Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
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Language: HINDI
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कसौटी के लिये तैयार रहें
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तैयारियाँ हर कार्य के लिये की जाती हैं, पर युद्धस्तरीय तैयारी कुछ और ही होती है। युद्ध के लिये हर स्तर पर विशेष व्यवस्थायें कीजाती हैं। सामान्य क्रम से कुछ अधिक तत्परता आवश्यक हो जाती है। युग संधि वेला के रूप में यह परिवर्तन प्रक्रिया भी अपनी असामान्य माँग प्रस्तुत करती है।
युग परिवर्तन की संधि वेलायें लम्बे समय के बाद कभी-कभी ही आती हैं, सामान्य काल में सामान्य परिस्थितियाँ चलती रहती हैं और लोगों का जीवन ढर्रा भी सामान्य रीति से ही चलता रहता है पर जब असामान्य परिवर्तन की विशेष सन्धि वेला आती है तब उस समय जन साधारण के विशेषतया प्रबुद्ध व्यक्तियों के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी कुछ असामान्य हो जाते हैं और निबाहने के लिये उस समय की जागृत आत्माओं को अपनी गतिविधियों भी असामान्य ही बनानी पड़ती हैं।
बीमारी, दुर्घटना, अग्निकाण्ड, मृत्यु, फौजदारी जैसी कोई विशेष आकस्मिक घटना घर में घटित हो जाय तो परिवार के सदस्यों को अपने सामान्य क्रम में परिवर्तन करना पड़ता है और इस प्रकार व्यवस्था बनानी पड़ती है कि उस आकस्मिक परिस्थिति का हल निकल सके। इसी प्रकार युगों का जब परिवर्तन काल आता है तब उसमें विशेष परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और उनके समाधान के लिये उत्तरदायी लोगों को आगे बढ़कर अपने सामान्य कार्यक्रमों को छोड़कर उन विशेष कर्तव्यों का पालन करने के लिये तत्पर होना पड़ता है।
जिन लोगों की अन्तरात्मा अविकसित है, उनके लिये अपने शारीरिक आर्थिक एवं पारिवारिक स्वार्थ इतने प्रबल दिखाई पड़ते हैं कि उनकी प्रति वे दिन रात गलते-सुलते रहने पर भी कर नहीं पाते। देश धर्म समाज संस्कृति की चर्चा तो उन्हें मनोविनोद के लिये अच्छी लगती है पर जब उनके सम्बन्ध में कुछ कर्तव्य पालन करने कष्ट सहने या त्याग करने का अवसर आता है तब बगलें झाँकने लगते हैं। वस्तुत: उनका अविकसित अन्तःकरण संकीर्ण स्वार्थो के अतिरिक्त और सोच समझ नहीं पाता उनके लिये उतना ही दायरा सब कुछ है। मेंढक की सारी दुनियाँ कूएँ में भरे हुए पानी जितनी ही है पर जो इससे कुछ अधिक देखते समझते और सोचते हैं उनके सामने मानसरोवर से लेकर समुद्र तक की विशाल जल राशि का दृश्य प्रस्तुत रहता है और वे उसी दृष्टिकोण से अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते हैं, जब कि कुएँ का मेढक अपने उसी दायरे तक ही सीमित रहता है। जागृत आत्माओं का, प्रबुद्ध व्यक्तियों का, धर्मात्माओं एवं महापुरुषों का एक ही चिन्ह है कि वे संकीर्ण क्षेत्र में सीमित नहीं रहते, शरीर घर और धन इतना ही सब कुछ है ऐसा वे नहीं मानते और उसके अतिरिक्त और कुछ कर्तव्य भी उनका है ऐसा वे सोचते हैं। अपने समय की, देश, धर्म, संस्कृति एवं समाज की जिम्मेदारियाँ वे समझते हैं और उनकी सामयिक आवश्यकतायें पूरी करने के लिये वे कुछ करते भी हैं। बकवास से नहीं कार्यों से ही किसी की महानता परखी जा सकती है।
परीक्षा के समय कभी-कभी आते हैं। वे जब आते हैं तब वह यह परखते हैं कि इसने अब तक जो किया है उसके पीछे उसकी लगन, एवं वास्तविकता कितनी है। वार्षिक परीक्षा छात्रों के परिश्रमी, अध्यवसायी, लगनशील होने न होने की परख कर देती है। बातूनी लड़के अपनी प्रशंसा में लम्बी चौड़ी डीगें हाँकते रहते हैं। परीक्षा उसकी वास्तविकता- अवास्तविकता का निर्णय कर देती है। इसी प्रकार आदर्शवादी के जीवन में वे परीक्षा काल आते हैं जिनकी कसौटी पर यह सिद्ध हो जाता है कि सिद्धान्तों एवं आदर्शों के प्रति उनकी आस्था कितनी वास्तविक-अवास्तविक थी। राजा हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, कर्ण, भीष्म, राम, कृष्ण, दधीचि, शिवि आदि के सामने परीक्षा के अवसर आये थे, उनमें वे खरे उतरे तो उनकी वास्तविकता प्रमाणित हो गयी और वे सच्चे आदर्शवादियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित हो सके।
