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Books - गहना कर्मणोगतिः
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Language: HINDI
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दुःख का कारण पाप ही नहीं है
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आमतौर से दुःख को नापसंद किया जाता है। लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरूप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुःख आते हैं, परंतु यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। दुःखों का एक कारण पाप भी है यह तो ठीक है, परंतु यह ठीक नहीं कि समस्त दुःख-पापों के कारण ही आते हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि ईश्वर की कृपा के कारण, पूर्व संचित पुण्यों के कारण और पुण्य संचय की तपश्चर्या के कारण भी दुःख आते हैं। भगवान को किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण लेना होता है, कल्याण के पथ की ओर ले जाना होता है तो उसे भव-बंधन से, कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुःखदायक अवसर उत्पन्न करते हैं, जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल समझ जाय, निद्रा को छोड़कर सावधान हो जाय।
सांसारिक मोह, ममता और विषय-वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है कि उन्हें साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता। एक हलका-सा विचार आता है कि जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ काम में करना चाहिए, परंतु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं, जिनके कारण वह हलका विचार उड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहाँ उसी तुच्छ परिस्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रकार की कीचड़ में से निकालने के लिए भगवान अपने भक्त को झटका मारते हैं, सोते हुए को जगाने के लिए बड़े जोर से झकझोरते हैं। यह झटका और झकझोरना हमें दुःख जैसा प्रतीत होता है।
मृत्यु के समीप तक ले जाने वाली बीमारी, परमप्रिय स्वजनों की मृत्यु, असाधारण घाटा, दुर्घटना, विश्वसनीय मित्रों द्वारा अपमान या विश्वाघात जैसी दिल को चोट पहुँचाने वाली घटनाएँ इसलिए भी आती हैं कि उनके जबरदस्त झटके के आघात से मनुष्य तिलमिला जाय और सहज होकर अपनी भूल सुधार ले। गलत रास्ते को छोड़कर सही मार्ग पर आ जाय।
पूर्व संचित शुभ संस्कारों के कारण इसलिए दुःख आते हैं कि शुभ संस्कार एक सच्चे चौकीदार की भाँति उस मनुष्य को उत्तम मार्ग पर ले जाना चाहते हैं, परंतु पाप की ओर उसकी प्रवृत्ति बढ़ती है तो वे शुभ संस्कार इसे अपने ऊपर आक्रमण समझते हैं और इससे बचाव करने के लिए पूरा प्रयत्न करते हैं। कोई आदमी पाप कर्म करने जाता है, परंतु रास्ते में ऐसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि उसके कारण उस कार्य में सफलता नहीं मिलती। वह पाप होते-होते बच जाता है। चोरी करने के लिए यदि रास्ते में पैर टूट जाय और दुष्कर्म पूरा न हो सके, तो समझना चाहिए कि पूर्व संचित शुभ संस्कारों के कारण, पुण्य फल के कारण ऐसा हुआ है।
धर्म कर्म करने में, कर्तव्य धर्म का पालन करने में असाधारण कष्ट सहना पड़ता है। अभावों का सामना करना होता है। इसके अतिरिक्त दुष्टात्मा लोग अपने पापपूर्ण स्वार्थों पर आघात होता देखकर उस धर्म सेवा के विरुद्ध हो जाते हैं और नाना प्रकार की यातनाएँ देते हैं, इस प्रकार के कष्ट सत्पुरुषों को पग-पग पर झेलने पड़ते हैं। यह पुण्य संचय के, तपश्चर्या के अपनी सत्यता की परीक्षा देकर स्वर्ण समान चमकाने वाले दुःख हैं।
