Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
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Language: HINDI
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त्रिपुरारी महाकाल द्वारा तीन महादैत्यों का उन्मूलन
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महाकाल शंकर का एक नाम त्रिपुरारि भी है। प्राचीनकाल में तीन दुर्दान्त दैत्य जन्मे थे, तीनों सगे भाई थे। नाम तो उनके अलग-अलग थे, पर उनने माया नगरी जैसे जादू भरे तीन नगर बसाये थे। इन तीन पुरों में ही उनने सारी दुनियाँ के लोगों को समेट कर बसा लिया था। माया नगरी का हर निवासी उन दैत्यों के प्रभाव में था। वे जैसा कहते वैसा ही वे सोचते और उन्हें के निर्देशों पर कार्य करते। इससे संसार के समस्त निवासी आसुरी माया से भ्रमित हो गये धर्म का लोप हो गया और अधर्म की विजय दुन्दुभी बजने लगी। असुरता का वैभव चमका और तीनों पुरियाँ बड़ी समृद्धिशाली दीखने लगी पर भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला हो गया। उन नगरों के निवासी नाना प्रकार की आधि-व्याधियों से शोक-सन्तापों से ग्रसित होकर नारकीय जीवन व्यतीत करने लगे। सर्वत्र हाहाकार मच गया।
धर्म ने प्रजापति से गुहार की, प्रजापति ने महाकाल को इसके लिये नियोजित किया क्योंकि वे ही परिवर्तनों के अधिष्ठाता देवता हैं। धर्म की पूरी बात भगवान शंकर ने सुनी और स्थिति को समझा। तीन पुर बसाने वाले वे तीन दैत्य यद्यपि अलग-अलग हैं, पर वस्तुत: वे परस्पर पूर्णतया घुले-मिले हैं। उनके तीन पुर भी अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुत: वे परस्पर एक-दूसरे का पोषण अभिवर्धन करते हैं। यह तीनों दैत्य साधारण रीति से नहीं मर सकते। उन्हें अभय वरदान यह मिला हुआ है कि जब वे मरेगे तब एक साथ हो मरगे और एक ही अस्त्र से मरेगे। वे दैत्य बड़े चतुर थे इसलिये -उन्होंने ऐसा वरदान माँगा था। वे जानते थे कि हममें से एक को भी परास्त करना सहज नहीं, फिर तीनों को एक साथ चुनौती देने का तो साहस ही कौन करेगा। इस पर भी कोई लड़ने आये तो फिर उसके पास ऐसा शस्त्र नहीं हो सकता जो तीनों को एक साथ, एक ही बार में एक ही क्षण मारे। यह असंभव जैसा कार्य नहीं कर सकेगा, इसलिये दैत्य होने के कारण अमर न हो सकने पर भी एक प्रकार से अमर ही बने रहेगे।
भगवान शिव ने स्थिति पर विचार किया और उनने इन दैत्यों से समस्त मानवता का उद्धार करने का उपाय खोज निकाला। उन्होंने जो त्रिशूल बनाया था तो एक ही शस्त्र पर उसके तीन मुख होने के कारण यह तीन दैत्यों का एक साथ संहार कर सकता था। महाकाल ने पूरे वेग से त्रिशूल का प्रहार किया और त्रिपुर नामक तीनों दैत्यों की शक्ति को विदीर्ण कर डाला। धर्म की जीत हुई अधर्म हारा। त्रिपुरों की तीनों माया नगरियों के मोहान्ध निवासियों को मुक्ति मिली। वे विवेक पूर्वक स्वतंत्र बुद्धि से सोचने और जो श्रेयस्कर दीखे उसे करने में लग गये। इस प्रकार मानवता पर आया हुआ एक महान् संकट टल गया। भगवान् महाकाल की इस विजय का सर्वत्र अभिवादन हुआ और इस महती विजय के उपलक्ष्य में उन्हें त्रिपुरारी कहा जाने लगा।
