राष्ट्र की प्रगति का मूल आधार-चरित्रनिष्ठा
मनुष्य की सर्वोपरि सम्पदा उसकी चरित्रनिष्ठा है। यह एक ऐसा शब्द है, जो मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का उद्बोधन करता है। व्यक्तिगत जीवन में कर्त्तव्य परायण, सत्यनिष्ठा, पारिवारिक जीवन में स्नेह-सद्भाव एवं सामाजिक जीवन में शिष्टता-शालीनता, नागरिकता आदि आदर्शों के प्रति जिस व्यक्ति में अगाध निष्ठा है और जो प्रतिपल इन आदर्शों को अपने जीवन में आत्मसात् रखता है, उसे चरित्रवान् कहा जा सकता है। किसी राष्ट्र या समाज की उन्नति का आधार वहाँ के भौतिक साधन, खनिज सम्पदा या उर्वर भूमि नहीं होते, वरन् किसी देश का उत्कर्ष उसके चरित्रवान नागरिकों पर निर्भर करता है।
चरित्रवान् व्यक्तियों की प्रामाणिकता पर हर कोई विश्वास करता है तथा उन्हें सम्मान देता है। यही नहीं, उनके प्रति श्रद्धा भी लोगों के हृदय में उमड़ती रहती है। यह श्रद्धा ही उनकी मूल्यवान सामाजिक सम्पत्ति होती है। स्वामी विवेकानन्द ने इस संदर्भ में कहा है- ‘संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों द्वारा बनाया गया है, जिनके पास चरित्रबल का उत्कृष्ट भण्डार था। यों कई योद्धा और विजेता हुए हैं, बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं, किन्तु इतिहास ने केवल उन्हीं व्यक्तियों को अपने हृदय में स्थान दिया है, जिनका व्यक्तित्व समाज के लिए, मानव जाति के लिए एक प्रकाश स्तंभ का काम कर सका है।’
चरित्रवान व्यक्ति के लिए अपना स्वार्थ नहीं, दूसरों का, समाज का हित मुख्य रहता है। इसी कारण वे सामूहिक हितों या परमार्थ प्रयोजनों के लिए अपने स्वार्थ का ही नहीं, अपने अस्तित्व का भी परित्याग कर देते हैं।
आदर्शों के प्रति निष्ठा, सामाजिक हितों के लिए उत्सर्ग का साहस व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी बनाता है कि अनायास ही उस व्यक्ति के प्रति लोकश्रद्धा का ऊफान उमड़ने लगता है। जब किसी समाज या राष्ट्र पर संकटों के बादल घिर जाते हैं, तो जनसमुदाय ऐसे चरित्रवान, उत्साही और साहसी व्यक्तियों से ही मार्गदर्शन की अपेक्षा करता है और उसे अपना नेतृत्व सौंपता है।
देशभक्ति या राष्ट्र प्रेम व्यक्ति के चरित्र का एक अनिवार्य अंग है और जिन देशवासियों में अपने राष्ट्र के प्रति जितनी गाढ़ी भक्ति होगी, उसमें सुव्यवस्था, शांति और समुन्नति के आधार उतने ही पुष्ट होते चले जायेंगे। राष्ट्र का अर्थ-अपना समाज, देश परिवार ही तो है। हम सभी उसकी एक-एक इकाई हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि इन दिनों अपने देश-समाज में सर्वत्र स्वार्थपरता, बेईमानी, बदनीयती और भ्रष्टाचार ही संव्याप्त है। चरित्रनिष्ठ आदर्श नेतृत्वों का एक प्रकार से अभाव ही दीखता है। जन सामान्य में भी चारित्रिक मूल्यों के प्रति आस्था कम होती जा रही है और आदर्शों की अवहेलना की जाने लगी है। यह अवहेलना, उपेक्षा ही व्यक्तिगत प्रगति एवं राष्ट्र की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है।
वस्तुतः इतिहास ने उन महापुरुषों का ही गुणगान किया है, जिन्होंने अपने समाज को, राष्ट्र को नये जीवन-मूल्य, चरित्र के नये मापदण्ड दिये और आदर्शों की समयानुकूल परिभाषा अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व के माध्यम से की है। चरित्र-मानवीय सद्गुणों के उस समुच्चय का नाम है, जो व्यक्ति के समग्र जीवन को आच्छादित करते हैं और जीवन तथा व्यवहार के सभी क्षेत्रों में उसे प्रामाणिक सिद्ध करते हैं। चरित्र साधना से व्यक्तिगत जीवन में सरसता तथा सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था आती है। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय प्रगति की संभावना बढ़ती है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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