
Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
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Language: HINDI
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उद्धत दक्ष की मूर्खता और सती की आत्महत्या
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राजा दक्ष चतुर बहुत थे, उनकी चतुरता इतनी प्रसिद्ध हो गयी थी कि लोग उनके इस गुण के कारण ही असली नाम भूलकर ‘दक्ष’ अर्थात् ‘चतुत्’ नाम से पुकारने लगे। तप, त्याग, के बलबूते नहीं, वे चतुरता के द्वारा ही ऊँचे पद पर पहुँचे थे। चतुरता परमार्थ प्रयोजन में लगे तो ही श्रेयस्कर है अन्यथा वह अनुपयुक्त दिशा में लगने पर संसार के लिये एक झंझट बन जाती है। इससे कुकर्मी चतुरों की तुलना में भले- भोले मूर्खों को मुक्त कण्ठ से सराहा जाता है। जड़-भरत व्यवहार में बुद्धू थे, फिर भी उनका अन्तःकरण निर्मल था उद्देश्य ऊँचा था अतएव उन्हें महान ऋषियों की गणना में गिना जाता है। दक्ष को प्रजापति का-शासक का उत्तरदायित्व मिल गया था पर वे उस योग्य थे नहीं।
दक्ष ने एक यज्ञानुष्ठान किया उसमें उनकी पुत्री सती बिना बुलाये भी आयी और उनने पिता को वह करने के लिये-उस मार्ग पर चलने के लिये कहा जो उनके लिये शोभनीय था। दक्ष न माने अपने ही रास्ते चलते रहे। सती को मार्मिक आघात लगा और उनने आत्महत्या कर ली।
मनुष्य में चातुर्य बहुत है। इसी से तो वह सृष्टि का मुकुटमणि बना हुआ है। इस चातुर्य का उपयोग जब वह संकीर्ण एवं घृणित स्वार्थो की प्रति में निरंकुश होकर करता है तो उसका निज का भी और समस्त समाज का भी घोर अहित होने लगता है। आत्मा उसे रोकती है, मनुष्यता की सीमा में रहने को पुकार करती है पर जब अहंकारी जीव नहीं मानता अपनी दक्षता की धुन में किसी की नहीं सुनता तो उद्धत आचरण से क्षुब्ध आत्मा एक प्रकार से नैतिक आत्हत्या कर बैठती है। सामाजिक दृष्टि से ऐसा उद्धत आचरण मनुष्यता को आत्म-हत्या करने के लिये विवश करता है। दक्ष के उद्धत आचरण से क्षुब्द उसकी पुत्री सती ने आत्म-हत्या कर ली। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है।
सती दक्ष की पुत्री थी पर विवाही भगवान शंकर को थी। सती अर्थात् सत् प्रवृत्ति अर्थात्-नैतिकता, प्रबुद्धता विवेकशीलता मनुष्यता। कल्याणकर्त्ता भगवान् शंकर उसे प्राणप्रिय रखते थे। उसी के साथ उनका आनन्द जुड़ा हुआ था। सती शिव की अद्धागिनी बनी हुई थी। अर्ध नारी नटेश्वर-शिव के शरीर का आधा भाग नारी और आधा नर जैसा चित्रित किया जाता है। इसका अर्थ है कि ‘सती’ ( सत्वृत्ति) उनके अस्तित्व में इतनी अधिक धुली हुई है कि दोनों की सत्ता और महत्ता एक ही मानी समझी जा सकती है। सत् है वही शिव है। जो सतप्रवृत्ति है वही भगवती है। सत्य ही नारायण है। मनुष्यता को भगवान् का प्रिय प्रत्यक्ष रूप कहा जाय तो यह उचित ही - है। सती और शिव का जोड़ा ऐसा ही था।