त्रिपुरों की तीन पुरी ये हैं- ( १) लोभ ( २) मोह ( ३) अहं। यह तीनों आपस में जुड़े हुए हैं। धन को लक्ष्य बनाकर सोचने करने और जीवित रहने वाला व्यक्ति नीति-अनीति का विचार किये बिना जीवन के महान् उद्देश्यों को भुलाकर केवल मात्र आपाधापी में आवश्यक- अनावश्यक उपार्जन-संग्रह में लगा रहता है। यह जानते हुए भी कि शरीर निर्वाह के लिये जितना आवश्यक है उसके अतिरिक्त यह बचा हुआ सारा संग्रह तथाकथित बेटे-पोतों या सम्बन्धी कुटुम्बियों द्वारा लूट लिया जाता है मनुष्य समझता नहीं बदलता नहीं। लोभ की माया-मरीचिका उसके विवेक का अपहरण कर लेती है और जाल में फँसे हुए पक्षी की तरह उसी दिशा में घिसटता जाता है जिसमें कि वधिक उसे खींचना चाहता है। लोभ की तृष्णा आज भी अधिकांश लोगों पर छाई हुई है। भले ही परिस्थितियों अमीर न बनने दें, पर सोचते सब वही हैं करते सब वहीं हैं। कैसी खेदजनक विडम्बना है कि मनुष्य मानव जीवन की महत्ता, उसके उद्देश्य और उपयोग को पूर्णतया भूल जाता है उसकी ओर से विमुख बना रहता है और अनावश्यक अर्थ तृष्णा को ललक में मूल्यवान जीवन समाप्त कर देता है। जाते समय केवल पाप की गठरी ही सिर पर होती है। यह एक आसुरी सम्मोहन ही है जिसके जाल में विवेकशील समझा जाने वाला मानव प्राणी इस बुरी तरह जकड़ा हुआ है कि जो करना चाहिये था वह कर नहीं पाता जो नही करना चाहिये था उसे करने में लगा रहता है। त्रिपुर असुरों की जिस माया ने प्राचीन काल में मनुष्यों को सम्मोहित कर अपनी नगरी में बसा रखा था आज भी लगभग वैसी ही स्थिति है।
त्रिपुर दैत्यों का दूसरा पुर हैं-व्यामोह। इन्द्रियाँ जो जीवन को सुसंचालित करने में रथ चक्र मात्र हैं, आज विलासिता एवं उपभोग का आधार बन गयी हैं। जिह्वा का चटोरपन और कामेन्द्रिय की लोलुपता हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को चौपट करके रखे दे रही है। जिह्वा का चटोरपन व्यक्ति और परिवार का जितना नाश करता है कामलोलुपता उससे हजारों लाखों गुनी क्षति पहुँचाती है। गृहस्थ जीवन की शान्ति, सन्तान की शुचिता, संस्कृति और सामाजिक सुव्यवस्था सभी पर इस दुष्प्रवृत्ति का घातक प्रभाव पडता है। मानसिक व्यभिचार तो शारीरिक विलासिता से भी अधिक व्यापक और भयावह बन चला है उसने भावनात्मक आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को एक प्रकार से चौपट करके ही रख दिया है। विलासिता का यह व्यामोह जितना घातक है उतना ही हमें प्राणप्रिय लगा करता है, उसे त्रिपुर असुरों की माया-मरीचिका कहें तो इसमें कुछ अत्युक्ति न होगी।
व्यामोह का दूसरा रूप है छोटे से घर में रहने वाले या जिनसे रिश्ता सम्बन्ध है, उन थोड़े से व्यक्तियों को ही अपना मानना और उन्हीं के लिये आजीवन मरतें-खपते रहना। लोग यह भूल ही गये हैं कि संसार भी हमारा कुटुम्ब है और संसार के पिछड़े और असमर्थ लोगों को उठाना भी हमारा एक कर्तव्य है। देश धर्म समाज संस्कृति की सेवा के लिये मनुष्य जीवन मिला है उसका किसी को आन नहीं। जो सोचता है अपने बेटे-पोतों की ही बात सोचता है। भलें ही वे समर्थ और स्वावलम्बी हों पर कमाई उन्हीं के लिये की जाती है। जोड़-समेट कर दिया उन्हीं को जाता है। जिनकी सन्तानें नहीं हैं वे प्यासे से