कोई आदर्शवादी धर्म एवं अध्यात्म की बात तो बहुत करे, पर परीक्षा का समय आने पर इधर-उधर छिपा रहे तो उसकी आस्था संदिग्ध ही मानी जायगी। ईश्वर और धर्म की मान्यतायें केवल इसीलिये हैं कि इन आस्थाओं को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति निजी जीवन में सदाचारी और सामाजिक जीवन में परमार्थी बने। यदि यह दोनों प्रयोजन सिद्ध न होते हों, इन दोनों कसौटियों पर वास्तविकता सिद्ध न होती हो तो यही कहना पड़ेगा कि यह तथाकथित ईश्वर भक्ति और धर्मात्मापन दम्भ मात्र था। अपने लिये धन-दौलत और बेटे-पोते चाहने की कामना से माला घुमाते रहने का नाम ही भजन नहीं है वरन् उसका प्रमुख चिन्ह यह है कि जिसे ईश्वर से प्रेम हो वह उसकी दुनियाँ को अधिक सुन्दर, अधिक व्यवस्थित अधिक विकसित बनाने में अधिक से अधिक योगदान करे। इस दिशा में किया हुआ त्याग, बलिदान ही किसी व्यक्ति के प्रबुद्ध, जागृत आदर्शवादी, ईश्वर भक्त एवं धर्मात्मा होने का चिन्ह हो सकता है। विद्यार्थी साल-भर पढ़ते हैं उस सामान्य समय में किसी के अध्ययन का ठीक तरह पता नहीं चलता। वार्षिक परीक्षा के दस-बीस दिन ही होते हैं, पर वे दूध पानी का विश्लेषण करके रख जाते हैं। सामान्यकाल में किसी बकवादी एवं दम्मी, को भी ईश्वर भक्त, धर्मात्मा या आदर्शवादी समझा जा सकता है पर जब परख की असामान्य घड़ी सामने आ उपस्थित हो तो यह पता चल जाता है कि कौन कितने गहरे पानी में है। चिरकाल के पश्चात इन दिनों ऐसा समय आया है जिसमें जन-साधारण की भीड़ में छिपे हुए नर-रत्नों, महामानवों एवं अध्यात्मवादियों को आगे आने, ऊँचे उठने और चमकने का अवसर मिलेगा। दूध जब गरम होता है तो उसमें जितने अंश घी के होते हैं वे मलाई के रूप में ऊपर तैर कर आ जाते हैं। जिस समाज में जो महान आत्मायें छिपी रहती हैं उनके प्रकाश में आने का अवसर ऐसे ही परीक्षा-काल में आता है जैसा कि आजकल है।
बड़े कार्य सामान्य शक्ति से नहीं हो सकते कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान पर प्रयुक्त किये जाने वाले उपकरण पहले परीक्षित कर लिये जाते हैं। महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति के पूर्व कड़ी परीक्षायें होती हैं। आत्मिक स्तर पर किये जाने वाले बड़े कार्यों को सबल आत्मायें ही कर सकती हैं। उनके लिये यदि कठोर परीक्षायें न रखी जायें तो कुपात्रों के हाथ में जाकर योजना ही चौपट हो जाये। नव निर्माण के कठिन कार्य को पूरा करने के लिये जिन महान आत्माओं को उभर कर ऊपर आना है, उन्हें कठिनतम परिस्थतियों में अपनी प्रामाणिकता का परिचय देते हुए आगे बढ़ना होगा।
निर्माण का इतिहास कठोर श्रम का इतिहास है। देश-विदेश के उदाहरण यही प्रतिपादित करते हैं-विगत एक सौ वर्षों में इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, रूस, चीन, जापान आदि देशों ने कितनी आश्चर्यजनक प्रगति की है। सौ वर्ष पूर्व इन देशों की दशा आज की तुलना में बहुत ही गई-गुजरी थी। भारतवर्ष को जो भौतिक एवं आध्यात्मिक साधन उपलब्ध हैं, उनके आधार पर वह २५ वर्षों में उतनी प्रगति कर सकता है जितनी दूसरों ने सौ वर्षों में की है पर इसके लिये आवश्यकता उन सेना-नायकों की है, जो भारतीय जनता के अस्त-व्यस्त लोक मानस को चमकाकर, उलट-पुलट कर रख दें और प्राचीनता के आधार पर उसका नव-निर्माण करने के लिये कटिबद्ध हों। ऐसे लोगों का अभाव नहीं, केवल निरुत्साह ही बाधक है। यदि यह कमी दूर हो सके, जन-जागरण के लिये एक सुगठित सेना की तरह यदि बौद्धिक-क्रान्ति करने वाले आदर्शवादी लोक-सेवक निकल पड़ें तो देश का काया-कल्प ही हो सकता है। सीमाओं पर आक्रमण करने वाले तो झक मार कर बैठ ही जायेंगे, साथ ही विघटनकारी अन्तर्द्वन्दों का भी कहीं पता न चलेगा। भाषा, प्रान्त और जाति समप्रदायों के नाम पर जो विघटनकारी दुष्प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं उनका कहीं पता भी न चलेगा।
