
Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ध्वंस के देवता और सृजन की देवी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
संसार की जराजीर्ण और अवांछनीय परिस्थितियों के सामान्य सुधार प्रयत्न सफल न होते देख जब महाकाल ने ताण्डव नृत्य किया तो अनुपयुक्त कूडा़-करवट जल-बलकर भस्म होने लगा। यह ध्वंसकाल स्वरूप समय की स्थिति है। बड़े-बड़े महल कुछ ही समय में गिराये जा सकते हैं, पर उनका बनाना कठिन होता है और समय साध्य भी। ध्वंस से निर्माण का महत्व अधिक है। जब ध्वंस हो चुका तो महाकाल का कार्य समाप्त हो गया और सृजन की देवी महाकाली आगे आयी। उसने महाकाल से उसका ताण्डव बन्द कराया। उन्हें भूमि पर लिटा दिया और स्वयं आगे बढ़कर सृजनात्मक क्रिया-कलाप में संलग्न हो गयी।
महाकाली को पुराणों में इस प्रकार चित्रित किया गया है कि महाकाल भूमि पर लेटे हुए हैं और वे उनकी छाती पर खड़ी अट्टहास कर रही हैं। यों पति की छाती पर पत्नी का खड़ा होना अटपटा-सा लगता है पर पहेलियों में यह अटपटापन जहाँ कौतूहल वर्धक एवं मनोरंजक होता है, वहाँ ज्ञान वर्धक भी। कबीर की उल्टावांसी और खुसरो की ‘मुकरनीं’ पहेलियों के रूप में सामने आती हैं और अपना रहस्य जानने के लिये बुद्धिमत्ता को चुनौती देती है। भूमि पर लेटे हुए शिव की छाती पर काली का खड़े होकर अट्टहास करना घटना के रूप में घटित हुआ था या नहीं इस झंझट में पड़ने की अपेक्षा हमें उसमें सन्निहित धर्म और तथ्य को समझने का प्रयत्न करना चाहिये।
ध्वंस एक आपत्ति धर्म है-सृजन सनातन प्रक्रिया। इसलिये ध्वंस को रुकना पड़ता है, थक कर लेट जाना और सो जाना पड़ता है। तब सृजन को दुहरा काम करना पड़ता है। एक तो स्वाभाविक सृष्टि संचालन की रचनात्मक प्रक्रिया का संचालन- दूसरे ध्वंस के कारण हुई विशेष क्षति की विशेष पूर्ति का आयोजन। इस दुहरी उपयोगिता के कारण ध्वंस के देवता महाकाल की अपेक्षा संभवत: सृजन की देवी महाकाली का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। शिव जब पड़े होते हैं तब शक्ति खडी होती है। शिव पीछे पड़ जाते हैं शक्ति आगे आती हैं। शिव सोये होते हैं और शक्ति जागृत रहती है। शिव का महत्व घट जाता है और शक्ति की गतिशीलता पूजी जाती है। महाकाल की छाती पर खड़े होकर महाकाली का अट्टहास करना इसी तथ्य का अलंकारिक चित्रण है।
शिव के हाथों में त्रिशूल अवश्य है, वे उसका अनिवार्य परिस्थितियों में प्रयोग भी करते हैं पर स्वय में उनके सृजन की असीम करुणा ही भरी रहती है। सृजन की देवी काली उनकी हृदयेस्वरी है। उसे वे सदा अपने हृदय में स्थान दिये रहते हैं। आवश्यकतानुसार वह मूर्तिमान गतिशील और प्रखर हो उठती है। ध्वंस के अवसर पर तो उसकी आवश्यकता और भी अधिक हो उठती है। आपरेशन के समय डाक्टर को चाकू, कैंची, आरी, सुई आदि तीक्ष्ण धार वाले शस्त्रों की भी जरूरत पड़ती है पर उससे भी अधिक सामग्री मरहम पट्टी की जुटानी पड़ती है। आपरेशन के