निस्संदेह कुछ दुःख पापों के परिणामस्वरूप भी होते हैं, परंतु यह भी निश्चित है कि भगवान की कृपा से, पूर्व संचित शुभ संस्कारों से और धर्म सेवा की तपश्चर्या से भी वे आते हैं। इसी प्रकार जब अपने ऊपर कोई विपत्ति आए, तो केवल यह ही न सोचना चाहिए कि हम पापी हैं, अभागे हैं, ईश्वर के कोपभाजन हैं, संभव है वह कष्ट हमारे लिए किसी हित के लिए ही आया हो, उस कष्ट की तह में शायद कोई ऐसा लाभ छिपा हो, जिसे हमारा अल्पज्ञ मस्तिष्क आज ठीक-ठीक रूप से न पहचान सके।
दूसरे लोग अनीति और अत्याचार करके किसी निर्दोष व्यक्ति को सता सकते हैं। शोषण, उत्पीड़ित और अन्याय का शिकार कोई व्यक्ति दुःख पा सकता है। अत्याचारी को भविष्य में उसका दण्ड मिलेगा, पर इस समय तो निर्दोष को ही कष्ट सहना पड़ा। ऐसी घटनाओं में उस दुःख पाने वाले व्यक्ति के कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।
विद्या पढ़ने में विद्यार्थी को काफी कष्ट उठाना पड़ता है, माता को बालक के पालने में कम तकलीफ नहीं होती, तपस्वी और साधु पुरुष लोक-कल्याण और आत्मोन्नति के लिए नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं, इस प्रकार स्वेच्छा से स्वीकार किए हुए कष्ट और उत्तरदायित्व को पूरा करने में जो कठिनाई उठानी पड़ती है एवं संघर्ष करना पड़ता है, उसे दुष्कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।
हर मौज मारने वाले को पूर्व जन्म का धर्मात्मा और हर कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति को पूर्व जन्म का पापी कह देना उचित नहीं। ऐसी मान्यता अनुचित एवं भ्रमपूर्ण है। इस भ्रम के आधार पर कोई व्यक्ति अपने को बुरा समझे, आत्मग्लानि करे, अपने को नीच या निंदित समझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कर्म की गति गहन है, उसे हम ठीक प्रकार नहीं जानते केवल परमात्मा ही जानता है।
हमें अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए हर घड़ी प्रयत्नशील एवं जागरूक रहना चाहिए। दुःख-सुख जो आते हों, उन्हें धैर्यपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य की जिम्मेदारी अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने की है। सफलता-असफलता या दुःख-सुख अनेक कारणों से होते हैं, उसे ठीक प्रकार कोई नहीं जानता।
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कई बार ऐसा भी होता है कि ईश्वर की कृपा के कारण, पूर्व संचित पुण्यों के कारण और पुण्य संचय की तपश्चर्या के कारण भी दुःख आते हैं। भगवान को किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण लेना होता है, कल्याण के पथ की ओर ले जाना होता है तो उसे भव-बंधन से, कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुःखदायक अवसर उत्पन्न करते हैं, जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल समझ जाय, निद्रा को छोड़कर सावधान हो जाय।
सांसारिक मोह, ममता और विषय-वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है कि उन्हें साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता। एक हलका-सा विचार आता है कि जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ काम में करना चाहिए, परंतु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं, जिनके कारण वह हलका विचार उड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहाँ उसी तुच्छ परिस्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रकार की कीचड़ में से निकालने के लिए भगवान अपने भक्त को झटका मारते हैं, सोते हुए को जगाने के लिए बड़े जोर से झकझोरते हैं। यह झटका और झकझोरना हमें दुःख जैसा प्रतीत होता है।
मृत्यु के समीप तक ले जाने वाली बीमारी, परमप्रिय स्वजनों की मृत्यु, असाधारण घाटा, दुर्घटना, विश्वसनीय मित्रों द्वारा अपमान या विश्वाघात जैसी दिल को चोट पहुँचाने वाली घटनाएँ इसलिए भी आती हैं कि उनके जबरदस्त झटके के आघात से मनुष्य तिलमिला जाय और सहज होकर अपनी भूल सुधार ले। गलत रास्ते को छोड़कर सही मार्ग पर आ जाय।
