Monday 08, December 2025
कृष्ण पक्ष चतुर्थी, पौष 2025
पंचांग 08/12/2025 • December 08, 2025
पौष कृष्ण पक्ष चतुर्थी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), मार्गशीर्ष | चतुर्थी तिथि 04:03 PM तक उपरांत पंचमी | नक्षत्र पुष्य 02:52 AM तक उपरांत आश्लेषा | ब्रह्म योग 05:01 PM तक, उसके बाद इन्द्र योग | करण बालव 04:03 PM तक, बाद कौलव 03:10 AM तक, बाद तैतिल |
दिसम्बर 08 सोमवार को राहु 08:21 AM से 09:37 AM तक है | चन्द्रमा कर्क राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 7:05 AM सूर्यास्त 5:13 PM चन्द्रोदय 8:58 PM चन्द्रास्त11:03 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - पौष
- अमांत - मार्गशीर्ष
तिथि
- कृष्ण पक्ष चतुर्थी
- Dec 07 06:25 PM – Dec 08 04:03 PM - कृष्ण पक्ष पंचमी
- Dec 08 04:03 PM – Dec 09 02:29 PM
नक्षत्र
- पुष्य - Dec 08 04:11 AM – Dec 09 02:52 AM
- आश्लेषा - Dec 09 02:52 AM – Dec 10 02:22 AM
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!! शांतिकुंज दर्शन 08 December 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
अमृतवाणी:- मौत याद आ जाए तो जीवन बदल जाता है परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
जिंदगी भर में न आदमी जन्म को याद करता है, न मौत को याद करता है। मौत को भी याद नहीं करता। मौत को आप याद किया करें, फिर मज़ा आ जाए। सिकंदर जब मरने के लिए हुआ, तो उसने सब लोगों को बुलाया और यह कहा — “हमारा माल-खजाना हमको दीजिए, हम साथ लेकर जाएंगे, क्योंकि बड़ी मेहनत से भी कमाया है और बड़ी बेईमानी से भी कमाया है।”
लोगों ने जो उनका काम आया था, वह सब उनके सामने रख दिया।
लेकिन जब कह रहे हैं कि हमारे साथ भेजने का इंतज़ाम करो, तो सबने कहा — “यह कैसे हो सकता है? आपकी यह सब चीजें यहीं की थी और यहीं पड़ी रह जाएंगी। आप बेकार ही कहते हैं कि हमारे साथ जाएगा। आपके साथ तो सिर्फ आपका पुण्य-पाप जाएगा, कुछ नहीं जा सकता।”
सिकंदर फूट-फूटकर रोया। उसने कहा — “अगर मुझे यह मालूम होता कि मेरे साथ में सिर्फ पुण्य-पाप ही जाने वाला है, तो मैं इस छोटी-सी जिंदगी को गुनाहों से भरी हुई न बनाता। फिर मैं बुध की तरीके से जिया होता, सुकरात की तरीके से जिया होता, ईसा की तरीके से जिया होता और ऋषियों की तरह जिया होता। फिर मैंने क्यों ऐसी गलती कर डाली? संपदा को जो मुझे जरूरत नहीं थी, उसको इकट्ठा करता रहा, यह क्यों करता रहा? मौत को भूल गया।"
मौत जब उसको याद आई, तब उसने बार-बार यह कहा — “अरे मौत को मत भूलना, मौत को मत भूलना, मौत को मत भूलना।”
उन्होंने मरते समय अपने दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकलवाने के लिए कहा — “हम जब मरने के लिए जाएँ, श्मशान घाट में दफनाने के लिए जाएँ, तो हमारे दोनों हाथ हमारे जनाज़े से बाहर निकाल देना, ताकि लोग देखें — सिकंदर खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया।”
यह वैराग्य का भाव है। यह बैरागी बन सकता है श्मशान घाट को देखकर। अगर मौत आपको याद आ जाए, तो आप निश्चित रखिए — आप ऐसा घिनौना जिंदगी जी रहे हैं कि आपको कतई जीने की इच्छा न होगी।
फिर आप यह कहेंगे — “इस नायाब मौके का अच्छे से अच्छा उपयोग क्यों न कर लिया जाए?”
फिर आप क्या करेंगे?
फिर आप अपना टाइम-टेबल और अपनी नीति ऐसी बनाएंगे, जैसी राजा परीक्षित ने बनाई थी। राजा परीक्षित को मालूम पड़ गया था कि आज से सातवें दिन साँप काट खाएगा। उसने निश्चय किया — “इन 7 दिनों का अच्छे से अच्छा उपयोग करेंगे।”
उसने सुना, कथा की, अनुष्ठान किया और दूसरे अच्छे-पुण्य कर्म किए। फिर उसकी मृत्यु हो गई।
7 दिन रहे तो 7 दिन सबको साँप काटने वाला है।
आपको 7 दिन में ही काटेगा।
सात ही तो दिन होते हैं, ना?
साँप — मौत का साँप — यहीं काटता है।
बाहर कहाँ काटता है?
सातवें दिन से आठवाँ दिन कहाँ है?