उज्ज्वल भविष्य की समस्त सम्भावनायें इस बात पर निर्भर हैं कि प्रबुद्ध, जागृत एवं प्रतिभावान् व्यक्ति अपनी सीमाबद्धताओं में ही उलझे न रहकर युग निर्माण के लिये-जनसाधारण के लिये कुछ कर गुजरने को कटिबद्ध हों। प्रचरात्मक और रचनात्मक कार्यों के द्वारा जनता को संगठित, जागृत एवं कर्तव्यपरायण बनाया जा सकता है। यह कार्य राजनीति से नहीं धर्म के मंच से ही संभव होगा। भारत की ८० फीसदी जनता अशिक्षित है और इतने ही लोग देहातों में रहते हैं, उन्हें किसी अन्य स्तर पर नहीं, केवल धार्मिक स्तर पर ही आन्दोलित किया जा सकता है। शिक्षित एवं शहरी वर्ग में भी उनकी आदर्शवादिता को उभारने का प्रयोजन केवल धर्म एवं अध्यात्म के आधार पर ही सम्भव हो सकता है।
युग निर्माण परिवार में जो प्रबुद्ध आत्मायें हैं, उन्हें युग पुकारता है। वे संकीर्ण स्वार्थपरता का वैयक्तिक जीवन जीने की अपेक्षा युद्ध मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों की तरह त्याग-बलिदान करने के लिये तत्पर हों, समय दान करें जन-सम्पर्क के लिये अवसर निकाले और जन-जन के मन-मन में नव-जीवन का संचार करने वाली भावनायें भरें, तब काम चलेगा।
लोग अपने को धर्मात्मा, ईश्वर भक्त एवं आदर्शवादी कहते, मानते हैं, उनके लिये आज की अग्नि परीक्षा की घड़ियाँ कुछ करने के लिये कह रही हैं। यदि उनमें से कोई कुछ करना चाहे तो अपनी स्थिति के अनुरूप बहुत कुछ कर सकता है। युग निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रम उसे सादर आमंत्रित करते हैं। जो केवल पूजा पाठ की थोड़ी चिन्ह पूजा करके ही स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वर दर्शन के सपने देखते हैं, उन्हें जानना चाहिये कि उनकी सचाई और आस्था अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही हैं। यदि वे कष्ट साध्य कर्तव्यों से कतराते है तो मुलम्मा चढ़े सोने की तरह उस पर से उनकी आव जनता जनार्दन के सामने उतर ही जायेगी।
वे वयोवृद्ध व्यक्ति जिनके ऊपर से कमाने धमाने की जिम्मेदारी चली गयी है, बच्चे परिवार की व्यवस्था संभाल लेते हैं उन्हें अपने अधिकांश समय को राष्ट्रीय जागरण के लिये लगाना चाहिये। आज की परिस्थिति में ईश्वर की सबसे उत्तम भक्ति और आत्म-कल्याण की सर्वश्रेष्ठ साधना यही हो सकती हैं कि इस देवभूमि भारत को धरती का स्वर्ग बनाने के लिये जन-जन में विवेकशीलता एवं आदर्शवादिता की भावनायें उत्पन्न की जायें इस साधना में लगे हुए वयोवृद्ध व्यक्ति अपना लोक परलोक सुधारेगे आत्म-कल्याण और ईश्वर प्राप्ति का लाभ प्राप्त करेगे तथा देश, धर्म समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान में योगदान देकर अक्षय पुण्य अर्जित करेगे। यों घर में कुछ न कुछ काम तो सदा ही लगा रहता है, पर राष्ट्र के नवनिर्माण का कार्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस आड़े समय में तो सब काम छोड़कर भी उसे प्रधानता दी जानी चाहिये। फिर अवकाश प्राप्त वयोवृद्ध तो घर वालों की बिना कुछ अधिक हानि किये ही अपने अनुभवी व्यक्तित्व का बहुत कुछ लाभ जनता को दे सकते हैं।
जो कई भाई हैं उनमें से एक को समाज सेवा के लिये समय देना चाहिये। शेष भाई उसके पारिवारिक उत्तरदायित्वों को बहन करें और निश्चिन्तता पूर्वक समाज सेवा करने दें। जिस प्रकार युद्ध के लिये कितने ही परिवारों ने अपने यहाँ से एक-एक सैनिक दिया है उसी प्रकार धर्म परायण लोग भी अपने घरों से एक-एक सुयोग्य प्रतिभाशाली व्यक्ति धर्म सेना में भर्ती होने के लिये दें। जिसका धर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं है वे शौर्य और देशभक्ति से प्रेरित होकर अपने घरों के नौनिहालों को गोलियों का सामना करने के लिये भेज सकते हैं। जो लोग धर्म, ईश्वर, अध्यात्म, वैराग्य आदि की लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं उन्हें गोली के सामने न सही तो समाज सेवा के लिये तो अपने परिवारों से एक-एक व्यक्ति देना ही चाहिये।