भगवान् शिव को जब यह पता चला कि दक्ष की उद्धतता इस सीमा तक बढ़ गयी है कि उनकी प्राणप्रिया सती को आत्महत्या करनी पड़ी है तो उनके क्षोभ का बारापार न रहा। वे सती के बिना रह नहीं सकते थे। सत्यवृत्ति को, मनुष्यता को, जिस चतुरता-दक्षता के कारण आत्महत्या करने को विवश होना पड़े उसके प्रति समर्थ शंकर को कुपित होना ही चाहिये। शिवजी ने अपने प्रतिनिधि स्वरूप वीरभद्र को काली, भैरव, नन्दी आदि गणों के साथ दक्ष की माया नगरी विधंस करने का आदेश दिया। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उन गणों ने दक्ष और उसके स्वार्थी, पक्षपातियों का कचूमर निकाल कर महाविनाश का दृश्य उपस्थित कर दिया। दक्ष की नगरी वीरभद्र ने तोड़-फोड़ कर रख दी। भैरव ने प्रजापति के समर्थक सहयोगियों की बड़ी मिट्टी खराब की। नन्दी ने शासन श्रृंखला के सूत्रों को तोड़-फोड़ कर फेंक दिया। दक्ष की चतुरता धूल में मिल गयी। उसकी चिरसंचित कमाई देखते-देखते चूर्ण-विचूर्ण हो गयी। शंकर ने दक्ष को उसकी कुमार्गगामिता का छद्यवेश हटाकर वस्तुस्थिति का प्रकटीकरण करने की दृष्टि से इतना दण्ड देना आवश्यक समझा कि उसका मानवीय सिर काट कर बकरे का चिपका दिया। दक्ष का चतुरता का वास्तविक स्वरूप यही था। वह हर घड़ी मैं-मैं बखानता था और वाचालता से प्रभावित कर लोगों को भुलावे में डालता था। यही दोनों गुण बकरे में होते हैं। वह हर घड़ी मैं-मैं की रट लगाता है और अनर्गल शब्दोच्चारण की आदत से अपनी ओर दूसरों का स्थान आकर्षित करता है।
आज भी ‘दक्षों’ ने यही कर रखा है। वे तथाकथित चतुर लोग-समाज के मूर्धन्य बने बैठे व्यक्ति चतुरता तिकड़म को ही अपना आधार बनाये हुए हैं दूसरों के सहारे वे छल-बल से आगे बड़े-ऊँचे उठे हैं। तप और त्याग का नाम भी नहीं, ऐसे मूर्धन्य लोगों का बाहुल्य व्यक्ति और समाज की आत्मा को कुचल-मसल रहा है। इससे मनुष्यता आत्म-हत्या जैसी स्थिति में जा पहुँचती है। यह स्थिति महाकाल को असह्य है। सदाचरण में ही भगवान् के संसार की शोभा है। वे हरी- भरी फली-मानवता में ही मोद मनाते हैं। यह सती ही उसकी सहचरी है। इसे जो आघात पहुँचाता है वही भगवान का बड़ा शत्रु है। स्थिति जब असह्य हो जाती है, तब महाकाल को अपना ध्वंस शस्त्र प्रयुक्त करना पड़ता है। दक्ष की सारी शासन सत्ता विधि व्यवस्था नन्दी गणों ने देखते-देखते विध्वंस के गर्त में फेंक दी थी। आज का मानवीय चातुर्य-जो सुविधा साधनों की अभिवृद्धि के अहंकार में-अपनी वास्तविक राह छोड़ बैठा है उसी दुर्गति का अधिकारी बनेगा जैसा कि दक्ष का सारा परिवार बना था।
मृत सती की लाश को कंधों पर रख कर रुद्र उन्मत्तों की तरह विचरण करने लगे। उनके शोक का बारापार न था। ऐसा विकराल और रुद्र रूप देख दशों दिशायें काँपने लगीं। सती के-सतवृत्ति के न रहने की स्थिति उन्हें असह्य थी। आपे से बाहर होकर वे हुँकारें भरने लगे। उनके श्वांस-प्रश्वांस से अग्नि की भयानक लपटें निकलने लगी। उनचासों पवन, आँधी, तूफान बनकर स्थिति को प्रलय में बदलने का आयोजन करने लगे।
