Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
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Language: HINDI
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स्थूल शरीर का परिष्कार - कर्म योग से
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स्थूल शरीर कुकर्म करने से असुरता के गर्त में गिरता है और सत्कर्म करने से उसे स्वर्गीय सुख-शान्ति का अनुभव होता है। अस्तु कुकर्मों से विरत कर सत्कर्मों के लिये प्रेरणा देना और पथ प्रशस्त करने के लिये कर्मयोग की सौम्य साधना पद्धति आप्त पुरुषों ने विनिर्मित की है।
कर्म यदि ठीक तरह से किया जाय तो एक प्रकार से वह ईश्वर की पूजा का उत्कृष्ट उपकरण है पर यदि उसमें स्वार्थपरता उपेक्षा, अहंकृति, विकृति जैसे निकृष्ट तत्वों का समावेश हो तो फिर वही कुकर्म बन जाता है। मोटी दृष्टि से भले-बुरे कर्मों का वर्गीकरण किया जाता है जैसे चोरी, झूँठ, छल, व्यभिचार, उत्पीड़न, अनाचार, उत्तरदायित्व की अवहेलना आदि पाप और दया, दान, सत्य, सदाचार, सेवा, संयम आदि पुण्य कहे जाते हैं। पर इनकी वास्तविकता जाननी हो तो कर्त्ता की भावना का पता लगाना होगा। वस्तुत: जो कर्म जिस भावना से किया जाता है उसके अनुरूप उसका तात्विक स्वरूप बनता है और उसी आधार पर परिणाम उत्पन्न होता है। साधुता का दम्भ बनाये अनेक व्यक्ति भीतर-भीतर दुष्टता करते रहते हैं। नेता, धर्मोपदेशक, सन्त-महन्त आदि में से कितने ही बाहर से ऐसी कार्य पद्धति अपनाये होते हैं जिससे उनके धर्मात्मा होने का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है गहराई में देखने पर उनमें से कितनों ही के भीतर धूर्तता भरी पायी जाती है। ऐसी दशा में उनके बाहर से उत्तम दीखने पर भी उनके निज के लिये तथा दूसरों के लिये अन्ततः दुष्परिणाम ही उन्न्त करेंगे। इसी प्रकार कई बुरे दीखने वाले और पाप प्रतीत होने वाले कार्य भी यदि निस्वार्थ भावना से, लोकमंगल की दृष्टि से किये गये हैं तो वे तत्वत: पुण्य ही कहे जायेंगे। जज का फाँसी का हुक्म सुनाना, जल्लाद का फाँसी देना, बाहर से देखने में हिंसा जैसे हेय प्रतीत होते हैं पर वस्तुत: उनके पीछे समाज व्यवस्था और न्याय रक्षा की दृष्टि होने से वे दोनों ही न केवल निर्दोष हैं वरन् कठोर कर्तव्य साहसपूर्वक करने की दृष्टि से पुण्यात्मा और प्रशंसनीय भी हैं।
दैनिक जीवन में आजीविका उपार्जन, परिवार पोषण जैसे उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिये जो साधारण काम-काज हमें करने पड़ते हैं, उनमें कर्तव्य धर्म का लोक-मंगल का दृष्टिकोण समन्वित रहे तो वे ही मामूली दीखने वाले काम-काज पुण्य परमार्थ बन सकते हैं और साधारण जीवन क्रम सहयोग की साधना का आध्यात्मिक प्रयोग सिद्ध हो सकता है। बन्धन, भार और पाप तो वे कार्य बनते हैं, जिनमें स्वार्थ का दृष्टिकोण और अनीति का समन्वय होने पर ही मनुष्य अनीति बर्तने लगता है और तृष्णा, लालसा एवं ममता अहंता की लालसायें ही उसे अनुचित कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। यदि अपना दृष्टिकोण साफ हो, जो भी करना है कर्तव्य धर्म पालन करने के लिये औचित्य की रक्षा के लिये-मानवीय मर्यादाओं के अनुरूप करना है, यह मान्यता रखकर जो कार्य किये जायेगे वे प्राय: पुण्य ही होंगे। कर्मयोग का दृष्टिकोण अनुचित कुकर्मो की सम्भावना को समाप्त कर देता है। जो पाप नहीं वह पुण्य ही तो होगा। निरन्तर पुण्य करते रहने वाले की आन्तरिक प्रगति अन्तत: देवत्व की ओर ही होगी।