समय किये गये घाव को भरा कैसे जाये ? इसकी आवश्यकता भी डाक्टर समझते हैं अतएव वे रुई गौज, मरहम पट्टी, दवायें आदि भी बड़ी मात्रा में पास रख लेते हैं। ध्वंस प्रक्रिया आपरेशन है तो निर्माण मरहम-पट्टी। भगवान को ध्वंस करना पड़ता है पर मूल में अभिनव सृजन की आकांक्षा ही रहती है। क्रूर कर्म में भी अनन्त करुणा ही छिपी रहती है। महाकाल की आतरिक इच्छा सृजनात्मक ही है, यही उनकी हृदयगत आकांक्षा है। अस्तु शक्ति को शिव के हृदय के स्थान पर इस प्रकार अवस्थित दिखाया गया है मानो वह हृदय में से ही निकल कर मूर्तिमान हो रही हो।
इस चित्रण का एक और भी उद्देश्य है कि विनाश के उपरान्त होने वाले पुनर्निर्माण में मातृ शक्ति का ही प्रमुख हाथ रहता है। बाप द्वारा प्रताड़ना दिये जाने पर बच्चा माँ के पास ही दौड़ता है और तब वही उसे अपने अंचल में छिपाती, छाती से लगाती, पुचकारती और दुलारती है। मात्-शक्ति करुणा की स्रोत है। अस्पतालों में नर्स का काम महिलायें जैसी अच्छी तरह कर सकती हैं उतनी पुरुष द्वारा नहीं, छोटे बालकों को शिक्षा देने वाले बाल-मंदिर, शिशु सदनों में महिलाओं द्वारा जैसी अच्छी तरह प्रशिक्षण दिया जा सकता है, उतना पुरुषों द्वारा नहीं। कारण कि उनके अन्दर स्वभावत: जिस करुणा, दया, ममता, सेवा, सौजन्य एवं सहृदयता का बाहुल्य रहता है, उतना पुरुष में नहीं पाया जाता। पुरुष प्रकृतित: कठोर है और नारी कोमल दोनों का सम्मिश्रण सम्मिलित होने से एक संतुलित स्थिति बनती है अन्यथा एकाकी रहने वाले पुरुष सेना जैसे कठोर कार्यो के लिये ही उपयुक्त हो सकते हैं।
यदि वर्तमान अवांछनीय परिस्थितियों की जिम्मेदारी नर-नारी में से किसकी कितनी है इसका विश्लेषण किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि ९० प्रतिशत उद्धतता पुरुषों द्वारा बरती गयी है, क्रूर कर्मों और दुर्भावनाओं के अभिवर्धन में उन्हीं का प्रमुख हाथ है। अपराधी, दुष्ट, दुरात्मा, और दण्डभोक्ता व्यक्तियों में पुरुषों की ही संख्या ९० प्रतिशत होती है। वर्तमान उद्धतता की जिम्मेदारी प्रधानतया पुरुषों की होने के कारण दण्ड भाग भी उन्हीं के हिस्से में आयेगा। भावी विनाश में प्रताड़ना उन्हीं के हिस्से में अधिक आने वाली है। नारी क्रूर कर्मों से बची रहती है, उसमें उसका योगदान नगण्य होता है इसलिये वह अपनी आध्यात्मिक गरिमा के कारण पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक पवित्र, उज्ज्वल, सौम्य रहने के कारण दुर्देव की कोपभाजन नहीं बनती। शिव की छाती पर शक्ति के खड़े होने का एक तात्पर्य यह भी है कि आत्मिक श्रेष्ठता की कसौटी पर कसे जाने पर नारी की गरिमा ही अधिक भारी बैठती है। वही ऊपर रहती है। पुरुष इस दृष्टि से जब कि गिरा हुआ सिद्ध होता है तब नारी अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित करती हुई गर्वोन्नत प्रसन्न वदन खड़ी होती है।