फिरते हैं और अपना नहीं तो पराया गोद धरते हैं। इस व्यामोह ने मूल्यवान व्यक्तियों का सत्यानाश करके रख दिया वे बेटे-पोतों से ऊपर उठकर, देश-धर्म की कुछ बात सोचते तो न जाने क्या-क्या कर सकते थे ? पर संकीर्णता का व्यामोह उनके गले में फाँसी के फेरे को तरह काल नाग बनकर लिपट रहा है। बेटे-पोतों को कमाई खिलाकर उद्धत बनाने के निमित्त ही वे बने रहे जो करना था उसके लिये उनमें उदारता जग ही न सकी। संकीर्णता के बन्धन तोड़कर वे एक कदम आगे न सोच सके न बढ़ सके। त्रिपुर दैत्यों की माया मरीचिका से सम्मोहित बिचारे निरीह प्राणी आखिर करें भी क्या ? त्रिपुरों ने उनकी स्वतंत्रता चेतना तो नष्ट कर दी है अब वे वही सोचते वही करते हैं जो वे दुर्दान्त दैत्य उन्हें सोचने करने को विवश करते हैं। आज नजर पसार कर देखते हैं तो स्थिति वही प्रतीत होती है जब धर्म हा-हाकार करने लगा था और अपनी प्राण रक्षा के लिये प्रजापति से जा पुकारा था।
त्रिपुरों का तीसरा पुर है-अहंकार। मिट्टी से पैदा हुआ मिट्टी में मिलने वाला-मल, मूत्र और हाड़-मांस का ढेर-कीड़े-मकोड़े जैसा तुच्छ मानव प्राणी जब अपनी भौतिक उप्लब्धियों पर इतराता है, तब हँसी रोके नहीं रुकती। रूप-लावण्य की वेश-विन्यास कीं, श्रृंगार-प्रसाधनों की उसे ऐसी धुन सवार है कि न जाने क्या बनना चाहता है, न जाने क्या देखना या दिखाना चाहता है। हर घड़ी यह अभागा नर-कंकाल इसी उधेड़- बुन में लगा रहता है कि अपनी वस्तुस्थिति को छिपाकर दूसरों की आँखों को धोखे में डालकर कैसे से कैसा दीखने लगूँ। शरीर रक्षा पर जितना समय और धन खर्च किया जाता है उससे दूना-चौगुना यह दुनियाँ श्रृंगार सज्जा पर व्यय कर रही है, फिर भी जैसी कुरूप थी वैसी की बैसी बनी हुई है।
व्यवहार, बोल-चाल, शान-शौकत, ठाट-बाट, सज-धज के स्वाँग और अमीरी के चोंचले देखकर लगता है नाचीज-सा आदमी कहीं पागल तो नहीं हो गया है। जीवन की आवश्यकतायें थोड़ी-सी हैं जो बड़ी आसानी से पूरी की जा सकती हैं पर ठाठ तो सुरसा के मुँह की तरह है, जिसकी भूख कभी बुझती ही नहीं। जो भी कमाई है वह कम पड़ जाती है, और विलासिता के साधन जुटाने में हर समय आर्थिक तंगी बनी रहती है। व्याह-शादियों में अमीरों जैसा भौंडा स्वांग गरीब लोग ही बनाते हैं उसे देखकर हँसी रोके नहीं रुकती। अपनी छोटी-सी हस्ती की सफलता और उप्लब्धियों का लोग ऐसा ओछा और भौंडा विज्ञापन करते हैं कि कई बार यह शक होने लगता है कि आदमी अभी जंगली युग से आगे बढ़ पाया है या नहीं ? सभ्य बनने की उसकी डींग कहीं आत्म प्रवंचना ही तो नहीं है ? एक-दूसरे के साथ इतराकर बड़प्पन का रौब गाँठते हुए उद्धत, उच्छृंखल अवज्ञा और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं। उच्छृंखलता उद्दण्डता, गुण्डागर्दी बरतते हैं, शोषण, उत्पीड़न, छल, द्वेष और अनाचार की रीतिनीति अपनाते हैं तब यही कहा जा सकता है कि अभी भी हम नर-पशु एवं नर-पिशाच ही बने हुए हैं। अहंकार मनुष्य का निकृष्टतम कमीनापन है। जो जितना उद्धत और अशिष्ट है,उच्छृंखल और अनियंत्रित है, ढोंगी और शेखीखोर है, उसे उतना ही छोटा, हेय और नीच समझना चाहिये। दुर्भाग्य से यह अहंकार आज मानव जाति पर इस बुरी तरह आच्छादित है कि उसकी मूल सत्ता एवं आत्मा का स्वरूप ही उलट गया प्रतीत होता है। तथाकथित स्वाभिमान के नाम पर लोग कितने अशिष्ट कृतघ्न और ओछे बनते जा रहे हैं उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि यह युग अहंकार की दानवी छाया-माया से पूरी तरह आच्छादित हो चला है।
