आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (अंतिम भाग)
दरिद्रता भयानक अभिशाप है। इससे मनुष्य के शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर का पतन हो जाता है। कहने को कोई कितना भी सन्तोषी, त्यागी एवं निस्पृह क्यों न बने किन्तु जब दरिद्रता जन्य अभावों के थपेड़े लगते हैं तब कदाचित् ही कोई ऐसा धीर-गम्भीर निकले जिसका अस्तित्व काँप न उठता हो। यह दरिद्रता की स्थिति का जन्म मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक आलस्य से ही होता है। गरीबी, दीनता, हीनता आदि कुफल आलस्यरूपी विषबेलि पर ही फला करते हैं।
आलसी व्यक्ति परावलम्बी एवं पर भाग भोगी ही होता है। इस धरती पर परिश्रम करके ही अन्न-वस्त्र की व्यवस्था हो सकती है। यदि परमात्मा को मनुष्य की परिश्रमशीलता वाँछनीय न होती तो वह मनुष्य का आहार रोटी वृक्षों पर उगाता। बने बनाए वस्त्रों को घास-फूस की तरह पैदा कर देता। मनुष्य को पेट भरने और शरीर ढकने के लिये भोजन-वस्त्र कड़ी मेहनत करके ही पैदा करना होता है। नियम है कि जब सब खाते-पहनते हैं तो सबको ही मेहनत तथा काम करना चाहिए। इसका कोई अर्थ नहीं कि एक कमाये और दूसरा बैठा-बैठा खाये। कोई काम किये बिना भोजन-वस्त्र का उपयोग करने वाला दूसरे के परिश्रम का चोर कहा गया है। अवश्य ही उसने हराम की तोड़कर संसार के किसी कोने में श्रम करते हुए किसी व्यक्ति का भाग हरण किया है। दूसरे का भाग चुराना नैतिक, सामाजिक तथा आत्मिक रूप से पाप है और अकर्मण्य आलसी इस पाप को निर्लज्ज होकर करते ही रहते हैं।
जो खाली ठाली रहकर निठल्ला बैठा रहता है उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक तथा आध्यात्मिक पतन भी हो जाता है। “खाली आदमी शैतान का साथी” वाली कहावत आलसी पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। जो निठल्ला बैठा रहता है उसे तरह-तराह की खुराफातें सूझती रहती हैं। यह विशेषता परिश्रमशीलता में ही है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क में विकारपूर्ण विचार नहीं आने देती पुरुषार्थी व्यक्ति को इतना समय ही नहीं रहता कि वह काम से फुरसत पाकर बेकार के ऊहापोह में लगा रहेगा और अकर्मण्य आलसी के पास इसके सिवाय कोई काम नहीं रहता, निदान उसे अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियाँ तथा दुर्गुण घेर लेते हैं जिससे उसके चरित्र का अधःपतन हो जाता है।
लोग इस अभिशाप से दुराचारी तथा अपराधी बन जाया करते हैं। निठल्ले और निष्क्रिय बैठे रहने वाले व्यक्तियों का विचार-सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे उन्हें ऐसी-ऐसी अनेक सनकें सूझा करती हैं जो व्यवहार-जगत में पागलपन की संज्ञा पा सकती हैं। शेखचिल्ली की तरह वह न जानें किस प्रकार के मानस-महल बनाया और गिराया करता है। प्रमाद पूर्ण ऊहापोह ने संसार में जाने कितने उन्मादी पैदा कर दिये हैं। प्रमाद तथा आलस्य को उन्माद तथा पागलपन का प्रारम्भिक रूप समझकर उससे दूर ही रहना चाहिए। क्या आर्थिक क्या सामाजिक, क्या आत्मिक अथवा क्या आध्यात्मिक कोई भी उन्नति चाहने वाले को आलस्य के पाप का परित्याग कर श्रम एवं पुरुषार्थ का पुण्य करना चाहिए तभी वे अपनी वाँछित स्थिति पा सकेंगे, अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे अन्य कोई नहीं।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
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