जिन लोगों के पास आजीविका के साधन मौजूद हैं, जमीन या पैसा किराये पर उठाकर जो लोग अपना खर्च चलाने की स्थिति में हैं, उनके लिये यही उचित है कि अब अधिक कमाई के, संग्रह करने, जोड़ने और बढ़ाने के कुचक्र से न फसें। अगला समय ऐसा आ रहा है जिसमें वैयक्तिक धन अधिक मात्रा में किसी के पास भी न रहेगा। गुजारे- भर के लिये सामान्य लोगों की सी साधन सामग्री रह जायेगी, ऐसी दशा में जो लोग पूँजी बढ़ाने और भविष्य के लिये दौलत जोड़ने की सोचते हैं, वे भारी भ्रम में हैं। शहद की मक्खी की तरह अनावश्यक श्रम दूसरों के लिये धन कमाने में खर्च किया जाय तो इसकी अपेक्षा यही उत्तम है कि जब गुजारे की व्यवस्था है तो अपना समय और श्रम लोक मंगल के लिये ही क्यों न खर्च किया जाय ?
साधु ब्राह्मणों का तो यह एक परम पवित्र कर्तव्य है कि इस समय जिस धर्म के आश्रय में वे अपनी आजीविका चलाते हैं और पूजा सम्मान प्राप्त करते हैं, उस धर्म रक्षा के लिये उन्हें कुछ काम भी करना चाहिये, कुछ कष्ट भी उठाना चाहिये। आज जब कि धर्मसंकट में है, देश की सुरक्षा एवं प्रगति का प्रश्न है, तब तो उन्हें उन आदर्शों को परिपुष्ट करने के लिये अपना समय लगाना ही चाहिये। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी दक्षिणा बटोरने और पैर पुजाने का ही धन्धा करते रहे, कर्तव्य को तिलाञ्जलि दिये बैठे रहे तो आगमी पीढ़ियाँ उन्हें क्षमा न करेंगी। उन्हें धर्मधजी होने का सम्मान तो दूर, सामान्य नागरिक स्तर का भी उन्हें न गिना जायगा। उनकी आज की अकर्मण्यता भविष्य में साधु-व्राह्मण संस्था का ही महत्व एवं गौरव समाप्त कर देगी। इसलिये उन्हें तो समय रहते चेत ही जाना चाहिये।
हर नागरिक के पास कुछ समय रहता है। आजीविका कमाने और शरीर यात्रा के दैनिक कार्यो के अतिरिक्त हर व्यक्ति के पास कुछ समय बचता है। यदि बचता न होता तो गपशप, यारबाशी, सिनेमा, शतरंज, ताश, यात्रा, मेले-ठेले आदि के लिये समय कहाँ से मिलता है ? लेखा जोखा लेने पर हर आदमी के पास कुछ न कुछ ऐसा समय जरूर मिलेगा, जिसे वह नित्यकर्म और रोटी कमाने के अतिरिक्त अपनी मनमर्जी के कामों में लगाता है। यह मन मर्जी यदि हलके और ओछे कामों में न लगे, जन जागरण और नव-निर्माण के रचनात्मक कार्यों में लगे तो व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी इतना कार्य कर सकता है, जिससे वह आत्म-सन्तोष और आत्म-गौरव अनुभव कर सके। आवश्यकता केवल अभिरुचि बदलने की है। दूसरों को उपदेश करने की अपेक्षा अब अपने को रचनात्मक कार्य करने में संलग्न करना चाहिये। अपनी आदर्शवादिता की सचाई को प्रमाणित करना चाहिये। जिनमें आदर्शवादिता के प्रति आस्था एवं ममता है जो उसे बढ़ते एवं आकर्षित होते देखना चाहते हैं उन्हें अपने समय का एक अंश राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिये कुछ करने के लिये लगाना ही चाहिये। साधारण नागरिक होने पर भी यदि कुछ भावना हो तो हर व्यक्ति बहुत कुछ कर सकता है यह समय ऐसा भी है, जब कि कुछ न कुछ हर व्यक्ति को करना ही चाहिये।
यों समस्त प्रबुद्ध वर्ग के सामने अपनी समझदारी का परिचय देने का यह अवसर है, पर युग निर्माण परिवार से सम्बद्ध व्यक्तियों ने गतदिनों जो शिक्षा प्राप्त की है उसे वस्तुत: समझा अपनाया है या नहीं, इसकी परख का ठीक यही वक्त है। प्रस्तुत समय की चुनौती को अस्वीकार कर हमें अपना खोखलापन प्रमाणित नहीं करना चाहिये।
युग परिवर्तन की संधि वेलायें लम्बे समय के बाद कभी-कभी ही आती हैं, सामान्य काल में सामान्य परिस्थितियाँ चलती रहती हैं और लोगों का जीवन ढर्रा भी सामान्य रीति से ही चलता रहता है पर जब असामान्य परिवर्तन की विशेष सन्धि वेला आती है तब उस समय जन साधारण के विशेषतया प्रबुद्ध व्यक्तियों के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी कुछ असामान्य हो जाते हैं और निबाहने के लिये उस समय की जागृत आत्माओं को अपनी गतिविधियों भी असामान्य ही बनानी पड़ती हैं।