त्रिपुर दैत्यों ने अपनी माया नगरी में लोभ, व्यामोह और अहंकार की सत्ता स्थापित की और उनमें बसे हुए सभी लोगों को सम्मोहित कर कठपुतली को तरह अपने इशारों पर नचाया था। लगता है कि वर्तमान समय में भी वही स्थिति चल रही है। अशिक्षित असभ्य लोगों से लेकर सुशिक्षित तथाकथित नेता, धर्मोपदेशक, कलाकार, विद्वान् ज्ञानी, गुणी सभी एक ही दिशा में चल रहे हैं। त्रिदोष जनित सन्निपात से हर कोई बहकी-बहकी बातें कर रहा है और उद्धत आचरण की कुचेष्टा बरत रहा है। दुष्परिणाम सामने है। व्यक्तिगत, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक हर क्षेत्र में घोर अव्यवस्था फैल रही है। जिधर भी दृष्टि पसारी जाय उधर अनुपयुक्त, अनावश्यक एवं अवांछनीय के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। ऐसी विकृत एवं विपन्न अवस्था में विद्रोह, विस्फोट, विक्षोभ, अशान्ति, उद्वेग, अव्यवस्था असन्तोष एवं शोक-संताप एवं दुःख-दारिद्र की परिस्थितियों ही विनिर्मित हो सकती हैं। आज यही सब कुछ प्रस्तुत है। व्यक्ति की आत्मा मरणासन्न स्थिति में आ पहुँची है और समाज सर्वनाश के कगार पर खड़ा थर-थर काँप रहा है।
धर्म फिर हा-हाकार कर उठा है। मानवता फिर चीत्कार करने लगी है। धरती पर फिर पाप का बोझ असह्य हो उठा है। सबने मिलकर प्रजापति से पुकार की है कि हे विधाता! इस दुर्विचार को सुधारो। प्रजापति महाकाल को निर्देश कर चुके हैं, वे स्थिति को देख-समझ रहे हैं और इसी निश्चय-निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि लाखों वर्ष पूर्व अतीत काल में त्रिपुरों ने जो उपद्रब मचाया था, वे अब पिछला पाठ भूलकर उसी की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। उन्होने अपनी माया-मरीचिका में फिर से इस संसार को जकड़ लिया है और पूर्व काल की तरह इस स्वर्ग सुन्दर वसुन्धरा को शोक-सन्ताप में निमग्न कर दिया है। पृथ्वी को उबारने के लिये वे अपने त्रिशूल पर फिर से धार धर रहे हैं। भौतिक संहार तो होते ही हैं साथ ही उनके पीछे मूल प्रयोजन भावनात्मक, वैयक्तिक, मानसिक तथा व्यावहारिक दृष्टि से मानवीय प्रवृत्तियों को उस दिशा में मोड़ देना है जिससे लोक-मानस के लिये सत् का शिव का आनन्द का अमृतोपम रसास्वादन कर सकना सम्भव हो सके।
त्रिपुरारि महाकाल ने अतीत में भी विविध माया-मरीचिका को अपने ( १) शिक्षण ( २) संहार ( ३) निर्माण के त्रिशूल से तोड़-फोड़कर विदीर्ण किया था अब वे फिर उसी की पुनरावृत्ति करने वाले हैं। धर्म जीतने वाला है अधर्म हारने वाला है। लोभ, व्यामोह और अहंकार के काल पाशों से मानवता को पुन: मुक्ति मिलने वाली है। संहार की आग में तपा हुआ मनुष्य अगले ही दिनों पश्चात्ताप, संयम और नम्रता का पाठ पढ़कर सज्जनोचित प्रवृत्तियाँ अपनाने वाला है। वह शुभ दिन लाने वाले त्रिपुरारी-महाकाल आपकी जय हो! विजय हो!!