इसीलिए आप भी राजा परीक्षित की तरीके से विचार कर सकते हैं कि —
हमारी बची हुई जिंदगी, जो मौत के दिनों के बीच में बाकी रह गई है, उसको हम अच्छे से अच्छा कैसे उपयोग कर सकते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
मुझे ईश्वर ने बनाया है। मैं ईश्वर का रूप हूँ। समस्त संस्थाओं की उच्चताओं का समावेश मुझमें किया गया है। मुझसे श्रेष्ठ जीव संसार में दूसरा नहीं हो सकता है। मेरा हृदय ईश्वर का मन्दिर है। उसमें सात्विक संकल्पों का ही निवास है। मेरे पाँव पवित्र स्थानों पर ही जाते हैं, मेरी जिह्वा पवित्र भाव ही उच्चारण करती है, मैं पवित्र विचारों को ही मन में स्थान देता हूँ।
यदि तुम जीवन को वास्तव में उपयोगी बनाना चाहते हो तो अपने विषय में क्षीणता और कमजोरी की भावनाएँ बहिष्कृत कर दो, अपने प्रति कर्तव्यों को समझ कर उन्हें पूर्ण करने में संलग्न हो जाओ। वे क्या कर्तव्य हैं, जिन्हें हम पूर्ण करते चलें? सर्व प्रथम अपने शरीर की देखभाल है। अन्य वस्तुओं की भाँति शरीर भी घिसता है, टूटता है, बीमार होता है, खिदमत कराता है। टूट-फूट के पश्चात् दुरुस्ती चाहता है। जिस प्रकार आप किसी कीमती मशीन से बड़ी सतर्कता से काम लेते हैं, जरा खराब होते ही दुरुस्त कराने की भाग दौड़ करते हैं, उसी प्रकार शरीर भी है। संसार में जितनी भी मशीन हैं।
उन सबसे अधिक कीमत इस मानव-शरीर की है। इसका दाम रुपये पैसों में आँका नहीं जा सकता इसे कितना भी रुपया देकर खरीद नहीं सकते। फिर, बेशकीमती मशीन के उपयोग में कितनी सावधानी की आवश्यकता है, इसे स्वयं सोच सकते हैं। शरीर वह साधन है, जिसमें संसार बनता है। इसी के माध्यम से संसार का अस्तित्व है। जिस दिन आपकी यह मशीन टूटती है, उसी दिन संसार का भी अन्त हो जाता है। महाप्रलय हो जाती है। शरीर की देख-भाल करना ही मानव का सर्व प्रथम पवित्र कर्तव्य है। मन्दिर में परमेश्वर की पूजा करते हैं, उससे आवश्यक, शरीर में आत्मा रूपी परमेश्वर का जो अंश है, उसकी पूजा है।
कुछ लोग शरीर की जो बेकदरी करते हैं, उसे देखकर अत्यन्त दुःख होता है। न उचित खान-पान करेंगे, न स्वस्थ स्थानों में रहेंगे, न पर्याप्त विश्राम ही करेंगे, रुपया उनके पास है। रुपया वे जीवन से अधिक मूल्यवान समझते हैं। जीवन के सामने रुपया अस्थिर, अल्प मूल्य का है। संसार का सब रुपया देकर भी जीवन की कुछ भी घड़ियाँ वापिस नहीं ली जा सकतीं।
मुझे अपनी छोटी बहिन की मृत्यु की वह घड़ी याद है। रुपयों की मुट्ठियाँ भर कर हम काम कर रहे थे। दवाइयों में जो कुछ जिसने बताया वही ले गया। इन्जेक्शन, गोलियाँ, परीक्षायें-जो कुछ भी मनुष्य का प्रयत्न हो सकता है, किया गया। तीन-तीन डॉक्टर समीप बैठे रहे। रुपयों से भरा बटुआ गहनों की अलमारी का गुच्छा उसके पास रक्खा रहा बचने की कोई आशा न थी। जीवन की घड़ियाँ निरन्तर कम होती जा रही थीं वह स्पष्ट स्वर में एक दृष्टि रुपये, बटुये, गुच्छे, दूसरी मेरी ओर डालते हुए बोली “भाई साहब मुझे बचाइये।” मैं एक दुर्बल मानव, मनुष्य की अपूर्णता से अपने आपको बँधा हुआ पा रहा था। मैं क्या उत्तर देता। जीवन उड़ गया। रुपया यों ही पड़ा रह गया।
आवश्यकता इस बात की है कि जरा सी टूट-फूट होते ही जीवन की रक्षा की जाय। इस ओर से तनिक भी लापरवाही न की जाय। अधिक दौड़ धूप की आवश्यकता नहीं है। जितनी आय शरीर की स्वास्थ्य स्थिर रखते हुए रह सके वही ठीक है। जीविका जीवन के लिए है। धन जीवन की कमर पर न चढ़ बैठे। जीवन में परिश्रम कीजिए किन्तु परिश्रम के पश्चात् समुचित विश्राम की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए।
शरीर के पश्चात् अपनी मानसिक शक्ति को स्थिर रखने का सतत् प्रयत्न होना चाहिए। बाह्य संघर्षों से आन्तरिक स्थिति में उत्तरोत्तर हलचल तूफान, और विद्रोह नहीं चलना चाहिए। उच्च आध्यात्मिक शान्ति, जिसमें समस्त मानव इच्छाओं का निलय हो, जहाँ इच्छा आवश्यकताओं का संघर्ष न हो, जीवन को आगे बढ़ाने वाला है।
आप एक साधन हैं, साध्य जीवन का आनन्द है। जितने अंशों में आप जीवन का आनन्द ले सकते हैं, उतने ही अंशों में जीवन को सार्थक बनाते हैं। आनन्द जीवन का नवनीत है। यह आपको स्वयं ही प्राप्त करना है। जब तक आप अपने विषय में उच्च धारणाएं बनाकर संसार की कर्म स्थली में प्रविष्ट नहीं होते, तब तक आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता।
अखण्ड ज्योति 1952 जनवरी, पृष्ठ 06
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