बीमारी, दुर्घटना, अग्निकाण्ड, मृत्यु, फौजदारी जैसी कोई विशेष आकस्मिक घटना घर में घटित हो जाय तो परिवार के सदस्यों को अपने सामान्य क्रम में परिवर्तन करना पड़ता है और इस प्रकार व्यवस्था बनानी पड़ती है कि उस आकस्मिक परिस्थिति का हल निकल सके। इसी प्रकार युगों का जब परिवर्तन काल आता है तब उसमें विशेष परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और उनके समाधान के लिये उत्तरदायी लोगों को आगे बढ़कर अपने सामान्य कार्यक्रमों को छोड़कर उन विशेष कर्तव्यों का पालन करने के लिये तत्पर होना पड़ता है।
जिन लोगों की अन्तरात्मा अविकसित है, उनके लिये अपने शारीरिक आर्थिक एवं पारिवारिक स्वार्थ इतने प्रबल दिखाई पड़ते हैं कि उनकी प्रति वे दिन रात गलते-सुलते रहने पर भी कर नहीं पाते। देश धर्म समाज संस्कृति की चर्चा तो उन्हें मनोविनोद के लिये अच्छी लगती है पर जब उनके सम्बन्ध में कुछ कर्तव्य पालन करने कष्ट सहने या त्याग करने का अवसर आता है तब बगलें झाँकने लगते हैं। वस्तुत: उनका अविकसित अन्तःकरण संकीर्ण स्वार्थो के अतिरिक्त और सोच समझ नहीं पाता उनके लिये उतना ही दायरा सब कुछ है। मेंढक की सारी दुनियाँ कूएँ में भरे हुए पानी जितनी ही है पर जो इससे कुछ अधिक देखते समझते और सोचते हैं उनके सामने मानसरोवर से लेकर समुद्र तक की विशाल जल राशि का दृश्य प्रस्तुत रहता है और वे उसी दृष्टिकोण से अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते हैं, जब कि कुएँ का मेढक अपने उसी दायरे तक ही सीमित रहता है। जागृत आत्माओं का, प्रबुद्ध व्यक्तियों का, धर्मात्माओं एवं महापुरुषों का एक ही चिन्ह है कि वे संकीर्ण क्षेत्र में सीमित नहीं रहते, शरीर घर और धन इतना ही सब कुछ है ऐसा वे नहीं मानते और उसके अतिरिक्त और कुछ कर्तव्य भी उनका है ऐसा वे सोचते हैं। अपने समय की, देश, धर्म, संस्कृति एवं समाज की जिम्मेदारियाँ वे समझते हैं और उनकी सामयिक आवश्यकतायें पूरी करने के लिये वे कुछ करते भी हैं। बकवास से नहीं कार्यों से ही किसी की महानता परखी जा सकती है।
परीक्षा के समय कभी-कभी आते हैं। वे जब आते हैं तब वह यह परखते हैं कि इसने अब तक जो किया है उसके पीछे उसकी लगन, एवं वास्तविकता कितनी है। वार्षिक परीक्षा छात्रों के परिश्रमी, अध्यवसायी, लगनशील होने न होने की परख कर देती है। बातूनी लड़के अपनी प्रशंसा में लम्बी चौड़ी डीगें हाँकते रहते हैं। परीक्षा उसकी वास्तविकता- अवास्तविकता का निर्णय कर देती है। इसी प्रकार आदर्शवादी के जीवन में वे परीक्षा काल आते हैं जिनकी कसौटी पर यह सिद्ध हो जाता है कि सिद्धान्तों एवं आदर्शों के प्रति उनकी आस्था कितनी वास्तविक-अवास्तविक थी। राजा हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, कर्ण, भीष्म, राम, कृष्ण, दधीचि, शिवि आदि के सामने परीक्षा के अवसर आये थे, उनमें वे खरे उतरे तो उनकी वास्तविकता प्रमाणित हो गयी और वे सच्चे आदर्शवादियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित हो सके।
कोई आदर्शवादी धर्म एवं अध्यात्म की बात तो बहुत करे, पर परीक्षा का समय आने पर इधर-उधर छिपा रहे तो उसकी आस्था संदिग्ध ही मानी जायगी। ईश्वर और धर्म की मान्यतायें केवल इसीलिये हैं कि इन आस्थाओं को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति निजी जीवन में सदाचारी और सामाजिक जीवन में परमार्थी बने। यदि यह दोनों प्रयोजन सिद्ध न होते हों, इन दोनों कसौटियों पर वास्तविकता सिद्ध न होती हो तो यही कहना पड़ेगा कि यह तथाकथित ईश्वर भक्ति और धर्मात्मापन दम्भ मात्र था। अपने लिये धन-दौलत और बेटे-पोते चाहने की कामना से माला घुमाते रहने का नाम ही भजन नहीं है वरन् उसका प्रमुख चिन्ह यह है कि जिसे ईश्वर से प्रेम हो वह