धर्म ने प्रजापति से गुहार की, प्रजापति ने महाकाल को इसके लिये नियोजित किया क्योंकि वे ही परिवर्तनों के अधिष्ठाता देवता हैं। धर्म की पूरी बात भगवान शंकर ने सुनी और स्थिति को समझा। तीन पुर बसाने वाले वे तीन दैत्य यद्यपि अलग-अलग हैं, पर वस्तुत: वे परस्पर पूर्णतया घुले-मिले हैं। उनके तीन पुर भी अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुत: वे परस्पर एक-दूसरे का पोषण अभिवर्धन करते हैं। यह तीनों दैत्य साधारण रीति से नहीं मर सकते। उन्हें अभय वरदान यह मिला हुआ है कि जब वे मरेगे तब एक साथ हो मरगे और एक ही अस्त्र से मरेगे। वे दैत्य बड़े चतुर थे इसलिये -उन्होंने ऐसा वरदान माँगा था। वे जानते थे कि हममें से एक को भी परास्त करना सहज नहीं, फिर तीनों को एक साथ चुनौती देने का तो साहस ही कौन करेगा। इस पर भी कोई लड़ने आये तो फिर उसके पास ऐसा शस्त्र नहीं हो सकता जो तीनों को एक साथ, एक ही बार में एक ही क्षण मारे। यह असंभव जैसा कार्य नहीं कर सकेगा, इसलिये दैत्य होने के कारण अमर न हो सकने पर भी एक प्रकार से अमर ही बने रहेगे।
भगवान शिव ने स्थिति पर विचार किया और उनने इन दैत्यों से समस्त मानवता का उद्धार करने का उपाय खोज निकाला। उन्होंने जो त्रिशूल बनाया था तो एक ही शस्त्र पर उसके तीन मुख होने के कारण यह तीन दैत्यों का एक साथ संहार कर सकता था। महाकाल ने पूरे वेग से त्रिशूल का प्रहार किया और त्रिपुर नामक तीनों दैत्यों की शक्ति को विदीर्ण कर डाला। धर्म की जीत हुई अधर्म हारा। त्रिपुरों की तीनों माया नगरियों के मोहान्ध निवासियों को मुक्ति मिली। वे विवेक पूर्वक स्वतंत्र बुद्धि से सोचने और जो श्रेयस्कर दीखे उसे करने में लग गये। इस प्रकार मानवता पर आया हुआ एक महान् संकट टल गया। भगवान् महाकाल की इस विजय का सर्वत्र अभिवादन हुआ और इस महती विजय के उपलक्ष्य में उन्हें त्रिपुरारी कहा जाने लगा।
त्रिपुरों की तीन पुरी ये हैं- ( १) लोभ ( २) मोह ( ३) अहं। यह तीनों आपस में जुड़े हुए हैं। धन को लक्ष्य बनाकर सोचने करने और जीवित रहने वाला व्यक्ति नीति-अनीति का विचार किये बिना जीवन के महान् उद्देश्यों को भुलाकर केवल मात्र आपाधापी में आवश्यक- अनावश्यक उपार्जन-संग्रह में लगा रहता है। यह जानते हुए भी कि शरीर निर्वाह के लिये जितना आवश्यक है उसके अतिरिक्त यह बचा हुआ सारा संग्रह तथाकथित बेटे-पोतों या सम्बन्धी कुटुम्बियों द्वारा लूट लिया जाता है मनुष्य समझता नहीं बदलता नहीं। लोभ की माया-मरीचिका उसके विवेक का अपहरण कर लेती है और जाल में फँसे हुए पक्षी की तरह उसी दिशा में घिसटता जाता है जिसमें कि वधिक उसे खींचना चाहता है। लोभ की तृष्णा आज भी अधिकांश लोगों पर छाई हुई है। भले ही परिस्थितियों अमीर न बनने दें, पर सोचते सब वही हैं करते सब वहीं हैं। कैसी खेदजनक विडम्बना है कि मनुष्य मानव जीवन की