देवता काँपे। स्थिति विषम हो गयी। विचार हुआ। सृष्टि के पालक और पोषक विष्णु आगे आये। उन्होंने चक्र सुदर्शन से सती के मृतक शरीर को ग्यारह हिस्सों में काट दिया। दे टुकड़े दूर-दूर फेंके गये। सती मर तो सकती नहीं, वे अमर हैं। आत्म-हत्या की थी पर उनकी सत्ता नष्ट कैसे होती। यह ग्यारह टुकड़े जहाँ भी गिरे वहाँ एक एक शक्ति-पीठ की स्थापना हुई। संसार में ग्यारह शक्तिपीठ प्रसिद्ध हैं। हर जगह एक नयी सती उत्पन्न हुई। शिव अपनी सहधर्मिणी को, ग्यारह गुनी विकसित पाकर सन्तुष्ट हो गये और ग्यारह रुद्रों के रूप में पुन: आनन्द पूर्वक अपने नियत नियमित कार्य में लग गये। १ और १ के अंक समीप आ जाने से ११ बन जाते हैं। शिव और सती का-परमात्मा और सत्प्रवृत्ति का सुयोग जब कभी भी-जहाँ कहीं भीं-होगा वहीं एक और एक मिलकर ग्यारह होने की उक्ति चिरतार्थ होती है। शिव सती का सौम्य समन्वय एकादश शक्ति पीठ और एकादश रुद्रों का आनन्द उत्पन्न करता हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?
पौराणिक गाथा की पुनरावृत्ति उसी घटना-क्रम के साथ फिर सामने आ रही है। दक्षों ने हर क्षेत्र के नेतृत्व पर अपना आधिपत्य किया हुआ है। समाज के मूर्धन्य बने व्यक्ति न अपना व्यक्तित्व उत्कृष्ट बना रहे हैं और न आदर्शवादिता की प्रवृत्ति बढ़ने दे रहे हैं। जन-साधारण बडो़ की देखा-देखी हेय स्तर पर अधःपतित होता चला जा रहा है। मनुष्यता मर रही है। सतप्रवृत्तियाँ मूर्छित पड़ी हैं। लगता है सती ने आत्म-दाह कर लिया है। यह स्थिति महाकाल को असह्य है, उनकी सारी प्रसन्नता सती के साथ-सतप्रवृत्ति के साथ जुड़ी हुई है। इस आत्महत्या के लिये जो भी दोषी होगे उन्हें रास्ते पर लाने के लिये कड़ा पाठ पढा़ने की आवश्यकता पड़ती है तो रुद्र उसकी व्यवस्था करना भी जानते हैं। उनके भैरव वीरभद्र और नान्दीगण उथल-पुथल और तोड़-फोड़ कला में प्रवीण हैं। सम्भवत: अशान्ति से शान्ति उत्पन्न करने का प्रकरण फिर दुहराया जाय। महायुद्ध-गृहयुद्ध, प्रकृति प्रकोप जैसे वीरभद्र सम्भवतः मनुष्य को कुमार्ग पर जा रही दक्षता को पुन: पीछे लौटने और रास्ते पर लगने के लिये विवश करें। सम्भव है आज जिस अनैतिक चतुरता को सर्वत्र सराहा जाता है, कल उसी को बकरे के मुँह वाली बकवासी, अहंकारी बताकर तिरस्कृत और बहिष्कृत किया जाय।
आज अनैतिक चतुरता ने समस्त समाज को अस्त-व्यस्त और त्रस्त कर दिया है जो हरकतें न्याय-नीति की दृष्टि से स्पष्टत: घृणित और निन्दनीय हैं वे ही खुले आम दुहराई जा रही हैं और जनता तथा सरकार दोनों उसका निराकरण करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। मालूम होता है कि इस उच्छृखलता को मिटाने के लिये दैवी शक्ति को ही कोई योजना करनी पड़ेगी।
महाकाल का विक्षोभ एक ही तरह शान्त हुआ था-एक ही तरह शान्त हो सकता है उनकी प्राणप्रिय सती को पुन: पुनर्जीवित किया जाय। सती के शव से एकादश सतियाँ प्रादुर्भूत हुई थी, ग्यारह शक्ति पीठ बने थे। हम मानवता के उन्नायक अगणित शक्ति केन्द्र ऐसे स्थापित करें जो भगवान् शिव के संसार को सुरम्य, सुविकसित और सुसंस्कृत बनाये रखने में समर्थ हो सकें। रुद्र कोप से बचने का यदि कोई समाधान होगा तो वह उसी स्तर का होगा जैसा कि उपरोक्त पौराणिक उपाख्यान के अनुसार अतीत काल में होकर चुका है।