भावी नव-निर्माण में इमारतों, सड़कों, कल-कारखानों, सेना अथवा शस्त्रों का अभिवर्धन प्रधान नहीं वरन् भावनात्मक निर्माण की प्रधानता रहेगी। इस क्षेत्र में नारी का ज्ञान, अनुभव तथा अधिकार असंदिग्ध है। इसलिये स्वभावत: जो जिसका अधिकारी है वही इस उत्तरदायित्व को वहनं करेगा। भावी पुनरुत्थान में प्रधान भूमिका नर की नहीं नारी की होगी। विनाश की भूमिका का सरंजाम जुटाने में पुरुष आगे रहेगा, क्रूर कर्मों में उसी की बुद्धि आगे चलती है। सामान्य जीवन आनन्द की हत्या उसी ने की है। विश्व शान्ति पर आक्रमण उसी ने किया है। अब अपनी दुष्टता की पूर्णाहुति में भी अपनी कला के दो-दो हाथ वही दिखावे तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन भावनात्मक नवनिर्माण की, इसके तुरन्त बाद ही जिस पुनरुत्थान की आवश्यककता पड़ेगी उसे पूरा न कर सकेगा। यह कार्य नारी को करना है। इसी तथ्य को प्रतिपादित करती हुई महाकाल के थक जाने पर उसकी छाती पर महाकाली का हासविलास होता चित्रित किया गया है।
पुरुष में अन्य विशेषतायें कितनी ही क्यों न हों, भावनात्मक क्षेत्र में, आध्यात्मिक क्षेत्र में-नारी से वह बहुत पीछे है। यही कारण है कि साधना क्षेत्र में नारी ने जब भी प्रवेश किया है वह पुरुष की तुलना में सौं-गुनी तीव्र गति से आगे बड़ी है। उसे इस दिशा में अघिक शीघ्र और अधिक महत्वपूर्ण सफलतायें मिलती हैं। माता को कन्यायें अधिक प्रिय होती हैं उन्हें वे दुलार भी अधिक करती हैं और अनुग्रह भी। अध्यात्म की अधिष्ठात्री महाशक्ति का अवतरण अनुग्रह यदि नारी साधकों पर अधिक सरलता से अधिक मात्रा में होता है, तो यह उचित ही है। भावी नवनिर्माण में जिस स्तर की क्षमता, योग्यता, पूँजी एवं तत्परता की आवश्यकता होगी वह स्वभावत: नारी में ही प्रचुरतापूर्वक मिलेगी। इसलिये मर्माहत पुरुष को कसक कराह के साथ विश्राम करने देकर नारी हो आगे बढ़ेगी और वही पुररुत्थान की परिस्थितियों का सृजन करेगी। समय-समय पर ऐसा होता भी आया है। पुरुष आध्यात्मवादियों की सफलताओं के पीछे प्रधान भूमिका नारी की ही रही है। वह सहयोग ख्याति भले ही न प्राप्त कर सकी हो, पर तथ्य की दृष्टि से यही सुनिश्चित है कि आत्म-बल के उपार्जन में किसी भी पुरुष को अद्भुत सफलता में असाधारण सहयोग किन्हीं नारियों का ही रहा है।
राम की महिमा का श्रेय सीता और कौशिल्या को कम नहीं है। कौशिल्या के प्रशिक्षण तथा सीता के सहयोग को यदि हटा दिया जाय तो राम का वर्चस्व फिर कहाँ रह जायेगा ? सीता के विना राम का चरित्र ही क्या रह जाता है ? उनकी सारी गतिविधियों के पीछे सीता ही आच्छादित है। कृष्ण की बाँसुरी में राधा ही रहती थी। देवकी और यशोदा का बात्सल्य, कुन्ती का प्रोत्साहन और आशीर्वाद, द्रौपदी की श्रद्धा, गोपियों का स्नेह इन सब तत्वों ने मिलकर कृष्ण के कृष्णत्व की पूर्ति की थी। इन उपलब्धियों के अभाव में बेचारे कुछ कर पाते या नहीं इसमें संदेह ही रहता।