महत्ता, उसके उद्देश्य और उपयोग को पूर्णतया भूल जाता है उसकी ओर से विमुख बना रहता है और अनावश्यक अर्थ तृष्णा को ललक में मूल्यवान जीवन समाप्त कर देता है। जाते समय केवल पाप की गठरी ही सिर पर होती है। यह एक आसुरी सम्मोहन ही है जिसके जाल में विवेकशील समझा जाने वाला मानव प्राणी इस बुरी तरह जकड़ा हुआ है कि जो करना चाहिये था वह कर नहीं पाता जो नही करना चाहिये था उसे करने में लगा रहता है। त्रिपुर असुरों की जिस माया ने प्राचीन काल में मनुष्यों को सम्मोहित कर अपनी नगरी में बसा रखा था आज भी लगभग वैसी ही स्थिति है।
त्रिपुर दैत्यों का दूसरा पुर हैं-व्यामोह। इन्द्रियाँ जो जीवन को सुसंचालित करने में रथ चक्र मात्र हैं, आज विलासिता एवं उपभोग का आधार बन गयी हैं। जिह्वा का चटोरपन और कामेन्द्रिय की लोलुपता हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को चौपट करके रखे दे रही है। जिह्वा का चटोरपन व्यक्ति और परिवार का जितना नाश करता है कामलोलुपता उससे हजारों लाखों गुनी क्षति पहुँचाती है। गृहस्थ जीवन की शान्ति, सन्तान की शुचिता, संस्कृति और सामाजिक सुव्यवस्था सभी पर इस दुष्प्रवृत्ति का घातक प्रभाव पडता है। मानसिक व्यभिचार तो शारीरिक विलासिता से भी अधिक व्यापक और भयावह बन चला है उसने भावनात्मक आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को एक प्रकार से चौपट करके ही रख दिया है। विलासिता का यह व्यामोह जितना घातक है उतना ही हमें प्राणप्रिय लगा करता है, उसे त्रिपुर असुरों की माया-मरीचिका कहें तो इसमें कुछ अत्युक्ति न होगी।
व्यामोह का दूसरा रूप है छोटे से घर में रहने वाले या जिनसे रिश्ता सम्बन्ध है, उन थोड़े से व्यक्तियों को ही अपना मानना और उन्हीं के लिये आजीवन मरतें-खपते रहना। लोग यह भूल ही गये हैं कि संसार भी हमारा कुटुम्ब है और संसार के पिछड़े और असमर्थ लोगों को उठाना भी हमारा एक कर्तव्य है। देश धर्म समाज संस्कृति की सेवा के लिये मनुष्य जीवन मिला है उसका किसी को आन नहीं। जो सोचता है अपने बेटे-पोतों की ही बात सोचता है। भलें ही वे समर्थ और स्वावलम्बी हों पर कमाई उन्हीं के लिये की जाती है। जोड़-समेट कर दिया उन्हीं को जाता है। जिनकी सन्तानें नहीं हैं वे प्यासे से फिरते हैं और अपना नहीं तो पराया गोद धरते हैं। इस व्यामोह ने मूल्यवान व्यक्तियों का सत्यानाश करके रख दिया वे बेटे-पोतों से ऊपर उठकर, देश-धर्म की कुछ बात सोचते तो न जाने क्या-क्या कर सकते थे ? पर संकीर्णता का व्यामोह उनके गले में फाँसी के फेरे को तरह काल नाग बनकर लिपट रहा है। बेटे-पोतों को कमाई खिलाकर उद्धत बनाने के निमित्त ही वे बने रहे जो करना था उसके लिये उनमें उदारता जग ही न सकी। संकीर्णता के बन्धन तोड़कर वे एक कदम आगे न सोच सके न बढ़ सके। त्रिपुर दैत्यों की माया मरीचिका से सम्मोहित बिचारे निरीह प्राणी आखिर करें भी क्या ? त्रिपुरों ने उनकी स्वतंत्रता चेतना तो नष्ट कर दी है अब वे वही सोचते वही करते हैं जो वे दुर्दान्त दैत्य उन्हें सोचने करने को विवश करते हैं। आज नजर पसार कर देखते हैं तो स्थिति वही प्रतीत होती है जब धर्म हा-हाकार करने लगा था और अपनी प्राण रक्षा के लिये प्रजापति से जा पुकारा था।