दक्ष ने एक यज्ञानुष्ठान किया उसमें उनकी पुत्री सती बिना बुलाये भी आयी और उनने पिता को वह करने के लिये-उस मार्ग पर चलने के लिये कहा जो उनके लिये शोभनीय था। दक्ष न माने अपने ही रास्ते चलते रहे। सती को मार्मिक आघात लगा और उनने आत्महत्या कर ली।
मनुष्य में चातुर्य बहुत है। इसी से तो वह सृष्टि का मुकुटमणि बना हुआ है। इस चातुर्य का उपयोग जब वह संकीर्ण एवं घृणित स्वार्थो की प्रति में निरंकुश होकर करता है तो उसका निज का भी और समस्त समाज का भी घोर अहित होने लगता है। आत्मा उसे रोकती है, मनुष्यता की सीमा में रहने को पुकार करती है पर जब अहंकारी जीव नहीं मानता अपनी दक्षता की धुन में किसी की नहीं सुनता तो उद्धत आचरण से क्षुब्ध आत्मा एक प्रकार से नैतिक आत्हत्या कर बैठती है। सामाजिक दृष्टि से ऐसा उद्धत आचरण मनुष्यता को आत्म-हत्या करने के लिये विवश करता है। दक्ष के उद्धत आचरण से क्षुब्द उसकी पुत्री सती ने आत्म-हत्या कर ली। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है।
सती दक्ष की पुत्री थी पर विवाही भगवान शंकर को थी। सती अर्थात् सत् प्रवृत्ति अर्थात्-नैतिकता, प्रबुद्धता विवेकशीलता मनुष्यता। कल्याणकर्त्ता भगवान् शंकर उसे प्राणप्रिय रखते थे। उसी के साथ उनका आनन्द जुड़ा हुआ था। सती शिव की अद्धागिनी बनी हुई थी। अर्ध नारी नटेश्वर-शिव के शरीर का आधा भाग नारी और आधा नर जैसा चित्रित किया जाता है। इसका अर्थ है कि ‘सती’ ( सत्वृत्ति) उनके अस्तित्व में इतनी अधिक धुली हुई है कि दोनों की सत्ता और महत्ता एक ही मानी समझी जा सकती है। सत् है वही शिव है। जो सतप्रवृत्ति है वही भगवती है। सत्य ही नारायण है। मनुष्यता को भगवान् का प्रिय प्रत्यक्ष रूप कहा जाय तो यह उचित ही - है। सती और शिव का जोड़ा ऐसा ही था।
भगवान् शिव को जब यह पता चला कि दक्ष की उद्धतता इस सीमा तक बढ़ गयी है कि उनकी प्राणप्रिया सती को आत्महत्या करनी पड़ी है तो उनके क्षोभ का बारापार न रहा। वे सती के बिना रह नहीं सकते थे। सत्यवृत्ति को, मनुष्यता को, जिस चतुरता-दक्षता के कारण आत्महत्या करने को विवश होना पड़े उसके प्रति समर्थ शंकर को कुपित होना ही चाहिये। शिवजी ने अपने प्रतिनिधि स्वरूप वीरभद्र को काली, भैरव, नन्दी आदि गणों के साथ दक्ष की माया नगरी विधंस करने का आदेश दिया। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उन गणों ने दक्ष और उसके स्वार्थी, पक्षपातियों का कचूमर निकाल कर महाविनाश का दृश्य उपस्थित कर दिया। दक्ष की नगरी वीरभद्र ने तोड़-फोड़ कर रख दी। भैरव ने प्रजापति के समर्थक सहयोगियों की बड़ी मिट्टी खराब की। नन्दी ने शासन श्रृंखला के सूत्रों को तोड़-फोड़ कर फेंक दिया। दक्ष की चतुरता धूल में मिल गयी। उसकी चिरसंचित कमाई देखते-देखते चूर्ण-विचूर्ण हो गयी। शंकर ने दक्ष को उसकी कुमार्गगामिता का