सामान्य काम-काज में उत्कृष्टता का दृष्टिकोण समाविष्ट रखना यही कर्मयोग है। कर्मयोग की साधना का अभ्यास करने के लिये परिजनों को एक मंत्र दिया गया है-
‘‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत।’’
प्रातःकाल आँख खुलते ही बिस्तर छोड़ने से पूर्व चारपाई पर पड़े-पड़े ही इस मन्त्र को मन ही मन दुहराना चाहिये और भावना करनी चाहिये कि आज का दिन हमें एक नये जन्म के रूप में मिला है। वस्तुत: निद्रा और जागरण, मृत्यु और जन्म का ही एक छोटा नमूना है। उसमें असत्य भी कुछ नहीं। सचमुच की मृत्यु भी एक लम्बी रात की गहरी नींद मात्र ही है। हर दिन को एक जन्म कहा जाय तो ऊपर से ही हँसी की बात लगती है, वस्तुत: वह एक स्थिर सचाई है। अतएव इस मान्यता में अत्युक्ति अथवा निराधार कल्पना जैसी भी कोई बात नहीं है।
आज का नया जन्म अपने लिये एक अनमोल अवसर है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के बाद एक बार मनुष्य शरीर मिलता है, उसका सदुपयोग कर लेना ही शास्त्रकारों ने सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता मानी है। अस्तु हमें प्रातःकाल चारपाई पर पड़े-पड़े ही विचारना चाहिये कि आज का दिन अनमोल अवसर है उसे अधिक से अधिक उत्कृष्टता के साथ व्यतीत करना चाहिये। कोई भूल, उपेक्षा, अनीति, दुर्बुद्धि उसमें न रहे। आदर्शवादिता का सद्भावना और सदाशयता का उसमें अधिकाधिक समावेश रहे, ऐसा दिन भर का कार्यक्रम बनाकर तैयार किया जाय।
आमतौर से आलस्य, ढोल-पोल, शिथिलता में हमारा अधिक से अधिक समय बर्बाद होता है। तत्परता, स्कूर्ति, परिश्रम और दिलचस्पी के साथ करने पर जो कार्य एक घण्टे में हो सकता है उसी को अधिकतर लोग दो-दो, चार-चार घण्टे में पूरा करते हैं। आलस्य, अधूरामन, मंदगति, रुक-रुककर शिथिलतापूर्वक काम करने और ऐसे-वैसे ज्यों-त्यों वेकार बहुत-सा समय गुजार देने की आदत बहुतों की होती है और उनका आधा जीवन प्राय: इस आलस्य प्रमाद में बर्बाद हो जाता है। यह बुरी आदत संभव है थोड़ी बहुत मात्रा में अपने भीतर भी हो, उसे बारीकी से तलाश करना चाहिये और निश्चय करना चाहिये कि आज हर काम पूरी तत्परता और फौजी उत्साह के साथ करेगे। समय ही जीवन है। वही ईश्वर प्रदत्त हमारी एकमात्र सम्पत्ति है। समय का सदुपयोग करके ही हम अभीष्ट आकांक्षा पूर्ण करने और मंगलमयी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने में सफल हो सकते हैं। समय की बर्बादी एक प्रकार की मन्द आत्महत्या है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनमें से प्रत्येक ने अपने समय का एक-एक क्षण ठीक तरह उपयोग करके ही अभीष्ट सफलतायें प्राप्त की हैं इसलिये आज समय के सदुपयोग को, एक-एक पल भी बर्बाद न होने की, आलस्य शिथिलता एवं अन्यमनस्कता से लड़ने की पूरी तैयारी करनी चाहिये और दिन भर के समय विभाजन की दिनचर्या ऐसी बनानी चाहिये जिसमें वक्त की बर्बादी की तनिक भी गुञ्जायश न रहे। जो आवश्यक काम पिछले कई दिनों से टलते आ रहे हो जिनकी उपयोगिता अधिक हो, उन सबको सुविधा हो तो आज ही करने के लिये नियत कर लेना चाहिये। दिनचर्या ऐसी बने जो सुविधाजनक भी हो और सुसंतुलित भी। अति उत्साह में ऐसा कार्यक्रम न बना लिया जाय जिसको पूरा कर सकना ही कठिन पड़ जाय।
शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ मानसिक क्रिया पद्धति भी निर्धारित करनी चाहिये। किस कार्य को किस भावना के साथ करना है इसकी रूपरेखा मस्तिष्क में पहले से ही निश्चित रहनी चाहिये। समय-समय पर बड़े ओछे संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण हेय विचार मन में उठते रहते हैं। सोचना चाहिये कि आज किस अवसर पर किस प्रकार का अनुपयुक्त विचार उठने की सम्भावना है उस अवसर के लिये विरोधी विचारों के शस्त्र पहले से हो तैयार कर लिये जायें।
आरम्भ में बुरे विचारों को उठने से रोक सकना कठिन है। हाँ जब वे उठें तो उन्हें ठीक विरोधी विचारधारा पैदा करके काटा जा सकता है। लोहे से लोहा कटता है। विचारों से विचार भी काटे जा सकते हैं। कामुकता के अश्लील विचार यदि किसी नारी के प्रति उठ रहे हैं तो उसे अपनी वेटी, बहिन, भानजी आदि के रिश्ते में सोचने की, सफेद चमड़ी के भीतर मल-मूत्र, रक्त-मांस की घृणित दुर्गंध भरी होने की कल्पना करके उनका शमन किया जा सकता है। आवेश, उत्तेजना, क्रोध उतावली की बुरी आदतें कइयों की होती हैं जब वैसे अवसर आयें तब गम्भीरता, धैर्य, दूरदर्शिता, सज्जनता, शान्ति जैसे विचार अपने में उस समय तत्काल उठाने की तैयारी करनी चाहिये।
प्रातःकाल चारपाई पर पड़े-पड़े दिन भर के समय विभाजन तथा विचार संघर्घ की योजना बनानी चाहिये और ऐसी दिनचर्या तैयार करनी चाहिये जिसमें शरीर से ठीक तरह कर्तव्य पालन और मन में ठीक तरह सद्भाव चिन्तन होता रहे। इस कार्य के लिये पन्द्रह मिनट से लेकर आधा घण्टे का समय पर्याप्त होना चाहिये। इतने में खुमारी भी दूर हो जाती है और बिस्तर छोड़ने के लिये आवश्यक स्कूर्ति भी आ जाती है। उस निर्धारित दिनचर्या को कागज पर नोट कर लेना चाहिये और सयम-समय पर जाँचते रहना चाहिये कि निर्धारण के अनुरूप कार्यक्रम चल रहा है या नहीं। जहाँ भी चूक होती हो वहीं उसे तुरन्त सुधारना चाहिये। यदि सतर्कता पूर्वक दिनचर्या के पालन का ध्यान रखा जाय, शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद से पग-पग पर लड़ते रहा जाय तो प्रातःकाल की निर्धारित योजना रात को सोते समय तक ठीक ही चलती रहेगी।
इस प्रकार हर दिन नया जन्म वाले मन्त्र का आधा भाग रात को सोते समय तक पूरा होता रहना चाहिऐ। हर घड़ी अपने को सतर्क सक्रिय, जागरूक रखा जाय, उत्कृष्टता का जीवन में अधिकाधिक समावेश करने के लिये प्रयत्न किया जाय तो निस्संदेह वह दिन पिछले अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक संतोषप्रद अधिक गौरवास्पद होगा। इस प्रकार हर दिन पिछले दिन को तुलना में अपेक्षाकृत अधिक आदर्श बनता चला जायेगा और कर्मयोग के तत्वदर्शन में हमारी जीवन पद्धति ढलती चली जायगी।