त्रिपुरों का तीसरा पुर है-अहंकार। मिट्टी से पैदा हुआ मिट्टी में मिलने वाला-मल, मूत्र और हाड़-मांस का ढेर-कीड़े-मकोड़े जैसा तुच्छ मानव प्राणी जब अपनी भौतिक उप्लब्धियों पर इतराता है, तब हँसी रोके नहीं रुकती। रूप-लावण्य की वेश-विन्यास कीं, श्रृंगार-प्रसाधनों की उसे ऐसी धुन सवार है कि न जाने क्या बनना चाहता है, न जाने क्या देखना या दिखाना चाहता है। हर घड़ी यह अभागा नर-कंकाल इसी उधेड़- बुन में लगा रहता है कि अपनी वस्तुस्थिति को छिपाकर दूसरों की आँखों को धोखे में डालकर कैसे से कैसा दीखने लगूँ। शरीर रक्षा पर जितना समय और धन खर्च किया जाता है उससे दूना-चौगुना यह दुनियाँ श्रृंगार सज्जा पर व्यय कर रही है, फिर भी जैसी कुरूप थी वैसी की बैसी बनी हुई है।
व्यवहार, बोल-चाल, शान-शौकत, ठाट-बाट, सज-धज के स्वाँग और अमीरी के चोंचले देखकर लगता है नाचीज-सा आदमी कहीं पागल तो नहीं हो गया है। जीवन की आवश्यकतायें थोड़ी-सी हैं जो बड़ी आसानी से पूरी की जा सकती हैं पर ठाठ तो सुरसा के मुँह की तरह है, जिसकी भूख कभी बुझती ही नहीं। जो भी कमाई है वह कम पड़ जाती है, और विलासिता के साधन जुटाने में हर समय आर्थिक तंगी बनी रहती है। व्याह-शादियों में अमीरों जैसा भौंडा स्वांग गरीब लोग ही बनाते हैं उसे देखकर हँसी रोके नहीं रुकती। अपनी छोटी-सी हस्ती की सफलता और उप्लब्धियों का लोग ऐसा ओछा और भौंडा विज्ञापन करते हैं कि कई बार यह शक होने लगता है कि आदमी अभी जंगली युग से आगे बढ़ पाया है या नहीं ? सभ्य बनने की उसकी डींग कहीं आत्म प्रवंचना ही तो नहीं है ? एक-दूसरे के साथ इतराकर बड़प्पन का रौब गाँठते हुए उद्धत, उच्छृंखल अवज्ञा और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं। उच्छृंखलता उद्दण्डता, गुण्डागर्दी बरतते हैं, शोषण, उत्पीड़न, छल, द्वेष और अनाचार की रीतिनीति अपनाते हैं तब यही कहा जा सकता है कि अभी भी हम नर-पशु एवं नर-पिशाच ही बने हुए हैं। अहंकार मनुष्य का निकृष्टतम कमीनापन है। जो जितना उद्धत और अशिष्ट है,उच्छृंखल और अनियंत्रित है, ढोंगी और शेखीखोर है, उसे उतना ही छोटा, हेय और नीच समझना चाहिये। दुर्भाग्य से यह अहंकार आज मानव जाति पर इस बुरी तरह आच्छादित है कि उसकी मूल सत्ता एवं आत्मा का स्वरूप ही उलट गया प्रतीत होता है। तथाकथित स्वाभिमान के नाम पर लोग कितने अशिष्ट कृतघ्न और ओछे बनते जा रहे हैं उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि यह युग अहंकार की दानवी छाया-माया से पूरी तरह आच्छादित हो चला है।