छद्यवेश हटाकर वस्तुस्थिति का प्रकटीकरण करने की दृष्टि से इतना दण्ड देना आवश्यक समझा कि उसका मानवीय सिर काट कर बकरे का चिपका दिया। दक्ष का चतुरता का वास्तविक स्वरूप यही था। वह हर घड़ी मैं-मैं बखानता था और वाचालता से प्रभावित कर लोगों को भुलावे में डालता था। यही दोनों गुण बकरे में होते हैं। वह हर घड़ी मैं-मैं की रट लगाता है और अनर्गल शब्दोच्चारण की आदत से अपनी ओर दूसरों का स्थान आकर्षित करता है।
आज भी ‘दक्षों’ ने यही कर रखा है। वे तथाकथित चतुर लोग-समाज के मूर्धन्य बने बैठे व्यक्ति चतुरता तिकड़म को ही अपना आधार बनाये हुए हैं दूसरों के सहारे वे छल-बल से आगे बड़े-ऊँचे उठे हैं। तप और त्याग का नाम भी नहीं, ऐसे मूर्धन्य लोगों का बाहुल्य व्यक्ति और समाज की आत्मा को कुचल-मसल रहा है। इससे मनुष्यता आत्म-हत्या जैसी स्थिति में जा पहुँचती है। यह स्थिति महाकाल को असह्य है। सदाचरण में ही भगवान् के संसार की शोभा है। वे हरी- भरी फली-मानवता में ही मोद मनाते हैं। यह सती ही उसकी सहचरी है। इसे जो आघात पहुँचाता है वही भगवान का बड़ा शत्रु है। स्थिति जब असह्य हो जाती है, तब महाकाल को अपना ध्वंस शस्त्र प्रयुक्त करना पड़ता है। दक्ष की सारी शासन सत्ता विधि व्यवस्था नन्दी गणों ने देखते-देखते विध्वंस के गर्त में फेंक दी थी। आज का मानवीय चातुर्य-जो सुविधा साधनों की अभिवृद्धि के अहंकार में-अपनी वास्तविक राह छोड़ बैठा है उसी दुर्गति का अधिकारी बनेगा जैसा कि दक्ष का सारा परिवार बना था।
मृत सती की लाश को कंधों पर रख कर रुद्र उन्मत्तों की तरह विचरण करने लगे। उनके शोक का बारापार न था। ऐसा विकराल और रुद्र रूप देख दशों दिशायें काँपने लगीं। सती के-सतवृत्ति के न रहने की स्थिति उन्हें असह्य थी। आपे से बाहर होकर वे हुँकारें भरने लगे। उनके श्वांस-प्रश्वांस से अग्नि की भयानक लपटें निकलने लगी। उनचासों पवन, आँधी, तूफान बनकर स्थिति को प्रलय में बदलने का आयोजन करने लगे।
देवता काँपे। स्थिति विषम हो गयी। विचार हुआ। सृष्टि के पालक और पोषक विष्णु आगे आये। उन्होंने चक्र सुदर्शन से सती के मृतक शरीर को ग्यारह हिस्सों में काट दिया। दे टुकड़े दूर-दूर फेंके गये। सती मर तो सकती नहीं, वे अमर हैं। आत्म-हत्या की थी पर उनकी सत्ता नष्ट कैसे होती। यह ग्यारह टुकड़े जहाँ भी गिरे वहाँ एक एक शक्ति-पीठ की स्थापना हुई। संसार में ग्यारह शक्तिपीठ प्रसिद्ध हैं। हर जगह एक नयी सती उत्पन्न हुई। शिव अपनी सहधर्मिणी को, ग्यारह गुनी विकसित पाकर सन्तुष्ट हो गये और ग्यारह रुद्रों के रूप में पुन: आनन्द पूर्वक अपने नियत नियमित कार्य में लग गये। १ और १ के अंक समीप आ जाने से ११ बन जाते हैं। शिव और सती का-परमात्मा और सत्प्रवृत्ति का सुयोग जब कभी भी-जहाँ कहीं भीं-होगा वहीं एक और एक मिलकर ग्यारह होने की उक्ति चिरतार्थ होती है। शिव सती का सौम्य समन्वय एकादश शक्ति पीठ और एकादश रुद्रों का आनन्द उत्पन्न करता हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?