अब मन्त्र का आधा भाग प्रयुक्त करने का अवसर आता है- ‘‘हर रात नई मौत” इस भावना को रात्रि में सोते समय प्रयुक्त करना चाहिये। सब कामों से निवृत्त होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घड़ी आये तब कल्पना करनी चाहिये कि “एक सुन्दर नाटक का पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है। आज का दिन अपने को अभिनय करने के लिये मिला था सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गयी उन्हें याद रखेगे और अगले दिन वैसी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेगे।” ‘‘अनेक वस्तुयें इस अभिनय में प्रयोग करने को मिली अनेक साथियों का साथ रहा। उनका सान्निध्य एवं उपयोग जितना आवश्यक था कर लिया गया, अब यथासमय छोड़कर पूर्ण शान्ति के साथ अपनी आश्रय दात्री माता निद्रा-मृत्यु-की गोद में निश्चिन्त होकर शयन करते हैं।”
इस भावना में वैराग्य का अभ्यास है। अनासक्ति का प्रयोग है। उपलब्ध वस्तुओं में से एक भी अपनी नहीं, साथी व्यक्तियों में से एक भी अपना नहीं। वे सब अपने परमेश्वर के और अपने कर्तृत्व की उपज हैं। हमारा न किसी पर अधिकार है न स्वामित्व। हर पदार्थ और हर प्राणी के साथ कर्तव्य बुद्धि से ठीक प्रकार व्यवहार कर लिया जाय, यही अपने लिये उचित है। इससे अधिक मोह-ममता के बन्धन बाँधना, स्वामित्व और अधिकार की अहंता जोड़ना निरर्थक है। अपना तो यह शरीर भी नहीं, कल-परसों इसे धूलि बनकर उड़ जाना है। तब जो सम्पदा, प्रयोग सामग्री, पद, परिस्थिति, उपलब्ध है उस पर अपना स्वामित्व जमाने का क्या हक ? अनेक प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अपने कर्म भोगों को भुगतते अनेकों के साथ आये दिन संयोग-वियोग करते रहते हैं। अपने साथ भी आज कितने ही प्राणी एक सज्जन साथी की तरह ? रह रहे हैं इनके लिये कर्तव्य धर्म का ठीक तरह पालन किया जाय इतना ही पर्याप्त है। उनसे अनावश्यक ममता जोड़कर ऐसा कुछ न किया जाय जिससे अनुचित पाप कर्मों में संलग्न होना पड़े।
यह विवेक हमें रात को सोते समय जागृत करना चाहिये और अनुभव करना चाहिये कि अहंता और ममता के बन्धन तोड़कर एकात्म भाव से भगवान् की मंगलमय गोदी, निद्रा-मृत्यु में परम शान्ति और सन्तोषपूर्वक निमग्न हुआ जा रहा है।
इस प्रकार की मनोभूमि का विकास होने से जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रगति होने की संभावना रहती है। इस प्रकार की भावना बनी रहने से मनुष्य माया-मोह के हानिकारक बन्धनों से अधिकांश में विमुक्त रहता है और आत्मोद्धार का वास्तविक लक्ष्य उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होने पाता। इस प्रकार जो साधक जीवन के वास्तविक लक्ष्य को हस्तगत कर लेता है उसको फिर व्यर्थ के जंजाल में नहीं फँसना पड़ता।
किसी दिन सचमुच ही मृत्यु आ जाय तो इन परिपक्व वैराग्य भावनाओं के आधार पर बिना भय और उद्वेग के शान्तिपूर्वक विदा होते हुए मरणोत्तर जीवन में परम शान्ति का अधिकारी बना जा सकता है। यह भावना लोभ और मोह की जड़ काटती है। कुकर्म प्राय: इन्हीं दो आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बन पड़ते हैं। हर रात्रि को एक मृत्यु मानने से लोभ और मोह का निराकरण और हर दिन को नया जन्म मानने से जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का समावेश करने की प्रेरणा मिलती है। यही प्रेरणा कर्म योग की आधार शिला है।