बुद्ध का आध्यात्मिक प्रशिक्षण उनकी मौसी द्वारा सम्पन्न हुआ था। तपस्या के बाद लौटे तो उनकी पत्नी यशोधरा भी अनुगामिनी होकर आयी। अम्बपाली के आत्मसमर्पण के उपरान्त तो भगवान् का प्रयोजन हजार गुनी गति से तीव्र हुआ। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व जहाँ आते हैं, वहाँ किसी भी दिशा में अभिवृद्धि होती है। पाण्डवों की महान् भूमिका में द्रौपदी का ‘रोल’ अत्यन्त प्रभावी हैं। एक नारी के द्वारा पाँच नर-रत्नों को प्रचुर बल प्रदान किया गया यह नारी शक्ति भाण्डागार का चिन्ह है। मदालसा ने अपनें सभी पुत्रों को अभीष्ट दिशा में सुसम्पन्न किया था। एक नारी असंख्य मानव प्राणियों को नर से नारायण बनाने में समर्थ हो सकती है। उसकी भावनात्मक सृष्टि इतनी परिपूर्ण है कि कृष्ण का सामयिक अस्तित्व न होने पर भी मीरा ने उन्हें पति रूप में साथ रहने और नाचने के लिये मूर्तिमान कर लिया था।
प्राचीन काल के तपस्वी तत्वदर्शी एवं महामनीषी ऋषियों में प्रत्येक सपत्नीक था। ब्रह्मा विष्णु, महेश आदि सभी देवताओं की पत्नियों सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि उनके वर्चस्व को स्थिर रखने में आधार स्तम्भ की तरह हैं। नारी के रमणी रूप की ही भर्त्सना की गयी है अन्यथा उसकी समग्र सत्ता गंगा की तरह पवित्र और अग्नि की तरह प्रखर है। पिछले दिनों भारतीय राजनैतिक क्रान्ति का नेतृत्व करने में एनी वेसेन्ट की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, आदि कितनी ही महिलायें इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं। इस क्रान्ति युग की परिस्थतियों उत्पन्न करने में जिन महामानवों ने गुप्त किन्तु अद्भुत पुरुषार्थ किया है उनमें रामकृष्ण परमहंस और योगी अरविन्द मूर्धन्य हैं। दोनों को नारी का शक्ति सान्निथ प्राप्त था। परमहंस के साथ महायोगीनी-भैरबी तथा पत्नी शारदामणि और अरविन्द के साथ माताजी का जो अनुपम सहयोग हुआ उसी के बलबूते पर वे लोग अपनी महान् भूमिका सम्पादित कर सके। ऐसे असंख्य उदाहरण भारत तथा विदेशों में विद्यमान हैं जिनसे स्पष्ट है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भावनात्मक उपलब्धियों में नारी का वर्चस्व प्रधान है और इसी के सहयोग से नर को इस दिशा में महान सफलता मिली हैं। शिव की छाती पर शक्ति का खड़े होना इसी तथ्य का उद्घाटन करता है कि अन्य क्षेत्रों में न सही कम से कम आत्मबल की दृष्टि से तो नारी की गरिमा असंदिग्ध है ही।
भावी नव-निर्माण निकट है। उसकी भूमिका में नारी का योगदान प्रधान रहेगा अगले ही दिनों कितनी ही तेजवान् नारियों अपनी महान महिमा के साथ वर्तमान केंचुल को उतार कर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करेंगी और उनके द्वारा नव-निर्माण अभियान का सफल संचालन सम्भव होगा। भावी संसार में नये युग में हर क्षेत्र का नेतृत्व नारी करेगी। पुरुष ने सहस्राब्दियों तक विश्व नेतृत्व अपने हाथ में रखकर अपनी अयोग्यता प्रमाणित कर दी। उसकी क्षमता विकासोन्मुख नहीं विनाशोन्मुख ही सिद्ध हुई। अब वह नेतृत्व उसके हाथ से छिन कर नारी के हाथ जा रहा है। हमें उसमें बाधक नहीं सहायक बनना चाहिये। खिन्न नहीं प्रसन्न होना चाहिये। विरोध नहीं स्वागत करना चाहिये। भावी परिस्थितियों के अनुकूल हमें ढलना चाहिये। इसी का संकेत उस चित्रण में सन्निहित है जिसमें महाकाल को छाती पर महाकाली की प्रतिष्ठापना प्रदर्शित की गयी है।