पौराणिक गाथा की पुनरावृत्ति उसी घटना-क्रम के साथ फिर सामने आ रही है। दक्षों ने हर क्षेत्र के नेतृत्व पर अपना आधिपत्य किया हुआ है। समाज के मूर्धन्य बने व्यक्ति न अपना व्यक्तित्व उत्कृष्ट बना रहे हैं और न आदर्शवादिता की प्रवृत्ति बढ़ने दे रहे हैं। जन-साधारण बडो़ की देखा-देखी हेय स्तर पर अधःपतित होता चला जा रहा है। मनुष्यता मर रही है। सतप्रवृत्तियाँ मूर्छित पड़ी हैं। लगता है सती ने आत्म-दाह कर लिया है। यह स्थिति महाकाल को असह्य है, उनकी सारी प्रसन्नता सती के साथ-सतप्रवृत्ति के साथ जुड़ी हुई है। इस आत्महत्या के लिये जो भी दोषी होगे उन्हें रास्ते पर लाने के लिये कड़ा पाठ पढा़ने की आवश्यकता पड़ती है तो रुद्र उसकी व्यवस्था करना भी जानते हैं। उनके भैरव वीरभद्र और नान्दीगण उथल-पुथल और तोड़-फोड़ कला में प्रवीण हैं। सम्भवत: अशान्ति से शान्ति उत्पन्न करने का प्रकरण फिर दुहराया जाय। महायुद्ध-गृहयुद्ध, प्रकृति प्रकोप जैसे वीरभद्र सम्भवतः मनुष्य को कुमार्ग पर जा रही दक्षता को पुन: पीछे लौटने और रास्ते पर लगने के लिये विवश करें। सम्भव है आज जिस अनैतिक चतुरता को सर्वत्र सराहा जाता है, कल उसी को बकरे के मुँह वाली बकवासी, अहंकारी बताकर तिरस्कृत और बहिष्कृत किया जाय।
आज अनैतिक चतुरता ने समस्त समाज को अस्त-व्यस्त और त्रस्त कर दिया है जो हरकतें न्याय-नीति की दृष्टि से स्पष्टत: घृणित और निन्दनीय हैं वे ही खुले आम दुहराई जा रही हैं और जनता तथा सरकार दोनों उसका निराकरण करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। मालूम होता है कि इस उच्छृखलता को मिटाने के लिये दैवी शक्ति को ही कोई योजना करनी पड़ेगी।
महाकाल का विक्षोभ एक ही तरह शान्त हुआ था-एक ही तरह शान्त हो सकता है उनकी प्राणप्रिय सती को पुन: पुनर्जीवित किया जाय। सती के शव से एकादश सतियाँ प्रादुर्भूत हुई थी, ग्यारह शक्ति पीठ बने थे। हम मानवता के उन्नायक अगणित शक्ति केन्द्र ऐसे स्थापित करें जो भगवान् शिव के संसार को सुरम्य, सुविकसित और सुसंस्कृत बनाये रखने में समर्थ हो सकें। रुद्र कोप से बचने का यदि कोई समाधान होगा तो वह उसी स्तर का होगा जैसा कि उपरोक्त पौराणिक उपाख्यान के अनुसार अतीत काल में होकर चुका है।