हममें से प्रत्येक को ‘‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत” के भाव-मन्त्र की साधना करनी चाहिये। इससे स्थूल शरीर में कर्म योग का समावेश इस क्षेत्र में होगा और देवत्व के जागरण की एक महती आवश्यकता पूरी करने का सरल मार्ग उपलब्ध होगा।
कर्म यदि ठीक तरह से किया जाय तो एक प्रकार से वह ईश्वर की पूजा का उत्कृष्ट उपकरण है पर यदि उसमें स्वार्थपरता उपेक्षा, अहंकृति, विकृति जैसे निकृष्ट तत्वों का समावेश हो तो फिर वही कुकर्म बन जाता है। मोटी दृष्टि से भले-बुरे कर्मों का वर्गीकरण किया जाता है जैसे चोरी, झूँठ, छल, व्यभिचार, उत्पीड़न, अनाचार, उत्तरदायित्व की अवहेलना आदि पाप और दया, दान, सत्य, सदाचार, सेवा, संयम आदि पुण्य कहे जाते हैं। पर इनकी वास्तविकता जाननी हो तो कर्त्ता की भावना का पता लगाना होगा। वस्तुत: जो कर्म जिस भावना से किया जाता है उसके अनुरूप उसका तात्विक स्वरूप बनता है और उसी आधार पर परिणाम उत्पन्न होता है। साधुता का दम्भ बनाये अनेक व्यक्ति भीतर-भीतर दुष्टता करते रहते हैं। नेता, धर्मोपदेशक, सन्त-महन्त आदि में से कितने ही बाहर से ऐसी कार्य पद्धति अपनाये होते हैं जिससे उनके धर्मात्मा होने का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है गहराई में देखने पर उनमें से कितनों ही के भीतर धूर्तता भरी पायी जाती है। ऐसी दशा में उनके बाहर से उत्तम दीखने पर भी उनके निज के लिये तथा दूसरों के लिये अन्ततः दुष्परिणाम ही उन्न्त करेंगे। इसी प्रकार कई बुरे दीखने वाले और पाप प्रतीत होने वाले कार्य भी यदि निस्वार्थ भावना से, लोकमंगल की दृष्टि से किये गये हैं तो वे तत्वत: पुण्य ही कहे जायेंगे। जज का फाँसी का हुक्म सुनाना, जल्लाद का फाँसी देना, बाहर से देखने में हिंसा जैसे हेय प्रतीत होते हैं पर वस्तुत: उनके पीछे समाज व्यवस्था और न्याय रक्षा की दृष्टि होने से वे दोनों ही न केवल निर्दोष हैं वरन् कठोर कर्तव्य साहसपूर्वक करने की दृष्टि से पुण्यात्मा और प्रशंसनीय भी हैं।
दैनिक जीवन में आजीविका उपार्जन, परिवार पोषण जैसे उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिये जो साधारण काम-काज हमें करने पड़ते हैं, उनमें कर्तव्य धर्म का लोक-मंगल का दृष्टिकोण समन्वित रहे तो वे ही मामूली दीखने वाले काम-काज पुण्य परमार्थ बन सकते हैं और साधारण जीवन क्रम सहयोग की साधना का आध्यात्मिक प्रयोग सिद्ध हो सकता है। बन्धन, भार और पाप तो वे कार्य बनते हैं, जिनमें स्वार्थ का दृष्टिकोण और अनीति का समन्वय होने पर ही मनुष्य अनीति बर्तने लगता है और तृष्णा, लालसा एवं ममता अहंता की लालसायें ही उसे अनुचित कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। यदि अपना दृष्टिकोण साफ हो, जो भी करना है कर्तव्य धर्म पालन करने के लिये औचित्य की रक्षा के लिये-मानवीय मर्यादाओं के अनुरूप करना है, यह मान्यता रखकर जो कार्य किये जायेगे वे प्राय: पुण्य ही होंगे। कर्मयोग का दृष्टिकोण अनुचित कुकर्मो की सम्भावना को समाप्त कर देता है। जो पाप नहीं वह पुण्य ही तो होगा। निरन्तर पुण्य करते रहने वाले की आन्तरिक प्रगति अन्तत: देवत्व की ओर ही होगी।
