जब कि मनुष्य जाति के भावनात्मक पुनर्निर्माण का सारा सरंजाम तैयार खड़ा है, तब पुराने ढर्रे पर अड़े रहने से कोई लाभ नहीं। नये युग में संकीर्ण स्वार्थपरता का लक्ष्य लेकर जीना और तृष्णा, वासना के गोरख-धन्धों में उलझे रहना शायद ही किसी अत्यन्त घृणित व्यक्ति के लिये सम्भव हो। आज तो यही लोक रीति है और सब इसी चाल-ढाल में मदमस्त हैं, पर कल तो यह सब आमूल-चूल बदलने वाला है। दौलत समेटने, अहंकार को पोसने और विलासिता के ठाठ-बाट जमाने की आज की लोक-नीति अगले कल एक अजायब घर की चीज बनने जा रही है। तब कोई इस ढर्रे पर न जियेगा। हर व्यक्ति अपने अन्तरंग जीवन में उत्कृष्टता और बाह्य जीवन में आदर्शवादिता का प्रश्रय देगा। इस प्रतिस्पर्द्धा में जो जितना आगे बढ़ सकेगा उसे उतना ही बड़ा आदमी-महामानव, श्रद्धास्पद एवं सम्मानास्पद माना जायेगा। संकीर्ण स्वार्थो की गन्दगी में लिपटे हुए लोग तो अस्पर्शों जैसे घृणित बने खड़े होगे। तब राई-रत्ती दान-पुण्य या कुछ कर्मकाण्ड पूरे करके कोई स्वर्ग मुक्ति के सपने न देखेगा वरन् जीवन को सांगोपांग रूप से उत्कृष्ट बनाने की जीवन साधना द्वारा ही आत्म-कल्याण की मंजिल पार किया करेगें।
उस नवयुग के आगमन की संभावना स्पष्ट है। आगामी विश्व- व्यापी उथल-पुथल, समग्र क्रान्ति, उसी को पूर्व सूचना, प्रसव पीड़ा है। अच्छा हो ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाकर हम चलें। आँधी- तूफानों से टकराने की अपेक्षा समय रहते अपने को झुका लें। जो अवश्यम्भाबी है, जो उचित है उसके अनुकूल चलना ही ठीक है। गायत्री परिवार में यही रीति-नीति अपनाने का अभ्यास डालने के लिये शत सूत्री युग निर्माण योजना का आविर्भाब हुआ है। उस आचार संहिता को अपना कर अपने भावनास्तर और क्रिया-कलाप को उस प्रकार का मोड़ दिया जा सकता है, जो नवयुग में हर किसी को शिरोधार्य स्वीकार करना पड़ेगा। परमार्थ में रुचि बढे़, लोक-मंगल में कुछ श्रम, समय लगे तो धीरे-धीरे उस प्रकार का अभ्यास हो जायेगा, जो नवयुग के अनुरूप, अनुकूल है। एकबारगी बदलना कठिन पड़ेगा इसलिये शुभारम्म आज से ही करना उपयुक्त है।
स्वयं तो हम बदलें ही दूसरे उन सबको भी बदलने की प्रेरणा दें, जिनको वस्तुत: प्यार करते हैं और हित चाहते हैं। स्त्री, पुत्र, भाई, भतीजे, कुटुम्बी सम्बन्धी, मित्र परिजन सभी को इस प्रकार की प्रेरणा करें कि सभी अपनी रीति-नीति सुधारें। यह कर्तव्य हमें इन दिनों अधिक तत्परता पूर्वक पालन करना चाहिये। क्योंकि महाकाल की भावी दण्ड व्यवस्था अन्धाधुन्ध नहीं सप्रयोजन है। यदि लोग बदल जाते हैं सुधर जाते हैं, तो उस क्रूर कर्म की विशेष आवश्यकता न रह जायगी। हमारा परिर्वन भावी आपत्तियों को टाल सकने में समर्थ हो सकता है। विश्व-मानव को आज सबसे बड़ी सेवा यही हो सकती है कि हम जन- साधारण को दुर्बुद्धि त्यागने और सन्मार्ग पर चलने के लिये रजामन्द करने का प्रयत्न करें। युग निर्माण योजना एक ऐसा ही व्यापक कार्यक्रम है। महाकाल की इच्छा भी पूरी हो जाय और हम काल दण्ड के प्रहारों से बच भी जाँय इसका यदि कोई उपाय हो सकता है तो वह युग निर्माण योजना के क्रियाकलापों के माध्यम से जन-मानस में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत कर देना ही होगा। वही आज का सबसे बड़ा परमार्थ है।