उसकी दुनियाँ को अधिक सुन्दर, अधिक व्यवस्थित अधिक विकसित बनाने में अधिक से अधिक योगदान करे। इस दिशा में किया हुआ त्याग, बलिदान ही किसी व्यक्ति के प्रबुद्ध, जागृत आदर्शवादी, ईश्वर भक्त एवं धर्मात्मा होने का चिन्ह हो सकता है। विद्यार्थी साल-भर पढ़ते हैं उस सामान्य समय में किसी के अध्ययन का ठीक तरह पता नहीं चलता। वार्षिक परीक्षा के दस-बीस दिन ही होते हैं, पर वे दूध पानी का विश्लेषण करके रख जाते हैं। सामान्यकाल में किसी बकवादी एवं दम्मी, को भी ईश्वर भक्त, धर्मात्मा या आदर्शवादी समझा जा सकता है पर जब परख की असामान्य घड़ी सामने आ उपस्थित हो तो यह पता चल जाता है कि कौन कितने गहरे पानी में है। चिरकाल के पश्चात इन दिनों ऐसा समय आया है जिसमें जन-साधारण की भीड़ में छिपे हुए नर-रत्नों, महामानवों एवं अध्यात्मवादियों को आगे आने, ऊँचे उठने और चमकने का अवसर मिलेगा। दूध जब गरम होता है तो उसमें जितने अंश घी के होते हैं वे मलाई के रूप में ऊपर तैर कर आ जाते हैं। जिस समाज में जो महान आत्मायें छिपी रहती हैं उनके प्रकाश में आने का अवसर ऐसे ही परीक्षा-काल में आता है जैसा कि आजकल है।
बड़े कार्य सामान्य शक्ति से नहीं हो सकते कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान पर प्रयुक्त किये जाने वाले उपकरण पहले परीक्षित कर लिये जाते हैं। महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति के पूर्व कड़ी परीक्षायें होती हैं। आत्मिक स्तर पर किये जाने वाले बड़े कार्यों को सबल आत्मायें ही कर सकती हैं। उनके लिये यदि कठोर परीक्षायें न रखी जायें तो कुपात्रों के हाथ में जाकर योजना ही चौपट हो जाये। नव निर्माण के कठिन कार्य को पूरा करने के लिये जिन महान आत्माओं को उभर कर ऊपर आना है, उन्हें कठिनतम परिस्थतियों में अपनी प्रामाणिकता का परिचय देते हुए आगे बढ़ना होगा।
निर्माण का इतिहास कठोर श्रम का इतिहास है। देश-विदेश के उदाहरण यही प्रतिपादित करते हैं-विगत एक सौ वर्षों में इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, रूस, चीन, जापान आदि देशों ने कितनी आश्चर्यजनक प्रगति की है। सौ वर्ष पूर्व इन देशों की दशा आज की तुलना में बहुत ही गई-गुजरी थी। भारतवर्ष को जो भौतिक एवं आध्यात्मिक साधन उपलब्ध हैं, उनके आधार पर वह २५ वर्षों में उतनी प्रगति कर सकता है जितनी दूसरों ने सौ वर्षों में की है पर इसके लिये आवश्यकता उन सेना-नायकों की है, जो भारतीय जनता के अस्त-व्यस्त लोक मानस को चमकाकर, उलट-पुलट कर रख दें और प्राचीनता के आधार पर उसका नव-निर्माण करने के लिये कटिबद्ध हों। ऐसे लोगों का अभाव नहीं, केवल निरुत्साह ही बाधक है। यदि यह कमी दूर हो सके, जन-जागरण के लिये एक सुगठित सेना की तरह यदि बौद्धिक-क्रान्ति करने वाले आदर्शवादी लोक-सेवक निकल पड़ें तो देश का काया-कल्प ही हो सकता है। सीमाओं पर आक्रमण करने वाले तो झक मार कर बैठ ही जायेंगे, साथ ही विघटनकारी अन्तर्द्वन्दों का भी कहीं पता न चलेगा। भाषा, प्रान्त और जाति समप्रदायों के नाम पर जो विघटनकारी दुष्प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं उनका कहीं पता भी न चलेगा।
उज्ज्वल भविष्य की समस्त सम्भावनायें इस बात पर निर्भर हैं कि प्रबुद्ध, जागृत एवं प्रतिभावान् व्यक्ति अपनी सीमाबद्धताओं में ही उलझे न रहकर युग निर्माण के लिये-जनसाधारण के लिये कुछ कर गुजरने को कटिबद्ध हों। प्रचरात्मक और रचनात्मक कार्यों के द्वारा जनता को संगठित, जागृत एवं कर्तव्यपरायण बनाया जा सकता है। यह कार्य राजनीति से नहीं धर्म के मंच से ही संभव होगा। भारत की ८० फीसदी जनता अशिक्षित है और इतने ही लोग देहातों में रहते हैं, उन्हें किसी अन्य स्तर पर नहीं, केवल धार्मिक स्तर पर ही आन्दोलित किया जा सकता है। शिक्षित एवं शहरी वर्ग में भी उनकी आदर्शवादिता को उभारने का प्रयोजन केवल धर्म एवं अध्यात्म के आधार पर ही सम्भव हो सकता है।