सामान्य काम-काज में उत्कृष्टता का दृष्टिकोण समाविष्ट रखना यही कर्मयोग है। कर्मयोग की साधना का अभ्यास करने के लिये परिजनों को एक मंत्र दिया गया है-
‘‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत।’’
प्रातःकाल आँख खुलते ही बिस्तर छोड़ने से पूर्व चारपाई पर पड़े-पड़े ही इस मन्त्र को मन ही मन दुहराना चाहिये और भावना करनी चाहिये कि आज का दिन हमें एक नये जन्म के रूप में मिला है। वस्तुत: निद्रा और जागरण, मृत्यु और जन्म का ही एक छोटा नमूना है। उसमें असत्य भी कुछ नहीं। सचमुच की मृत्यु भी एक लम्बी रात की गहरी नींद मात्र ही है। हर दिन को एक जन्म कहा जाय तो ऊपर से ही हँसी की बात लगती है, वस्तुत: वह एक स्थिर सचाई है। अतएव इस मान्यता में अत्युक्ति अथवा निराधार कल्पना जैसी भी कोई बात नहीं है।
आज का नया जन्म अपने लिये एक अनमोल अवसर है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के बाद एक बार मनुष्य शरीर मिलता है, उसका सदुपयोग कर लेना ही शास्त्रकारों ने सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता मानी है। अस्तु हमें प्रातःकाल चारपाई पर पड़े-पड़े ही विचारना चाहिये कि आज का दिन अनमोल अवसर है उसे अधिक से अधिक उत्कृष्टता के साथ व्यतीत करना चाहिये। कोई भूल, उपेक्षा, अनीति, दुर्बुद्धि उसमें न रहे। आदर्शवादिता का सद्भावना और सदाशयता का उसमें अधिकाधिक समावेश रहे, ऐसा दिन भर का कार्यक्रम बनाकर तैयार किया जाय।
आमतौर से आलस्य, ढोल-पोल, शिथिलता में हमारा अधिक से अधिक समय बर्बाद होता है। तत्परता, स्कूर्ति, परिश्रम और दिलचस्पी के साथ करने पर जो कार्य एक घण्टे में हो सकता है उसी को अधिकतर लोग दो-दो, चार-चार घण्टे में पूरा करते हैं। आलस्य, अधूरामन, मंदगति, रुक-रुककर शिथिलतापूर्वक काम करने और ऐसे-वैसे ज्यों-त्यों वेकार बहुत-सा समय गुजार देने की आदत बहुतों की होती है और उनका आधा जीवन प्राय: इस आलस्य प्रमाद में बर्बाद हो जाता है। यह बुरी आदत संभव है थोड़ी बहुत मात्रा में अपने भीतर भी हो, उसे बारीकी से तलाश करना चाहिये और निश्चय करना चाहिये कि आज हर काम पूरी तत्परता और फौजी उत्साह के साथ करेगे। समय ही जीवन है। वही ईश्वर प्रदत्त हमारी एकमात्र सम्पत्ति है। समय का सदुपयोग करके ही हम अभीष्ट आकांक्षा पूर्ण करने और मंगलमयी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने में सफल हो सकते हैं। समय की बर्बादी एक प्रकार की मन्द आत्महत्या है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनमें से प्रत्येक ने अपने समय का एक-एक क्षण ठीक तरह उपयोग करके ही अभीष्ट सफलतायें प्राप्त की हैं इसलिये आज समय के सदुपयोग को, एक-एक पल भी बर्बाद न होने की, आलस्य शिथिलता एवं अन्यमनस्कता से लड़ने की पूरी तैयारी करनी चाहिये और दिन भर के समय विभाजन की दिनचर्या ऐसी बनानी चाहिये जिसमें वक्त की बर्बादी की तनिक भी गुञ्जायश न रहे। जो आवश्यक काम पिछले कई दिनों से टलते आ रहे हो जिनकी उपयोगिता अधिक हो, उन सबको सुविधा हो तो आज ही करने के लिये नियत कर लेना चाहिये। दिनचर्या ऐसी बने जो सुविधाजनक भी हो और सुसंतुलित भी। अति उत्साह में ऐसा कार्यक्रम न बना लिया जाय जिसको पूरा कर सकना ही कठिन पड़ जाय।
शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ मानसिक क्रिया पद्धति भी निर्धारित करनी चाहिये। किस कार्य को किस भावना के साथ करना है इसकी रूपरेखा मस्तिष्क में पहले से ही निश्चित रहनी चाहिये। समय-समय पर बड़े ओछे संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण हेय विचार मन में उठते रहते हैं। सोचना चाहिये कि आज किस अवसर पर किस प्रकार का अनुपयुक्त विचार उठने की सम्भावना है उस अवसर के लिये विरोधी विचारों के शस्त्र पहले से हो तैयार कर लिये जायें।
आरम्भ में बुरे विचारों को उठने से रोक सकना कठिन है। हाँ जब वे उठें तो उन्हें ठीक विरोधी विचारधारा पैदा करके काटा जा सकता है। लोहे से लोहा कटता है। विचारों से विचार भी काटे जा सकते हैं। कामुकता के अश्लील विचार यदि किसी नारी के प्रति उठ रहे हैं तो उसे अपनी वेटी, बहिन, भानजी आदि के रिश्ते में सोचने की, सफेद चमड़ी के भीतर मल-मूत्र, रक्त-मांस की घृणित दुर्गंध भरी होने की कल्पना करके उनका शमन किया जा सकता है। आवेश, उत्तेजना, क्रोध उतावली की बुरी आदतें कइयों की होती हैं जब वैसे अवसर आयें तब गम्भीरता, धैर्य, दूरदर्शिता, सज्जनता, शान्ति जैसे विचार अपने में उस समय तत्काल उठाने की तैयारी करनी चाहिये।
प्रातःकाल चारपाई पर पड़े-पड़े दिन भर के समय विभाजन तथा विचार संघर्घ की योजना बनानी चाहिये और ऐसी दिनचर्या तैयार करनी चाहिये जिसमें शरीर से ठीक तरह कर्तव्य पालन और मन में ठीक तरह सद्भाव चिन्तन होता रहे। इस कार्य के लिये पन्द्रह मिनट से लेकर आधा घण्टे का समय पर्याप्त होना चाहिये। इतने में खुमारी भी दूर हो जाती है और बिस्तर छोड़ने के लिये आवश्यक स्कूर्ति भी आ जाती है। उस निर्धारित दिनचर्या को कागज पर नोट कर लेना चाहिये और सयम-समय पर जाँचते रहना चाहिये कि निर्धारण के अनुरूप कार्यक्रम चल रहा है या नहीं। जहाँ भी चूक होती हो वहीं उसे तुरन्त सुधारना चाहिये। यदि सतर्कता पूर्वक दिनचर्या के पालन का ध्यान रखा जाय, शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद से पग-पग पर लड़ते रहा जाय तो प्रातःकाल की निर्धारित योजना रात को सोते समय तक ठीक ही चलती रहेगी।
इस प्रकार हर दिन नया जन्म वाले मन्त्र का आधा भाग रात को सोते समय तक पूरा होता रहना चाहिऐ। हर घड़ी अपने को सतर्क सक्रिय, जागरूक रखा जाय, उत्कृष्टता का जीवन में अधिकाधिक समावेश करने के लिये प्रयत्न किया जाय तो निस्संदेह वह दिन पिछले अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक संतोषप्रद अधिक गौरवास्पद होगा। इस प्रकार हर दिन पिछले दिन को तुलना में अपेक्षाकृत अधिक आदर्श बनता चला जायेगा और कर्मयोग के तत्वदर्शन में हमारी जीवन पद्धति ढलती चली जायगी।
अब मन्त्र का आधा भाग प्रयुक्त करने का अवसर आता है- ‘‘हर रात नई मौत” इस भावना को रात्रि में सोते समय प्रयुक्त करना चाहिये। सब कामों से निवृत्त होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घड़ी आये तब कल्पना करनी चाहिये कि “एक सुन्दर नाटक का पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है। आज का दिन अपने को अभिनय करने के लिये मिला था सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गयी उन्हें याद रखेगे और अगले दिन वैसी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेगे।” ‘‘अनेक वस्तुयें इस अभिनय में प्रयोग करने को मिली अनेक साथियों का साथ रहा। उनका सान्निध्य एवं उपयोग जितना आवश्यक था कर लिया गया, अब यथासमय छोड़कर पूर्ण शान्ति के साथ अपनी आश्रय दात्री माता निद्रा-मृत्यु-की गोद में निश्चिन्त होकर शयन करते हैं।”