त्रिपुर दैत्यों ने अपनी माया नगरी में लोभ, व्यामोह और अहंकार की सत्ता स्थापित की और उनमें बसे हुए सभी लोगों को सम्मोहित कर कठपुतली को तरह अपने इशारों पर नचाया था। लगता है कि वर्तमान समय में भी वही स्थिति चल रही है। अशिक्षित असभ्य लोगों से लेकर सुशिक्षित तथाकथित नेता, धर्मोपदेशक, कलाकार, विद्वान् ज्ञानी, गुणी सभी एक ही दिशा में चल रहे हैं। त्रिदोष जनित सन्निपात से हर कोई बहकी-बहकी बातें कर रहा है और उद्धत आचरण की कुचेष्टा बरत रहा है। दुष्परिणाम सामने है। व्यक्तिगत, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक हर क्षेत्र में घोर अव्यवस्था फैल रही है। जिधर भी दृष्टि पसारी जाय उधर अनुपयुक्त, अनावश्यक एवं अवांछनीय के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। ऐसी विकृत एवं विपन्न अवस्था में विद्रोह, विस्फोट, विक्षोभ, अशान्ति, उद्वेग, अव्यवस्था असन्तोष एवं शोक-संताप एवं दुःख-दारिद्र की परिस्थितियों ही विनिर्मित हो सकती हैं। आज यही सब कुछ प्रस्तुत है। व्यक्ति की आत्मा मरणासन्न स्थिति में आ पहुँची है और समाज सर्वनाश के कगार पर खड़ा थर-थर काँप रहा है।
धर्म फिर हा-हाकार कर उठा है। मानवता फिर चीत्कार करने लगी है। धरती पर फिर पाप का बोझ असह्य हो उठा है। सबने मिलकर प्रजापति से पुकार की है कि हे विधाता! इस दुर्विचार को सुधारो। प्रजापति महाकाल को निर्देश कर चुके हैं, वे स्थिति को देख-समझ रहे हैं और इसी निश्चय-निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि लाखों वर्ष पूर्व अतीत काल में त्रिपुरों ने जो उपद्रब मचाया था, वे अब पिछला पाठ भूलकर उसी की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। उन्होने अपनी माया-मरीचिका में फिर से इस संसार को जकड़ लिया है और पूर्व काल की तरह इस स्वर्ग सुन्दर वसुन्धरा को शोक-सन्ताप में निमग्न कर दिया है। पृथ्वी को उबारने के लिये वे अपने त्रिशूल पर फिर से धार धर रहे हैं। भौतिक संहार तो होते ही हैं साथ ही उनके पीछे मूल प्रयोजन भावनात्मक, वैयक्तिक, मानसिक तथा व्यावहारिक दृष्टि से मानवीय प्रवृत्तियों को उस दिशा में मोड़ देना है जिससे लोक-मानस के लिये सत् का शिव का आनन्द का अमृतोपम रसास्वादन कर सकना सम्भव हो सके।
त्रिपुरारि महाकाल ने अतीत में भी विविध माया-मरीचिका को अपने ( १) शिक्षण ( २) संहार ( ३) निर्माण के त्रिशूल से तोड़-फोड़कर विदीर्ण किया था अब वे फिर उसी की पुनरावृत्ति करने वाले हैं। धर्म जीतने वाला है अधर्म हारने वाला है। लोभ, व्यामोह और अहंकार के काल पाशों से मानवता को पुन: मुक्ति मिलने वाली है। संहार की आग में तपा हुआ मनुष्य अगले ही दिनों पश्चात्ताप, संयम और नम्रता का पाठ पढ़कर सज्जनोचित प्रवृत्तियाँ अपनाने वाला है। वह शुभ दिन लाने वाले त्रिपुरारी-महाकाल आपकी जय हो! विजय हो!!