युग निर्माण परिवार में जो प्रबुद्ध आत्मायें हैं, उन्हें युग पुकारता है। वे संकीर्ण स्वार्थपरता का वैयक्तिक जीवन जीने की अपेक्षा युद्ध मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों की तरह त्याग-बलिदान करने के लिये तत्पर हों, समय दान करें जन-सम्पर्क के लिये अवसर निकाले और जन-जन के मन-मन में नव-जीवन का संचार करने वाली भावनायें भरें, तब काम चलेगा।
लोग अपने को धर्मात्मा, ईश्वर भक्त एवं आदर्शवादी कहते, मानते हैं, उनके लिये आज की अग्नि परीक्षा की घड़ियाँ कुछ करने के लिये कह रही हैं। यदि उनमें से कोई कुछ करना चाहे तो अपनी स्थिति के अनुरूप बहुत कुछ कर सकता है। युग निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रम उसे सादर आमंत्रित करते हैं। जो केवल पूजा पाठ की थोड़ी चिन्ह पूजा करके ही स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वर दर्शन के सपने देखते हैं, उन्हें जानना चाहिये कि उनकी सचाई और आस्था अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही हैं। यदि वे कष्ट साध्य कर्तव्यों से कतराते है तो मुलम्मा चढ़े सोने की तरह उस पर से उनकी आव जनता जनार्दन के सामने उतर ही जायेगी।
वे वयोवृद्ध व्यक्ति जिनके ऊपर से कमाने धमाने की जिम्मेदारी चली गयी है, बच्चे परिवार की व्यवस्था संभाल लेते हैं उन्हें अपने अधिकांश समय को राष्ट्रीय जागरण के लिये लगाना चाहिये। आज की परिस्थिति में ईश्वर की सबसे उत्तम भक्ति और आत्म-कल्याण की सर्वश्रेष्ठ साधना यही हो सकती हैं कि इस देवभूमि भारत को धरती का स्वर्ग बनाने के लिये जन-जन में विवेकशीलता एवं आदर्शवादिता की भावनायें उत्पन्न की जायें इस साधना में लगे हुए वयोवृद्ध व्यक्ति अपना लोक परलोक सुधारेगे आत्म-कल्याण और ईश्वर प्राप्ति का लाभ प्राप्त करेगे तथा देश, धर्म समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान में योगदान देकर अक्षय पुण्य अर्जित करेगे। यों घर में कुछ न कुछ काम तो सदा ही लगा रहता है, पर राष्ट्र के नवनिर्माण का कार्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस आड़े समय में तो सब काम छोड़कर भी उसे प्रधानता दी जानी चाहिये। फिर अवकाश प्राप्त वयोवृद्ध तो घर वालों की बिना कुछ अधिक हानि किये ही अपने अनुभवी व्यक्तित्व का बहुत कुछ लाभ जनता को दे सकते हैं।
जो कई भाई हैं उनमें से एक को समाज सेवा के लिये समय देना चाहिये। शेष भाई उसके पारिवारिक उत्तरदायित्वों को बहन करें और निश्चिन्तता पूर्वक समाज सेवा करने दें। जिस प्रकार युद्ध के लिये कितने ही परिवारों ने अपने यहाँ से एक-एक सैनिक दिया है उसी प्रकार धर्म परायण लोग भी अपने घरों से एक-एक सुयोग्य प्रतिभाशाली व्यक्ति धर्म सेना में भर्ती होने के लिये दें। जिसका धर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं है वे शौर्य और देशभक्ति से प्रेरित होकर अपने घरों के नौनिहालों को गोलियों का सामना करने के लिये भेज सकते हैं। जो लोग धर्म, ईश्वर, अध्यात्म, वैराग्य आदि की लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं उन्हें गोली के सामने न सही तो समाज सेवा के लिये तो अपने परिवारों से एक-एक व्यक्ति देना ही चाहिये।
जिन लोगों के पास आजीविका के साधन मौजूद हैं, जमीन या पैसा किराये पर उठाकर जो लोग अपना खर्च चलाने की स्थिति में हैं, उनके लिये यही उचित है कि अब अधिक कमाई के, संग्रह करने, जोड़ने और बढ़ाने के कुचक्र से न फसें। अगला समय ऐसा आ रहा है जिसमें वैयक्तिक धन अधिक मात्रा में किसी के पास भी न रहेगा। गुजारे- भर के लिये सामान्य लोगों की सी साधन सामग्री रह जायेगी, ऐसी दशा में जो लोग पूँजी बढ़ाने और भविष्य के लिये दौलत जोड़ने की सोचते हैं, वे भारी भ्रम में हैं। शहद की मक्खी की तरह अनावश्यक श्रम दूसरों के लिये धन कमाने में खर्च किया जाय तो इसकी अपेक्षा यही उत्तम है कि जब गुजारे की व्यवस्था है तो अपना समय और श्रम लोक मंगल के लिये ही क्यों न खर्च किया जाय ?