पूर्व संचित शुभ संस्कारों के कारण इसलिए दुःख आते हैं कि शुभ संस्कार एक सच्चे चौकीदार की भाँति उस मनुष्य को उत्तम मार्ग पर ले जाना चाहते हैं, परंतु पाप की ओर उसकी प्रवृत्ति बढ़ती है तो वे शुभ संस्कार इसे अपने ऊपर आक्रमण समझते हैं और इससे बचाव करने के लिए पूरा प्रयत्न करते हैं। कोई आदमी पाप कर्म करने जाता है, परंतु रास्ते में ऐसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि उसके कारण उस कार्य में सफलता नहीं मिलती। वह पाप होते-होते बच जाता है। चोरी करने के लिए यदि रास्ते में पैर टूट जाय और दुष्कर्म पूरा न हो सके, तो समझना चाहिए कि पूर्व संचित शुभ संस्कारों के कारण, पुण्य फल के कारण ऐसा हुआ है।
धर्म कर्म करने में, कर्तव्य धर्म का पालन करने में असाधारण कष्ट सहना पड़ता है। अभावों का सामना करना होता है। इसके अतिरिक्त दुष्टात्मा लोग अपने पापपूर्ण स्वार्थों पर आघात होता देखकर उस धर्म सेवा के विरुद्ध हो जाते हैं और नाना प्रकार की यातनाएँ देते हैं, इस प्रकार के कष्ट सत्पुरुषों को पग-पग पर झेलने पड़ते हैं। यह पुण्य संचय के, तपश्चर्या के अपनी सत्यता की परीक्षा देकर स्वर्ण समान चमकाने वाले दुःख हैं।
निस्संदेह कुछ दुःख पापों के परिणामस्वरूप भी होते हैं, परंतु यह भी निश्चित है कि भगवान की कृपा से, पूर्व संचित शुभ संस्कारों से और धर्म सेवा की तपश्चर्या से भी वे आते हैं। इसी प्रकार जब अपने ऊपर कोई विपत्ति आए, तो केवल यह ही न सोचना चाहिए कि हम पापी हैं, अभागे हैं, ईश्वर के कोपभाजन हैं, संभव है वह कष्ट हमारे लिए किसी हित के लिए ही आया हो, उस कष्ट की तह में शायद कोई ऐसा लाभ छिपा हो, जिसे हमारा अल्पज्ञ मस्तिष्क आज ठीक-ठीक रूप से न पहचान सके।
दूसरे लोग अनीति और अत्याचार करके किसी निर्दोष व्यक्ति को सता सकते हैं। शोषण, उत्पीड़ित और अन्याय का शिकार कोई व्यक्ति दुःख पा सकता है। अत्याचारी को भविष्य में उसका दण्ड मिलेगा, पर इस समय तो निर्दोष को ही कष्ट सहना पड़ा। ऐसी घटनाओं में उस दुःख पाने वाले व्यक्ति के कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।
विद्या पढ़ने में विद्यार्थी को काफी कष्ट उठाना पड़ता है, माता को बालक के पालने में कम तकलीफ नहीं होती, तपस्वी और साधु पुरुष लोक-कल्याण और आत्मोन्नति के लिए नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं, इस प्रकार स्वेच्छा से स्वीकार किए हुए कष्ट और उत्तरदायित्व को पूरा करने में जो कठिनाई उठानी पड़ती है एवं संघर्ष करना पड़ता है, उसे दुष्कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।
हर मौज मारने वाले को पूर्व जन्म का धर्मात्मा और हर कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति को पूर्व जन्म का पापी कह देना उचित नहीं। ऐसी मान्यता अनुचित एवं भ्रमपूर्ण है। इस भ्रम के आधार पर कोई व्यक्ति अपने को बुरा समझे, आत्मग्लानि करे, अपने को नीच या निंदित समझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कर्म की गति गहन है, उसे हम ठीक प्रकार नहीं जानते केवल परमात्मा ही जानता है।
हमें अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए हर घड़ी प्रयत्नशील एवं जागरूक रहना चाहिए। दुःख-सुख जो आते हों, उन्हें धैर्यपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य की जिम्मेदारी अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने की है। सफलता-असफलता या दुःख-सुख अनेक कारणों से होते हैं, उसे ठीक प्रकार कोई नहीं जानता।
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