महाकाली को पुराणों में इस प्रकार चित्रित किया गया है कि महाकाल भूमि पर लेटे हुए हैं और वे उनकी छाती पर खड़ी अट्टहास कर रही हैं। यों पति की छाती पर पत्नी का खड़ा होना अटपटा-सा लगता है पर पहेलियों में यह अटपटापन जहाँ कौतूहल वर्धक एवं मनोरंजक होता है, वहाँ ज्ञान वर्धक भी। कबीर की उल्टावांसी और खुसरो की ‘मुकरनीं’ पहेलियों के रूप में सामने आती हैं और अपना रहस्य जानने के लिये बुद्धिमत्ता को चुनौती देती है। भूमि पर लेटे हुए शिव की छाती पर काली का खड़े होकर अट्टहास करना घटना के रूप में घटित हुआ था या नहीं इस झंझट में पड़ने की अपेक्षा हमें उसमें सन्निहित धर्म और तथ्य को समझने का प्रयत्न करना चाहिये।
ध्वंस एक आपत्ति धर्म है-सृजन सनातन प्रक्रिया। इसलिये ध्वंस को रुकना पड़ता है, थक कर लेट जाना और सो जाना पड़ता है। तब सृजन को दुहरा काम करना पड़ता है। एक तो स्वाभाविक सृष्टि संचालन की रचनात्मक प्रक्रिया का संचालन- दूसरे ध्वंस के कारण हुई विशेष क्षति की विशेष पूर्ति का आयोजन। इस दुहरी उपयोगिता के कारण ध्वंस के देवता महाकाल की अपेक्षा संभवत: सृजन की देवी महाकाली का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। शिव जब पड़े होते हैं तब शक्ति खडी होती है। शिव पीछे पड़ जाते हैं शक्ति आगे आती हैं। शिव सोये होते हैं और शक्ति जागृत रहती है। शिव का महत्व घट जाता है और शक्ति की गतिशीलता पूजी जाती है। महाकाल की छाती पर खड़े होकर महाकाली का अट्टहास करना इसी तथ्य का अलंकारिक चित्रण है।
शिव के हाथों में त्रिशूल अवश्य है, वे उसका अनिवार्य परिस्थितियों में प्रयोग भी करते हैं पर स्वय में उनके सृजन की असीम करुणा ही भरी रहती है। सृजन की देवी काली उनकी हृदयेस्वरी है। उसे वे सदा अपने हृदय में स्थान दिये रहते हैं। आवश्यकतानुसार वह मूर्तिमान गतिशील और प्रखर हो उठती है। ध्वंस के अवसर पर तो उसकी आवश्यकता और भी अधिक हो उठती है। आपरेशन के समय डाक्टर को चाकू, कैंची, आरी, सुई आदि तीक्ष्ण धार वाले शस्त्रों की भी जरूरत पड़ती है पर उससे भी अधिक सामग्री मरहम पट्टी की जुटानी पड़ती है। आपरेशन के समय किये गये घाव को भरा कैसे जाये ? इसकी आवश्यकता भी डाक्टर समझते हैं अतएव वे रुई गौज, मरहम पट्टी, दवायें आदि भी बड़ी मात्रा में पास रख लेते हैं। ध्वंस प्रक्रिया आपरेशन है तो निर्माण मरहम-पट्टी। भगवान को ध्वंस करना पड़ता है पर मूल में अभिनव सृजन की आकांक्षा ही रहती है। क्रूर कर्म में भी अनन्त करुणा ही छिपी रहती है। महाकाल की आतरिक इच्छा सृजनात्मक ही है, यही उनकी हृदयगत आकांक्षा है। अस्तु शक्ति को शिव के हृदय के स्थान पर इस प्रकार अवस्थित दिखाया गया है मानो वह हृदय में से ही निकल कर मूर्तिमान हो रही हो।