साधु ब्राह्मणों का तो यह एक परम पवित्र कर्तव्य है कि इस समय जिस धर्म के आश्रय में वे अपनी आजीविका चलाते हैं और पूजा सम्मान प्राप्त करते हैं, उस धर्म रक्षा के लिये उन्हें कुछ काम भी करना चाहिये, कुछ कष्ट भी उठाना चाहिये। आज जब कि धर्मसंकट में है, देश की सुरक्षा एवं प्रगति का प्रश्न है, तब तो उन्हें उन आदर्शों को परिपुष्ट करने के लिये अपना समय लगाना ही चाहिये। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी दक्षिणा बटोरने और पैर पुजाने का ही धन्धा करते रहे, कर्तव्य को तिलाञ्जलि दिये बैठे रहे तो आगमी पीढ़ियाँ उन्हें क्षमा न करेंगी। उन्हें धर्मधजी होने का सम्मान तो दूर, सामान्य नागरिक स्तर का भी उन्हें न गिना जायगा। उनकी आज की अकर्मण्यता भविष्य में साधु-व्राह्मण संस्था का ही महत्व एवं गौरव समाप्त कर देगी। इसलिये उन्हें तो समय रहते चेत ही जाना चाहिये।
हर नागरिक के पास कुछ समय रहता है। आजीविका कमाने और शरीर यात्रा के दैनिक कार्यो के अतिरिक्त हर व्यक्ति के पास कुछ समय बचता है। यदि बचता न होता तो गपशप, यारबाशी, सिनेमा, शतरंज, ताश, यात्रा, मेले-ठेले आदि के लिये समय कहाँ से मिलता है ? लेखा जोखा लेने पर हर आदमी के पास कुछ न कुछ ऐसा समय जरूर मिलेगा, जिसे वह नित्यकर्म और रोटी कमाने के अतिरिक्त अपनी मनमर्जी के कामों में लगाता है। यह मन मर्जी यदि हलके और ओछे कामों में न लगे, जन जागरण और नव-निर्माण के रचनात्मक कार्यों में लगे तो व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी इतना कार्य कर सकता है, जिससे वह आत्म-सन्तोष और आत्म-गौरव अनुभव कर सके। आवश्यकता केवल अभिरुचि बदलने की है। दूसरों को उपदेश करने की अपेक्षा अब अपने को रचनात्मक कार्य करने में संलग्न करना चाहिये। अपनी आदर्शवादिता की सचाई को प्रमाणित करना चाहिये। जिनमें आदर्शवादिता के प्रति आस्था एवं ममता है जो उसे बढ़ते एवं आकर्षित होते देखना चाहते हैं उन्हें अपने समय का एक अंश राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिये कुछ करने के लिये लगाना ही चाहिये। साधारण नागरिक होने पर भी यदि कुछ भावना हो तो हर व्यक्ति बहुत कुछ कर सकता है यह समय ऐसा भी है, जब कि कुछ न कुछ हर व्यक्ति को करना ही चाहिये।
यों समस्त प्रबुद्ध वर्ग के सामने अपनी समझदारी का परिचय देने का यह अवसर है, पर युग निर्माण परिवार से सम्बद्ध व्यक्तियों ने गतदिनों जो शिक्षा प्राप्त की है उसे वस्तुत: समझा अपनाया है या नहीं, इसकी परख का ठीक यही वक्त है। प्रस्तुत समय की चुनौती को अस्वीकार कर हमें अपना खोखलापन प्रमाणित नहीं करना चाहिये।