कर्मफल हाथों-हाथ
अहंकार और अत्याचार संसार में आज तक किसी को बुरे कर्मफल से बचा न पाये। रावण का असुरत्व यों मिटा कि उसके सवा दो लाख सदस्यों के परिवार में दीपक जलाने वाला भी कोई न बचा। कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु की कहानियाँ पुरानी पड़ गयीं। हिटलर, सालाजार, चंगेज और सिकन्दर, नैपोलियन जैसे नर-संहारकों को किस प्रकार दुर्दिन देखने पड़े, उनके अन्त कितने भयंकर हुए, यह भी अब अतीत की गाथाओं में जा मिले हैं। नागासाकी पर बम गिराने वाले अमेरिकन वैमानिक फ्रेड ओलीपी और हिरोशिमा के विलेन (खलनायक) मेजर ईथरली का अन्त कितना बुरा हुआ, यह देखकर सुनकर सैंकड़ों लोगों ने अनुभव कर लिया कि संसार संरक्षक के बिना नहीं है। शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने वाला न रहता होता, तो संसार में आज जो भी कुछ चहल-पहल, हंसी खुशी दिखाई दे रही है, वह कभी की नष्ट हो चुकी होती।
इन पंक्तियों में लिखी जा रही कहानी एक ऐसे खलनायक की है जिसने अपने दुष्कर्मों का बुरा अन्त अभी-अभी कुछ दिन पहले ही भोगा है। जलियावाला हत्याकाँड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहस्रबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को।
पंजाब में जन्मे, वहीं के अन्न और जल से पोषण पा कर अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सिख धर्म में दीक्षित होकर भी जनरल डायर ने हजारों आत्माओं को निर्दोष पिसवा दिया था, उसे कौन नहीं जानता। इंग्लैंड उसकी कितनी ही प्रशंसा करता पर वह भगवान के दण्ड-विधान से उसी प्रकार नहीं बच सकता था, जैसे संसार का कोई भी व्यक्ति अपने किये हुए का फल भोगने से वंचित नहीं रहता। भगवान की हजार आँखें, हजार हाथ और कराल दाढ़ से छिपकर बचकर कोई जा नहीं सकता। जो जैसा करेगा, उसे वैसा भरना ही पड़ेगा। यह सनातन ईश्वरीय नीति कभी परिवर्तित न होगी।
हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निन्दा की, उससे उसका मन अशान्त हो उठा। तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किये हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलतः अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई, पर इतने भर को नियति की विधि-व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। आगे जो हुआ, प्रमाण तो वह है, जो यह बताता है कि करने के फल विलक्षण और रहस्यपूर्ण ढंग से मिलते हैं।
सन 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया, उससे उसका आधा शरीर बेकार हो गया। प्रकृति इतने से ही सन्तुष्ट न हुई फिर उसे गठिया हो गया। उसके मित्र उसका साथ छोड़ गये। उसके संरक्षक माइकेल ओडायर की हत्या कर दी गई। उसे तो चलना-फिरना तक दूभर हो गया। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई और लाख कोशिशों के बावजूद वह ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर मर गया। अन्तिम शब्द उसके यह थे-
‘मनुष्य को परमात्मा ने यह जो जीवन दिया है, उसे बहुत सोच-समझ कर बिताने वाले ही व्यक्ति बुद्धिमान होते हैं, पर जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं न लजाते हैं, उनका क्या अन्त हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’
अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७० पृष्ठ २३
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