इस चित्रण का एक और भी उद्देश्य है कि विनाश के उपरान्त होने वाले पुनर्निर्माण में मातृ शक्ति का ही प्रमुख हाथ रहता है। बाप द्वारा प्रताड़ना दिये जाने पर बच्चा माँ के पास ही दौड़ता है और तब वही उसे अपने अंचल में छिपाती, छाती से लगाती, पुचकारती और दुलारती है। मात्-शक्ति करुणा की स्रोत है। अस्पतालों में नर्स का काम महिलायें जैसी अच्छी तरह कर सकती हैं उतनी पुरुष द्वारा नहीं, छोटे बालकों को शिक्षा देने वाले बाल-मंदिर, शिशु सदनों में महिलाओं द्वारा जैसी अच्छी तरह प्रशिक्षण दिया जा सकता है, उतना पुरुषों द्वारा नहीं। कारण कि उनके अन्दर स्वभावत: जिस करुणा, दया, ममता, सेवा, सौजन्य एवं सहृदयता का बाहुल्य रहता है, उतना पुरुष में नहीं पाया जाता। पुरुष प्रकृतित: कठोर है और नारी कोमल दोनों का सम्मिश्रण सम्मिलित होने से एक संतुलित स्थिति बनती है अन्यथा एकाकी रहने वाले पुरुष सेना जैसे कठोर कार्यो के लिये ही उपयुक्त हो सकते हैं।
यदि वर्तमान अवांछनीय परिस्थितियों की जिम्मेदारी नर-नारी में से किसकी कितनी है इसका विश्लेषण किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि ९० प्रतिशत उद्धतता पुरुषों द्वारा बरती गयी है, क्रूर कर्मों और दुर्भावनाओं के अभिवर्धन में उन्हीं का प्रमुख हाथ है। अपराधी, दुष्ट, दुरात्मा, और दण्डभोक्ता व्यक्तियों में पुरुषों की ही संख्या ९० प्रतिशत होती है। वर्तमान उद्धतता की जिम्मेदारी प्रधानतया पुरुषों की होने के कारण दण्ड भाग भी उन्हीं के हिस्से में आयेगा। भावी विनाश में प्रताड़ना उन्हीं के हिस्से में अधिक आने वाली है। नारी क्रूर कर्मों से बची रहती है, उसमें उसका योगदान नगण्य होता है इसलिये वह अपनी आध्यात्मिक गरिमा के कारण पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक पवित्र, उज्ज्वल, सौम्य रहने के कारण दुर्देव की कोपभाजन नहीं बनती। शिव की छाती पर शक्ति के खड़े होने का एक तात्पर्य यह भी है कि आत्मिक श्रेष्ठता की कसौटी पर कसे जाने पर नारी की गरिमा ही अधिक भारी बैठती है। वही ऊपर रहती है। पुरुष इस दृष्टि से जब कि गिरा हुआ सिद्ध होता है तब नारी अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित करती हुई गर्वोन्नत प्रसन्न वदन खड़ी होती है।
भावी नव-निर्माण में इमारतों, सड़कों, कल-कारखानों, सेना अथवा शस्त्रों का अभिवर्धन प्रधान नहीं वरन् भावनात्मक निर्माण की प्रधानता रहेगी। इस क्षेत्र में नारी का ज्ञान, अनुभव तथा अधिकार असंदिग्ध है। इसलिये स्वभावत: जो जिसका अधिकारी है वही इस उत्तरदायित्व को वहनं करेगा। भावी पुनरुत्थान में प्रधान भूमिका नर की नहीं नारी की होगी। विनाश की भूमिका का सरंजाम जुटाने में पुरुष आगे रहेगा, क्रूर कर्मों