इस भावना में वैराग्य का अभ्यास है। अनासक्ति का प्रयोग है। उपलब्ध वस्तुओं में से एक भी अपनी नहीं, साथी व्यक्तियों में से एक भी अपना नहीं। वे सब अपने परमेश्वर के और अपने कर्तृत्व की उपज हैं। हमारा न किसी पर अधिकार है न स्वामित्व। हर पदार्थ और हर प्राणी के साथ कर्तव्य बुद्धि से ठीक प्रकार व्यवहार कर लिया जाय, यही अपने लिये उचित है। इससे अधिक मोह-ममता के बन्धन बाँधना, स्वामित्व और अधिकार की अहंता जोड़ना निरर्थक है। अपना तो यह शरीर भी नहीं, कल-परसों इसे धूलि बनकर उड़ जाना है। तब जो सम्पदा, प्रयोग सामग्री, पद, परिस्थिति, उपलब्ध है उस पर अपना स्वामित्व जमाने का क्या हक ? अनेक प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अपने कर्म भोगों को भुगतते अनेकों के साथ आये दिन संयोग-वियोग करते रहते हैं। अपने साथ भी आज कितने ही प्राणी एक सज्जन साथी की तरह ? रह रहे हैं इनके लिये कर्तव्य धर्म का ठीक तरह पालन किया जाय इतना ही पर्याप्त है। उनसे अनावश्यक ममता जोड़कर ऐसा कुछ न किया जाय जिससे अनुचित पाप कर्मों में संलग्न होना पड़े।
यह विवेक हमें रात को सोते समय जागृत करना चाहिये और अनुभव करना चाहिये कि अहंता और ममता के बन्धन तोड़कर एकात्म भाव से भगवान् की मंगलमय गोदी, निद्रा-मृत्यु में परम शान्ति और सन्तोषपूर्वक निमग्न हुआ जा रहा है।
इस प्रकार की मनोभूमि का विकास होने से जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रगति होने की संभावना रहती है। इस प्रकार की भावना बनी रहने से मनुष्य माया-मोह के हानिकारक बन्धनों से अधिकांश में विमुक्त रहता है और आत्मोद्धार का वास्तविक लक्ष्य उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होने पाता। इस प्रकार जो साधक जीवन के वास्तविक लक्ष्य को हस्तगत कर लेता है उसको फिर व्यर्थ के जंजाल में नहीं फँसना पड़ता।
किसी दिन सचमुच ही मृत्यु आ जाय तो इन परिपक्व वैराग्य भावनाओं के आधार पर बिना भय और उद्वेग के शान्तिपूर्वक विदा होते हुए मरणोत्तर जीवन में परम शान्ति का अधिकारी बना जा सकता है। यह भावना लोभ और मोह की जड़ काटती है। कुकर्म प्राय: इन्हीं दो आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बन पड़ते हैं। हर रात्रि को एक मृत्यु मानने से लोभ और मोह का निराकरण और हर दिन को नया जन्म मानने से जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का समावेश करने की प्रेरणा मिलती है। यही प्रेरणा कर्म योग की आधार शिला है।
हममें से प्रत्येक को ‘‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत” के भाव-मन्त्र की साधना करनी चाहिये। इससे स्थूल शरीर में कर्म योग का समावेश इस क्षेत्र में होगा और देवत्व के जागरण की एक महती आवश्यकता पूरी करने का सरल मार्ग उपलब्ध होगा।