में उसी की बुद्धि आगे चलती है। सामान्य जीवन आनन्द की हत्या उसी ने की है। विश्व शान्ति पर आक्रमण उसी ने किया है। अब अपनी दुष्टता की पूर्णाहुति में भी अपनी कला के दो-दो हाथ वही दिखावे तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन भावनात्मक नवनिर्माण की, इसके तुरन्त बाद ही जिस पुनरुत्थान की आवश्यककता पड़ेगी उसे पूरा न कर सकेगा। यह कार्य नारी को करना है। इसी तथ्य को प्रतिपादित करती हुई महाकाल के थक जाने पर उसकी छाती पर महाकाली का हासविलास होता चित्रित किया गया है।
पुरुष में अन्य विशेषतायें कितनी ही क्यों न हों, भावनात्मक क्षेत्र में, आध्यात्मिक क्षेत्र में-नारी से वह बहुत पीछे है। यही कारण है कि साधना क्षेत्र में नारी ने जब भी प्रवेश किया है वह पुरुष की तुलना में सौं-गुनी तीव्र गति से आगे बड़ी है। उसे इस दिशा में अघिक शीघ्र और अधिक महत्वपूर्ण सफलतायें मिलती हैं। माता को कन्यायें अधिक प्रिय होती हैं उन्हें वे दुलार भी अधिक करती हैं और अनुग्रह भी। अध्यात्म की अधिष्ठात्री महाशक्ति का अवतरण अनुग्रह यदि नारी साधकों पर अधिक सरलता से अधिक मात्रा में होता है, तो यह उचित ही है। भावी नवनिर्माण में जिस स्तर की क्षमता, योग्यता, पूँजी एवं तत्परता की आवश्यकता होगी वह स्वभावत: नारी में ही प्रचुरतापूर्वक मिलेगी। इसलिये मर्माहत पुरुष को कसक कराह के साथ विश्राम करने देकर नारी हो आगे बढ़ेगी और वही पुररुत्थान की परिस्थितियों का सृजन करेगी। समय-समय पर ऐसा होता भी आया है। पुरुष आध्यात्मवादियों की सफलताओं के पीछे प्रधान भूमिका नारी की ही रही है। वह सहयोग ख्याति भले ही न प्राप्त कर सकी हो, पर तथ्य की दृष्टि से यही सुनिश्चित है कि आत्म-बल के उपार्जन में किसी भी पुरुष को अद्भुत सफलता में असाधारण सहयोग किन्हीं नारियों का ही रहा है।
राम की महिमा का श्रेय सीता और कौशिल्या को कम नहीं है। कौशिल्या के प्रशिक्षण तथा सीता के सहयोग को यदि हटा दिया जाय तो राम का वर्चस्व फिर कहाँ रह जायेगा ? सीता के विना राम का चरित्र ही क्या रह जाता है ? उनकी सारी गतिविधियों के पीछे सीता ही आच्छादित है। कृष्ण की बाँसुरी में राधा ही रहती थी। देवकी और यशोदा का बात्सल्य, कुन्ती का प्रोत्साहन और आशीर्वाद, द्रौपदी की श्रद्धा, गोपियों का स्नेह इन सब तत्वों ने मिलकर कृष्ण के कृष्णत्व की पूर्ति की थी। इन उपलब्धियों के अभाव में बेचारे कुछ कर पाते या नहीं इसमें संदेह ही रहता।
बुद्ध का आध्यात्मिक प्रशिक्षण उनकी मौसी द्वारा सम्पन्न हुआ था। तपस्या के बाद लौटे तो उनकी पत्नी यशोधरा भी अनुगामिनी होकर आयी। अम्बपाली के आत्मसमर्पण के उपरान्त तो भगवान् का प्रयोजन हजार गुनी गति से तीव्र हुआ। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व जहाँ आते हैं, वहाँ किसी भी दिशा में अभिवृद्धि होती है। पाण्डवों की महान् भूमिका में द्रौपदी का ‘रोल’ अत्यन्त प्रभावी हैं। एक नारी के द्वारा पाँच नर-रत्नों को प्रचुर बल प्रदान किया गया यह नारी शक्ति भाण्डागार का चिन्ह है। मदालसा ने अपनें सभी पुत्रों को अभीष्ट दिशा में सुसम्पन्न किया था। एक नारी असंख्य मानव प्राणियों को नर से नारायण बनाने में समर्थ हो सकती है। उसकी भावनात्मक सृष्टि इतनी परिपूर्ण है कि कृष्ण का सामयिक अस्तित्व न होने पर भी मीरा ने उन्हें पति रूप में साथ रहने और नाचने के लिये मूर्तिमान कर लिया था।
प्राचीन काल के तपस्वी तत्वदर्शी एवं महामनीषी ऋषियों में प्रत्येक सपत्नीक था। ब्रह्मा विष्णु, महेश आदि सभी देवताओं की पत्नियों सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि उनके वर्चस्व को स्थिर रखने में आधार स्तम्भ की तरह हैं। नारी के रमणी रूप की ही भर्त्सना की गयी है अन्यथा उसकी समग्र सत्ता गंगा की तरह पवित्र और अग्नि की तरह प्रखर है। पिछले दिनों भारतीय राजनैतिक क्रान्ति का नेतृत्व करने में एनी वेसेन्ट की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, आदि कितनी ही महिलायें इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं। इस क्रान्ति युग की परिस्थतियों उत्पन्न करने में जिन महामानवों ने गुप्त किन्तु अद्भुत पुरुषार्थ किया है उनमें रामकृष्ण परमहंस और योगी अरविन्द मूर्धन्य हैं। दोनों को नारी का शक्ति सान्निथ प्राप्त था। परमहंस के साथ महायोगीनी-भैरबी तथा पत्नी शारदामणि और अरविन्द के साथ माताजी का जो अनुपम सहयोग हुआ उसी के बलबूते पर वे लोग अपनी महान् भूमिका सम्पादित कर सके। ऐसे असंख्य उदाहरण भारत तथा विदेशों में विद्यमान हैं जिनसे स्पष्ट है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भावनात्मक उपलब्धियों में नारी का वर्चस्व प्रधान है और इसी के सहयोग से नर को इस दिशा में महान सफलता मिली हैं। शिव की छाती पर शक्ति का खड़े होना इसी तथ्य का उद्घाटन करता है कि अन्य क्षेत्रों में न सही कम से कम आत्मबल की दृष्टि से तो नारी की गरिमा असंदिग्ध है ही।
भावी नव-निर्माण निकट है। उसकी भूमिका में नारी का योगदान प्रधान रहेगा अगले ही दिनों कितनी ही तेजवान् नारियों अपनी महान महिमा के साथ वर्तमान केंचुल को उतार कर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करेंगी और उनके द्वारा नव-निर्माण अभियान का सफल संचालन सम्भव होगा। भावी संसार में नये युग में हर क्षेत्र का नेतृत्व नारी करेगी। पुरुष ने सहस्राब्दियों तक विश्व नेतृत्व अपने हाथ में रखकर अपनी अयोग्यता प्रमाणित कर दी। उसकी क्षमता विकासोन्मुख नहीं विनाशोन्मुख ही सिद्ध हुई। अब वह नेतृत्व उसके हाथ से छिन कर नारी के हाथ जा रहा है। हमें उसमें बाधक नहीं सहायक बनना चाहिये। खिन्न नहीं प्रसन्न होना चाहिये। विरोध नहीं स्वागत करना चाहिये। भावी परिस्थितियों के अनुकूल हमें ढलना चाहिये। इसी का संकेत उस चित्रण में सन्निहित है जिसमें महाकाल को छाती पर महाकाली की प्रतिष्ठापना प्रदर्शित की गयी है।